विष्णु प्रभाकर के नाटकों में मनोवैज्ञानिक आधार

Dr. Mulla Adam Ali
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Vishnu Prabhakar Ke Natak

Vishnu Prabhakar Ke Natak

विष्णु प्रभाकर के नाटकों में मनोवैज्ञानिक आधार

यदि बारीकी से देखा जाए तो साहित्य और मनोविज्ञान दोनों का आधार 'मानव मन' ही है। साहित्य यदि हमारी मानसिक प्रवृत्तियों, भावों, विचारों की अभिव्यक्ति है तो उसका वैज्ञानिक विश्लेषण 'मनोविज्ञान' है। मनोविज्ञान और साहित्य दोनों न केवल व्यक्ति को समझने की चेष्टा करते हैं, बल्कि वास्वविक जीवन और सहज प्रवृत्तियों को उद्घाटित भी करते हैं। आज का साहित्यकार मानव जीवन की उलझनों पर विचार करता है और मानव-मन की असीम गहराइयों में डूब कर जीवन के यथार्थ को चित्रित करता है। यही वजह है कि इधर मानव जीवन के संघर्षों और समस्याओं से उत्पन्न प्रतिक्रियाओं उनकी अनुभूतियों और उसके अचेतन आदि को साहित्य में बखूबी रूपायित किया जा रहा है।

इसमें मतैक्य है कि पाश्चात्य नाटक परंपरा ने भारतीय रंगमंच और नाटक साहित्य को गहरे में प्रभावित किया है। इन्हीं पाश्चात्य नाटक शैलियों के प्रभाव के कारण विशेषतः मनोवैज्ञानिक शैली से मानव जीवन का आंतरिक पक्ष सच्चाई और यथार्थ के साथ चित्रित होने लगा। अंग्रेजों के भारत में आने के बाद कोलकाता, मुम्बई, मद्रास तथा भारत के अन्य बड़े शहरों में यूरोपीय समुदायों ने नाटक शालाएं खोली, जहाँ शेक्सपियर के नाटकों के अतिरिक्त फ्रेंच नाटकों का भी अभिनय होता था। पश्चिम के नाटककारों की मूल कृतियों के अनुवाद भी हुए, जिनके माध्यम से भारतीय लेखक प्रभावित हुए और उन्होंने कई नवीन प्रयोग किये।

दिलचस्प है कि सिग्मंड फ्रायड की मनोविश्लेणवादी विचारधारा ने पश्चिमी साहित्य और कला को विशेष रूप से प्रभावित किया है और स्वच्छन्द विचारों की एक नई पीढ़ी को जन्म दिया है। हिन्दी नाटक साहित्य में अहंवादी प्रवृत्ति यौन भावनाओं का नग्न चित्रण, आत्महीनता की भावना तथा स्त्रियों के प्रति हीनता का भाव निश्चित रूप से इस दर्शन से प्रभावित होने का ही प्रतिफल है। इस संदर्भ में विष्णु प्रभाकर ने अपने मनोवैज्ञानिक नाटक साहित्य में मानव-मूल्यों को बड़ी सशक्तता से चित्रित किया है। विषय की दृष्टि से उन्होंने विविध पृष्ठभूमि पर आधारित एकांकी लिखे हैं। किन्तु समस्त एकांकी साहित्य में मनोविज्ञान मूल-प्राण रूप में दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया है कि मनोवैज्ञानिक एकांकी लिखने में उनकी विशेष रुचि है। इसी कारण अपने एकांकियों का ताना-बाना उन्होंने मनोवैज्ञानिक आधार पर बुना है। उनका कहना है- 'सामाजिक, राजनीतिक, घरेलू कैसा भी कथानक हो, मैं ताना-बाना अपनी सामर्थ्य के अनुसार मनोवैज्ञानिक आधार पर बुनता हूँ। मेरे लिए मनोवैज्ञानिक अध्ययन का अर्थ है कि मनुष्य जो कुछ दिखाई देता है, वही नहीं है, उसके अतिरिक्त भी वह बहुत कुछ है।'

विष्णु प्रभाकर ने एक मानवतावादी एकांकीकार होने के नाते अपनी कृतियों में यथार्थ पात्रों को भी स्थान दिया है। उन्होंने न केवल उनके मन की जटिल ग्रंथियों का परिचय दिया है, अपितु उन्हें सुलझाने का भी प्रयास किया है। मनुष्य के आचरण में जो परिवर्तन होता है वह मनोवैज्ञानिक कारणों से ही होता है। आज का मनुष्य विभिन्न जटिलताओं के कारण अनेक तनावों से गुजर रहा है। इन तनावों के कारण मानव- -मूल्यों में गिरावट आना स्वाभाविक ही है। विष्णुजी ने अपने मनोवैज्ञानिक एकांकियों में मनुष्यों के कृत्रिम आवरण को हटाकर जीवन को वास्तविक धरातल पर लाने का अभूतपूर्व साहस दिखाया है। इस श्रृंखला में उपचेतना का छल', 'मुख्बी', 'ममता का विष', 'दस बजे रात', 'जज का फैसला', 'दो किनारे', 'तीसरा आदमी', 'संस्कार और भावना', 'रहमान का बेटा', 'कूपे', दरिन्दा', 'सवेरा', 'जहाँ दया पाप है', 'क्या 'वह दोषी था', 'डरे हुए लोग', 'माँ', 'नये-पुराने', -मनोवृत्ति', 'मीना कहाँ है', आदि एकांकी लिये जा सकते है। उन्होंने मुख्यतः अपने एकांकियों और नाटकों में जटिल पात्रों को ही लिया है, जिनके मन में किसी न किसी प्रकार की ग्रन्थि है।

मनरोगों और अपराध वृत्ति की दृष्टि से विष्णु प्रभाकर का 'माँ' और 'मीना कहाँ है', शीर्षक एकांकी बहुत सशक्त एकांकी कहे जा सकते हैं। 'माँ' एकांकी में बचपन में ही माँ से विशुक्त मनीषी नामक एक बालिका की करुण-मनोगाथा है। 'मीना कहाँ है', का नरेश अपनी ही अनाथालय से गोद ली हुई बालिका मीना की बाल-सुलभ इच्छाओं को अपनी आर्थिक- स्थिति के कारण पूरा न कर पाने से उसे मार-पीट से इतना बेदम कर देता है कि वह उठ नहीं पाती। इस दौरान सीढ़ियों से लुढ़क कर उसकी मृत्यु हो जाती है। यह सदमा नरेश के लिए पीड़ादायक स्नायुरोग बन जाता है। वह आत्मसम्मोही अपराधी बना हुआ उसकी मृत्यु पर पर्दा डाले रखना चाहते है पर एकान्त में निरन्तर सिसकता है और बुड़बुड़ाता रहता है। यहाँ अर्थ और रिश्तों के सम्बन्धों के साथ-साथ नैतिक मूल्यों के पतन के कारणों को विष्णुजी ने बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से बताया है।

विष्णुजी ने एकांकी 'दस बजे रात' में मनोविज्ञान के माध्यम से एक ऐसे पात्र का परिचय कराया है, जो अपनी पत्नी का गला घोंटकर हत्या का अपराध इसलिए करता है कि वह एक ट्रेन दुर्घटना में अपंग और पराश्रित हो गई है। इसी मनोवैज्ञानिक विषय पर उनके नाटक 'जज का फैसला' को भी लिया जा सकता है। नाटक का पात्र प्रकाश अपनी पत्नी विमला की हत्या अस्पताल में गला घोंटकर करता है। क्योंकि वह निहायत खूबसूरत महिला थी और रेल दुर्घटना में उसका पैर कट गया, एक आँख जाती रही और मुँह कुछ टेढ़ा हो गया था। सिर से लेकर ठोड़ी तक एक बड़ी दरार पड़ गयी थी। प्रकाश और विमला की शादी हुए कुछ दिन भी नहीं बीते थे। दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते थे, प्रेम करते थे।

प्रेम की हत्या के तुरन्त बाद प्रकाश को दुःख नहीं होता, बल्कि शान्ति मिलती है। तभी तो वह कहता है- "अब ठीक है, तुम्हारी वेदना खत्म हो गयी, तुम्हारी सुन्दरता अमर हो गयी।" मनोवैज्ञानिक दृष्टि से नैतिक मूल्यों में मन की भूमिका अहम् रहती है। अचेतन मन में वास करनेवाली दमितेच्छाएँ, वासनाएँ जब-जब चेतना स्तर पर प्रकट होने का प्रयास करती है तो अहम् रूपी सेंसर इन्हें नियंत्रित करता है। जो इच्छाएँ समाज सापेक्ष नैतिकतापूर्ण होती हैं, उन्हें अभिव्यक्ति का अवसर नैतिक-मन की स्वीकृति से मिल जाता है, शेष अचेतन में ही सामान्य जीवन से लेकर अतीत इतिहास तक है। विष्णु प्रभाकर ने अपने नाटकों और एकांकियों में नैतिक-अहम् को इसी परिप्रेक्ष्य में उद्घाटित किया है और स्वतः ही वर्तमान को नैतिक स्तर पर से होते हुए विश्व बन्धुत्व तक रचनात्मक होने का सन्देश दिया है। उनके एकांकी 'मैं भी मानव हैं' में कलिंग युद्ध के बाद अशोक के मन में जो हृदय परिवर्तन हुआ वह नैतिक मन की स्वीकृति संभव हुआ। हृदय परिवर्तन के पूर्व अशोक के मन में मानवतावाद के जो अंकुर फूट रहे थे, उन्हें विष्णु प्रभाकर ने बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से चित्रित किया है।

विष्णु प्रभाकर ने अपने एकांकियों और नाटकों में ऐसे पात्रों की योजना भी की है, जो जगह-जगह अपने द्वन्द्व और कुंठा को अभिव्यक्त करते हैं। ये पात्र सकारात्मक पात्रों के साथ घटनाओं में पड़कर विध्वसंकारी सिद्ध होते हैं। उनकी इन्हीं प्रवृत्तियों के कारण रचनात्मक पात्र अपना विकास करते हैं। इसी प्रक्रिया के दौरान मनोवैज्ञानिक मूल्यों के दर्शन होते हैं। विष्णुजी के कई एकांकियों में ऐसे कई पात्र हैं, जो अपने द्वन्द्व- कुण्ठा पर नियंत्रण नहीं कर पाते हैं। उनके 'तीसरा आदमी' एकांकी का पात्र समर अपनी पत्नी सुचेता के डॉ. विवेक से सम्बन्ध होने की शंका से ग्रस्त है। इसी प्रकार उनका रेडियो एकांकी 'सड़क' अन्तर्द्वन्द्व का एक बेमिसाल उदाहरण है। इसमें उन्होंने स्त्री की तुलना सड़क से कर नारी की व्यथा अन्तर्द्वन्द्व के माध्यम से प्रस्तुत की है। एकांकी में सिर्फ एक मात्र नारी पात्र है, जिसमें मनोवैज्ञानिक ढंग से कराहती हुई मानवता को बताया गया है। विष्णुजी के कुछ ऐसे मनोवैज्ञानिक एकांकी और नाटक भी हैं, जिनमें यौन विकृतियों की कतिपय प्रवृत्तियाँ उपलब्ध होती हैं। उनके एकांकी 'रक्तदान' में कबायली लोग परस्त्रीकामिता से पूर्णयता प्रेरित होकर अधिक क्रूर दिखाई पड़ते हैं। इसी प्रकार रेडियो एकांकी 'कूपे' के पात्र भी परस्त्री-पुरुष कामिता के ही शिकार हैं।

विष्णुजी हमेशा स्वतंत्र और स्वालंबी नारी के समर्थक रहे हैं। उनका मानना है कि युगों-युगों से हमारा समाज नारी को तरह-तरह से प्रताड़ित करता आया है, जिससे उसका स्वतंत्र अस्तित्व कभी उभर नहीं पाता। एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है कि नारी स्वावलंबी हो लेकिन यह तभी संभव है जब पुरुष का अंकुश उस पर से टूटे। स्पष्ट है कि विष्णुजी ने व्यक्ति चेतना के सकारात्मक व नकारात्मक दोनों पक्षों को केन्द्र में रखकर मनोवैज्ञानिक नाटकों की रचना की है। इसमें दो राय नहीं कि मनोविज्ञान की दृष्टि से उनकी रचनाएँ अत्यंत सशक्त और उच्चकोटि की है।

- अमरसिंह वधान

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