हिन्दी बाल कथा एवं काव्य में निहित संदेश पर एक नज़रिया

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Bal Katha evam Kavya

Hindi Bal Katha evam Kavya

हिन्दी बाल कथा एवं काव्य में निहित संदेश पर एक नज़रिया

बॉलीवुड की महान हस्ती कवि लेखक गुलज़ार का नाम बाल साहित्य के लेखकों में बड़े फन के साथ लिया जा सकता है। विगत दो वर्ष पूर्व जब मुंबई के कवि सम्मेलन में मेरा जाना हुआ तो मैंने गुलजार से भी भेंट की और उनसे अपनी पांडुलिपि 'मेरे नन्हं मित्र तुम' नामक बाल कविता संग्रह पर सम्मति लिखने का अनुरोध किया। गुलजार ने सहजता से मेरी पांडुलिपि को लेकर दो चार बार इधर उधर से देखा और कुछ एक रचनाओं पर सरसरी नजर डाली फिर मुझे पांडुलिपि लौटाते हुए बोले-मिलन जी इन दिनों में बहुत व्यस्त हूँ और तुरंत ही कोई सम्मति लिख देना मेरे स्वभाव के अनुकूल नहीं है। तब मैंने अनुरोध किया की सम्मति नहीं, आप कोई टिप्पणी ही लिख दीजिए।

गुलजार जैसे ख्याति प्राप्त लेखक और फिल्मकार से इस प्रकार लिखा लेना कोई मामूली बात नहीं थी। अतः मैंने उनसे जिद करना अच्छा नहीं समझा। गुलजार ने चाय का प्याला बढ़ाते हुए कहा - दरअसल अब बाल साहित्य में केवल फूल तितलियाँ परियाँ चांद सितारे सूरज बादल का आकर्षण नहीं रहा है आज का बालक एटम युग में जन्म ले रहा है अतः बाल साहित्य में अब परिमाणु रॉबोट कम्प्यूटर आदि सुपरटॉनिक विषयों पर लिखा जाना चाहिए। मैंने तपाक से उत्तर दिया फिर भी इस युग में -

जंगल जंगल बात चली है, पता चला है

चड्डी पहन के फूल खिला है

बच्चों को आज भी सम्मोहित कर लेता है वैसे आपने कोई नई बात नहीं कही है। मेरे इसी बाल काव्य संग्रह से एक- दो दोहा सुनिये -

एटम युग में अब कहाँ, हम बच्चे नादान।

के ज्ञान, कम्प्यूटर से काम हुए आसान॥

बटन दबाने से बने, बड़े बड़े सब काम।

जल-थल गगन जहाँ कहें, कर दें काम तमाम॥

गुलजार चुप रहे तो मैंने कहा- क्षमा चाहूँगा गुलजारजी! भारत के पिछड़े इलाकों में गरीब बालकों की रुचि नहीं बदली। मिर्जापुर का गरीब बालक अथवा फिरोजाबाद की चूड़ियों की भट्टियों में काम करने वाला बाल मजदूर अब भी दादी नानी से 

राजकुमार, राजा-रानी, परियाँ, चांद-सितारे, फूल-तितलियाँ, भूत-प्रेत के सम्मोहन में बंधा हुआ कहानी सुनता है। आलीशान बंगलों में पलने वाले बच्चों की मानसिकता में भले ही विज्ञान के चमत्कारों का प्रभाव अधिक हो लेकिन बाल मनाविज्ञान की सुलभ सहज प्रकृति से उनको परे नहीं किया जा सकता। गांवों के देश भारत में जमीनी सच्चाई यही है कि दादी नानी और माँ की लोरियाँ और कहानी किस्से अब भी चाव से सुने जाते हैं। गुलजार एक गम्भीर मुद्रा में मुझे एकटक निहारते हुए कुछ सोच रहे थे अथवा कुछ कहना चाहते थे, यह तो में अनुमान नहीं कर पाया किंतु घड़ी की टिक टिक उन्हें बहस करने से रोक रही थी उन्हें किसी पूर्व निर्धारित प्रोग्राम में पहुँचने का समय हो चुका था। जाते-जाते मेरे विशेष अनुरोध पर वे मेरे साथ फोटो खिंचवाने के आग्रह को न ठुकरा सके। 'मेरे नन्हें मित्र तुम' के प्रकाशित होते समय मैंने उनके साथ फोटो को ही छाप कर तसल्ली की है।

उपर्युक्त घटना के जिक्र के साथ मुझे इतना कहना है कि बाल मनोविज्ञान को परखना, उस पर लिखना तथा कोई निश्चित राय बना लेना किसी बड़े से बड़े लेखक के मनन-चिंतन की पकड़ में नहीं आ सकता। 21वीं सदी के बच्चे अब पचास वर्ष पूर्व के बच्चों जैसे नहीं रहे हैं। आज नानी दादी से कहानी सुनते हुए उनमें क्या क्यों कैसे आदि जैसे प्रश्नों की जिज्ञासा बलवती हो चुकी है। फिर भी इस सबके बावजूद मुझे यह भी कहने में कतई संकोच नहीं है कि स्वभावगत अथवा प्रकृतिजन्य मासूमियत भोलापन निश्छल बाल संस्कार आज भी मौजूद है। बालक का मन कॉपल की तरह निर्मल कोमल लुभावना और दीप्तिमान होता है उसे संभाल कर स्वस्थ दिशा देना ही श्रेष्ठ साहित्य का दायित्व है।

हिन्दी भाषा की सुगम सरल बोधगम्य शैली में पढ़ी जाने वाली रोचक कथाओं से भरीपूरी पंचतंत्र, जातक कथा, हितोपदेश, सरित सागर आदि बाल ग्रंथ आज भी बच्चे बड़े शौक से पढ़ते हैं जिससे नैतिकता, आदर्श, सत्यम शिवम् और कल्याण की भावनाओं का उनमें समावेश होता है।

वैसे बाल साहित्य का यह आधुनिक युग, भारतेन्दु युग से शुरु माना जाये तो स्पष्ट होगा कि इस काल में भी अधिकांश बाल कहानियाँ अनुवादित हैं। अंधेर नगरी चौपट राजा के अतिरिक्त शिव प्रसाद सितारे हिन्द की मौलिक बाल कहानियों में राजा भोज का सपना, लड़कों की कहानी, बच्चों का इनाम उल्लेखित हैं। मुंशी प्रेमचंद ने बालकों के लिए 'ईदगाह' जैसी बाल हृदय का चित्रण करके जो कहानी लिखी, वह आज भी बाल कथा साहित्य का पथ प्रशस्त करती है। हिन्दुओं के पौराणिक ग्रंथों वेद उपनिषद, रामायण, महाभारत तथा बोधक कथाओं से उद्धृत अनेकानेक बाल गाथाओं की भरमार से साहित्य समृद्ध मामा, है। बाल साहित्य में बाल प्रिय मासिक चंदा मेला, पराग, नंदन, बाल भारती के काव्य से विज्ञान, राष्ट्रीय चेतना और लोक हित के अतिरिक्त ऐतिहासिक कहानियों से बाल मनोविज्ञान की निधि में विशेष मानसिकत वृद्धि हुई है। पराग में प्रकाशित नीले फीते का जहर, नंदन के प्राचीन कथा विशेषांकों से बाल मन की दिशा निर्देशित हुई और उनकी प्रतिस्पर्द्धा में चंपक, बालहंस, बच्चों का देश, बाल वाटिका, लोटपोट, मधु मुस्कान, नन्हें सम्राट, इन्द्रजाल कॉमिक्स आदि ने भी बाल साहित्य में कविता, नाटक, लेख, रुपक, पद्य कथा, पहेली, चुटकुले, जीवनी, भूल भूलैया, चित्रात्मक कथा अनेकानेक विधाओं को प्रकाशित किया।

आज से लगभग दसके वर्ष पूर्व केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा में मैसूर के भारतीय भाषा संस्थान के माध्यम से 17 दिवसीय बाल' कार्यशाला का आयोजन हुआ था जिसका उद्देश्य था- बच्चों के कोमल, निश्छल मन मस्तिष्क में अखिल भारतीय स्तर पर समान स्वरूप का निर्धारण कर नर्सरी और प्राथमिक विद्यालयों में अंग्रेजी माध्यम के प्रभाव को निस्तेज करके भारतीय शिशु गीतों का प्रचार प्रसार किया जाए। हिन्दी के लगभग 352 शिशु गीतों को इस कार्यशाला में बाल साहित्य के ख्याति प्राप्त एवं नवोदित कवियों ने मिलजुल कर लिखा जिनका प्रकाशन आयु को तीन वर्गों में बाँटकर (1) 3-4 आयु वर्ग के बच्चों के लिए, नाम मेरी गुड़ियाँ (2) 5-6 आयु वर्ग के बच्चों के लिए, आओ मिलकर गाएं (3) 7-8 आयु वर्ग बच्चों के लिए, उगता सूरज खिलती कलियाँ किया जा चुका है।

निश्चय ही इन तीन खंड़ों के शिशुगीत नर्सरी और प्राथमिक विद्यालयों के बालकों के लिए अति उपयुक्त और उपयोगी सिद्ध होते किंतु अफसोस यह योजना भी सुचारु रुप से क्रियांवित होने से पूर्व खड्डे में जा गिरी।

'उगते सूरज खिलती कलियाँ' के आमुख में डॉ. ई. अण्णा भल्लै (निदेशक, भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर) लिखते हैं- '..... लेखकों ने अत्यन्त, उत्साह, निष्ठा और लगन के साथ इन कार्यशालाओं में सैकड़ों गीतों की रचना की है। यह समूचा शिशु गीत - बालगीत संग्रह अध्यापकों और माता-पिता के लिए भाषायी कोश अथवा स्रोत पुस्तिका का कार्य करेगा। हमें यह भी आशा है कि शिशु गीतों और बाल गीतों की इन छोटी छोटी पुस्तकें में आकर्षक दृश्य-चित्र देने से ये पुस्तकें बच्चों के हाथों में स्वयमेव आ जाएंगी। हमें यह भी विश्वास है कि मुद्रित पुस्तक के साथ ऑडियो कैसेट भी तैयार किए जायेंगे। हालांकि कार्यशाला में रचित बाल गीतों की रचनाकारों के कंठ से मंचीय प्रस्तुति कराके भी परीक्षण किया गया जो बालगीतों के गेय तत्व सरसता तथा संगीतात्मक लय गति आदि से भी सफल सिद्ध हुआ था।'

खेद है कि शासकीय योजनाओं की भाँति ये योजना भी काल के गाल में समा गई। एक इन तीनों खंडों की छपाई प्राइवेट बाल साहित्य प्रकाशकों के गीत संकलनों की प्रतिस्पर्द्धा में निहायत बोगस, चित्र रहित अनाकर्षण कराई गई है दूसरे उनके प्रचार हेतु शासकीय पत्रिकाओं में विज्ञप्ति तक प्रकाशित नहीं की गई। सार्वजनिक क्षेत्र में समाचार पत्रों में तो इनके विज्ञापन और सामान्य समाचारों को छपाने का प्रश्न ही नहीं उठता। भला इन तीन खण्ड़ों में हजारों रुपये अपव्यय करने की क्या आवश्यकता थी? सार्वजनिक क्षेत्रों में चिल्ड्रन बुक्स आदि प्रतिष्ठानों का बाल साहित्य का प्रकाशन, बच्चों के मन लुभावने के लिए जिस चुम्बकीय साजसज्जा से हो रहा है, उसको देख कर बाल मन उन्हें देखने-पढ़ने के लिए लालायित हो उठता है। वर्षों तक बालकों के लिए लिखने वाले लेखकों को हीन भावना से देखे जाते रहना भी वाल साहित्य में, जाने-माने लेखकों को कलम उठाने से रोकता रहा। वैसे यह आवश्यक नहीं कि नामचीन बड़े से बड़ा लेखक श्रेष्ठ बाल साहित्य की रचना कर सकता है।

दरअसल यहाँ नामचीन लेखक और नवोदित लेखकों के बाल साहित्य को श्रेष्ठ और उत्तम कहना न्याय संगत नहीं है। क्योंकि बालकों के लिए रचना करने वाले का हृदय बालक की ही तरह मासूम, कोमल, निश्छल, भोला सहज-सरल होना चाहिए। सीधी- सरल, सरस, सुगम, सहज भाषा, रोचक लोकाक्तियाँ, चुटकुलों, मुहावरों से परिपूर्ण बोधगम्य जिज्ञासा शैली का लेखन ही बच्चों को प्रभावित करता है।

मेरे विचार से इन भावी कर्णधारों को कल भारत राष्ट्र का दायित्व संभालना होगा अतः इनकी स्वस्थ मानसिकता के लिए हमें नए नए आविष्कारों और विकास के मंसूबों तथा राष्ट्रीय संचेतना और विश्व बंधुत्व की भावनाओं से ओतप्रेत करने वाली काव्य-कथाओं का सृजन करना तो समय की मांग है लेकिन अपने मूलभूत संस्कारों से प्रेम, सत्य, बंधुत्व, राष्ट्र धर्म, नैतिकता, परोपकार, लोकोपयोगी आदर्श के अतीत से भी अवगत कराना आवश्यक है।

बाल साहित्य की अभिवृद्धि हेतु केन्द्रीय एवं प्रांतीय सरकारों को बाल पुस्तकों पर पुरस्कार तथा बाल लेखकों को सम्मानित करना प्रतिवर्ष आवश्यक है जिससे वयस्क साहित्य के लेखकों के समक्ष बाल साहित्य के रचनाकार भी प्रोत्साहित हो सकें।

आज हिन्दी साहित्य में शायद अब यह मानसिकता कुछ थोड़े से आलोचकों की ही रह गई होगी कि बाल साहित्य सृजन में गहन साधना की आवश्यकता नहीं होती। बाल साहित्य के रचनाकारों को भी अब दोयम श्रेणी में रखे जाने की मनोवृत्ति का ग्राफ भी काफी नीचे उतर आया है।

सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में ही नहीं बल्कि सरकार द्वारा भी व्यापक पैमाने पर इन भावी राष्ट्र के कर्णधारों के प्रति सतर्कता से बाल साहित्य का विपुल भंडार तैयार किया जा रहा है। निश्चय ही यह कल के स्वर्णिम भारत के लिए शुभ संकेत का सूचक है।

- डॉ. राजेन्द्र मिलन

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