स्वामी दयानन्द सरस्वती : निष्ठावान हिन्दी प्रेमी

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Premi : Swamy Dayanand Saraswati

Hindi Premi Swamy Dayanand Saraswati

स्वामी दयानन्द सरस्वती : निष्ठावान हिन्दी प्रेमी

परम पिता परमात्मा ने सभी प्राणियों में श्रेष्ठ प्राणी के रूप में मानव को धरती पर अवतरित किया है। मानव की श्रेष्ठता उसके कार्यों द्वारा परिलक्षित होती है। अन्य प्राणियों की अपेक्षा मानव में और एक विशेषता है वह है वाणी। वाणी के द्वारा वह अपने विचारों को स्पष्ट, सरल, सरस ढंग से व्यक्त करने में सक्षम है। वाणी का प्रभाव मन पर गहरा पड़ता है। इसीलिए वाणी को दिव्यवाणी, वेदवाणी, देववाणी ऐसे अनेकों नाम से संबोधित किया जाता है।

"ऐसी बाणी बोलिए। मनका आपा खोय।

औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय।।'

सतपुरुषों की वाणी ऐसी ही होती है। इसी प्रकार यह भी कहा गया है।

"जात न पूछो साधु की, पूछलीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का पडा रहन दोम्यमान।।'

के अनुसार ज्ञानी, महात्मा, संत, दिव्यात्माओं के बारे में उपरोक्त दोहा उचित बैठता है। उनकी रचनाओं में अंधकारमय जीवन को प्रकाशमय कर देता है। ज्ञानी सदा सुखी, अज्ञानी सदा दुःखी भी कहा गया है।

भारत की पुण्य भूमि में समय समय पर धीर, वीर, गंभीर देश भक्त साधू सन्तों ने जन्म लिया हैं। जिनके कारण न केवल उनके माता-पिता का नाम रोशन हुआ है अपितु समस्त मानव जाति का कल्याण होता आया है। यह किसी विशेष प्रान्त, प्रदेश का न होकर सम्पूर्ण भारत देश में ऐसे लोग जन्मे हैं। इसीलिए भारत महान कहलाता है।

"यदा यदा ही धर्मस्य ग्लार्नि भवति भारत:"

गीता के वाक्य को सार्थक करने, धर्म की रक्षा करने गो ब्राह्मण की रक्षा करने, समाज को दुष्टों से मुक्ति दिलाने अवतारी पुरुष जन्म लेते ही आ रहे हैं। जैसे परतंत्र भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी, रामप्रसाद बिस्मिल, बालगंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, सुभाषचन्द्र बोस, सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, अल्लूरि सीतराम राजू, सरदार पटेल, महात्मा गांधी आदि लोगों का आर्विभाव हुआ। वैसे ही कंस से मुक्ति दिलाने कृष्ण का, रावण से मुक्ति दिलाने राम का जन्म हुआ था।

कौन जानता था कि गुजरात के मोरवी जिला टंकारा ग्राम में सन् 1824 मई को जन्मा बालक अपनी प्रतिभा का डंका चहुं ओर इतनी जोर से, प्रभावशाली ढंग से बजाने में सफल सिद्ध होगा, जिसकी ध्वनि युगों तक गूंजेगी। अंबा शंकर का पुत्र मूल शंकर का जन्म धार्मिक परिवार में हुआ। पिता शिव भक्त थे। माता अमृता यशोदा भी धार्मिक स्वभाव की महिला थी।

घर का त्याग कर स्वामी दयानंद ने तीर्थ स्थानों की यात्रा की 14-11-1860 को उनकी भेंट स्वामी पूर्णानंद से हुई। सन्यास की दीक्षा ली। गुरु ने उनका नाम मूलशंकर से दयानंद सरस्वती बनाया। ढाई वर्षों में अष्टाधायी महाभाष्य व्याकरण का ज्ञानार्जन किया।

आपने 10 अप्रैल 1875 को बंबई में आर्य समाज की स्थापना की। वे युगदृष्टा थे एवं युगसृष्टा भी थे।

स्वामी दयानन्द सरस्वती गुजराती भाषा-भाषी होते हुए भी इन्होंने हिन्दी राष्ट्र भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत काम किया। हिन्दी गद्य का विकास इनके कार्यकाल में अधिक हुआ। राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा मानते थे इसीलिए अपना समस्त लेखन कार्य इसी भाषा में किया। एक धर्म, एक भाषा और एक लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण हित और समस्त जाति का उन्नत होना दुष्कर है। देश की एकता, देश की भाषा से ही संभव है। इसीलिए उन्होंने वेद मंत्रों की भाषा, व्याख्या, संस्कार विधि, ऋग्वेद आदि भाष्य भूमिका तथा सभी पत्र व्यवहार राष्ट्र- भाषा में ही किया करते थे। अधिकांश पुस्तकों की रचना आपने इसी भाषा में ही की। इससे पता चलता है कि भाषा के प्रति उनकी कितनी दूर दृष्टि थी।

धर्म प्रचार करते-करते स्वामी दयानन्द सरस्वती जोधपुर पहुंचे। जोधपुर नरेश के यहां अतिथि के रूप में रहना पड़ा। शानदार आतिथ्य भी मिला पर राजा का व्यवहार इन्हें जंचा नहीं । स्पष्ट वक्ता, निर्भीक ऋषि, सत्यवादी से यह सब देखा न गया। इसीलिए निर्मोही संत सभा में खरी खरी सुनाने लगे। उन्होंने कहा "राजाओं का संबंध सिंहनियों के साथ होने के स्थान पर कुतियाओं के साथ होना राजधर्म नहीं कहलाता।" सत्य वाक्य कभी भी कड़वे लगते हैं। राजा लज्जित हुआ। राज दरबार के कुछ चापलूसियों ने मिलकर स्वामी जी के विरुद्ध षडयंत्र रचाकर सोते समय दूध में कांच को बारीक पीसकर पिला दिया। जो विष से भी अधिक भयानक सिद्ध हुआ। कांच पूरे शरीर में फैल गया। दीपावली के दिन भयंकर यातना के साथ स्वामी जी तड़पने लगे फिर भी उनके मुख से किसी के प्रति न राग, न द्वेष था। तड़पते हुए स्वामी जी को देखकर गुनहगार सेवक ने अपना गुनाह स्वीकार किया। इस पर भी दयावान दयानन्द ने उसे धन देकर वहां से दूर भाग जाने को कहा। यह है उनकी महानता, क्षमाशीलता, उदारता।

स्वामी जी चल बसे मुख से कहते कहते "हे दयामय भगवन ! तेरी इच्छा पूर्ण हो गायत्री मंत्र के साथ।"

जो दीप सन् 1824 टंकारा गांव तिवारी घराने में प्रज्वलित हुआ था वह 30 अक्टूबर 1883 में बुझता देख लोग कह उठे । 'जब तक सूरज चांद रहेगा स्वामी दयानन्द तेरा नाम अमर रहेगा।"

"यह कौन गया इस महफिल से

अरमान दिलों के कहने लगे

इस आर्य समाज के संस्थापक

यों आज अचानक छोड़ चले।"

यह मत कहो कि जग में कर सकता क्या अकेला। लाखों को रोशनी देता सूर्य एक अकेला ।

ओम शांति शांति शांति हि।

- रामचन्द्र राव देशपाण्डे

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