गाँधीजी का आध्यात्मिक दृष्टिकोण

Dr. Mulla Adam Ali
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Gandhiji's Spiritual Perspective

Gandhiji's spiritual perspective

गाँधीजी का आध्यात्मिक दृष्टिकोण

महात्मा गाँधीजी का नाम वैश्विक परिप्रेक्ष्य में ख्याति प्राप्त हैं। वे भारत की भावनाओं के मूर्तिमंत अवतार व समाज सुधारक का मिलाजुला रूप थे, जिन्होंने सच के सहारे अपना संपूर्ण जीवन मानवहितार्थ न्यौछावर कर दिया था। वे प्रतिभा के धनी ऐसे महापुरुष थे, जो 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।' कहने के सच्चे हकदार थे। महात्मा गाँधी जैसा व्यक्तित्व शताब्दियों के बाद जन्म लेता है। हमारा सौभाग्य है कि उनका जन्म भारत जैसे संस्कारित देश में हुआ। "उन्हें (आने वाली पीढियों को) आश्चर्य होगा कि ऐसा विलक्षण व्यक्ति संदेह रूप में कभी पृथ्वी पर इता था।''¹ आइन्स्टीन के इस कथन से गाँधीजी जैसे मनसा, वाचा व कर्मणा से कृति मानव की महत्ता प्रस्थापित होती है। गाँधीजी की महत्ता उनकी वीरता से लड़ी लड़ाई के कारण ही नहीं, अपितु आत्मा की सर्जकशक्ति के बारे में उसके जीवनोपयोगी गुण के लिए उनके आग्रह को लेकर है। उन्होंने सत्य के प्रयोग कर, सद्गुणों को आत्मसात कर अपने व्यक्तित्व का अंग बना लिया था।

गाँधीजी का जीवन यानी ईश्वरमय जीवन, सत्य की शोध करने वालेका सत्यमय जीवन, साथ ही साथ पुरुषार्थ से उर्ध्वगामी बना हुआ जीवन। गाँधीजी के विषय में अनेक लेख-पुस्तकें लिखी गई हैं। फिर भी उनके जीवन तत्त्व को उचित रूप में, निष्पक्ष भाव से समझने-समझाने की चेष्टा आज भी अधूरी है। उनके हृदय की विशालता, कठोर तपस्या, सत्य-प्रियता के पीछे उनकी साधना थी, वह संसार एवं समाज रचना में अद्वितीय थी। उनके विचारों का निष्कर्ष, 'गाँधीवाद' समाजनिर्माण की दृष्टि से, भारतीयता की दृष्टि से, विश्व की व्यापक समस्याओं की दृष्टि से उत्खनन एवं महत्त्वपूर्ण हैं। गाँधीवाद का मनुष्यता को स्थायी प्रदान है उस ओर हम उदासीन से हैं, अनजाने से हैं। उसकी आंतरखोज न करने से भीतरी सत्य बाहर की आकर्षणशील चकाचौंध में डूब सा जाता है।² सत्य, अहिंसा, नैतिकता, प्रेम, ईश्वरपरायणता, सर्वधर्म समभाव, सेवा, निर्भयता, आदि गुणों से गाँधीजी महात्मा पद के भागी हुए। गाँधीजी को समझना, उनके विचारों को आत्मसात करना आज के मौजूदा हालात में इसलिए जरूरी है, क्योंकि आज चारों ओर से मानव- समुदाय त्रस्त-भयातंकित है।

गाँधीजी ने सत्य के प्रयोग कर मानवजाति को समुचित राह दिखाने की कोशिश की है। अगर ये प्रयोग सचमुच आध्यात्मिक है, तो इनमें गर्व करने की गुंजाइश हीं नहीं। इनसे तो केवल नम्रता की ही वृद्धि होगी। ज्यों- ज्यों मैं विचार करता जाता हूँ, भूतकाल के अपने जीवन पर दृष्टि डालता जाता हूँ, त्यों-त्यों अपनी अल्पता में स्पष्ट ही देख सकता हूँ। मुझे जो करना है, तीस वर्षों से मैं जिसकी आतुर भाव से रट लगाये हुए हूँ, वह तो आत्म- दर्शन है, ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है। मेरे सारे काम इसी दृष्टि से होते हैं। मेरा सब लेखन भी इसी दृष्टि से होता है, और राजनीति के क्षेत्र में पड़ना भी इसी वस्तु के अधीन है।' वे सत्य को ही सर्वोपरि मानते हैं। यह सत्य स्थूल या वाचिक सत्य नहीं है। यह सत्य स्वतंत्र-चिरस्थायी है अर्थात् परमेश्वर ही है। उनकी व्यख्याएँ अनगिणत हैं, क्योंकि उसकी विभूतियाँ भी अनगिणत हैं। उन्होंने सत्य का साक्षात्कार संपूर्ण रूप में किया है तथा सत्य उनके लिए सदैव ब्रह्म है। गाँधीजी ने सत्यरूपी परमेश्वर का ही स्वीकार कर दूसरा सब मिथ्या माना है। सत्य गाँधीजी के तत्त्व-ज्ञान का केन्द्र है। गाँधी विचारधारा का मूलमंत्र सत्य है। गाँधीजी के विचारों का आध्यात्मिक एवं दार्शनिक पक्ष इसके अंतर्गत ही आ जाता है। गाँधीजी का संपूर्ण जीवन सत्य के प्रयोगों से पूर्ण है। गाँधीजी के संबंध में सुप्रसिद्ध विचारक रोम्यां रोला ने लिखा है- "सत्य का आधार लेकर उन्होंने अपनी तमाम इच्छाओं और आकांक्षाओं, राग-द्वेष, बुद्धि और विश्वास, ज्ञान और कर्म को मानव की निरंतर सेवा में लगाकर अपने आपको शून्य में विलीन कर देने की, महान साधना की थी।"⁴ गाँधीजी का जीवन ही सत्य का परिचायक है।

गाँधीजी के विचार में जीवन का सादृश सत्य है, तो साधन अहिंसा है। व्यावहारिक रूप में जरूरी हिंसा का विचार दिया है। गाँधीजी का जीवनदर्शन युगधर्म की समझ पर आधारित है। विधायक रूप में अहिंसा प्रेम का दूसरा नाम है। प्रेम अहिंसा की वह व्यावर्तक रेखा है, जो गाँधीजी के सत्याचरण को अन्य से पृथक करती है। गाँधीजी ने सच की लड़ाई लड़ते हुए गुलामी की जंजीरों से भारत को मुक्त करना अपना परम कर्तव्य समझा। इसमें वे अविश्वासनीय हद तक सफल भी हुए। स्वकर्म को सत्य-अहिंसा के धर्म-पथ पर ले जाकर, रामराज्य की स्थापना करके मानवजाति को सुख-शांति प्रदान करना जिसके माध्यम से नया समाज नयेविश्व की रचना हो सके। इस कार्य में अहिंसा केन्द्र में है। गाँधीजी के जीवन में अहिंसा आत्मीय वस्तु थी। उनका संपूर्ण जीवन, विचारधारा, तत्त्वचिंतन, साधना-प्रयोग अहिंसा पर ही आधारित रहा। पहलीबार अहिंसा का जनसाधारण ने उपयोग किया तथा व्यक्तिगत घेरे से समूह शक्ति का माध्यम बनाया। ब्रिटिश साम्राज्य के सामने अहिंसा की शक्ति का प्रयोग करके सत्य के बाद अहिंसा संसार की सबसे बड़ी ताकत है, ऐसा सिद्ध कर दिखाया। अतः गाँधीजी की विचारधारा में सत्य और अहिंसा उनकी आध्यात्मिकता के मूल तत्त्व हैं।

गाँधीजी ईश्वर के व्यापक रूप को स्वीकार करते थे। प्रेममय स्वरूप के सम्बन्ध में उनका खयाल है कि जो ईश्वर को प्रेम के रूप में मानते हैं, उनके साथ मैं भी ईश्वर को प्रेम मानूँगा, किन्तु मेरे अन्तस्तल में यह बात बैठ गई है कि ईश्वर चाहे जो कुछ भी हो, ईश्वर सत्य है। एक अन्य स्थान पर उन्होंने कहा कि 'सत्य ही ईश्वर है' सत्य प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन प्रेम ही है।'⁵ प्रेम सदैव तेर्जोमय है। इस साधन से परम साध्य को पाना सरल नहीं है, तो कठिन भी नहीं है। यह कहना न होगा कि गाँधी जी ने ईश्वर के प्रेममय, सत्य एवं शाश्वत स्वरूप को स्वीकार किया है।

गाँधीजी की दृष्टि में आध्यात्मिक का मतलब है नैतिक तथा धर्म का अर्थ है नीति। आत्मा की दृष्टि से पाली गयी नीति ही धर्म है। धर्म अर्थात् आत्मबोध, आत्मज्ञान। आत्मा का विकास करने का अर्थ है-चरित्र का निर्माण करना, ईश्वर का ज्ञान पाना, आत्मज्ञान प्राप्त करना। उन्होंने हिन्दुस्तानी सभ्यता और पश्चिमी सभ्यता की तुलना करते हुए लिखा है-हिन्दुस्तान की सभ्यता का - झुकाव नीति को मजबूत करने की ओर है, पश्चिम की सभ्यता का झुकाव अनीति को मजबूत करने की ओर है। - इसलिए मैंने उसे हानिकारक कहा है। पश्चिम की सभ्यता निरीश्वरवादी है, हिन्दुस्तान की सभ्यता ईश्वर में मानने वाली है।'⁶ उन्होंने 'सर्व धर्म समभाव' को अपनाया था। अनेक धर्मग्रंथों का मनन-चिंतन कर उसके सारतत्त्व को ग्रहण किया। 'रामनाम की महिमा' उनके जीवनांत तक अमोघ शक्ति बनी रही।

धर्म के बारे में गाँधीजी के विचार एकदम स्पष्ट हैं। सब धर्म एक ही स्थान पर पहुँचने के अलग-अलग रास्ते हैं। अगर हम एक ही लक्ष्य पर पहुँचने जाते हैं, तो अलग- अलग रास्ते अपनाने में क्या हर्ज हैं ? वास्तव में जितने मनुष्य हैं, उतने ही धर्म हैं। दूसरे धर्मों के प्रति ऐसा पूज्य भाव रखकर ही मैं सब धर्मों की समानता के सिद्धांत का पालन कर सकता हूँ। परंतु हिन्दू-धर्म को शुद्ध करने और शुद्ध रखने के लिए उसके दोष बताना मेरा अधिकार भी है, और कर्तव्य भी। हिन्दू धर्म के अहिन्दू आलोचकों का मेरा अनुभव मुझे अपनी मर्यादाओं का ज्ञान कराता है और इस्लाम या ईसाई धर्म तथा उनके संस्थापकों की आलोचना करने के बारे में सावधानी रखना सिखाता है।'⁷ उनके धर्म का आरंभ और अंत सत्य और अहिंसा से है। गाँधीजी ने धर्म के नाम पर बाह्याचारों की अपेक्षा, इसके तत्त्वज्ञान के साक्षात्कार का समर्थन किया है। उन्होंने कहा था कि धर्म का केवल यही मतलब नहीं है कि मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ ली जाये, या देवदर्शन के लिए मंदिर में चले जायें। धर्म का अर्थ है-अपनी आत्मा का ज्ञान और ईश्वर का ज्ञान। कुछ खास नियमों का पालन किये बिना किसी को आत्मज्ञान नहीं होता। इसमें तीन नियम मुख्य हैं, जो सर्वत्र पालन करने के लिए है। पहला है, सत्य का पालन। दूसरा नियम दूसरों को कष्ट न पहुँचाना। तीसरा नियम है, अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना।⁸ धर्म अपने सहज रूप में सामाजिक एकता का वाहक है। संसार के सभी बड़े-बड़े धर्म हैं। उन्होंने स्वीकारा है कि अपने धर्म के अभ्यास के अलावा दूसरे धर्मों का अभ्यास हमें सभी धर्मों के मूल में निहित एकता का खयाल देगा।

शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें अनेक संभावनाओं के बीज पाये जाते हैं। शिक्षा में मूल्य एवं आध्यात्मिकता का समन्वय मूल्यनिष्ठ समाज की परिकल्पना साकारित कर सकता है। गाँधीजी के मत से शारीरिक या बौद्धिक शिक्षा की तुलना में धार्मिक शिक्षा महत्त्व की है। उन्होंने शिक्षा के दो ध्येय बताये हैं- तत्काल और अंतिम । तत्काल के ध्येय अनेकविध है, क्योंकि वे जीवन के भिन्न-भिन्न बिन्दुओं को स्पर्श करते हैं। गाँधीजी के मतानुसार शिक्षा का अंतिम और अतिशय महत्त्व का ध्येय, आत्मा के साक्षात्कार का, अपूर्ण की पूर्ण के साथ एकरूपता की दिशा में ले जाने वाला ईश्वरीय ज्ञान है। पूर्ण जीवन के लिए तैयारी, परिस्थिति के साथ सामंजस्य स्थापित करना, अपनी प्रकृति को पूर्ण करना, अपने चरित्र का निर्माण, अपने व्यक्तित्व का विकास आदि सब उनके अंतिम ध्येय के अंतर्गत समाविष्ट हो जाते हैं। गाँधीजी बताते हैं कि धार्मिक शिक्षा की मूलभूत नींव धर्म के सर्वस्पर्शी तत्त्वों की शिक्षा तथा हृदय एवं जीवन को शुद्ध करने वाले सत्य और अहिंसा के मूल सद्गुणों की तालीम है। सच तो यह है कि गाँधीजी ने न केवल शिक्षा के बारे में गंभीरता से सोचा है, परन्तु आध्यात्मिकता के साथ उसे जोड़कर मानव- कल्याण हेतु उसकी आवश्यकताओं पर जोर दिया है।

वैश्विक परिप्रेक्ष्य में गाँधीजी के विचारों का आकलन आज के युग की भाँग है। विश्व आज जिस तरीके से अनीति, असत्य, हिंसा, राग-द्वेष, जातीय रंगभेद, सांप्रदायिकता और न जाने कितने ही अनाचारों से विकास की अँधी दौड़ में शामिल हो रहा है, ऐसे में गाँधीजी के अमूल्य विचारों में से कोई एक बिन्दु उसे नई राह दिखा सकता है। 'सत्य के साधक', 'अहिंसा के आराधक', 'प्रेम के पुजारी' आदि विशेषण भी जिनके आगे तुच्छ लगे ऐसे हमारे राष्ट्रपिता न केवल भारत की, अपितु संपूर्ण विश्व की अमूल्य धरोहर हैं। गाँधीजी को संत कहें, राजपुरुष कहें, क्रांतिकारी कहें, समाजसुधारक कहें, दार्शनिक कहें, भक्त कहें या सिर्फ महामानव कहें, हकीकत यह है कि गाँधीजी का अनुकरणीय आध्यात्मिक दृष्टिकोण संप्रति मानवजीवन को पथ- निदर्शन दे रहा है।

संदर्भ संकेत;

1. डॉ. गार्गीशरण मिश्र-हमारे पथ-प्रदर्शक, पृ. 54

2. रामनाथ सुमन-गाँधीवादकी रूपरेखा, पृ. 20

3. मोहनदास करमचंद गाँधी-सत्य के प्रयोग, (प्रस्तावना से), पृ. 6

4. रोम्यां रोला-महात्मा गाँधी, पृ. 9

5. महात्मा गाँधी - यंग इण्डिया, 31 दिसम्बर, 1939

6. महात्मा गाँधी हिन्द स्वराज, पृ. 14

7. महात्मा गाँधी-हरिजन, 13 मार्च 1937

8. डॉ. सोमनाथ शुक्ल-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से उधृत, पृ. 188

- प्रा. नयना पटेल

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