उजली हँसी के कथाकार प्रकाश मनु

Dr. Mulla Adam Ali
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      प्रकाश मनु जी की बाल कहानियाँ लंबी होती हैं। औसतन साढ़े तीन-चार हज़ार शब्दों की। आमतौर पर मान्यता है कि बाल कहानियाँ छोटी होनी चाहिए। हालाँकि यह नियम उन संपादकों का बनाया हुआ है, जिन्हें पत्रिका में अधिक विज्ञापन छापने की मजबूरी होती है। फिर भी ज़्यादातर लोग यही मानते हैं कि रचनाएँ छोटी होनी चाहिए। लेकिन प्रकाश मनु जी की अधिकतर कहानियाँ इस नियम का पालन नहीं करतीं। ऐसा क्यों है? मेरे मन में बार-बार यही सवाल उठता रहा है।
   दरअसल प्रकाश मनु जी बाल कहानियाँ नहीं लिखते। वह बच्चों से बतियाना चाहते हैं। दुनिया के सारे कामों को बिसराकर, सारी फिक्रें छोड़कर। अलमस्त होकर, बिना रूके देर तक बतियाना चाहते हैं। और जब वह बच्चों से बातें करना शुरू करते हैं तो फिर उन्हें होश नहीं रहता कि वे कहाँ बैठे, क्या काम रुके पड़े हैं, कितना समय हो रहा है। बस बातें ही बातें, जी भरकर बातें। वे कहानियाँ लिखते नहीं, जीते हैं। पूरी तरह डूबकर। पढ़नेवाला या सुननेवाला उनकी दुनिया का हिस्सा बन जाता है। अपनी कहानियों में बच्चा बनकर वे ख़ुद उपस्थित होते हैं, कहीं कुक्कू बनकर, कहीं कुप्पू बनकर, कहीं भुल्लन चाचा बनकर। बालवाटिका के संपादक डॉ0 भैरूँलाल गर्ग को अपनी एक कहानी के संदर्भ में वे लिखते हैं--‘‘मेले में ठिनठिनलाल कहानी का नायक ठिनठिनलाल थोड़ा बदले हुए रूप में मैं, यानी कुक्कू ही है। ठिनठिनलाल में मेरा बचपन है, जिसमें त्योहारों का आना एक असीम आनंद में भिगो जाता था कि मैं नितांत पागलपन वाली ख़ुशी में किसी और ही दुनिया में पहुँच जाता था। किस दुनिया में---? उसकी एक छोटी-सी झलक इस कहानी में है।’’ (बालवाटिका, नवंबर-2018)
   ‘भुल्लन चाचा की दीवाली’ के भुल्लन चाचा तो सचमुच मनु जी ही हैं। वे लिखते हैं, ‘‘कोई चार महीने पहले ही निक्का और गौरी के प्यारे-दुलारे और बड़े हरफनमौला कि़स्म के भुल्लन चाचा अपने गाँव हुलारीपुर से यहाँ आए थे। दिल्ली की इस आलीशान सरोजिनीबाई कॉलोनी में शुरू में तो कुछ दिन हकबकाए से रहे। कोई महीना-डेढ़ महीना लगा उन्हें इसे ठीक से देखने-भालने, समझने में। ---यों क़ायदे से तो आज तक समझ ही नहीं पाए।’’(बालवाटिका, नवंबर-2018) अपनी स्मृतियों में गाँव सहेजे ये भुल्लन चाचा और कोई नहीं प्रकाश मनु जी ही हैं। इस कहानी के संदर्भ में वे बालवाटिका के संपादक भैरूँलाल गर्ग को लिखते हैं--‘‘सच कहूँ तो गर्ग जी, भुल्लन चाचा कोई किरदार नहीं। ख़ुद मेरा सपना हैं।’’ (बालवाटिका, दिसंबर-2018)
   अपनी एक अन्य कहानी ‘सांताक्लाज का पिटारा’ में सांता का चित्र खींचते हुए लिखते हैं--‘‘वह ख़ुश था, बहुत ख़ुश---कि अपने हज़ारों-हज़ार दोस्त बच्चों की आँखों में ख़ुशी की चमक भरने के लिए वह कुछ तो कर पाया। पर सुबह से शाम तक यहाँ से वहाँ दौड़ते-भागते हुए उसका बरसों पुराना ख़ूबसूरत लाल लबादा और लंबी सफेद दाढ़ी भी कुछ धूल-धूसरित और अस्त-व्यस्त हो गई थी। कभी-कभी माथे पर हल्की शिकन और उदासी भी आ जाती थी। पर ध्यान आता कि कोई कुछ भी कहे, उसे तो बच्चों को ढेर सारी मुस्कान और खिलखिलाहटें बाँटनी हैं।’’ (बालवाटिका, दिसंबर-2018) कौन कहेगा कि बच्चों को ढेर सारी मुस्कान और खिलखिलाहटें बाँटने वाला सांता प्रकाश मनु जी नहीं हैं।
   आज का बच्चा स्मार्ट है, होशियार है, उसे मूर्ख नहीं बनाया जा सकता, वह आधुनिक तकनीक से जुड़ा हुआ है। ज्ञान-विज्ञान में वह हमारे बचपन के ज़माने से कई गुना आगे बढ़ा हुआ है। उसके पास सब कुछ है, सिवाय बचपन को छोड़कर। उसके माथे पर उन्मुक्त हास्य की आभा की जगह चिंता की लकीरों ने ले ली है। वह अपनी मासूम हँसी भूलकर अव्वल आने के लिए कॅरियर के पीछे भाग रहा है। वह तनावग्रस्त है। उसके ऊपर माता-पिता की महत्वाकांक्षाओं का दबाव है। हँसना, मुस्कराना, खिलखिलाना वह जैसे भूल चुका है।
   मनु जी की कहानियाँ बच्चे को उसका बचपन वापस दिलाने की बेचैन कोशिश हैं। हिंदी बाल साहित्य में वे शायद इकलौते ऐसे रचनाकार हैं, जिनकी कहानियों में हँसी के उजले बिंब इतने रंगों में प्रकट हुए हैं। उनकी कहानियों में हँसी चारों ओर खिलखिलाती हुई रंगों के झरने की तरह बह रही है, जिसमें हर कोई सराबोर हो जाता है। हँसी के इतने सारे रूप सिर्फ उन्हीं की कहानियों में मिल सकते हैं--
‘‘अरे हँसी के लड्डू---! ये भी तो भाँग के लड्डू ही हैं, पग्गल।’’ (भुल्लन चाचा के संग होली, बालवाटिका, मार्च-2016)
‘‘और भुल्लन चाचा----? सबको चौंकाकर अब वे हँसी का गुलकंद बने हुए थे।’’ (भुल्लन चाचा के संग होली, बालवाटिका, मार्च-2016)
‘‘उसकी हँसी किसी बमगोले की तरह फूटकर बाहर आ गई।’’ (दीवाली के नन्हे मेहमान, बालवाटिका, नवंबर-2015)
‘‘मगर बाहर निकलकर देखा तो पूरे दाँत फाड़े हा-हा-हा, हो-हो-हो हँसते कद्दूमल जी नज़र आए।’’ (सब्ज़ीपुर के चार मज़ेदार कि़स्से, बालवाटिका, अप्रैल-2017)
‘‘बैगनमल एकदम मगन होकर हँस रहे थे, ‘हा-हा-हा’ फिर एकाएक उन्होंने इतनी ज़ोर का अट्हास किया कि हवा में उनकी मूछें फड़कने लगीं।’’ (सब्ज़ीपुर के चार मज़ेदार कि़स्से, बालवाटिका, अप्रैल-2017)
‘‘चिडि़या भी साथ-साथ हँसी, ‘तिरु-तिरु-तिरु-तिरु-तिरुक्क---।’’ (मंगल ग्रह की लाल चिडि़या, बालवाटिका, जनवरी-2016)
‘सांताक्लाज कर पिटारा’ का सांता जब नन्ही पिंकी के सिरहाने उपहार रखने जाता है तो ‘‘उसने सोती हुई पिंकी के पास चॉकलेट, टॉफियाँ, एक सुंदर-सी लाल फ्रॉक रखी। और हाँ, एक हँसी का पिटारा भी, जिसमें कि़स्म-कि़स्म के जोकर अपने मज़ेदार कि़स्से-कहानियों और चुटकुलों से हर किसी का दिल ख़ुश कर देते थे।’’ (बालवाटिका, दिसंबर-2018)
उनकी हर कहानी में शुरू से अंत तक बच्चों की मासूम खिखिलाहट सुनाई देती है। श्याम सुशील को दिए गए अपने एक साक्षात्कार में वे कहते हैं-‘‘बचपन में माँ बताती थीं, कि अगर मैं कभी कोई मज़ेदार बात सुनता था तो बड़े ज़ोर से ताली बजाकर उछल पड़ता था और फिर एकाएक मेरे होंठों से निकलता था, ‘‘ओल्लै---!’’ वह बच्चा अब भी कहीं मेरे भीतर से गया नहीं है।’’ (बालवाटिका, अप्रैल-2016)
मनु जी अपनी कहानियों में एक ऐसा अचरज भरा संसार रचते हैं जहाँ पेड़-पौधे बातें करते हैं, चिडि़याँ गाने सुनाती हैं, शेर, भालू, हिरन इंसानों की तरह बतियाते नज़र आते हैं। पर मानवेतर प्राणियों का यह संसार पंचतंत्र या अन्य कहानियों से बिल्कुल जुदा है। अगर कभी आपने बचपन में अकेले बैठकर ख़ुद से बतियाया है, अपनी ख़ुद की रची दुनिया में प्रवेश किया है तो आपको यह क़तई अस्वाभाविक नहीं लगेगा। तब गुडि़या अचानक बोलने लगेगी, फूल अपनी पंखुडि़याँ डुलाकर गाने लगेगा, पौधों को मरोड़ने पर गौरैया डाँट पिलाने लगेगी, सुनहरे पंखोंवाली परी अचानक पीछे आ कर आँखें बंद कर लेगी और पूछेगी, ‘बताओ मैं कौन हूँ?’
   आमतौर पर पशु-पक्षियों को पात्र बनाकर लिखी गई ज़्यादातर कहानियाँ एक तरह से रूपक होती हैं। उन पात्रें को अगर मनुष्यों से बदल दिया जाए तो कहानी के रचाव में कोई अंतर नहीं आता। यह उन कहानियों की कमज़ोरी है। मुझे याद आता है कि एक बाल पत्रिका में एक प्रतिष्ठित लेखक ने कहानी भेजी, जिसका मुख्य पात्र एक हाथी था, जो अपने पेटूपन की आदत से मुश्किलों में घिर जाता है। कहानी पत्रिका में छपी ज़रूर, लेकिन संपादक ने जहाँ-जहाँ मोटूमल हाथी लिखा हुआ था, वहाँ-वहाँ सिर्फ मोटूमल कर दिया और कहानी जस की तस छाप दी। कहानी छपने पर लेखक महोदय को आश्चर्य ज़रूर हुआ, पर क्या कोई पाठक इस परिवर्तन को भाँप पाया होगा? इसके बरअक्स अगर मनु जी की कहानियों में पात्र ही क्या सिर्फ उनके नाम भी बदल दिए जाएँ तो कहानी वही नहीं रह जाती। उसका सार, उसका सौंदर्य, उसका प्रभाव सब बदल जाता है।
   मनु जी की एक कहानी है-‘मातुंगा जंगल की अचरज भरी कथा’। अद्भुत कथा है। क्या ख़ूब अचरज लोक रचा है लेखक ने। वे लिखते हैं--‘‘आपने सुना है न मातुंगा जंगल का नाम? ज़रूर सुना होगा। अरे वहीं तो फूलों की सजीली, सपनीली, स्वार्गिक घाटी है, जहाँ ओस से नहाए कोमल फूलों की सुदरता देख लोग मुग्ध हो जाते हैं। ---इतना ही नहीं, फूलों की उस घाटी में जाने पर लगता है कि जैसे ओस से भीगे ये उजले फूल असंख्य छोटे-छोटे प्यारे बच्चों में बदल गए हैं। और आने वाले सैलानियों को हँस-हँसकर ‘नमस्ते’ कह रहे हैं।’’ (बालवाटिका, फरवरी-2017) मातुंगा जंगल का यह अचरज लोक दुनिया से कटा हुआ कोई निराला लोक नहीं है। वह इसी दुनिया में है, ‘जहाँ सारी दुनिया के सैलानी घूमने आया करते हैं। बड़े ही विचित्र आकर्षण, बल्कि सम्मोहन से भरे हुए। पूरा-पूरा महीना वहाँ रहकर जाते हैं।’ घुम्मा-घुम्मी राज्य के राजा हक्कू शाह मातुंगा की अचरज भरी कथा यूनेस्को भेजना चाहते हैं। यह मातुंगा जंगल हमारा अपना गाँव, अपना शहर हो सकता है, अपना हिंदोस्तान भी हो सकता है। शायद इस बहाने यह लेखक की उजली उम्मीद बोल रही है कि ऐसी दुनिया इस पृथ्वी पर हो सकती है, अगर हम उसे रचना चाहें। ‘मातुंगा जंगल की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि यहाँ एक कि़स्म का लोकतंत्र है।’ यहाँ ‘सब मिलकर बैठते हैं और अपने सुख-दुख एक-दूसरे को बताते हैं।’ हक्कू शाह जब अपनी सभाएँ करता है तो उसमें जंगल का राजा बब्बू शेर भी आता है और अपने विचार रखता है और उसकी बातें ध्यान से सुनी जाती हैं। मनुष्य और मनुष्येतर प्राणियों का यह संसार जितना अचरज भरा और निराला है, उतना ही स्वाभाविक भी। पढ़ते-पढ़ते सचमुच ऐसा लगता है कि पशु-पक्षी हमारी बात समझ सकते हैं, हम भी उनकी बोली जान सकते हैं, अगर समझना चाहें तो।
   बालवाटिका के जून-2018 में प्रकाशित ‘चिंकू-मिंकू और दो दोस्त गधे’ कहानी में मुखिया राम भद्दर जब चिंकू मिंकू से पूछता है--‘‘क्यों जी चिंकू-मिंकू---? तुम जो भी कहो, वही तुम्हारे ये जादूगर गधे पल भर में कर देवे हैं। तो क्यों जी, क्या ये तुम्हारी बोली-बानी भी समझते हैं, या फिर कोई और ही चक्कर है---?’’ इस पर चिंकू-मिंकू बड़ा ही ख़ूबसूरत जवाब देते हैं--‘‘अब बोली-बानी समझते हैं कि नहीं, यह तो क्या कहें, मुखिया जी? पर ये हमारे दिल की भाषा ज़रूर समझते हैं। इसीलिए हमें कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।’’ और जब बदरू और बाँका गधे अपना खेल रचाकर मुखिया जी के आगे सिर झुका कर खड़े होते तो उन्हें भी समझ में आ जाता है कि गधे यही कह रहे हैं कि ‘हमने तो अपनी कला दिखा दी, मुखिया जी। अब आपको कैसी लगी, यह तो आप ही बताएँ।’’
   यह कहानी एक और मायने में महत्वपूर्ण है। इस कहानी के गधे अपने प्रति समाज की बद्धमूल धारणा ‘मूर्ख और बेचारे’ को अपनी समझदारी, संवेदनशीलता, साहस और श्रम से तोड़ते दिखते हैं। कोयल अच्छी है, कौआ बुरा है, लोमड़ी सयानी होती है, भेडि़या धूर्त होता है, शेर जंगल का राजा होता है जैसी धारणाओं को कम से कम बच्चों के मन से हटाने की ज़रूरत है। हर पशु-पक्षी का अपना महत्व है। हम अपने बने-बनाए खाँचों के आधार पर उनका मूल्यांकन नहीं कर सकते। अपनी इस कहानी के संदर्भ में मनु जी स्वयं लिखते हैं--‘‘कहानी लिखते समय मन में एक बात थी कि गधों को नायक बनाया जाए, ताकि वे ‘बेचारे गधे’ की चौहद्दी से बाहर आएँ। मेरा ख़्याल है कि दोनों उत्साही गधों बदरू और बाँका ने अपना दम-ख़म साबित किया है।’’ (बालवाटिका, जुलाई-2018)
   मनु जी की कहानियों में सिर्फ बचपन की बेफिक्री, मीठी शरारतें, हँसी-चुहल, मस्ती ही नहीं है, वे अपनी कहानियों में एक ऐसी दुनिया रचते हैं, जहाँ बच्चों को उनकी पूरी गरिमा मिली हुई है। वे बच्चे नहीं हैं। वे एक व्यक्ति के रूप में सम्मानित हैं। उनके अपने अधिकार हैं। उनके सामने आशाओं भरी दुनिया का प्रकाश-द्वार खुला हुआ है। वे उनकी उजली हँसी में नई सुबह का सूरज देखते हैं। उनकी रचनाएँ बच्चे और बचपन को पूरी गंभीरता से स्थापित करती हैं।
   अगर बड़े ग़लत हैं तो बच्चे उन्हें भी टोक सकते हैं। ‘सब्ज़ीपुर के चार मज़ेदार कि़स्से (बालवाटिका, अप्रैल-2017) में सब्ज़ीपुर की नन्ही प्याजो पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद में भी अव्वल आती है। लेकिन भिंडी चाची हैं कि उन्हें किसी की तारीफ अच्छी नहीं लगती। ख़ासतौर से तब, जब कोई उनके बेटे भिन्नू से आगे निकल जाए। जब प्याजो क्लास में फर्स्ट आती है तो कहती हैं ‘खेल-कूद का भी ध्यान रखना चाहिए। आजकल ख़ाली पढ़ाई से कुछ नहीं होता’ और जब डिबेट में पहला नंबर लाती है तो ‘सो तो ठीक है, पर देख! अब तू पढ़ाई कर सिर्फ खेलकूद से कुछ नहीं होता।’ कहकर निरुत्साहित करने में लगी रहती हैं। प्याजो उन्हें ऐसा प्यार भरा सबक़ सिखाती है कि वह अपनी आदत हमेशा के लिए छोड़ देती हैं।
   बालवाटिका के नवंबर-2015 में प्रकाशित कहानी ‘दीवाली के नन्हे मेहमान’ का कुप्पू बड़ों से कहीं ज़्यादा समझदार है। कुप्पू ने दीवाली पर अपने दोस्तों को बुलाया है। ऐसे दोस्त जो उसके घर पहली बार आ रहे हैं। घरवाले उनसे मिले भी नहीं हैं। सब हैरत में तो हैं, पर उन्हें कुप्पू की समझदारी पर विश्वास है। उन्हें मानना पड़ता है कि ‘कुप्पू के दोस्तों का दायरा बढ़ रहा है। यही तो बच्चे के बड़े होने की निशानी है।’ और जब कुप्पू के दोस्त आते हैं तो घरवालों को उसकी समझदारी का क़ायल हो जाना पड़ता है। ‘‘कोई दस-बारह बच्चे हैं---पर वे ऐसे बच्चे तो नहीं जो इस कॉलोनी के लगते हों। बड़े ही साधारण से कपड़े पहने, जिनके रंग भी निकल गए थे। किसी-किसी के कपड़े तो बिल्कुल बेढंगे लग रहे थे। ढीलमढाल। जैसे अपने न हों, किसी और के माँग लिए हों। पैरों में सादा-सी हवाई चप्पलें। बच्चे थोड़े सकुचाए हुए से लग रहे थे, जैसे इस ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठकर उन्हें शर्म आ रही हो। कुछ तो नीचे देख रहे थे। अपने पैरों की तरफ।’’ कुप्पू से उन बच्चों की दोस्ती यों हुई है कि ख़ाली समय में वह उन बच्चों को उनकी जे-जे- कॉलोनी यानी झुग्गी-झोपड़ी कॉलोनी में पढ़ाने जाता है। जब उन बच्चों की प्रतिभाओं का पता चलता है तो मम्मी भी उन पर न्योछावर हो जाती हैं। भैया मेहनत से बनाया हवाई जहाज़वाला कंदील उन्हें उपहार में दे देते हैं। उन्हें लगता है, ‘ये लोग भी थोड़ा पढ़-लिख लें तो आगे कोई न कोई राह निकलेगी।’’ ज़ाहिर है, कुप्पू यह बात पहले ही सोच चुका था। इसलिए मम्मी को कहना पड़ता है, ‘‘छोटा-सा है कुप्पू, पर कितना समझदार---।’’
   मनु जी की एक छोटी-सी कहानी है ‘पिंकी का जन्मदिन’ (बालिकाओं की श्रेष्ठ कहानियाँ: सं- नागेश पांडेय ‘संजय में संकलित)। पर यह कहानी इस मायने में बड़ी है कि यह एक नन्ही बालिका के आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता की कहानी है। पिंकी के माता-पिता दोनों नौकरी करते हैं। वह शाम सात बजे घर लौटकर ही पिंकी का जन्मदिन मना सकते हैं। लेकिन पिंकी ही नहीं उसके दोस्त भी समझदार हैं। उन्हें जन्मदिन की ख़ुशियाँ मनानी हैं। और ख़ुशियों के लिए बड़ी-बड़ी पार्टियाँ, महँगे आयोजन, क़ीमती उपहार ज़रूरी नहीं हैं। ख़ुशियाँ आपस में दिल खोलकर बेहिचक मिलने-जुलने से आती हैं। बस सब आ धमकते हैं पिंकी के घर। ‘‘इतने में सीढि़यों पर ज़ोर-ज़ोर से धप्प-धप्प की आवाज़ सुनाई पड़ी और फिर ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा पीटने की आवाज़ें। पिंकी दौड़कर गई। दरवाज़ा खोला तो उसके मुँह से ख़ुशी के मारे चीख़ निकल गई। ---एक-एक करके उसकी सारी सहेलियाँ और दोस्त धप्प-धप्प करते घर के अंदर दाखि़ल हो रहे थे।’’ फिर सबने मिलकर ख़ूब धमाल किया। गाने गाए, डांस किया। रसोई में जाकर पकौड़े, पराठे, चाट बनाई। शाम को जब मम्मी-पापा लौटकर आते हैं तो वे पिंकी और उसके दोस्तों के प्रेम-स्नेह के क़ायल हो जाते हैं।
प्रकाश मनु जी की एक महत्वपूर्ण कहानी है ‘सांताक्लाज का पिटारा’ (बालवाटिका, दिसंबर-2018)। इस कहानी का सांता मिथकीय सांता से भिन्न है। वह सिर्फ उपहार ही नहीं बाँटता, बच्चों में उनके अस्तित्व का बोध भी भरता है। उनके अंदर कुछ कर गुज़रने का जोश भी पैदा करता है। क्रिसमस आने को है और सांता को बहुत तैयारी करनी है। उसे हैरी को सुंदर-सी डॉल के साथ एक गरम शर्ट देनी है। जॉन की फीस भरने का इंतज़ाम करना है। नील के लिए नए कपड़े पहुँचाने हैं। पिंकी, जो अपने ही घर में अपनों के हाथों पिटती रहती है, उसके लिए ख़ुशियों का पिटारा लाना है। बीनू, सत्ते और रमज़ानी को उदासी की दुनिया से मुक्ति दिलानी है। सांता के लिए सब बच्चे एक हैं। वह धर्म-मज़हब की तफरीक़ नहीं जानता। उसे तो सिर्फ बच्चों तक पहुँचना है। उन बच्चों तक, जो आस बांधे उसका इंतज़ार कर रहे हैं। बस उसका एक ही उसूल है कि जिसकी ज़रूरत ज़्यादा हो, उसे पहले। दुनिया भर के बच्चों को ख़ुशियाँ बाँटने में वह परेशान होता है, थकता है, उसका लाल लबादा धूल-धूसरित हो जाता है, पर वह थककर बैठता नहीं। ‘‘सांता---सांता---सांता---! वह जिधर भी जाता, हवाओं में गूँजती बस यही पुकार सुनाई देती। नन्हे-नन्हे होंठों की भेली-सी पुकार। भला उसे कौन अनसुना कर सकता है?’’ सांता को ‘दुनिया के हज़ारों-हज़ार बच्चों से दोस्ती’ में ही सबसे बड़ा सुख मिलता है।
   इस कहानी में मनु जी बच्चों की आर्थिक-सामाजिक-पारिवारिक समस्याओं की ओर भी संकेत करते हैं। पिंकी की मम्मी उसे बात-बात पर डाँटती हैं, जबकि उसके भाई चिंटू की हर बात मानती हैं। जब-तब पिटाई भी लगती रहती है। मनु जी लिखते हैं--‘‘हे भगवान, यह कैसी दुनिया हम बना रहे हैं? आखि़र हर छोटे-बड़े इंसान को इज़्ज़त से जीने का हक़ है या नहीं? और बच्चे--! उन्हें भला कोई कैसे मार सकता है?’’ रमज़ानी के माता-पिता आपस में लड़ते रहते हैं। उनके लड़ते रहने से रमज़ानी के कोमल मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। वह परेशान है। हमेशा तनाव में रहता है। वह कहता है--‘‘मैं कितना दुखी हूँ, तुझे क्या बताऊँ, राजू। मेरे मम्मी-पापा तो हर वक़्त लड़ते-झगड़ते रहते हैं। इसीलिए तो मम्मी ने आज लंच भी नहीं दिया। जी करता है, कभी घर से भाग जाऊँ।’’ बीनू और सत्ते बाल श्रमिक हैं। उनका बचपन डाँट-फटकार और जि़म्मेदारियों में बीत रहा है। उन्हें तो यह भी नहीं लगता कि सांता उनकी उदासी भरी अंधेरी कोठरी ढूँढ पाएगा--‘‘भला मुझ जैसे ग़रीब बच्चे से मिलने की उसे कहाँ फुरसत? ---मेरे तो मम्मी-पापा दोनों ही नहीं हैं, दुनिया में कोई नहीं। एक पुरानी-सी कोठरी है बस, रहने के लिए---वह भी ऐसी जगह कि सांता पहुँच ही नहीं सकता।’’
   पर सांता पहुँचता है। उस तक ही नहीं दुनिया के हर ग़रीब, परेशान और ज़रूरतमंद बच्चे तक। वह सबकी जि़ंदगी में ख़ुशियाँ भर देता है। लेकिन यह लेखक का कोई हवाई समाधान नहीं है। वह सांता के माध्यम से हर बच्चे में यह विश्वास भर देना चाहता है कि उन्हें किसी सांता की ज़रूरत नहीं, वे ख़ुद सांता हैं। नन्हे-मुन्ने सांता, जो दुनिया को और ज़्यादा सुंदर बना सकते हैं। वे एक नया सूरज उगा सकते हैं, जिसकी रोशनी हर चेहरों पर ख़ुशियाँ जगाएगी। कहानी के अंत में जब सांता सोचता है, ‘‘सांता को लगा कि दूर-दूर तक उसे नन्हे-मुन्ने सांता नज़र आ रहे हैं, जो इस दुनिया को सुंदर बनाने निकल पड़े हैं।’’ तो यह सांता की नहीं बल्कि ख़ुद लेखक की उम्मीद बोल रही है कि बच्चों पर विश्वास करो, आने वाले कल पर विश्वास करो, दुनिया ज़रूर बदलेगी।
   मनु जी को बच्चों पर पूरा भरोसा है। उन्हें विश्वास है कि नई दुनिया का द्वार नन्हें हाथों से ही खुलेगा। इसी स्वर में स्वर मिलाते हुए प्रेमरंजन अनिमेष की एक कविता का उदाहरण देना अनुचित नहीं होगा--
दस्तक दो
तो सबसे छोटे को
दो आवाज़
भले ही वह शिशु हो
चलना नहीं जानता हो अभी
जो सबसे छोटा है उसी से
सबसे अधिक उम्मीद है
दरवाज़ों के
खुलने की---

डॉ0 मोहम्मद अरशद ख़ान
एसोशिएट प्रोफेसर
हिंदी-विभाग, जी0एफ0 (पी0जी0) कालेज
शाहजहाँपुर-242001(उ0प्र0)
hamdarshad@gmail.com
Mob. 09807006288
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