शताब्दी के साक्षी : रामदरश मिश्र के उपन्यासों की भाषिक संरचना - बी. एल .आच्छा

Dr. Mulla Adam Ali
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Ramdarash Mishra

Ramdarash Mishra

वरेण्य साहित्यकार रामदरश मिश्र जी के जन्मदिन 15 अगस्त पर विशेष आलेख। लेखन की जीवंत सक्रियता के साथ सौवां जन्मवर्ष मना रहे इस शिखर पुरुष को शुभकामनाएं।

शताब्दी के साक्षी : रामदरश मिश्र के उपन्यासों की भाषिक संरचना

- बी. एल .आच्छा

     डॉ. रामदरश मिश्र की उपन्यास-यात्रा आंचलिक परिदृश्यों और महानगरीय अनुभवों के दो ध्रुवांतों के बीच का सेतु है। राप्ती और गोर्रा नदियों की उफनती धाराओं के बीच फैले जवार (अंचल) की समस्याओं, आजादी के बाद के परिवर्तनों और आंचलिक रंगों को बुनती हुई यह औपन्यासिक सर्जना महानगरीय बोध का स्पर्श करती है। महानगर से पुनरावर्तित होकर देहाती शहर के बदलते जीवन को दृश्यात्मक बनाती है। इसीलिए महानगरीय अनुभवों के भीतर से आँचलिक स्मृतियाँ झलकने लगती हैं और आँचलिकता के भीतर से शहर झाँकने लगता है। उपन्यासों में दुहरे कथाशिल्प, दुहरे परिवेश, दुहरी भाषा और दुहरे अनुभव संक्रमित हैं। 'अपने लोग' उपन्यास के पात्र नरसिंह साही कहते हैं- " अजब विडम्बना है साहब, कि महानगर में रहने वाले को आपकी कहानियों में देहात की मिट्टी की गंध मिलती है और इस देहाती शहर के लेखकों में महानगर साँस लेता रहता है।” (पृष्ठ 60) पर ये उपन्यास आँचलिक और महानगरीय अनुभवों को अलग-अलग दायरों में विभाजित नहीं करते। मटियाली गंध और महानगरीय साँसों को फैशन के बतौर जिंदा अभिव्यक्ति नहीं देते। अनुभव की अन्तरंगता के आधार पर अंचल की तपन और महानगर के अनजबीपन में झुलसते तिरस्कृत होते मानवीय संवेदन को परिदृश्यात्मक शिल्प देने वाले ये उपन्यास प्रेमचन्द और आँचलिक धारा के संधि- क्षेत्र के उपन्यास है।

     उपन्यासों की भाषा अंचल और देहाती शहर के जीवन और उसके भीतर होने वाले परिवर्तनों की यथातथ्यात्मक सर्जना करती है। आंचलिक जीवन के विविध रीति-रिवाजों, उत्सवों, भाषा - मुहावरों, सामाजिक पारिवारिक सम्बन्धों और आजादी के बाद चुनावी राजनीति के कारण हुए विषाक्त परिवर्तनों को संकेतित करने में लेखकीय संवेदन जितना सूक्ष्म-ग्राही है, भाषा उसी संवेदन की प्रत्यायिका है। “जल टूटता हुआ" के प्रमुख पात्र सतीश को लगता है कि 'कछार की भाषा एक नहीं है, कई हैं, उसके विविध स्वर हैं, उन्हें पहचानना है, हाँ उन्हें पहचानना है, मिट्टी के भीतर छिपे हुए सत्य को पहचानना है।" (पृष्ठ 99) भाषा की पहचान जीवन की पहचान है, उसके विविध रंगों, कषाय- अनुभवों, तपते यथार्थ, रीतती हुई सामुदायिक लय और परिवर्तनों की पहचान। इसीलिए "वह लोगों की आँखों में देखता था, आँखों में तरह-तरह की भाषा उगी होती।" (आकाश की छत, पृष्ठ 29) आँखों में उगी भाषा मानवीय विवशताओं, भीतरी हिस्सों में होने वाली कसक और यथार्थ के प्रति समूची प्रतिक्रिया है। यह भाषा केवल परिवेश को ही मूर्त नहीं करती, एक समग्र भाव-बिम्ब की सर्जना करती है। ऐन्द्रिय और मानसिक संवेगों की जीवन सृष्टि करती है।

       कथ्य की प्रकृति के अनुरूप उपन्यासों की भाषा एक छोर पर ठेठ आँचलिक देहाती है और दूसरे छोर पर परिनिष्ठित महानगरीय । लेकिन कथा प्रवाह इन दोनों छोरों के बीच में प्रवाहित है। प्रारम्भिक उपन्यासों में आँचलिक ध्वनियों, शब्दों और स्थानीय भाषिक प्रयोगों का व्यापक इस्तेमाल हुआ है। पर देहाती शहर और महानगर की ओर उन्मुख होती हुई उपन्यास-यात्रा आँचलिक रंगों और भाषिक प्रयोगों को कमतर करती जाती है। भाषा के सामान्य प्रवाह में ही आँचलिक शब्द या विकृत तत्सम शब्दावली का संदर्भानुकूल इस्तेमाल हुआ है। न तो आंचलिकता का मोह और न ही परिनिष्ठित भाषा सामान्य प्रवाह को बाधित करते हैं।

     स्थानीय रंगत और परिवेशबोधी लय से संसिक्त ध्वनि-प्रयोगों से आँचलिकता की सृष्टि की गयी है। उपन्यासों में स्वरागम (लिंगोटी, पंचायत-वोंचायत, दवा-— बोबा, इसकूल), स्वर - विकृति (चोअअप, पइसा फइसा, खेलवाड़, दोखी, जोगाड़, रूसी (पीप), अनेति, दिनदयला, डौन, (डाउन); व्यंजनागम (बियाहल, चेलवा, जहवा), व्यंजन-लोप, (मालवी जी > मालवीय जी, जिनगी > जिन्दगी, कलट्टर); व्यंजन-विकृति (बेस्सा, विदमान> विद्वान्, गान्हीं > गाँधी, आन्ही > आँधी, सामिल, नखड़ा, बुबुहुहूत> भूत, खडजंत्र > षडयंत्र, मलिन्न > मलिनद, चमइनी, भयहु- बहू ,एम्मेले > एम.एल.ए., डागदर- डॉक्टर, मरतक > मृतक) आदि स्तरों पर आंचलिक ध्वनि-प्रयोग जनपदीय जीवन और यथार्थ के व्यंजक है। लेकिन कहीं कहीं असावधानता भी दृष्टव्य है। सामान्यतः आंचलिक ध्वनियों में 'श' के स्थान पर 'स' का प्रयोग हुआ है। पर कुछ स्थानों पर नहीं— "दिनदयला को खूब कचर कर मारूँ और अपनी आत्मा शांत करूं।" (बिरजू का कथन, जल टूटता हुआ, पृष्ठ 238) नितान्त गंवई पात्रों के मुख से आंचलिक बोली का उच्चारण अंचल की आत्मा को मुखर करता है, पर ऐसे अंशों की न्यूनता से उपन्यास अधिक सम्प्रेष्य एवं संवादी बन गये हैं।

       विविध अनुरणनात्मक ध्वनियों का प्रयोग भी सार्थक एवं परिवेश व्यंजक है। लोकगीतों के सन्निवेश से उपन्यासों में लयात्मकता और अंचल का दर्द मुखर हुए हैं। पर अनुरणनात्मक ध्वनियाँ श्रुति-बिम्बों और आंतरिक लय को संजोती हैं। पुक पुक पुक पुक (मशीन की ध्वनि), भट भट भट भट (ट्यूबवैल की ध्वनि), पड़ पड़ पर पुर (डाँठों के फटने की ध्वनि), हट्ट, हट्ट (खलिहान की गूंज), उर्र उर्र (बकरी के पुकारने की ध्वनि) कच कच कुच कुच (कुचकुचिया पक्षी), कु ऊ ॐ ॐ ॐ (कुत्ते का रिरियाना) मुर्रओ मुर्रओ (पक्षी का रिरियाना), किरी रिरि किरी रिंगरिरी (सारंगी की ध्वनि), ठिड्, ठिंग धप्प, विधप्प, धिधप्प (तबला), खड ड ड खन खड ड ड खन (जूतों की आवाज), सपासप (बेंत की भार की ध्वनि), धम्म-धम्म (पीठ पर मुक्के की आवाज), घुर घुर घुर घुर (पानी गिरना), गडम, गुडम, गुडम- कड़कक, कड़डक छर छर छर छर (बादल, बिजली व बरसात की ध्वनि), हहसास- हहसास (लहरों का गरजना), झाँय झाँय झाँय (बरगद का हहराना), झक् झक् झक् (कुलियों का दौड़ना) आदि अनेक अनुरणनात्मक ध्वनियाँ मूर्त हुई हैं। कभी-कभी तो इनसे प्रकृति का सन्नाटा, कभी भयावना शोर, कभी परिवेश का रीतापन और कभी पात्रों की मनस्थितियाँ व्यक्त हो जाती हैं। 'आकाश की छत' में कुतिया की रिरियाहट रात की खामोश भयानकता को गहरा कर देती हैं। 'जल टूटता हुआ' और 'आकाश की छत में 'छपाक्' ध्वनि सन्नाटे को चीरकर स्वप्नभंग और अमंगल आशंकाओं को मूर्त कर देती है।

       उपन्यासों में कथात्मक, वर्णनात्मक और विवरणात्मक अंशों की प्रमुखता के कारण परिवेशबोधी शब्दावली का सार्थक और सटीक उपयोग हुआ है। अंचल की बोली जीवन से सीधा साक्षात्कार कराती है। लेकिन सम्प्रेषण का संकट उत्पन्न न हो, इसके लिए उपन्यासकार ने सामान्य हिन्दी वाक्यों के बीच में ठेठ आंचलिक शब्दों को गूंथ दिया है, ताकि वे ग्राम्य जीवन की सम्प्रेष्य झलक दे सकें। खेत-खलिहान, रीति-रिवाज, प्रकृति, मौसम, पशु पक्षी, दिनचर्या, हास-परिहास, गाली-गलौच, उत्सव-त्यौहार, राजनीति आदि से सम्बद्ध अंचल की शब्द-संपदा अछूते परिवेश और गंवई जीवन को यथार्थ स्वर देती है। धारी (ठान), गम्मज (हँसी-मजाक), कलन्दर (फालतू) घाट करते (आशनाई करते) भरभट्ट (अपवित्र), तार भाठ, चकरोड़, फट्ट अंगिया बेताल, पेटमडुवा, चालिसांदर, साड़ा तोड़ी, मकुनी आदि शब्द नितान्त आँचलिक हैं। हरवाहिन, बियाहल, सवति, करान्ती, डेवड़ी, नताइत आदि शब्द स्थानीय प्रभाव वाले तद्भव शब्द हैं। 'पानी के प्राचीर' और 'जल टूटता हुआ उपन्यासों में आँचलिक शब्दों की सघनता है। पर बाद के उपन्यासों में ऐसे प्रयोग कमतर हैं। उनका प्रयोग अंचल की स्मृतियों या ग्राम सम्बद्ध पात्र-वर्णनों में ही हुआ है।

      अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग शहरी परिवेश और पात्रों से सम्बद्ध अंशों में ही हुआ है, यद्यपि अंग्रेजी शब्दों के विकृत रूपों का प्रयोग गँवई चित्रों में ही हुआ है। स्मगलिंग, टार्च, टेंपरेरी, जनरलाइज्ड, फिलासफर, इल्यूजन आदि शब्द शिक्षित पात्रों के संवादों से प्रयुक्त हुए हैं। सामान्यतया अंग्रेजी शब्दों में हिन्दी के बहुवचन वाचक प्रत्ययों को जोड़कर अंग्रेजी के बहुवचनान्त बनाए गए हैं, टीचरों, कोर्सबुकों जैसे प्रयोग हिन्दी में सामान्य हैं। टेन्थ, एक्जाम्स, जैसे कटवाँ (Clipped) अंग्रेजी शब्दों का भी व्यवहार हुआ है।

        संस्कृत और उर्दू शब्दावली के हिन्दी में प्रचलित शब्दों का सामान्य प्रयोग हिन्दी के जीवन्त रूप को ही दर्शाता है। जहन्नुम, शगल, हकीकत, तहजीब जैसे शब्द हिन्दी को वर्तमान प्रकृति में बस गये हैं। प्लावन, स्पन्दित, संत्रास, हतदर्प जैसे तत्सम शब्द भी उतने ही प्रचलित हैं। कतिपय शब्द लेखक ने गढ़े भी हैं—अरलम-तरलम, दरहम-वरहम, जो अगड़म बगड़म जैसे प्रचलित शब्द के लय पर गढ़े गये हैं। भाषा में इस प्रकार का संतुलित प्रयोग कृत्रिमता के स्थान पर जीवतंता और भाषा के विकसित रूप को दर्शाता है।

          वर्णनात्मकता के बावजूद शब्द-प्रयोग में परिवेश को मूर्त कर देने की शक्ति है। फट्टर-फट्टर जूता फटफटाता हुआ, सटर सटर जीभ चला रहा है, कमाई के तमाम रुपए खरखरा दिए, वे मुल्हुर-मुल्हूर ताकते रहे, अहक अहक रो रहे हैं, टिनन टिनन टिनन रिक्शे, नल पर हुचुर- हुचुर पानी पीते हैं, मटर के दाने को निकाल कर पुडुर- पुडुर पुड़रा लिया, गन्दे बजबजाते हुए नाबदान जैसे प्रयोग क्रिया की मूर्तता के कारण जीवन्त और यथार्थग्राही बन गये हैं। बिम्बात्मक या प्रतीकात्मक मूर्तता के उदाहरण कम हैं- आँसू में भीगी हुई खोह-सी शून्य आँखें, 'चट्टान-सी उदासी' ,'फूले गुब्बारे के समान उड़ता मन। यों अंचल को व्यापक और समग्र बिम्ब दिया है।

          अपशब्दों अथवा अश्लीलता बोधक शब्दों का प्रयोग भी यथार्थ को व्यंजित करता है।यह धारणा का एक पक्ष है। उपन्यासों में इनका प्रयोग ग्रामीण परिवेश में सीमित स्तर पर हुआ है-नवाब के नाती, फलानचीन मारी, दहिजरा, सोगियानवनी, मरकीनवना, तेल लगाने गया है आदि। रांड और रंडी की गालियों के प्रयोग आम हैं, जो गंवई जबान पर चढ़कर बोले हैं। शहरी परिवेश में प्रतिक्रियावादी, कम्युनिस्ट, जनसंघी आदि दल या विचारधारापरक संज्ञाओं-विशेषणों से परस्पर लांछित किया गया है। बुद्धिजीवी परिवेश को ये शिष्ट गालियाँ हैं।

        उपन्यासों में वाक्य गठन भाव- वृत्तियों की दृष्टि से प्रभावपूर्ण है। सामान्य कथा-प्रवाह में छोटे-छोटे साधारण वाक्य गत्यात्मकता ला देते हैं। सभी उपन्यासों में वाक्य गठन में ऋजुता, संक्षिप्तता और प्रासादिकता है। अभिधात्मक कथनों के कारण सम्प्रेष्यता अधिक है। परन्तु प्रकृति-चित्रों, मानसी स्पन्दनों, रोमानी अभिव्यंजनाओं, अभावात्मक परिदृश्यों और ओजपरक संदर्भों में वाक्य रचना विशिष्ट बन गयी है। शब्दों, पदबंधों या वाक्यांशों की पुनरावृत्ति, समान संरचना वाले उपवाक्यों की योजना आदि प्रविधियों से भावात्मक गद्य-लय का सर्जन किया गया है-

(अ) भीतर से बाहर तक वह रीता है, पेट भी रीता, मन भी रीता, परिवेश भी रीता, वर्तमान भी रीता, भविष्य भी री.. (आकाश की छत, पृष्ठ 86) (ब) शारदा शारदा, सुगंध की एक अनुभूति, कोमलता का एक स्पर्श, स्वच्छता की एक भाषा और आँखों की निर्मम गहराइयों के पार कोई मर्ममयी कहानी-(जल टूटता हुआ, पृष्ठ 95)

(स) उसे लगा कि वह बाहें फैलाए कह रही है-नहीं, मैं आज नहीं जाने दूँगी, पास के बेढ़े से फैलती हुई रातरानी की खुशबू चिल्ला रही है—नहीं जाने दूंगी और कुछ देर पहले की रोई हुई बांसुरी की सारी तानें इकट्ठी होकर आगे खड़ी हैं और कह रही हैं-नहीं, नहीं जाने दूंगी। (जल टूटता हुआ, पृष्ठ 84)

(द) सीलन भरी बरसातों में सीलती आँखें, मिट्टी के खाली बरतनों में बार-बार झाँकती और उदास लौट आती आँखें, भहरा-भहरा कर गिरती हुई दीवारों को देखती आँखें, सपाट असीम सन्नाटे से लदी हुई अपमानित पीड़ित और टूटी आँखें-(अपने लोग, पृष्ठ 306)

(इ) इन किसानों के घर पर दर्द से टूटती हुई एक अर्द्धनग्न नारी है, जवानी के भार से माती और अभावों के श्रृंगार से बोझिल एक बेटी है, टूटी मड़ैया के नीचे बड़े पेट वाला एक लड़का छटपटा कर रो रहा है। (पानी के प्राचीर, पृष्ठ 209)

इन उद्धरणों में गद्य-लय भीतर के सूनेपन, सुगबुगाते भीतरी संवेदनों, टूटते हुए निरीह अहसासों, कसमकसाते जीवन-रागों और रोमांटिक तीव्रताओं की विविध अनुभूतियों को न केवल व्यंजित करती है, वरन् महसूसने को बाध्य कर देती है। इन मानवी-मुद्राओं के भीतर की सच्चाइयों को बड़ी गहराई से उठाया गया है। इन संवेदनाओं को मूर्त कर अंचल के भीतरी दर्द को बाह्य प्रकृति के साथ एकाकार कर दिया गया है।

        भाषा में अंचल को चित्रात्मक एवं ऐन्द्रिय सम्मूर्तन देने वाले परिदृश्यात्मक वर्णन काव्यात्मक संस्पर्श से युक्त है। लेखक की अंचल के प्रति बेसब्र आत्मीयता है। वह स्मृति में अंचल को साकार कर देता है-"यह तरैना पुल है, यह हाटा है, यह मझगांवा हैं. यह गगहा है।" अंचल उसमें पूरी तरह से रचा बसा है— दशहरे के मेले की गंध जुते- जाते खेतों की गंध, अलगनियों पर सूखते धराऊ रेशमी कपड़ों की गंध, धूप में सूखती मक्के की बालियों की गंध, उगी हुई डीमियों की गंध, बगीचे में उगी हुई घासों की गंध, शरद के गड्ढों में थिराते हुए पानी की गंध...2 , अंचल की जीवन-गंध का यह व्यापक बिम्ब है। चित्रों की मूर्तता और श्रव्यता उल्लेखनीय है। "कट कट कर गिरते हुए अरार धड़ाम धड़ाम, धाराओं का बजबजाता हुआ शोर, धाराओं में पड़ी चीजों का बेतहाशा भागना, कभी किसी बड़ी-सी डाल का ऊपर उठना- गिरना, किसी नाव का डगमगाते हुए धाराओं से संघर्ष करना.... ऊपर - ऊपर काले बादलों का लहरा पर लहरा ....दूर तक धान के खेतों का काँपना और.... 3 कहीं- कहीं क्रिया-विहीन उपवाक्यों या पदबंधों से श्रव्य-दृश्य (audio-visual) चित्र संजोये हुए हैं। 'जल टूटता हुआ' में टूटते हुए बांधों से दरकते जल की समानान्तर या विपरीत धाराओं को', 'अपने लोग' में देहाती शहर के वातावरण में हवा की वर्तुलाकार विषाक्त लहरों को, सूखता हुआ तालाब में टूट-टूटकर गृह रहे बगीचे" को तथा उपन्यासों के शीर्षकों को प्रतीकात्मक गुणवत्ता मिली है। कुछ नये सादृश्य भी प्रभावी हैं। "दर्द अब आँवा बनकर दहक रहा है मौत की तरह भीगा हुआ अंधकार एक जगह से फट गया, उमा का बीमार शरीर कसाई के घर में पड़ी गाय की तरह हलहल काँप रहा था, कुकरौंछी लगे हुए गदहे की तरह पूरे गाँव में दौड़ रहा था, चाय इस तरह सुड़कने लगे जैसे बैल नाँद में मुँह डुबोकर सानी का पानी सड़कता है, आदि। ये सादृश्य आँचलिकता के गर्भ से उपजे होने के कारण परिवेश को भी यथातथ्य बनाते हैं।

     व्यंग्यात्मकता इन उपन्यासों की भाषा की प्रकृष्ट विशेषता है। शब्दों के विपरीतार्थक प्रयोग, परोक्ष-प्रतीकात्मक प्रकथन, व्यंग्यात्मक वाक्य और विरोधी रंगों के इस्तेमाल से उपन्यासों में कथ्य को चुटीला और दहलाने वाला बनाया गया है।

(अ) पिताजी सुबह-सुबह यह मंगलध्वनि (गालियाँ) करते हुए खड़े हैं।⁷

 (ब) गाँव की लड़की के साथ शराफत (बदमाशी करते हुए देखा है।

(स) खाना कुत्तों (शिवलाल आदि) के लिए बना था, उसे बैलों को खिला दो। आखिर गाँव के कुत्तों से अपने बैल अधिक नजदीक है न.१

(द) चोंकरदास की हवेली के सामने सड़क चौड़ी हो जाती है, जैसे वह भी उनका ख्याल रखती हो। (शोषकों पर व्यंग्य) ¹⁰ 

(य) इस हिन्दुस्तान में आदमी होना ही काफी नहीं होता, उसे किसी न किसी का आदमी होना चाहिए।"

(इ) जैसे एक नई दुनिया देखी एक दुनिया जिसका रंगमहल किसानों और मजदूरों की चीख-चिल्लाहटों के कंधे पर खड़ा था, जिसके कमल इन गरीबों के पसीने के कीचड़ में खिले थे, जिसका प्रकाश गरीबों की हड्डियों की रगड़ से फूटता था।¹² (विरोधी रंगों के स्थापत्य से पूँजीवाद पर व्यंग्य) 

        उपन्यासों में कहावतों- मुहावरों का प्रयोग भी आँचलिकता लिए हुए है। ये लोकोक्तियाँ पृष्ठभूमि, अंचल के ठेठपन और लोकजीवन के सत्यों की जिन्दा अभिव्यक्तियाँ हैं—'आन्हर कुकुर बतासै भूके, कहिया पूत जनमलें, कहिया झाँकरि भइल आदि। 'हिन्दी में प्रचलित कहावतों- मुहावरों का भी व्यापक प्रयोग हुआ है। आँचलिक भाषा की क्रियाओं के कतिपय व्यवहार हिन्दी के दायरे को विस्तार देते हैं—'तो मोहनभोग लेकर भकोसों और दीया भर-भरकर चरणामृत सुड़को।" "पेट मडुआ से बोकरवाते (बात उगलवाना) रहे', 'अच्छी फिंचाई की थी' इत्यादि। मिथकीय वाक्यों और शब्दों के प्रयोग अंधविश्वासों और ग्रामीण प्रकृति की श्रद्धान्धता को द्योतित करते हैं-"वन मुर्गियों बनकर पकड़ा है पेट मडुआ ने।13 'गान्ही जी (गांधी) अवतारी आदमी हवें, मुरदा के जिया देलें। जेल में से उड़ि जालें । कुआँ में कूदि के पचास कोस दूर जा के उतराले। "14 'सेमल के पीछे तो जालिम नट रहता है।' आदि। गंवई बोली (विभाषा) के वाक्यों और लोकगीतों की पंक्तियों से आंचलिक रंग गहरा और लयात्मक बन गया है। लोकगीत पूरे परिवेश की व्यथा, नारी की कसकती पीर और अंचल की समस्याओं को जीवंत करते हैं, तो बोली गत वाक्य अंचल के मुहावरे को व्यंजित करते हैं-

(अ) पान खा के छुरिया छिपा के बेइमनवां हँसे ला कसइया कि अइहो लोगवा।¹²

(ब) हाथ गोड़ फूलि जइहें पेटवा निकरि जइहें बंगला के पानी है, खराब रे विदेसिया।¹⁶ 

(स) हम चरखें से लेवें सुराज, हमार कोई का करिहें।

(द) अरे, हो देखवे रे, भंइसिया और बकरिया, एक्के में मिलि के ताले के ओह पार निकलि गइली। दउर-दउर हाँकि ले आउ नाहीं त केहू के खेत में परि जइयें त हमहन दूनों जनी का मरम्मत होने लागी।¹⁷

     शहरी परिवेश और डायरी के अंशों में भाषा का परिनिष्ठित रूप तथा अंग्रेजी शब्दों वाक्यों का प्रयोग संदर्भ के अनुरूप हुआ है। साहित्यिक परिचर्चाओं में विचारधाराओं से सम्बद्ध शब्दावली तथा अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बुद्धिजीवियों के शगल को व्यक्त करता है।

(अ) आधुनिकता के नाम पर एक अमूर्त और सार्वभौम संत्रास को उगलते रहते हैं।"

(ब) 'आधुनिकता का रिश्ता ये लोग नवीन सामूहिक शक्तियों और मूल्यों से क्यों नहीं जोड़ पाते, और क्यों नपुंसकतावादी मध्यवर्गीय व्यक्तिवादिता को ही आधुनिकता की संज्ञा देते हैं। 

(स) प्रेम एक इल्यूजन है, आदमी को भटकाता है।²⁰

       डायरी के अंशों में अथवा स्मृति-चित्रों में वाक्यविन्यास सामान्य वाक्य-योजना से विशिष्ट एवं जटिल हैं। बौद्धिक परिचर्चाओं में वाक्य लम्बे और उलझें हुए हैं। उपन्यासों में वाक्य-योजना की सामान्य वृत्ति छोटे और साधारण वाक्यों का गठन एवं प्रवाह है। परन्तु विशिष्ट स्थलों, संदर्भों, पात्रों और शब्द-चित्रों के अनुरूप जटिल मिश्र वाक्यों, संयुक्त वाक्यों, क्रियापरक संक्षिप्त उपवाक्यों, क्रियाविहीन वाक्यों का गठन लेखक के भाषागत सचेत प्रयोग को दर्शाता है। कहीं-कहीं सूक्तिवाक्य या व्यंग्यपरक अवधारणा सूचक वाक्य भी भाषा की शक्ति और संहति को लक्षित करते हैं-"जमींदारी की सभ्यता आदमियत को धीरे-धीरे निगलना शुरू करती है।"" देहात में पुरुषार्थ पत्नी को पीटे बिना अधूरा रहता है।" "मेरी शिक्षा-दीक्षा की श्वेत प्रतिमाओं के नीचे कोई कराह रहा है।" "खून का रिश्ता पानी का हो रहा है। और पानी का रिश्ता खून बन रहा है।" "दिल्ली में जैसे लोग सुबह को जगाते हैं और यहाँ सुबह लोगों को जगाती है।" इत्यादि।

     उपन्यासकार ने अंचल, देहाती शहर और महानगर को समस्याओं, संघर्षों और संवेदनों के धरातल पर चित्रित करते हुए तुलनात्मक प्रतिक्रियाएँ भी व्यक्त की हैं। अंचल की सामुदायिकता दरक- दरक कर सूखते सूखते, कँटीले और विषाक्त सम्बन्धों में परिवर्तित हो रही है। आज भी ये अंचल, ये देहाती शहर अकथ गरीबी में कसमसा रहे हैं। राजनीति ने सम्बन्धों को इतना विषाक्त बना दिया है कि कोई स्वतन्त्र रहकर जी नहीं सकता। उपन्यासकार ने स्वातंत्र्योत्तर भारतीय जीवन, विशेषतः आँचलिक और देहाती शहरों के "जनजीवन में आए परिवर्तनों को बहुत ही बारीकी से पकड़ा है। उसका मूल संकल्प उसी खुरदरे यथार्थ, रीतती हुई संवेदनाओं, ग्राम जीवन के संघर्षों और उनमें होने वाले परिवर्तनों को दर्शाना है। ये समस्याएं, ये परिवर्तन और सामुदायिक मूल्यों को खंडित करने वाले स्वार्थी व्यक्तित्व किस तरह गांधीवादी आस्थाओं और आजादी के सपनों को निरर्थक और विकृत कर रहे हैं, इसके मार्मिक चित्रण उपन्यासों की भाषा में खुरदरे और बेलौस यथार्थ के साथ हुआ है। उपन्यासकार आँचलिकता को शैली या आन्दोलन के रूप में ग्रहण नहीं करता, अपितु अंचल को एक समग्र एवं यथार्थ बिम्ब के रूप में सजीव बनाता है। इसीलिए आँचलिक भाषा का प्रयोग संतुलित है, वह अपने आप में साध्य नहीं, अपितु साधनभूत है।

       रचनाकार कथ्य की सम्प्रेष्यता को अधिक महत्त्व देता है। इसीलिए भाषा में सर्वत्र सरलता और स्पष्टता, कथात्मकता और लयात्मक प्रवाह है। वह भाषा के पारंपरिक प्रयोगों का ही अभ्यस्त नहीं है, उगती हुई भाषा को भी पहचानता है। यह उगती हुई भाषा जनजीवन की है, उदास चेहरों की है, ठंडी आस्थाओं और निरीह चेहरों की है। जीवन से इतने गहरे लगाव के कारण ही भाषा में जीवन की तपन मूर्त हुई है. सूखती हुई अंचल की संवेदनाओं का यथार्थ बिम्बन हुआ है। लेखक शिल्पगत, भाषागत या शैलीगत प्रयोगों में न उलझकर कथ्य की सजीव और संवेदनात्मक अभिव्यक्ति करता है। इसीलिए कलात्मक स्थापत्य और परिवेशगत यथार्थ में प्रभावी एवं संतुलित गठबन्धन है।

सन्दर्भ:

1. आकाश की छत, पृष्ठ 26

2. अपने लोग, पृष्ठ 148

3. सूखता हुआ तालाब, पृष्ठ 26

4. जल टूटता हुआ, पृष्ठ 287 (लघु संस्करण, 1979)

5. अपने लोग, पृष्ठ 274

6. सूखता हुआ तालाब, पृष्ठ 20 7. पानी के प्राचीर, पृष्ठ 31 (संशोधित संस्करण, 1976)

8. पानी के प्राचीर, पृष्ठ 107 9. सूखता हुआ तालाब, पृष्ठ 4

10. आकाश की छत, पृष्ठ 38

11. अपने लोग, पृष्ठ 244

12. जल टूटता हुआ, पृष्ठ 47

13. सूखता हुआ तालाब, पृष्ठ 40

14. पानी के प्राचीर, पृष्ठ 101

15. जल टूटता हुआ, पृष्ठ 156 16. जल टूटता हुआ, पृष्ठ 43-

17. अपने लोग, पृष्ठ 255

18. अपने लोग, पृष्ठ 130 19. अपने लोग, पृष्ठ 313

20. अपने लोग, पृष्ठ 329

बी. एल. आच्छा

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