निराला के काव्य में सामाजिक क्रांतिकारी चेतना

Dr. Mulla Adam Ali
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Suryakant Tripathi Nirala

निराला के काव्य में सामाजिक क्रांतिकारी चेतना

निराला में सामाजिक क्रांति के भाव बहुत पहले से ही थे। निराला किसान के बेटे थे। किसान सिपाही हो गया था। लेकिन किसान के संस्कार मिटे नहीं थे। इस दशा में निराला जमींदार के मुलाजिम होकर किसानों से किस प्रकार निबट सकते। इसलिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी। यह उनके मन में निहित सामाजिक क्रांति की दहकती ज्वाला के कारण ही संभव हुआ।

निराला के काव्य में राजनीतिक क्रांति का पक्ष जितना सक्षम है उससे अधिक प्रखर सामाजिक क्रांतिकारी चेतना का है। उनका सारा जीवन ही संघर्ष तथा क्रांति भरा दिखाई देता है। 'सरोज स्मृति' में सभी भावनाएँ दृष्टव्य है। वात्सल्य, वेदना, निराशा, क्रांति तथा संघर्ष दिखाई देता है। निराला के काव्य में जो सामाजिक क्रांतिमत चेतना दृष्टिगत होती है। रूढि समाज और धर्म की कुरीतियाँ, निराला और वेदना, वर्ग विभाजन शोषितों का करूणगान, मार्क्सवाद का गुणगान, शोषितों का विरोध तथा उसमें मुक्ति की अभिलाषा निम्नांकित है।

1) रुढि सामाजिक तथा धार्मिक कुरीतीयों का विरोध :- निराला के विद्रोही और क्रांतिदर्शी स्वभाव का परिचय सरोज स्मृति में मिलता है। पत्नी मनोहरादेवी की मृत्यु के उपरान्त उनपर पुनर्विवाह के लिए बहुत जोर दिया गया पर वे तैयार न हुए। पहले तो स्वयं को मांगलिक कहकर विवाह प्रस्ताव टाले परंतु सासजी के बहुत जोर देने पर जन्मकुंडली फाडकर बच्ची सरोज को खेलने के लिए दे दी। रेखाओं को बदलने का दुःसाहस रखनेवाले इस अजय योद्धा ने पुनर्विवाह नहीं किया।

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निराला की क्रांतिदर्शिता उनकी पुत्री सरोज के विवाह के अवसर पर भी दिखाई देती है। वे जातिगत रूढिवादिता के विरोधी थे । वे कान्यकुब्ज वंश के थे। उसी वंश की दहेज प्रथा विस्मयकारी थी वे दहेज देने योग्य नहीं थे। तथा रीतिरिवाज के विरोधी होने के कारण उन्होंने अपने ही वंश पर कुठारघात किया है-

ये कुब्ज कुल कलाङ्गार

खाकर पत्तल में करे छेद,

इनके कर कन्या, अर्थ खेद

इस बेली में विषही फर

यह दग्ध मरूस्थल - नहीं सुजल (सरोजस्मति)

2) निराशा और वेदना :-

सामाजिक शोषण और विषमताएँ निरालाजी के हृदय को वेदना से भर देते हैं। उनकी अनेक कविताओं में निरालाजी की सामाजिक वेदना और व्यक्तिगत वेदना और निराशा के स्वर मुखरित हुए हैं। वे स्वयं वेदना और निराशा से ग्रस्त होकर कहते हैं-

मैं अकेला

देखता हूँ आ

मेरे दिवस की साध्य बेला

कवि देखता है कि, उसका जीवन निर्झर समाप्त हो गया है । वह वेदना और निराशा से भरकर कह उठता है -

स्नेह निर्झर बह गया है

रेत ज्यौं तन रह गया है।

3) शोषितों का करूणगान :

निराला वस्तुवादी थे। वस्तुवाद में वर्गचेतना और वर्ग संघर्ष अनायास आ जाता है। निराला के काव्य में दो वर्ग है, आम कवि की भाँति उन्होंने शोषित वर्ग की बाजू पकड़ी है, जहाँ शोषक के स्वार्थी, उसकी चालवाजियों, शोषणयंत्रों और प्रक्रियों का ज्ञान आवश्यक है वहाँ निजी शोषित स्वरूप पर ध्यान जाना आवश्यक है 'दगा की' कविता में जनता के आलोक में अपना शोषित चेहरा साफ दिखाई देता है।

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चेहरा पीला पड़ा

रीढ झुकी हाथ जोडे

आँख का अंधेरा बढा

सैंकडों सदियाँ गुजरी। (नये पत्ते पृ. 35 )

ये सब साम्राज्यवाद से पीडित जन थे। फिर पंचवर्षित योजनाओं और विदेशी ऋण से समृद्ध नोकरशाही के स्वाधीन भारत में निर्धन किसान का चित्रण

सुख गया किसान एकाकी

रोया, रही न लेखा बाकी (संध्याकाकली)

अभ्युदय काल के अंतिम दौर तक निराला के मन पर ये दीन छाये रहे। उनके प्रति अगाध करूणा ही क्रांति की ओर उन्हें प्रेरित करती है। निराला के चिंतन में क्रांतिकारी दौर और जनता का गहरा संबंध है। दोनों एक दुसरे को परखते हैं।

4) शोषकों की भ्रर्त्सना :

निराला ने जहाँ शोषितों के प्रति करुणगान किया है वहाँ शोषिकों की कडी भ्रर्त्सना भी की है। राजा, समींदर, पूँजीपति, सरकारी अफसर तथा सामंत विरोधी कडा रूख अपनाया है। 'नये पत्ते' की व्यक्तियों में जनता के विविध शोषकों का रूप खुलकर स्पष्ट हुआ है। कवि ने व्यापारियों, बनियों और वैश्यों को नहीं छोडा जनता की आँखों में इसका शोषक रूप नहीं छिप सकता-

बालों के नीचे पड़ी जनता बल तोड गई

माल के दलाल थे वैश्य हुए देश के

सागर भरा हुआ

लहरों से बहले रहें

किरने समंदर पर पडती कैसी दिखीं

लहरों के झुले झुले

कितना बिहार किया कानूनी पानी पर

निराला सच्चे क्रांतिकारी कवि थे। इसका प्रमाण 'नये पत्ते' में 'झींगुर डटकर बोला', 'छलांग मारता चला गया', 'डिप्टी साहब आ गए', 'मेंहगू महंगा रहा' जैसी कविताएँ है। जिनमें अपने अधिकारों के लिए सम्बन्ध होते हुये किसानों के संघर्ष की कठिनाइयों का चित्रण किया गया है। 'कुकुरमुत्ता' के द्वारा उन्होंने समाज की पूँजीवादी व्यवस्था पर कड़ी चोट की है। गरीबों का शोषण करनेवाले उच्चवर्ग, आधुनिक कवि, तथाकथित साम्यवादी नेता, कुत्सित बुद्धिवादी आदि सभी कवि के व्यंग्य के निशाना बने हैं। 'गुलाब' सामंतवादी सभ्यता और 'कुकुरमुत्ता' सर्वहारा वर्ग का प्रतीक है। 'गुलाब' के माध्यम से कवि पूँजीवादी व्यवस्था पर इस प्रकार करारी चोट करता है-

अबे सुन बे गुलाब

भूत गर पाइ खुशबू रंगो अब

खून चूसा खाद का तुने अशिष्ट

डालकर इतरा रहा है कैपिटिलिस्ट। (कुकुरमुत्ता)

अपने युग के विचारधाराओं के बीच निराला की दृष्टि उन्नत है। वह परिवेश को देखती है, भविष्य को भी। प्रभामंडलों से आतंकित न होकर वह सामाजिक संबंधों के आंतरिक सूत्रों तक पहुँचती है। इसलिए क्रांतिकारी कवियों में निराला का स्थान अन्यतम है।

- प्रा. डॉ. शेख आर.वाय.

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