प्रेमचंद जयंती विशेष: प्रेमचंद की पत्रकारिता जो सिखाती है | कृपाशंकर चौबे

Dr. Mulla Adam Ali
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31 July Munshi Premchand Jayanti 2024

Munshi Premchand Jayanti

मुंशी प्रेमचंद जयंती 2024 : दिनांक 31 जुलाई मुंशी प्रेमचंद जयंती पर विशेष कृपाशंकर चौबे जी का लेख "प्रेमचंद की पत्रकारिता जो सिखाती है", प्रेमचंद कहानीकार ही नहीं, पत्रकार भी थे। प्रेमचंद की पत्रकारिता के बारे में आज उनके जन्मदिन पर विशेष आलेख। मुंशी प्रेमचंद का नाम हिंदी और उर्दू भाषा के महान लेखक के रूप में जाना जाता है, प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को लमही गांव में हुआ और निधन 8 अक्टूबर 1936 को। प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की जयंती के उपलक्ष में उनकी जन्म वर्षगांठ 31 जुलाई को प्रेमचंद की पत्रकारिता पर विशेष आलेख। पढ़िए और शेयर कीजिए। 31 July Premchand Birth Anniversary 2024, Munshi Premchand Jayanti 2024...

प्रेमचंद की पत्रकारिता जो सिखाती है

- कृपाशंकर चौबे

मुंशी प्रेमचंद के कथाकार-रूप की तुलना में उनके पत्रकार-रूप की चर्चा बहुत कम हुई है। उनके पत्रकारीय लेखन, अनेकानेक रिपोर्ताज, लेख, टिप्पणियां, पुस्तक परिचय व समीक्षाएं वगैरह को पढ़े बगैर प्रेमचंद के समग्र साहित्यिक अवदान को समझा ही नहीं जा सकता। प्रेमचंद ने 1903 में स्वतंत्र पत्रकारिता प्रारंभ की थी और यह सिलसिला 1930 में ‘हंस’ के शुरू होने तक चलता रहा। पत्रकारीय लेखन से प्रेमचंद का क्रम आजीवन चला। इस तरह के लेखन की शुरुआत उन्होंने ओलिवर क्रॉमवेल के विभिन्न प्रसंगों पर टिप्पणी लेखन से की थी जो ‘आवाजे़ खल्क’ में 1 मई 1903 से 24 सितंबर 1903 तक धारावाहिक छपी थी। इस पत्र के अलावा ‘स्वदेश’ और ‘मर्यादा’ में भी मुंशी जी रिपोर्ताज व टिप्पणियां लिखते थे। उर्दू के प्रसिद्घ पत्र ‘जमाना’ से तो उनका आत्मीय संबंध ही था, जो जीवनपर्यंत बना रहा। ‘जमाना’ में मुंशी जी रपटों व टिप्पणियों के अलावा ‘रफ्तारे जमाना’ के नाम से एक स्थायी स्तंभ भी लिखते थे। प्रेमचंद की पत्रकारिता से हम यह सीख ले सकते हैं कि रपट या टिप्पणी चाहे कलेवर में जितनी छोटी हो, उसकी संप्रेषणीयता इतनी बेधक व शक्तिशाली होनी चाहिए और वक्तव्य इतना स्पष्ट होना चाहिए कि कोई उसकी उपेक्षा नहीं कर सके। मसलन ‘हंस’ के फरवरी 1934 के अंक में प्रकाशित ‘जाति भेद मिटाने की एक आयोजना’ शीर्षक प्रेमचंद की एक छोटी सी रपट को देखा जा सकता है। इस रपट की पहली ही पंक्ति में यह सूचना दी गई है कि बंबई के मि़. बी़ यादव ने वर्तमान भेद-भाव को मिटाने के लिए यह प्रस्ताव किया है कि सभी हिन्दू उपजातियों को ब्राह्मण कहा जाए और हिन्दू शब्द को उड़ा दिया जाए, जिससे भेद-भाव का बोध होता है। उसके ठीक बाद प्रेमचंद टिप्पणी करते हैं-प्रस्ताव बड़े मजे का है। हम उस दिन को भारत के इतिहास में मुबारक समझेंगे, जब सभी हरिजन ब्राह्मण कहलाएंगे। दरअसल प्रेमचंद की पीड़ा यह है कि हम पहले ब्राह्मण या क्षत्रिय या वैश्य या हरिजन हैं, आदमी बाद में हैं। जातिगत भेद-भाव हमारे रक्त में सन गया है और लोग सांप्रदायिकता का बिगुल बजाकर फूले नहीं समाते, वर्ना अपने को सवर्ण कहने की क्या दरकार है? आज की सबसे कटु सच्चाई यह है कि समूची की समूची हिंदी पट्टी जातियों में बंटी हुई है। इसीलिए हिंदी का बाजार तो बन गया, हिंदी का समाज नहीं बन पाया है।

‘हंस’ के ही जनवरी 1934 के अंक में प्रेमचंद की बिलकुल छोटी-एक पैरे की एक टिप्पणी छपी है, जिसका शीर्षक है-‘अच्छी और बुरी सांप्रदायिकता।‘ इसमें मुंशी जी लिखते हैं कि इंडियन सोशल रिफार्मर नामक पत्र ने कहा है कि सांप्रदायिकता अच्छी भी है और बुरी भी। बुरी सांप्रदायिकता को उखाड़ना चाहिए, मगर अच्छी सांप्रदायिकता वह है, जो अपने क्षेत्र में बड़ा उपयोगी काम कर सकती है, उसकी क्यों अवहेलना की जाए। इतनी जानकारी देने के बाद प्रेमचंद टिप्पणी करते हैं-अगर सांप्रदायिकता अच्छी हो सकती है तो पराधीनता भी अच्छी हो सकती है, झूठ भी अच्छा हो सकता है। जात-पात और सांप्रदायिकता की जिस समस्या को मुंशी जी ने आज से आठ दशक पहले अपनी छोटी-छोटी टिप्पणियों के मार्फत उठाया था, वह आज भी समाज में विद्यमान है, बल्कि उसके खतरे आज घटने की बजाय बढ़े हैं। छह दिसंबर 1992 का अयोध्या हादसा हो अथवा गुजरात के दंगे। उन सांप्रदायिक घटनाओं ने भारत के मुसलमानों के भीतर असुरक्षा बढ़ाई है। अब फिर भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को आगे कर देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें तेज की हैं। इस परिवेश में प्रेमचंद की टिप्पणी और अधिक प्रासंगिक हो उठती है।

प्रेमचंद की नजर से न शोषित-शासित दलित बचा रहा न अभाव में डूबा समाज न क्रूर जमींदार न अंग्रेजी शासन की नृशंसता। एक तरफ प्रेमचंद पराधीनता में पीसती जनता की पीड़ा का वर्णन करते हैं तो आपदा की चपेट में आई जनता के साथ भी खड़े होते हैं। मुंशी जी ने 1934 में बिहार में आए प्रलयकारी भूकंप का इतना मार्मिक चित्रण किया था। हाल में उत्तरांचल में आए जल प्रलय को देख प्रेमचंद की उस पुरानी टिप्पणी की बरबस याद आती है। मुंशी जी अपनी पत्रकारीय टिप्पणियों में नए प्रेमचंद लगते हैं। ये प्रेमचंद समाज के प्रवक्ता के बतौर हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं। वे यह सीख देते हैं कि पत्रकार को बाजार का नहीं, समाज का प्रवक्ता होना चाहिए। वे यह सीख भी देते हैं कि पत्रकारिता मुद्दों पर केंद्रित होनी चाहिए। प्रेमचंद की पत्रकारिता मुद्दों पर केंद्रित थी। उन्होंने हर विषय पर कलम चलाई। स्वाधीनता संग्राम, अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति, हिन्दू-मुसलमान, छूत-अछूत, किसान-मजदूर, नागरिक शासन, साहित्य-दर्शन, धर्म-समाज, शिक्षा-संस्कृति, महिला जगत से लेकर राष्ट्रभाषा से जुड़े तमाम मुद्दों पर मुंशी जी ने रिपोर्ताज, टिप्पणियां व लेख लिखे। प्रेमचंद ने सिर्फ पत्रकारीय लेखन ही नहीं, संपादन भी किया। उन्होंने 1933-34 में ‘जागरण’ साप्ताहिक पत्र का संपादन किया तो 1930 से 1936 तक मासिक ‘हंस’ का। प्रेमचंद जिस धर्म बुद्घि से ‘जागरण’ व ‘हंस’ का संपादन करते थे, वह जनता के हित से बंधी थी। मुंशी जी के संपादकीय संस्पर्श ने ‘जागरण’ व ‘हंस’ को आदर्श पत्र ही नहीं बनाया, दोनों को अपार लोकप्रियता भी हासिल हुई। ‘जागरण’ व ‘हंस’ दोनों अपने समय के अत्यंत प्रतिष्ठित पत्र बन गए थे। संपादक के रूप में प्रेमचंद प्रतिकूलताओं के बीच खड़े होकर भी अपने धवल चरित्र व ऊंचे मनोबल से अंग्रेजी साम्राज्यवाद का जमकर प्रतिरोध करते थे। मुंशी जी एक तरफ अपने पाठकों को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ महात्मा गांधी के आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित करते थे तो दूसरी तरफ अंग्रेजी शासन के कुकृत्यों व नृशंसता का तीव्र प्रतिवाद भी करते थे। इसीलिए ‘जागरण’ व ‘हंस’ को कई बार ब्रिटिश शासन का कोपभाजन बनना पड़ा। ‘जागरण’ के 12 दिसंबर 1932 के अंक में प्रेमचंद ने स्वयं इस कोप का ब्यौरा दिया है, ‘हंस की जमानत से हाल ही में गला टूटा है। पांच महीनों तक पत्र बंद रहा, इसलिए इतनी जल्दी जमानत का हुक्म पाकर हम क्षुब्ध हुए।‘ इसी टिप्पणी में प्रेमचंद लिखते हैं, ‘ऐसे वातावरण में जबकि हर संपादक के सिर पर तलवार लटक रही हो, राष्ट्र का सच्चा राजनीतिक विकास नहीं हो सकता।’ मुंशी जी ने उस तलवार की परवाह नहीं की। 

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं)

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