राजभाषा हिंदी का स्वरूप एवं संकल्पना

Dr. Mulla Adam Ali
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Nature and Concept of Official Language Hindi

Nature and Concept of Official Language Hindi

राजभाषा हिंदी का स्वरूप एवं संकल्पना

हमारी राजभाषा 'कार्यालयी हिन्दी' भाषा का वह रूप है, जिसका प्रयोग कार्यालय के किसी कार्य- विशेष के संदर्भ में होता है। चूंकि भाषा विचार सम्प्रेषण का माध्यम है, अतः विचार सम्प्रेषण का संबंध किसी- न - किसी कार्य-विशेष से अवश्य होता है। फिर भी भाषा के प्रयोग के आधार पर दो रूप माने जा सकते हैं-एक वह रूप, जिसका प्रयोग सामान्य जनजीवन में दैनिक कार्यों के संदर्भ में होता है और जिसका अभ्यास या ज्ञान कोई व्यक्ति सामान्य जीवन के परिवेश से हीं प्राप्त कर लेता है। भाषा का दूसरा वह रूप है, जिसका प्रयोग सामान्य जीवन के संदर्भों से भिन्न किन्हीं विशिष्ट कार्यों के संदर्भ में होता है और जिसका अभ्यास या ज्ञान विशेष प्रयत्न से किया जा सकता है। भाषा के इस दूसरे रूप का सीधा सम्बन्ध कार्यालयी भाषा से ही है।

कार्यालयी हिन्दी के विषय में भी उपर्युक्त रीति से विवेचन किया जा सकता है। भाषा प्रयोग में होती है, किन्तु समाज के संदर्भ में हमेशा एक समान नहीं होते। कार्यालय का समाज एक है तो किसी वैज्ञानिक प्रयोगशाला का समाज दूसरा। जैसे हर व्यक्ति की अपनी भाषा होती है, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक विशिष्ट समाज की भी अपनी भाषा होती है और उस समाज की अपनी भाषा का अपना व्यक्तित्व भी अलग होता है। अतः इस स्थल पर कार्यालयों के संदर्भ में कार्यालयी हिन्दी स्वरूप को विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है।

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राजभाषा हिन्दी : अर्थ एवं कल्पना - हिन्दी अब राष्ट्रभाषा एवं सम्पर्क भाषा ही नहीं, अपितु भारत की राजभाषा भी है। राजभाषा राष्ट्र की आर्थिक प्रगति, राजनैतिक एकता तथा प्रशासनिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होती है। राजभाषा सरकारी कामकाज में प्रयुक्त होकर जनता तथा शासन के मध्य सम्पर्क स्थापित करती है। राजभाषा उस भाषा को कहा जाता है, जिसके माध्यम से प्रशासनिक कार्य सम्पादित किए जाते हैं। राजकाज या प्रशासन की भाषा को राजभाषा कहा जाता है। राजभाषा के माध्यम से राजकाज या प्रशासनिक कार्य सम्पादित किए जाते हैं। यूनेस्को के अनुसार "राजभाषा उस भाषा को कहा जाता है, जो सरकारी कामकाज की भाषा के रुप में स्वीकार की गई हो तथा जनता और शासन के बीच पारस्परिक सम्पर्क के काम आती हो।" भारत की संस्कृति, सभ्यता, एकता तथा जनता की समसामयिक आवश्यकता को दृष्टिगत रखकर भारतीय संविधान में हिन्दी को भारतीय संघ की राजभाषा स्वीकार किया गया तथा सरकारी कामकाज में हिन्दी के प्रयोग को स्वीकृति प्रदान की गई। हिन्दी में प्रदेशों में सरकारी कामकाज की भाषा हिन्दी है, लेकिन हिन्दीतर राज्यों ने अपने-अपने राज्य के प्रशासनिक कामकाज की भाषा के रुप में अपनी-अपनी प्रादेशिक भाषा (राज्यभाषा) को जैसे-तमिल, तेलुगु, कन्नड़ तथा मलयालम को स्वीकृति प्रदान की है।

राजभाषा का प्रयोग मुख्य रुप से चार क्षेत्रों में अभिप्रेत है; जैसे- शासन, विधान, न्याय पालिका तथा कार्य पालिका । इन चारों क्षेत्रों में जिस भाषा का प्रयोग होगा, उसी भाषा को राजभाषा कहा जाएगा। यह कार्य अब तक अंग्रेजी भाषा के माध्यम से सम्पादित होता रहा है।

नौवीं एवं दसवीं शताब्दी में जहाँ हिन्दी का भाषा के रुप में विकास हो रहा था, वहीं यह हिन्दी भाषा राज- काज की भाषा के रुप में भी प्रयोग में लाई जा रही थी । हिन्दी की स्थानीय बोलियों तथा अरबी-फारसी के अनेक शब्द इस काल की हिन्दी में प्रचलित मिलते हैं। दसवीं शताब्दी के आसपास सरकारी कामकाज की भाषा का जो रुप मिलता है, उसे 'प्राचीन हिन्दी' की संज्ञा दी जा सकती है। इसमें एक ओर तो संस्कृत शब्दों के अपभ्रंश रुप तथा दूसरी ओर विदेशी शासकों की भाषा से आए अरबी-फारसी शब्द मिलकर एक प्रशासनिक परम्परा की अभिव्यक्ति कर रहे थे।

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राजभाषा शब्द प्रयोग : कार्यालय के किसी भी विषय को अभिव्यक्त करने के लिए सामान्य बोलचाल की भाषा के शब्दों के अतिरिक्त उस विषय से संबंधित शब्दों का प्रयोग भी करना पड़ता है। अतः यह आवश्यक है कि विभिन्न कार्य-विषयों में कार्य करने वाले अपने-अपने क्षेत्र में प्रयुक्त कुछ विशिष्ट शब्दों तथा प्रयोगों से परिचित रहें।

उदाहरणार्थ- 'नामे डालने की सूचना', 'विवरणी भेजना', 'टिप्पणी लिखना', 'संचयी सावधि जमा योजना', 'नकारा गया चेक', 'आवक नगदी प्रेषण', 'बिल पर छूट', 'फसलों का हेर-फेर' आदि प्रयोग हैं, जिनका अर्थ विभिन्न कार्य संदर्भों से स्पष्ट होता है।

इसके अतिरिक्त भारतीय प्रादेशिक भाषाओं में सरल एवं बहुप्रचलित शब्दों का प्रयोग भी किया जा सकता है। इसी तरह यूरोपीय तथा एशियाई भाषाओं के वे शब्द जो जन-साधारण में प्रचलित हो गए हैं, उनकी आवश्यकता एवं संदर्भ के अनुसार प्रयोग करने में संकोच नहीं करना चाहिए। 'लागू', 'नितान्त', 'कम्पनी', 'लॉकर', 'लिफाफा', 'नमूना' आदि शब्द अभिव्यक्ति में बाधा नहीं डालते।

इस प्रकार ब्रिटिश शासन काल तक हिन्दी ने साहित्य के साथ-साथ प्रशासन में भी अपना स्थान बना लिय था। स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही यह अनुभव किया गया कि देश की विभिन्न भाषा-भाषी जनता के बीच सम्पर्क स्थापित करने और देश को एकता के सूत्र में बाँधने के लिए हिन्दी ही सशक्त और समर्थ भाषा है। यह उल्लेखनीय है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का गौरव प्रदान करने वाले अधिक चिंतक और देशभक्त हिन्दीतर भाषा-भाषी लोग ही थे। इनमें बंगाल के केशव चन्द्रसेन, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, महाराष्ट्र के बालगंगाधर तिलक, गुजरात के स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा महात्मा गाँधी आदि के नाम उल्लेखनीय है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के बहुभाषा - भाषी देश होने के कारण सबसे पहला प्रश्न भाषा और राजभाषा के संबंध में उठा। सन् 1946 में संविधान सभा का गठन हुआ। डॉ. राजेन्द्रप्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष चुने गए। डॉ. राजेन्द्रप्रसाद की अध्यक्षता में यह निर्णय लिया गया कि संविधान सभा के कामकाज की भाषा हिन्दुस्तानी या अंग्रेजी होगी। उस समय एक वर्ग हिन्दी समर्थक था तथा दूसरा वर्ग हिन्दुस्तानी समर्थक था, लेकिन 14 जुलाई, 1947 को संशोधन स्वीकृत कर हिन्दुस्तानी के स्थान पर हिन्दी शब्द स्वीकार कर लिया गया। फरवरी, 1948 में संविधान का जो प्रारुप प्रस्तुत किया गया, उसमें राजभाषा का कोई प्रावधान नहीं था। केवल इतना उल्लेख था कि संसद की भाषा हिन्दी या अंग्रेजी होगी। पंडित जवाहरलाल नेहरु ने एक अखिल भारतीय भाषा की आवश्यकता पर बल दिया तथा उन्होंने यह स्पष्ट किया कि स्वतंत्र देश को अपनी ही भाषा में कामकाज करना चाहिए।

राजभाषा के संबंध में मुख्य बहस अगस्त, 1949 में हुई। इस बहस का मुख्य मुद्दा यह था कि हिन्दी का स्वरुप क्या होना चाहिए ? संविधान लागू होने के बाद कितने वर्षों तक अंग्रेजी चलती रहे ? अन्तर्राष्ट्रीय या भारतीय अंकों में से किसे मान्यता प्रदान की जाए। अंग्रेजी भाषा का प्रयोग चलते रहने के लिए दस वर्ष की समयावधि पर्याप्त मानी गई। दूसरा पक्ष इस समयावधि को पंद्रह वर्ष तक बढ़ाना चाहता था। अंतत: 1 अगस्त, 1949 को डॉ. अम्बेडकर ने अपना फार्मूला प्रस्तुत किया, जिसमें पन्द्रह वर्ष तक अंग्रेजी का प्रयोग बनाए रखने तथा अन्तर्राष्ट्रीय अंकों की व्यवस्था रखी गई। उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी चलती रहे। प्रादेशिक भाषाओं की अनुसूची तैयार की जाए, जिसे आगे चलकर 'आठवीं अनुसूची' की संज्ञा दी गई तथा भाषा आयोग के गठन की व्यवस्था रखी गई।

अन्तर्राष्ट्रीय अंकों को स्वीकार करने के बाद काफी बहस हुई। कई बार मतदान हुआ, लेकिन कोई फैसला नहीं हो सका। इस संबंध में अगस्त-सितम्बर, 1949 में कई बैठकें हुई। मौलाना आज़ाद, श्यामप्रसाद मुखर्जी इत्यादि राष्ट्रीय नेताओं ने सभा के सदस्यों को समझा-बुझाकर इस दिशा में एकमत होने का अनुरोध किया है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हिन्दी के स्वरुप के बारे में विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हिन्दी का स्वरुप परित्यागमूलक हो तथा इसमें भारत की सभी भाषाओं के तत्वों का समावेश किया जाए। इस प्रकार संविधान सभा ने 14 सितम्बर, 1949 को यह निर्णय लिया कि संघ के कामकाज के लिए हिन्दी देश की सामान्य भाषा हो । इसकी लिपि देवनागरी हो तथा वे अंक काम में लाए जाएँ, जिन्हें भारतीय अंकों का अन्तर्राष्ट्रीय रूप कहा जाता है। संविधान सभा ने हिन्दी के राजभाषायी स्वरूप के बारे में जो निर्णय लिए, उन्हें संवैधानिक उपबंधों के रूप में संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों तथा अष्टम अनुसूची में प्रस्तुत किया गया है।

- डॉ. प्रभु चौधरी

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