Aacharya Ramchandra Shukla Ki Itihas Drishti: आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की इतिहास दृष्टि

Dr. Mulla Adam Ali
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Aacharya Ramchandra Shukla Ki Itihas Drishti : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की इतिहास दृष्टि

रामचन्द्र शुक्ल ने समकालीन पाश्चात्य और भारतीय साहित्य में विकसित रचना, आलोचना और इतिहास लेखन का विवेकपूर्ण मूल्याँकन करते हिन्दी आलोचना और इतिहास लेखन की सुदृढ़ नींव ही नहीं रखी बल्कि भावी विकास का रास्ता भी तैयार किया।

आचार्य शुक्ल की आलोचना और इतिहास दृष्टि के निर्माण में भारतीय पुनर्जागरण की चेतना सक्रिय दिखाई देती है। उनकी इतिहास दृष्टि के निर्माण में राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन की चेतना भी मौजूद थी। इस चेतना के कारण ही वे साहित्य और समाज के विकास के बीच सम्बन्ध की खोज करते हैं और समाज, भाषा और साहित्य के इतिहास में जनता की महत्वपूर्ण भूमिका की पहचान करते हैं।

भक्ति आन्दोलन की जनोन्मुखी कविता के मूल्याँकन ने उनके इतिहास और आलोचक दृष्टि को विकसित किया। एक तरफ से यह उनका केन्द्रीय विषय था।

Aacharya Ramchandra Shukla Ki Itihas Drishti

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की जनवादी एवं यथार्थवादी रचनाशीलता से तथा बालकृष्ण भट्ट के साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास हैं, की अवधारणा से वे गहरे रूपों में प्रभावित थे।

साहित्य का इतिहास भाषा के इतिहास से जुड़ा होता है और भाषा का इतिहास समाज के इतिहास से।

आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास ही नहीं लिखा बल्कि, हिन्दी भाषा के इतिहास पर भी स्वतन्त्र एवं महत्वपूर्ण चिंतन किया है। उन्होंने हिन्दी भाषा के स्वरूप पर विचार करते हुये ही हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा था।

हिन्दी साहित्य का इतिहास, देशी भाषा के साहित्य का इतिहास है। आचार्य शुक्ल, जिसे 'देशभाषा' काव्य कहते हैं, उसी से हिन्दी साहित्य का आरम्भ होता है। लोकभाषा की कविता के आरम्भ का श्रेय खुसरों और विद्यापति को है। उनके अनुसार हिन्दी का विकास व्यापार के विकास और एक क्षेत्रों के लोगों का दूसरे क्षेत्र में आने जाने से हुआ।

आचार्य शुक्ल हिन्दी साहित्य और हिन्दी भाषा के जातीय स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-" 800 वर्ष से जातीय जीवन में जितने उलट फेर होते हैं उन सबका आभास हिन्दी साहित्य में विद्यमान है। हिन्दी आरम्भ से उत्तरी भारत के एक बड़े भूखण्ड के लोगों की लिखने बोलने की भाषा रही है। उसी में जाति का पूर्व अनुभव संचित है और अब भी उसी तक जनसाधारण की पहुंच है।"

आचार्य शुक्ल यह भी मानते हैं कि जनता की चितवृत्ति में परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन से प्रेरित और प्रभावित होता है, इसीलिए साहित्य का इतिहास बुनियादी तौर पर साहित्य के विकास और सामाजिक विकास के आपसी सम्बन्ध की खोज हो जाता है।

भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन दुनिया भर की शोषित जनता के मुक्ति आन्दोलन से जुडा हुआ था। शुक्ल जी का साहित्य चिंतन सामंतवाद और साम्राज्यवाद विरोधी हिन्दुओं पर टिका हुआ है। आचार्य शुक्ल हिन्दी साहित्य के विकास के लिए वादों की बहुलता को हानिकर समझते थे, इसलिए वे हर नयेवाद को संदेह की नजर से देखते थे।

वे लोक मंगल की कसौटी पर कसकर ही रचनाओं एवं रचनाकारों का मूल्यांकन करते हैं। वे रचनाओं की महत्ता और सार्थकता का निर्वाय उसकी सामाजिक सार्थकता के आधार पर ही करते हैं।

आचार्य शुक्ल अपने इतिहास और आलोचना, दोनों में सामंतीय संस्कृति, दरबारी साहित्य एवं पूंजीवादी कला मूल्यों और सिद्धान्तों का विरोध करते हैं। वे हर प्रकार के रूढ़िवाद, रीतिवाद, रहस्यवाद, कलावाद, व्यक्तिवाद का खंडन करते हैं और साहित्य में जनवादी मूल्यों तथा प्रवृत्तियों का समर्थन करते हैं। इसलिए वे हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचकों के बीच स्वीकृत एवं समाहत हैं।

आचार्य शुक्ल की इतिहास दृष्टि की एक बड़ी विशेषतः यह है कि उन्होंने हिन्दी साहित्य के विकास में लोक संस्कृति और लोक साहित्य के योगदान का मूल्यांकन किया और इस जातीय रूप को उजागर किया।

आचार्य शुक्ल ने ठीक ही लिखा है भारतीय हृदय का सामान्य स्वरूप पहचानने के लिए पुराने प्रचलित ग्रामगीतों की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, केवल पंडितों द्वारा प्रवर्तित काव्य परम्परा का अनुशीलन ही अलग ही नहीं है।

लोक साहित्य और लोक संस्कृति के प्रभाव से शिष्ट साहित्य बदलने लगता है। आचार्य शुक्ल का मानना है कि "जब पंडितों की काव्यभाषा स्थिर होकर उत्तरोत्तर आगे बढ़ती हुई लोकभाषा से दूर पड़ जाती हैं और जनता के हृदय पर प्रभाव डालने की उसकी शक्ति क्षीण होने लगती है, तब शिष्ट समुदाय लोकभाषा का सहारा लेकर अपनी काव्य परम्परा में नया जीवन डालता है।"

आचार्य शुक्ल के सामने लगभग एक हजार वर्ष के हिन्दी साहित्य के इतिहास को विभिन्न परम्पराओं के उदय और अस्त, परिवर्तन और प्रगति, विकास और ह्रास, निरंतरता और अंतराल तथा संघर्ष और सामंजस्य का मूल्यांकन करने और अपने समय की रचनाशीलता के विकास के सन्दर्भ में प्रासंगिक परम्पराओं को रेखांकित करने का महत्वपूर्ण दायित्व था। इस दायित्व का मूल्यांकन आचार्य शुक्ल ने वस्तुवादी समाजोन्मुखी इतिहास दृष्टि से किया।

आचार्य शुक्ल ने संस्कृत साहित्य की उदात्त परम्परा का महत्व स्वीकार किया है, जिसमें समाज एवं जीवन की अभिव्यक्ति मिलती है। इस उदात्त परम्परा के प्रतिनिधि रचनाकार वाल्मीकि, व्यास, कालिदास और भवभूति हैं। हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के काव्य का इसी उदात्त परम्परा से सम्बन्ध है। शुक्ल जी भारतीय साहित्य की हर परम्पराओं को केवल भारतीयता के नाम पर स्वीकार करने को तैयार न थे। उन्होंने परवर्ती संस्कृत साहित्य की चमत्कारवादी परम्परा की आलोचना की।

भारतीय नवजागरण केवल साम्राज्यवाद विरोधी ही नहीं था, वह सामन्तवाद विरोधी भी था। आचार्य शुक्ल भारतीय नवजागरण के सामंतवाद विरोधी पक्ष के सच्चे प्रतिनिधि थे।

आचार्य शुक्ल ने संस्कृति एवं साहित्य के क्षेत्र में दिभागी गुलामी पैदा करनेवाली पश्चिमी परम्पराओं और प्रवृत्तियों का विरोध किया। यह एक प्रकार से साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक प्रभुत्व के विरुद्ध अभियान था।

भारतीय नवजागरण के प्रतिनिधि और हिन्दी नव जागरण के अग्रणी साहित्य चिंतन के रूप में उनका मुख्य दृष्टि- कोण सामन्तवाद विरोधी, साम्राज्यवाद विरोधी ही नहीं, राष्ट्रीय क्रांतिकारी भी है।

अरविन्द कुमार उपाध्याय,
 मधईकापुरा,
जंघई बाजार, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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