छायावादी कवियों का बालसाहित्य सृजन

Dr. Mulla Adam Ali
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The Chhayavaad era of Hindi literature was not only a golden age for romantic and lyrical poetry but also a period of remarkable contributions to children’s literature. Mahadevi Verma, Suryakant Tripathi ‘Nirala’, Jaishankar Prasad and Sumitranandan Pant brought moral values, imagination, and educational depth into their works for young readers. This article explores their unique vision and legacy in shaping the world of Hindi children’s literature.

Chhayavaad Poets and Children’s Literature

छायावादी कवियों का बालसाहित्य सृजन

छायावादी कवि और बालसाहित्य: महादेवी, निराला, पंत और जयशंकर प्रसाद का योगदान

छायावादी युग ने केवल वयस्क साहित्य ही नहीं, बल्कि बच्चों के साहित्य में भी अमूल्य योगदान दिया। महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत ने अपने सृजन में बाल-मनोविज्ञान, शिक्षा और संस्कारों का गहरा समावेश किया। इस लेख में हम देखेंगे कि कैसे उनकी रचनाएँ न केवल मनोरंजन करती हैं बल्कि बाल-पाठकों के नैतिक, भावनात्मक और बौद्धिक विकास में भी अहम भूमिका निभाती हैं।

छायावादी कवियों का बालसाहित्य सृजन

हिंदी में छायावाद का प्रारंभ एक महत्त्वपूर्ण घटना है। वस्तुतः द्विवेदी युगीन सुधारवादी काव्य की प्रतिक्रियास्वरूप छायावाद का आगमन हुआ। आलोचकों ने इस काल को अपने-अपने ढंग से पारिभाषित किया है। छायावाद की सर्वमान्य परिभाषा स्थूल के प्रति विद्रोह है। छायावादी कवियों ने अपनी रचनाओं में सूक्ष्म से सूक्ष्म भावनाओं को महत्त्व प्रदान किया किया है। प्रसिद्ध समालोचक प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी का कहना है कि- "इन कवियों (छायावाद के कवियों) की मन:स्थिति कई प्रकार के तत्त्वों से बनी थी। एक ओर लंबी पराधीनता की निराशा, दूसरी ओर जवानी का अधीरज, बीच में प्रणय-स्वाधीनता और मानव मुक्ति के सपने। इन सब ने मिलकर छायावादी कवियों में एक खास तरह का नियतिवाद विकसित कर दिया था।" - हिंदी साहित्य और संवेदना का विकासः पृष्ठ 218

     छायावाद के काव्य चतुष्टय- जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और महादेवी वर्मा ने जहाँ भारी- भरकम शब्दावली में बड़ों के लिए विपुल साहित्य का सृजन किया, वहीं बच्चों के लिए मधुर और हितकारी बालसाहित्य को भी अपेक्षित महत्त्व प्रदान किया। इन सभी कवियों ने कमोवेश बालसाहित्य का सृजन किया तथा उसकी रचना प्रक्रिया के प्रति अपनी चिंता भी व्यक्त की। गवर्नमेंट सेंट्रल पेडागॉजिकल इंस्टिट्यूट, इलाहाबाद द्वारा सन् 1962 में आयोजित बालसाहित्य रचनालय का उद्घाटन करते हुए श्रीमती महादेवी वर्मा ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा था-

      "वस्तुतः बालक तो विश्व का सबसे व्यापक बुद्धिवाला, विशाल हृदयवाला नागरिक है। सच्चे अर्थों में हम उसी को विश्व का नागरिक कह सकते हैं। बालक हमसे अनेक दृष्टियों से अच्छा है। विश्व नागरिक वह रहे परंतु उसे प्रौढ़ तो होना है। विशेष देश का नागरिक भी उसे होना है और विशेष समाज का सदस्य भी उसे होना है। इस दृष्टि से हम उसके लिए साहित्य की रचना करते हैं। वैसे वह स्वयं एक काव्य है, स्वयं ही साहित्य है। हम उस साहित्य को एक दिशा देते हैं और सीमाएँ बाँधते हैं, और इसे हम बाल साहित्य कहते हैं।" -बाल साहित्य की मान्यताएँ एवं आदर्श: संपादक - डाॅ. देवेन्द्र दत्त तिवारी : अगस्त 1962 :पृष्ठ 11

     महादेवी वर्मा ने स्वीकार किया है कि बच्चों के लिए साहित्य सृजन आसान नहीं है, उन्हें बहकाया नहीं जा सकता है। बच्चों की जिज्ञासाएँ अनंत हैं, उन्हें संतुष्ट करना हँसी-खेल नहीं है। इसीलिए बालसाहित्य लेखकों से महादेवी वर्मा का कहना था कि :-

     "जो बालसाहित्य की रचना करते हैं, उन्हें अपने सामने यह लक्ष्य रखना चाहिए कि जीवन की दृष्टि से हम बालक को इस प्रकार ले चलें कि कहीं से वह कुंठित न हो। हममें उसमें इतना अंतर है कि हम यथार्थ में जीते हैं, यथार्थ को सही बनाने के लिए, यथार्थ के कष्ट को कुछ सहने योग्य बनाने के लिए हम कल्पना का सहारा लेते हैं, पर बालक कल्पना में ही जीता है। उसके निकट सत्य और असत्य में कोई अंतर नहीं है। यदि आप उसे साहित्य देते हैं साहित्य निश्चित रूप से किस प्रकार का होना चाहिए जो उसका रागात्मक संबंध सृष्टि के साथ, प्रकृति के साथ, पशु-पक्षियों के साथ, नक्षत्रों के साथ, फूलों के साथ कर दे और वह एक बौद्धिक आकाश पा सके, जीवन का आलोक पा सके क्योंकि प्रत्येक काव्य यही करता है। प्रत्येक कवि यही करता है। मेरे विचार में तो बड़े से बड़ा कवि बालक के अतिरिक्त कुछ नहीं है।" - बालसाहित्य की मान्यताएँ एवं आदर्श: संपादक - डाॅ. देवेन्द्र दत्त तिवारी :अगस्त 1962 पृष्ठ :12, 13

     बालसाहित्य में भी उत्कृष्टता की झलक उतनी ही आवश्यक है जितनी अन्य साहित्य में होती है। उसमें भाषा, संवेदना और संप्रेषणीयता का भी होना अत्यंत आवश्यक है। बालसाहित्य को पारिभाषित करते हुए महादेवी वर्मा जी का साफ़-साफ़ कहना है कि- "मैं समझती हूँ कि उत्कृष्ट साहित्य की जो परिभाषा है, बाल साहित्य की परिभाषा उससे भिन्न नहीं होती, क्योंकि मनुष्य की पूरी पीढ़ी बनाने का कार्य वह करती है। जो स्वयं निर्मित है उसमें भावना जगा देना, उसकी चेतना में कुछ ऐसे सत्य को पहुँचा देना आसान होता है, परंतु जो अभी बढ़ने के क्रम में है उसको ऐसे तट देना है जिनसे उसकी धारा रूद्ध न हो, बंधन का वह अनुभव न करे, और तो भी जिस दिशा में हम ले जा रहे हैं उसमें चला जाए। इस तथ्य पर भी हमें विचार करना होगा। हमें भाषा का भी विचार करना होगा और अपनी जो मानसिक पहुँच है, संवेदना है, संप्रेषणीयता है उसका भी ध्यान रखना होगा। यदि इन सबका ध्यान रखकर ध्यान रखकर हम बालसाहित्य की रचना करें तो संभवतः इस युग के बालकों को हम बहुत कुछ दे सकेंगे।" - बालसाहित्य की मान्यताएँ एवं आदर्श: संपादक - डाॅ. देवेन्द्र दत्त तिवारी :अगस्त 1962: पृष्ठ 14

‌     महादेवी वर्मा के मत में बालसाहित्य की भाषा गूढ़ नहीं होनी चाहिए तथा शब्दावली ऐसी होनी चाहिए जो बच्चों को स्वयमेव अर्थ देती चले। इसके अतिरिक्त बालसाहित्य में नई प्रवृत्तियों का भी होना आवश्यक है क्योंकि आज का बालक अणुयुग का बालक है और वह हमसे अधिक जीवन की कठिनाइयों को आरंभ से देख चुका है। आज इक्कीसवीं सदी में जीवनयापन कर रहे बच्चे अपनी उम्र से आगे की कल्पना आसानी से कर लेते हैं। ऐसे बालकों के लिए साहित्य निश्चय ही चुनौती भरा है। स्वयं महादेवी वर्मा के शब्दों में- "बाल साहित्य की रचना यदि इतनी सहज होती तो सभी उसे कर सकते। फिर भी प्रत्येक देश में बालसाहित्य लिखा गया है किंतु उन्हीं व्यक्तियों ने लिखा है जो अंत तक बालक का सा हृदय लिए रहे हमारे। हमारे कवि रवींद्रनाथ ने बहुत कुछ बालकों के लिए लिखा है क्योंकि वे अंत तक वह बालक के से हृदय के रहे। जिज्ञासा वैसी ही रही, कल्पना वैसे ही रही और जिन्हें छोटी वस्तुएँ कहते हैं, तृण कहते हैं, उनमें भी उनकी रसमयता वैसी ही रही। जिस लिखने वाले में निरीक्षण के साथ यह रसमयता रहती है कि वह छोटी से छोटी, क्षूद्र से क्षुद्र वस्तु से भी रस का संचय कर सके वह अच्छा साहित्य देता है।" - बाल की मान्यताएँ एवं आदर्श: संपादक - डाॅ. देवेन्द्र दत्त तिवारी :अगस्त 1962: पृष्ठ 16

      श्रीमती वर्मा का उपर्युक्त कथन जहाँ बालसाहित्य के महत्त्व को प्रतिपादित करता है वहीं उसमें नवीन संभावनाओं की तलाश भी करता है। स्वयं महादेवी वर्मा जी ने बच्चों के लिए अनेक कविताएँ लिखी हैं। उनकी अनेक कविताएँ विभिन्न हिंदी भाषी प्रदेशों के पाठ्यक्रमों में भी पढ़ाई जाती रही हैं। पशु-पक्षी, फल-फूल, तीज-त्योहार तथा जानवरों के रहन-सहन पर लिखी गई उनकी बालोपयोगी कविताएँ लंबे समय तक पाठ्यक्रम में निर्धारित रही हैं। उ.प्र. के शिक्षा विभाग से प्रकाशित बेसिक रीडर भाग-5 में ये निम्नलिखित कविताएँ पढ़कर ही एक पीढ़ी बड़ी हुई है-

फूल

फूल हैं हम सरस कोमल

आँसुओं में खिल रहे हम। 

कंटकों से मिल रहे हम

विश्व में हमने बिखेरा

चाँदनी सा हास निर्मल

फूल हैं हम सरस कोमल। 


मलय समीर

मैं मलय समीर निराला 

सर सर मर मर

नभ जल थल में दे दे फेरी

रवि से कहती है गति मेरी। 

अब मधु दिन है आने वाला

मैं मलय समीर निराला।

       अपना बचपन सभी को प्यारा होता है। बचपन की मधुर स्मृतियाँ जब युवावस्था या प्रौढ़ावस्था में याद आती हैं तो मन बचपन में पुनः लौट जाने को अधीर हो उठता है। बचपन तो बस बचपन है, वह बचपना से भरा होता है। उसमें किसी प्रकार का न तो राग-द्वेष होता है और न ही कोई छल-कपट की भावना होती है। महादेवी वर्मा की 'प्यारा बचपन' कविता जीवन का मोहक रूप प्रस्तुत करती है-

हमारे नवजीवन का प्रात,

निराला वह उषा का हार।

नया वह सोने का साम्राज्य

मधुर वह वीणा की झंकार। 

धरा तब थी क्रीड़ा की कुंज

हास्य-रोदन के सहचर पास।

नेत्र में थे मुक्ता के हार 

खेलता था अधरों में हास। 

मचल जाना माता के अंक

 खेलना रजनीकर के साथ। 

समझ कर क्रीड़ा-कंदूक लाल

बढ़ा देना सविता को हाथ।

     महादेवी वर्मा को पशु-पक्षियों से विशेष प्रेम था। उनके बंगले में भाँति-भाँति के पशु-पक्षी निर्भय विचरण किया करते थे। इन पशु-पक्षियों का विस्तृत वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक 'मेरा परिवार' में किया है। उनकी बच्चों के लिए लिखी 'बया चिड़िया' शीर्षक कविता में बालमनोविज्ञान की सूक्ष्म पकड़ है:-

बया हमारी चिड़िया रानी

तिनके लाकर महल बनाती 

ऊँची डालों पर लटकाती

खेतों से फिर दाना लाती


नदियों से भर लाती पानी। 

बया हमारी चिड़िया रानी। 


तुझको दूर न जाने देंगे 

दानों से आँगन भर देंगे 

और हौज में भर देंगे हम

मीठा- मीठा ठंडा पानी

बया हमारी चिड़िया रानी। 


फिर अंडे सेयेगी तू जब

निकलेंगे नन्हें बच्चे तब

हम आकर बारी-बारी से

कर लेंगे उनकी निगरानी 

बया हमारी चिड़िया रानी 


फिर जब उनके पर निकलेंगे 

उड़ जाएंगे बया बनेंगे। 

तब हम तेरे पास रहेंगे 

तू रोना मत चिड़िया रानी 

बया हमारी चिड़िया रानी।

       महादेवी वर्मा के साथ ही छायावाद के एक और अप्रतिम हस्ताक्षर सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने भी बच्चों के लिए साहित्य का सृजन किया है। राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से आठ खंडों में प्रकाशित निराला रचनावली का पूरा सातवाँ खंड उनके बालसाहित्य सृजन पर केन्द्रित है। निराला रचनावली के संपादक डाॅ. नंदकिशोर नवल इस खंड की भूमिका में लिखते हैं कि- "यह खंड निराला के बालसाहित्य का है। इसमें उनकी ये पुस्तकें संकलित की गई हैं:- भक्त ध्रुव, भक्त प्रह्लाद, भीष्म, महाराणा प्रताप और सीख भरी कहानियाँ। उक्त छह में से आरंभिक तीन पुस्तकें निश्चित रूप से बच्चों के लिए लिखी गई हैं, क्योंकि इनकी भूमिका में निराला ने इस तरह के संकेत दिए हैं।" - निराला रचनावली :सातवाँ खंड: पृष्ठ 9

छायावादी कवि और हिन्दी बालसाहित्य का सृजन

    डाॅ. नंदकिशोर नवल निराला की लेखन शैली के बारे में लिखते हैं कि- "निराला का कहानी कहने का ढंग बहुत ही सजीव और लुभावना है। संवाद अत्यंत सटीक और वर्णन अत्यंत सरस हैं। भाषा में जो निखार है वह देखते ही बनता है। लगता है, वह मूलत: बालसाहित्य के ही लेखक थे।" - निराला रचनावली :सातवाँ खंड: पृष्ठ 14

       हिंदी बालसाहित्य के इतिहास में यह निश्चय ही बहुत बड़ी घटना है कि निराला जैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार ने बच्चों को ध्यान में रखकर उनके लिए रुचिकर और उपयोगी साहित्य का सृजन किया। निराला का बच्चों के लिए लेखन उनकी स्वस्थ सोच को उजागर करता है। उनके बालसाहित्य सृजन को देखते हुए हमें बांग्ला के साहित्यकारों का स्मरण हो आता है। बांग्ला में कोई भी रचनाकार तब तक बड़ा साहित्यकार कहलाने का अधिकारी नहीं है जब तक वह प्रभूत मात्रा में बच्चों के लिए साहित्य का सृजन नहीं कर लेता है। ऊपर इसी आलेख में महादेवी वर्मा ने भी स्वीकार किया है की नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्र बाबू ने भी बच्चों के लिए खूब लिखा है। निराला का संबंध पश्चिम बंगाल से काफी समय तक रहा है। उनके पिता पश्चिम बंगाल में सेवारत थे इसलिए बहुत संभव है कि निराला इस तथ्य से भलीभाँति परिचित रहे हो। उन्होंने 'सीख भरी कहानियाँ' शीर्षक से अपनी बच्चों की कथाओं की पांडुलिपि प्रकाशक को सौंपते हुए कहा था कि-

     "मैं कितना भी बड़ा साहित्यकार क्यों न माना जाऊँ पर मेरी लेखनी तभी सार्थक होगी जब इस देश के बाल- गोपाल मेरी कोई कृति पढ़कर आनंदविभोर होंगे। इन कथाओं को सुनाने का ढंग केवल मेरा है। बाकी सब कुछ हमारे पूर्वजों का है। नन्हें -मुन्ने इन कहानियों में जितना अधिक रस पाएंगे, उतना ही मेरी कहानीगोई की सफलता होगी।" (प्रकाशकीय भूमिका) - निराला रचनावली :भाग 7:पृष्ठ 14

       आज जो तथाकथित साहित्यकार बालसाहित्य लेखन से कतराते हैं, तथा बच्चों के साहित्य के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं, उन्हें निराला के उपर्युक्त कथन से शिक्षा लेनी चाहिए। निराला कोई मामूली नाम नहीं है। निराला नाम है- एक क्रांति का, एक ज्योति का, एक मशाल का, जो पूरे हिंदी साहित्य जगत को अपने प्रकाश से आलोकित किए हुए है। 

      निराला ने सबसे पहले कविता को छंद के बंधन से मुक्त करके नई शैली का प्रारंभ किया था। हिन्दी साहित्य में इस प्रकार की कविता को स्वच्छंद कहा जाता है। निराला ने बच्चों के लिए छिटपुट ही सही लेकिन कविताएँ भी लिखी हैं मगर गद्य साहित्य में उनकी पाँच बालोपयोगी कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं जिन्हें निराला रचनावली में संकलित किया गया है। ये कृतियाँ इस प्रकार हैं-

  1. भक्त ध्रुव
  2. भीष्म
  3. भक्त प्रह्लाद
  4. महाराणा प्रताप
  5. सीखभरी कहानियाँ। 

       निराला ने सन् 1926 में बालक ध्रुव के जीवन को आधार बनाकर 'भक्त ध्रुव' शीर्षक से एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक की रचना की थी। ध्रुव का महान चरित्र बालकों के लिए सर्वथा अनुकरणीय रहा है। इस चरित्र के बारे में विस्तार से हर बालक को जानना चाहिए, इसी उद्देश्य से निराला ने उक्त पुस्तक का सृजन किया।अपनी लगन, निष्ठा और भक्ति से ध्रुव ने जो स्थान बनाया उससे बालकों को निरंतर गतिशील रहने तथा प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने की प्रेरणा मिलती है। ध्रुव की इस कथा को निराला ने बड़ी परिष्कृत किंतु सरल भाषा में प्रस्तुत किया है, इसमें उनका कवि रूप भी उभरकर सामने आया है। 

         इसी वर्ष प्रकाशित 'भीष्म' नामक पुस्तक में निराला ने महाभारत की विस्तृत घटना को संक्षेप में कहने का प्रयास किया है। महाभारत एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ही नहीं, हमारी सभ्यता-संस्कृति, मान-मर्यादा तथा आचार-विचार का विस्तृत लेखा-जोखा है। भीष्म का चरित्र प्रेरक होने के साथ-साथ उद्बोधक भी है। स्वयं निराला के शब्दों में-

      "भीष्म के चरित्र से सब प्रकार की शिक्षाएँ एक साथ मिल जाती हैं। पिता के प्रति पुत्र की कैसी भक्ति होनी चाहिए, माता और विमाता के प्रति उसके क्या कर्त्तव्य हैं, मनुष्यता का आदर्श क्या हो, शास्त्र-अध्ययन, ब्रह्मचर्य और सरल भाव से जीवन के के निर्वाह का फल क्या है, समर-क्षेत्र में क्षत्रिय का क्या आदर्श है, यथार्थ वीरता किसे कहते हैं, इस तरह से मनुष्यों के मस्तिष्क में मनुष्यता से संबंध रखने वाले जितने प्रश्न आ सकते हैं, उन सबका उत्तर भीष्म के जीवन से मिल जाता है।" - निराला रचनावली :भाग7: पृष्ठ 133

       'भक्त ध्रुव' और 'भीष्म' के बाद निराला ने प्रह्लाद को केंद्र में रखकर 'भक्त प्रह्लाद' शीर्षक से अत्यंत सरल भाषा में एक और पुस्तक का प्रणयन किया। इसका प्रकाशन सन् 1930 में हुआ। बकौल निराला- "प्रह्लाद भक्तों के अग्रगण्य हैं। उनकी ईश्वर-निर्भरता भारत प्रसिद्ध है। दैत्यों के वंश में जन्म लेकर भी उन्होंने सद्गुणी वृत्ति का आश्रय लिया था। ईश्वर-प्रेम, भक्ति, शांति, क्षमा, दया, धृति तथा सरलता आदि जितने सद्गुण हैं, प्रहलाद में वे सब थे। उनकी दृढ़ता भी हद दर्जे की थी। कठोर से कठोर परीक्षाएँ आईं, परंतु वे अपने पथ से विचलित नहीं हुए। ऐसे धर्मनिष्ठ, सरल और दृढ़व्रत बालक के चरित्र का प्रचार-- स्खलितमति, निर्वीर्य, निरुत्साह और पथभ्रष्ट कर देने वाली कुशिक्षा से बचाने के लिए देश के बालकों में अवश्य होना चाहिए।" - निराला रचनावली: भाग 7:पृष्ठ 71

        प्रह्लाद का जीवन ऊँची-नीची पगडंडियों पर चलता रहा। वे अनेक झंझावातों को झेलते रहे, परंतु अपने पथ से विचलित नहीं हुए। किशोरवर्ग के बच्चों को ध्यान में रखकर लिखी गई यह कृति छोटे-छोटे 14 परिच्छेदों में विभक्त है, जिसमें एक-एक कर प्रह्लाद की संपूर्ण गाथा मालाबद्ध रुप में पिरोई गई है। इसको पढ़ते हुए इतिहास की जानकारी तो होती ही है, इसमें उपन्यास जैसा आनंद भी मिलता है।

       महाराणा प्रताप का चरित्र पाठकों में ओज का संचार कर देता है। इस ऐतिहासिक आख्यान को निराला ने बालकों के लिए छोटे-छोटे अठारह परिच्छेदों में विभक्त किया है। स्वाभिमान की रोटी खाना और सत्य का अनुसरण करना महाराणा प्रताप के जीवन का ध्येय था। इसके लिए उन्हें जंगल-जंगल भटकना पड़ा लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। महाराणा प्रताप का यह चरित्र बालकों को दृढ़ता, वीरता और स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाता है। निराला ने इसे बड़े ही कौशल से बालपाठकों तक पहुँचाने का प्रयास किया है। पुस्तक के बीच में महाराणा प्रताप के सच्चरित्र को उजागर करने वाली राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा लिखित कविता देखकर निराला ने और उपयोगी बना दिया है। 

       पंचतंत्र, हितोपदेश तथा ईसप की नीति-कथाएँ बालकों को हमेशा से प्रेरणा प्रदान करती रही हैं। निराला ने बच्चों की रुचि को ध्यान में रखते हुए ईसप की कथाओं को आधार बनाकर 'सीखभरी कहानियाँ' शीर्षक से छोटी-छोटी कहानियों का संकलन किया। उनका यह कार्य बाल साहित्य की रचना के प्रति उनकी रूचि का भी संकेत देता है। निराला ने इसका प्रणयन स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व किया था, परंतु इसका प्रकाशन उनकी मृत्यु के बाद सन् 1969 में इलाहाबाद से हुआ। 

    इस पुस्तक में बालोपयोगी छोटी-छोटी 42 कहानियाँ संकलित की गई हैं। इनसे बालकों का भरपूर मनोरंजन तो होता ही है, उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से सीख भी मिलती है। हर कहानी के अंत में निराला ने उसमें मिलने वाली सीख का संकेत जरूर किया है। शायद इसी कारण इस संकलन का नाम ही 'सीख भरी कहानियाँ' रखा गया है। उदाहरण के लिए इस संग्रह की की एक कथा 'मुर्गे और लोमड़ी' प्रस्तुत है - 

एक चालाक लोमड़ी ने एक रोज एक मुर्गे को पेड़ की डाल पर बैठा हुआ देखा। उसने पूछा--"वहाँ क्या कर रहे हो? मुर्गे को जमीन पर चलते- फिरते रहना चाहिए, न कि डाल पर बैठे रहना। पेड़ उसके रहने का असली मुकाम नहीं। जान पड़ता है कि वह सबसे बड़ी खबर तुम्हारे कानों तक नहीं पहुँची? आज वह हर एक की जुबान पर है। वह यह है कि जितने पशु-पक्षी हैं उनमें सुलह हो गई है। एक दूसरे पर वार न करें, इसके लिए मजबूर हो चुका है।"

       मुर्गे ने कहा-" यह जरूर दुनिया की सबसे अच्छी खबर है। "कहते वक्त उसने गरदन बढ़ाकर देखा जैसे दूर की कोई चीज देख रहा हो।

लोमड़ी ने पूछा-" तुम क्या देख रहे हो?"

मुर्गे ने जवाब दिया-"कुछ नहीं। वह कुछ नहीं, सिर्फ भयंकर शिकारी कुत्तों का एक जोड़ा है। मुँह खोले इसी रास्ते से आ रहा है, चाल बड़ी तेज है।"

घबराकर लोमड़ी ने कहा--" ऐसी बात है? अच्छा, क्षमा करना दोस्त, मैं अब तुमसे बिदा चाहती हूँ।"

"आह, तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो?

मुर्गे ने पूछा -"तुम्हें किस बात का कौन- ़सा डर है? तुमने तो अभी-अभी कहा कि पशु-पक्षियों में सुलह हो गई है।"

     लोमड़ी ने कहा -"सच है, लेकिन अगर कुत्तों ने भी यह खबर नहीं सुनी तो वे मेरे बदन में अपने तेज दाँत चुभा देंगे और मुझे यह मालूम भी न होगा कि मैं कहाँ हूँ। "यह कहकर वह चंपत हो गई।

चालाक आदमी बात बना लेते हैं। - निराला रचनावली : भाग 7: पृष्ठ 295

        महादेवी वर्मा और निराला के साथ-साथ सुमित्रानंदन पंत ने भी बच्चों के लिए उद्बोधक, प्रेरक और ज्ञानवर्धक साहित्य लिखा। यह अलग बात है कि छायावाद की भारी-भरकम शब्दावली का प्रभाव उनकी बच्चों के लिए लिखी गई रचनाओं में भी देखा जा सकता है। पंत जी ने बचपन से ही छोटी-छोटी तुकबंदियाँ करना प्रारंभ कर दिया था। उनकी पहली कविता हुक्के का धुँआ उनके बचपन में ही 'अल्मोड़ा अखबार' में प्रकाशित हो चुकी थी। इसके अतिरिक्त बालकवि पंत ने आरंभ में जो भी लिखा उसका प्रकाशन चंद्रकुटीर और ज्योतिकुटीर नामक संस्थाओं से प्रकाशित होने वाली हस्तलिखित पत्रिकाओं में हुआ। 

      पंत जी के बचपन में एक बार स्वामी विवेकानंद अल्मोड़ा आए थे। उनका बालमन स्वामी जी के आगमन की तैयारी से विशेष रूप से प्रभावित हुआ। इस घटना को पंत जी ने वार्तालाप शैली में इस प्रकार व्यक्त किया है-   

माँ अल्मोड़े में आए थे, जब राजर्षि विवेकानंद। 

तब मग में मखमल बिछाया, दीपावलि की विपुल अमंद।

बिना पाँवड़े पथ में क्या वे, जननि नहीं चल सकते हैं?

दीपावलि क्यों की, क्या माँ वे, मंद दृष्टि कुछ रखते हैं? 

कृष्णा, स्वामी जी तो दुर्गम, मग में चलते हैं निर्भय। 

दिव्य दृष्टि है, कितने ही पथ, पार कर चुके कंटकमय। 

वह मखमल तो भक्तिभाव थे, फैले जनता के मन में। 

स्वामी जी तो प्रभावान हैं, वे प्रदीप थे पूजन के। 

     बालसाहित्य पर शोध करने वाले डाॅ. श्रीप्रसाद ने इस कविता के संबंध में लिखा है कि- "पंत जी की कविताओं में वस्तु-तत्व कम और कल्पना विस्तार अधिक है। यह विशेषता उनकी बालकविताओं में भी है। 'अल्मोड़े में विवेकानंद' कविता में एक बालक की सहज जिज्ञासा की अभिव्यक्ति हुई है। अनंत संसार में आया बालक अपने को जिज्ञासाओं से भरा पाता है। उसके लिए सब कुछ अज्ञात रहता है। यही कारण है कि बच्चा सदा प्रश्नों की झड़ी लगाए रहता है। अल्मोड़े में स्वामी विवेकानंद के पहुँचने पर उनका स्वागत किया गया था, मार्ग में मखमल बिछाया गया था और दिए जलाए गए थे।" - उत्तर प्रदेश ( मासिक पत्रिका) :नवंबर 1989:पृष्ठ 26 

      पंत जी सन् 1931 से सन् 1940 तक प्रसिद्ध साहित्य सेवी कुँवर सुरेश सिंह के आग्रह पर उनके पैतृक निवास कालाकांकर में रहे। कालाकांकर की धरती, वहाँ का शांत वातावरण और एकांतवास पंत को खूब रास आया। यहाँ रहते हुए पंत जी ने हिंदी साहित्य को अनेक अमूल्य ग्रंथ भेंट किए। पल्लव, गुंजन और ग्राम्या ऐसी ही कृतियाँ हैं। सन् 1932 में कुँवर सुरेश सिंह ने कालाकांकर से कुमार नामक बच्चों की मासिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। उन्हीं के आग्रह पर पंत जी ने बच्चों के लिए कुछ कविताएँ लिखी, जिनका प्रकाशन कुमार में हुआ। पंत जी की बहुचर्चित कविता कलरव पहली बार कुमार में ही प्रकाशित हुई थी-

कलरव किसको नहीं सुहाता 

कौन नहीं इसको अपनाता

यह शैशव का सरस हाथ है 

सहसा उर से है आ जाता। 

कलरव किसको नहीं सुहाता 

कौन नहीं इसको अपनाता। 

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यह उषा का नव विकास है 

जो रज को है रजत बनाता। 

कलरव किसको नहीं सुहाता 

कौन नहीं इसको अपनाता। 

        'कुमार' के अतिरिक्त पंत जी की अनेक बालोपयोगी कविताएँ 'बानर' पत्रिका में भी समय-समय पर प्रकाशित होती थीं। बानर उस समय प्रयाग से प्रकाशित बच्चों की महत्त्वपूर्ण पत्रिका थी जिसका संपादन सुप्रसिद्ध साहित्यकार पं० रामनरेश त्रिपाठी करते थे। सुमित्रानंदन पंत की कविता 'घंटा' बानर ( जनवरी सन् 1932) में ही प्रकाशित हुई थी । इस महत्त्वपूर्ण कविता की कुछ कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

उस आसमान की चुप्पी पर, घंटा है एक टँगा सुंदर। 

जो घड़ी-घड़ी मन के भीतर, कुछ कहता रहता है बजकर।

परियों के बच्चों से सुंदर, कानों के भीतर उसके स्वर। 

घोंसला बनाते उतर-उतर, फैला कोमल ध्वनियों के पर। 

भरते वे मन में मधुर रोर, जागो रे जागो कामचोर। 

डूबे प्रकाश में दिशा छोर, अब हुआ भोर अब हुआ भोर। 

आई सोने की नई प्रात, कुछ नया काम हो नई बात। 

तुम रहो स्वच्छ, मन स्वच्छ गीत, निद्रा छोड़ो रे गई रात।

     हालाँकि कुछ समीक्षकों ने पंत की उपर्युक्त कविता को बालरचना न मानकर गूढ़ रहस्यवादी कविता माना है। इस संबंध में बालसाहित्य के सुधी समीक्षक डॉ० श्रीप्रसाद का कहना है- "पूर्णतः बालकाव्य कृति 'घंटा' छायावादी धारा की रहस्यवादी कविता मानी गई और जागो रे जागो कामचोर में जीव को मायामुक्त होकर ब्रह्म में लीन होने का संदेश दिया गया। इस भ्रम का का कारण कविता का छायावादी बंध है। पंत जी ने इसे इसे अपनी अन्य कविताओं के साथ ही संकलित किया है। इससे भी किशोरों की कविता गूढ़ रहस्यवादी हो गई। बच्चा दो और दो जोड़कर चार बताएगा, पर यदि किसी विद्वान से दो और दो जोड़ने को कहा जाए, तो वह गूढ़ तात्पर्य ही लगाएगा, वह सहज योग की बात सोचेगा ही नहीं। यह स्थिति अनर्थकारी भी होती है। कवि ने स्वयं भी सरल और कठिन का संयोग किया है। वह घंटे की ध्वनि की कल्पना परियों के बच्चों के परों से करता है और अंत में स्वर्णिम भोर में नींद त्यागने तथा स्वच्छ मन और स्वस्थ शरीर रहने का सरल सा संदेश भी दे देता है।"- उत्तर प्रदेश (मासिक पत्रिका) : नवंबर 1989:पृष्ठ 27

         बानर, और कुमार बालपत्रिकाओं के अतिरिक्त बालसखा में भी पंत जी की कुछ बालोपयोगी कविताएँ प्रकाशित हुई हैं। हालाँकि बच्चों की कविताओं का उनका कोई संकलन स्वतंत्र रूप से प्रकाशित नहीं हुआ है, परंतु अगर वानर, बालसखा, कुमार तथा अन्य बालपत्रिकाओं की पुरानी फाइलों का अध्ययन कर उनकी बालोपयोगी कविताएँ इकट्ठी की जाएँ तो उनका एक सुंदर संकलन आसानी से तैयार किया जा सकता है।

       पंत जी की विशेष प्रसिद्ध प्रकृति के सुकुमार कवि के रूप में रही है। उन्होंने प्रकृति ऐसे चित्र उकेरे हैं जो अपने आप में में मिसाल हैं। प्रकृति के वास्तविक सौंदर्य से पंत इतना प्रभावित थे कि उसके आगे उन्हें अन्य सौंदर्य फीका लगता था। 'ग्रामशोभा' नामक कविता में उन्होंने फलों और सब्जियों का बड़ा मनोहरी चित्रण किया है-

महुवे, कटहल, मुकुलित जामुन, जंगल में झरबेरी फूली।

फूले आड़ू, नींबू, दाड़िम, आलू, गोभी, बैगन, मूली।

पीले-मीठे अमरूदों में, अब लाल-लाल चित्तियाँ पड़ी।

पक गए सुनहरे मधुर बेल, अवली से तरु की डाल जड़ी।

लहलह पालक, महमह धनियाँ, लौकी औ' सेम फली फैली।

मखमली टमाटर हुए लाल, मिर्चों की बड़ी हरी थैली।

बगिया के छोटे पेड़ों पर, सुंदर लगते छोटे छाजन।

सुंदर गेहूँ की बाली पर मोती के दाँतों से हिमकन।

          इसके अतिरिक्त पंत जी की कविता 'यह धरती कितना देती है' भी बच्चों का का भरपूर मनोरंजन करती है। डॉ. श्रीप्रसाद का कहना है कि इस कविता का पाठ पंत जी ने बच्चों के बीच में किया था, तथा इस पर बालकाव्य की मुहर लगाई थी। वे लिखते हैं कि- "इसमें कल्पना भी बच्चों की है। जो बोया जाएगा, वही काटा जाएगा, की व्यंजना बालकल्पना में अभिधा बनती रही है, और बच्चे जमीन में खिलौना और पैसा गाड़कर पैसा पाने की चेष्टा करते रहे हैं। पर रत्नगर्भा धरती में अनुकूल बुवाई ही फल देती है । कविता द्विअर्थी भी है और एकार्थी भी। बच्चे कविता में अपना अर्थ खोज ही लेते हैं। कवि ने बचपन में पैसे बोए पर पैसे नहीं मिले। लेकिन जब आँगन में सेम के बीज बो दिए तो आँगन सेम की फलियों से लदी हरी-भरी बेलों से भर गया।"- उत्तर प्रदेश (मासिक पत्रिका) : नवंबर 1989:पृष्ठ 27

पंत जी की यह पंक्तियाँ कितनी उद्बोधक हैं-

ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटीं कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ। पतली-चौड़ी फलियाँ, उफ, उनकी गिनती क्या?

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आह, इतनी फलियाँ टूटीं, जाड़ों भर खाई सुबह शाम वे घर-घर पकीं पड़ोस पास के जाने-अनजाने सब लोगों में बँटवाई

चींटी कविता में बच्चों के मन में उठने वाली जिज्ञासाओं का समाधान बड़े रोचक ढंग से किया गया है। सावन कविता में वर्षा ऋतु का बड़ा मनोहारी चित्र खींचा गया है। कविता के अंत में पंत जी की अनूठी कल्पना बरबस ही हमारा ध्यान खींच लेती है। यह पंक्तियाँ हैं-

पकड़ वारि की धार झूलता है मेरा मन

आओ रे सब मुझे घेरकर गाओ सावन ।

इंद्रधनुष के झूले में झूलें सब मिल जन

फिर-फिर आए जीवन में सावन मनभावन।

        छायावाद के एक और प्रतिष्ठित कवि जयशंकर प्रसाद ने वैसे तो बच्चों के लिए विशेष रुप से कुछ नहीं लिखा है, परंतु उनकी कुछ कहानियाँ अवश्य बालोपयोगी हैं। उनकी कहानियाँ बच्चों के पाठ्यक्रमों में कई वर्षों से पढ़ाई जा रही हैं। विशेष रुप से विभिन्न राज्यों के पाठ्यक्रमों में कक्षा 6 से लेकर कक्षा 8 के पाठ्यक्रमों में उनकी कुछ कहानियाँ देखी जा सकती हैं । जयशंकर प्रसाद की एक प्रसिद्ध कहानी 'छोटा जादूगर' में बाल मनोविज्ञान की बहुत अच्छी पकड़ है। उनकी एक अन्य कहानी बालक चंद्रगुप्त में ऐतिहासिकता का पुट है। वैसे भी प्रसाद जी ऐतिहासिक कहानियों के जादूगर हैं। ऐतिहासिकता का जितना अच्छा निर्वाह प्रसाद जी अपनी कहानियों में करते हैं, वैसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। बालक चंद्रगुप्त कथा के अंत में कथाकार का यह कथन द्रष्टव्य है- "आगे चलकर यही बालक उसी ब्राह्मण चाणक्य की सहायता से चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य हुआ, जो ईसा के 321 वर्ष पहले, मगध में पाटलिपुत्र के राजसिंहासन पर बैठा और अपने बाहुबल से सिकंदर के यूनानी साम्राज्य के आतंक से भारत को स्वतंत्र किया।"

    इस प्रकार हम देखते हैं कि छायावादी कवियों ने बालसाहित्य को अपनी रचनाओं से सजाया और सँवारा है। कविता, कहानी तथा नाटक सहित अलग-अलग दिशाओं में विपुल बालसाहित्य बिखरा पड़ा है परंतु विडंबना यह है कि इन रचनाकारों के जो समग्र संकलन प्रकाशित किए जाते हैं उनमें इनके बालसाहित्य सृजन की चर्चा तक नहीं की जाती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि यत्र-तत्र बिखरा हुआ छायावादी कवियों का बालसाहित्य संग्रह करके उनका एक संकलन तैयार किया जाए जिससे लोगों का भ्रम तो टूटे कि हिंदी में विशेष रुप से छायावाद के कवियों ने बाल साहित्य का सृजन नहीं किया है।

       महादेवी वर्मा की मृत्यु के बाद उनकी बाल कविताओं के दो संकलन- 'माँ के ठाकुर जी भोले हैं' तथा 'बया हमारी चिड़िया रानी' प्रकाशित हुए थे। सात खण्डों में प्रकाशित सुमित्रानंदन पंत ग्रंथावली की तरह अलग से एक खण्ड उनकी बाल कविताओं का भी प्रकाशित होना चाहिए। राजपाल एण्ड संस दिल्ली से बारह खण्डों में प्रकाशित अमृतलाल नागर रचनावली में उनके बालसाहित्य सृजन की कहीं कोई चर्चा नहीं की गई थी मगर पाठकों की जबर्दस्त माँग पर सन् 2011 में नागर जी के सुपुत्र शरद नागर के संपादन में 'संपूर्ण बाल रचनाएँ : अमृतलाल नागर', लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। यह एक स्वागतयोग्य कदम था।

        पिछले तीन-चार दशकों में बड़ो के लिए लिखने वाले जिन साहित्यकारों ने बालसाहित्य भी लिखा है, उनके समग्र / रचनावली /ग्रंथावली में उनका बालसाहित्य अवश्य संकलित किया गया है। ऐसे ग्रंथों में - - भारतभूषण अग्रवाल रचनावली, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ग्रंथावली, बच्चन रचनावली, निराला रचनावली, रामवृक्ष बेनीपुरी रचना संचयन आदि में उनके बालसाहित्य सृजन का भी प्रतिनिधित्त्व हुआ है।

      अंत में डॉ. श्रीप्रसाद के इस महत्त्वपूर्ण विचार से इस आलेख का समापन करना चाहेंगे कि- बाल साहित्य संपूर्ण बालपीढ़ी का प्रतिनिधित्त्व करता है तथा उसका उपभोक्ता भी बाल-समाज है। जैसे बड़ों के साहित्य का उपभोक्ता बड़ों का समाज है। इसीलिए भारत ही नहीं विश्व के महान साहित्यकारों ने बालसाहित्य रचना में रुचि ली है।

- डॉ. सुरेन्द्र विक्रम

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,
हिन्दी विभाग,
लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज,
लखनऊ (उ.प्र.)-226018

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