सहज मानवीय संबंधों के अन्वेषी : विष्णु प्रभाकर

Dr. Mulla Adam Ali
0

Vishnu Prabhakar : Explorer Of Natural Human Relations

Vishnu Prabhakar explorer of natural human relations

सहज मानवीय संबंधों के अन्वेषी : विष्णु प्रभाकर

स्वतन्त्रता परवर्ती परिवेश में व्यक्ति और परिवार तथा परिवार और समाज के पारस्परिक संबंधों में एक तनाव आया है, जिससे नये संबंध सूत्र उद्घाटित हुए हैं। व्यक्ति अपनी इयत्ता के लिए परिवार में आदर्श और यथार्थ के द्वंद्वों से पीड़ित हो काँच के बर्तन की तरह टूट रहा है। माँ-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी आदि जैसे पवित्र संबंध भी संयुक्त परिवारों के विघटन से टूट उठे हैं। व्यक्ति अंदर और बाहर दोनों स्थानों पर तनावों से बचा नहीं है। कहीं आर्थिक विपन्नताएँ उसे कुंठित कर रही हैं, कहीं सांप्रदायिकता, तो कहीं प्राचीन मान्यताएँ उसे तोड़ रही हैं। न वह आधुनिक बन पाता है और न प्राचीन मूल्यों का समर्थक ही इस प्रकार व्यक्ति में मानवीय संबंधों की स्थिति संक्रमणशील बनकर रह गई है।

भारतीय समाज में परिवार का महत्व सनातन काल से स्वीकारा गया है। जीवन की व्यस्तता और अर्थ केन्द्रित दृष्टि ने परिवार संस्था को सबसे अधिक ठेस पहुँचाई है। जब तक भारत में संयुक्त परिवारिक संबंध विद्यमान थे किसी को यह अधिकार न था कि वह परिवार के हितों की अनदेखी कर स्वार्थ का व्यवहार करें भारतीय परिवार में नारी पहले परिवार की बहु थी, बाद में पत्नी । धीरे-धीरे यह दृष्टि बदलने लगी। पत्नी अपने पति पर अपना अधिकार मानने लगी। विवाह के तुरंत बाद अलग चूल्हा रखने की प्रथा चल पडी। आर्थिक स्थितियों के कारण पारिवारिक संबंधों में बदलाव आने लगे। लड़का दूसरी जगह नौकरी करेगा तो पति-पत्नी ही साथ रहेंगे। इन स्थितियों ने रक्त संबंधों को अतिक्षिण कर दिया भाई के प्रति भाई का कोई कर्तव्य न रहा माता-पिता बच्चों को बोझ बन गए और पारिवारिक संबंधों में ऐसा बिखराव आया कि परिवार का अर्थ ही बना पति-पत्नी और बच्चे। इन्हीं मानवतावादी संबंधों को विष्णु प्रभाकर जी ने अपने कथा को साहित्य में अभिव्यक्ति दी है। मानवीय संबंध ही शाश्वत संबंध होते हैं और मानवता में विश्वास रखना ही साहित्य में शाश्वत संबंधों की स्थापना करना है। सहिष्णुता, विनम्रता, दयालुता, सत्यपरायणता, ईमानदारी आदि मानवीय गुण हैं। जिस व्यक्ति के मन में मानवता के प्रति सच्चा प्यार और सम्मान होता है, उसका आदर्श महान होता है। वह मानवता के लिए अपनी जान की बाजी तक लगा देता है। इसी कल्याणकारी मानवता की भावना के संबंध में विष्णु प्रभाकर जी कहते हैं कि "मैंने अनीति का प्रचार करने के लिए कलम नहीं पकड़ा। मैंने मनुष्य के अंदर में छिपी मनुष्यता को उस महिमा को, जिसे सब नहीं देख पाते, नाना रूपों में अंकित करके प्रस्तुत किया है।

विष्णु प्रभाकर जी के समस्त साहित्य में मानवीयता का स्वर गूंजता है और उनके उपन्यास भी इससे अछूते नहीं है। ऐसा लगता है मानों उनके हरेक पात्र मानवता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। 'कोई तो' उपन्यास में नारी जीवन या स्त्री-पुरुष संबंधों के किसी एक पक्ष का नहीं अपितु अनेक पक्षों का यथार्थपरक आकलन मिलता है। भारतीय समाज के कौटुंबिक तंत्र कह आधारभूत ईकाई पत्नी को माना जाता है। पत्नी गृहिणी के साथ घर की रानी भी है। पर इन सारी प्रशस्तियों के बावजुद स्वचिंतन के आधार पर अपने व्यक्तित्व का निर्माण करने की आकांक्षा रखती है। 'स्वप्न' उपन्यास के नायिका की इच्छा है कि वह घर और बाहर दोनों क्षेत्रों में अपना मुकाम बनाए। पति भी उसके बर्ताव से तंग आ जाता है। सास भी पहले से ही उसके बर्ताव को देख चुकी थी वह अपने बेटे से कहती है- "तुम लोग पढ़े-लिखे हो। पढ़ी-लिखी तेरी बहु है। हमारा वह जमाना अब नहीं रहा जब खानदान की बात देखी जाती थी। खूबसुरती को तब कोई नहीं देखता था, लेकिन यह जो तुमने बहू को बाजारू बना दिया है, नाना, बाबा यह अच्छा लगता औरत औरत है। घर से बाहर औरत की आजादी नहीं होती। यह जो तेरे घर में कल से देख रही हूँ ऐसा तो मैंने बड़े पढ़े-लिखों के यहाँ भी नहीं देखा। तेरे सामने बहू इन ऐरे गैरे बदमाशों से धमाचौकड़ी कर रही है।'

विष्णु प्रभाकर जी ने यहाँ यह बताने का प्रयास किया है कि किस तरह एक नारी ही नारी के पारिवारिक आपसी संबंधों में दरार डाल रही है तो दूसरी ओर 'संकल्प' उपन्यास की नायिका सुमति अलग जाति की होकर भी सौमित्र के मरने के बाद उस परिवार का संबल बन जाती है। एक बूढ़े बाप व बेटी का सहारा बनकर वह जिंदगी बिताती है। डॉ. प्रशांत उसकी जिंदगी में आते हैं पर वह डॉ. प्रशांत का अपने प्रति आकर्षण महसूस कर भी उसे मोनिका को अपनाने को कहती है। वह अपने बेटे के लिए, जो सौमित्र की धरोहर है, उसके भविष्य के लिए भी विवाह नहीं करती। यहाँ पर विष्णु जी ने पारिवारिक संबंधों को संयोजने का कार्य किया है।

'अर्धनारीश्वर' उपन्यास की नायिका गुंड़ों से पति और नणंद को बचाने के लिए खुद सुनिता गुंड़ों की हवस का शिकार बन जाती है। पति और ससूर उसे पूर्ण सम्मान और अपनत्व देते हैं फिर भी सुमिता के लिए अपने पाप-बोध से मुक्ति पाना असह्य हो जाता है। सुमिता को सबसे ज्यादा यह बात खटकती है कि अपने सतीत्व को जिस नणंद के लिए लुटाया था वह भी उसे समझ नहीं पायी। यह हादसा परिवार के आपसी संबंधों को गाँठ डाल देता है। दूसरी ओर प्रौढ़ पम्पी पर नौकर द्वारा बलात्कार किया जाता है किंतु पति उसे सहारा देता है, फिर भी वह खुद को समाज के सामने अपमानित और अपराधिनी समझती है। पम्पी का पति उस सत्य को जानता है, इसलिए वह अपनी पत्नी को समझाता है - "बात अंततः तुम पर है, तुम्हारी अपनी शक्ति और क्षमता पर है। तुम गिरोगी, समाज तुम्हें रौंदता चला जाएगा। तुम खड़ा होना चाहोगी, मैं तुम्हारे साथ रहूँगा। तुम में चलने का संकल्प होगा तो मेरी शक्ति तुम्हें अजय कर देगी।" यहाँ पर पारिवारिक पति-पत्नी के संबंधों को संजोया गया है।

'तट के बंधन' उपन्यास में जुलेखा से वह औरत जमुना बन गई थी एक बच्चे की माँ भी थी। भारत सरकार ने उसे जबरन पाकिस्तान भेजना चाहा, तो वह अकेली ही जाना चाहती है। वह अपने बेटे को यहीं रखकर उसका भविष्य बनाना चाहती है। वह नीलम से कहती है कि "वह यहीं पैदा हुआ और उसे इसी माँ की सेवा करनी चाहिए। माँ की शिक्षा के बिना कभी संतान के इस धरती माँ का उद्धार संभव है।" यहाँ पर जुलेखा का स्वाभीमान चरम् स्नेहशीलता, मातृत्व, ममत्व, सदाचार आदि मानवीय गुणों का संयोजनात्मक चित्रण हुआ है। नारी युगों- युगों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से त्याग ही करती आ रही है।

विभाजन के समय जो भयंकर हादसे हुए उसमें हिन्दू- मुसलमान दोनों बुरी तरह फँस गये थे। इन हादसों में अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के लोग मौजूद थे। 'शमशू मिस्त्री' कहानी का नायक शमशू शुद्ध भावात्मक धरातल पर जीने वाला ऐसा पात्र है, जिसके लिए धर्म और जाति कोई मायने नहीं रखती। इसमें मानवीय गुणों को बखुबी देख सकते हैं। वह जितना प्यार हिंदुओं से करता है उतनाही मुसलमानों से। 'टिपू सुलतान' कहानी के नायक टिपू सुलतान में भी यहीं गुण देख सकते हैं। वह हिंदुओं व मुसलमानों में कोई भेद नहीं मानता और इन्हीं दंगों में उसकी मृत्यु हो जाती है।

मेरा बेटा, मुरब्बी, पड़ोसी, हिंदू, काफिर आदि कहानियाँ भी मानवीय संबंधों को अंकित करती हैं। 'मेरा बेटा' कहानी में बाप बेटे की करुण कहानी है। धर्म परिवर्तन के बाद भी रिश्ते कभी नहीं टूटते बल्कि और मजबूत हो जाते हैं। 'हिंदू' कहानी में हिंदू युवक द्वारा एक घायल सतायी हुई मुस्लीम औरत की मदद करना इन्सानियत की भावना को दिखाया गया है। 'काफिर' में एक मुसलमान व्यक्ति का अपने हिंदू दोस्त के बेटे को न बचा पाने की तड़प भी मानवीय संबंधों को उजागर करती है। विष्णु प्रभाकर की ऐसी अनगिनत कहानियाँ हैं जिनमें सहज मानवीय संबंध उभरकर सामने आए हैं। 'औरत' कहानी की नायिका न चाहते हुए भी दुश्मन की मदद करती है। उसे घायल देख उसका पाषाण हृदय पिघलने लगता है। 'इतनी सी बात' कहानी में एक मुसलमान युवक द्वारा एक हिंदू नारी की इज्जत बचाने के पीछे मानवीयता की भावना ही कात कर रही है। अपनी आँखों के सामने वह अपनी दूसरी बहन की इज्जत लुटती देख नहीं सकता था। इसीलिए जान की परवाह किए बिना डाकुओं से भीड़ जाता है।

विष्णु प्रभाकर के संपूर्ण कथा-साहित्य की मूल चेतना मानवीय संबंध है। उनके कथा साहित्य की मूल संवेदना का आधार मानवतावादी स्वर, नारी मुक्ति व जाति प्रथा का विरोध है। वैसे भी विष्णु प्रभाकर अपने कथा-साहित्य में आर्थिक व सामाजिक समानता की पैरवी करते हैं। विष्णु प्रभाकर स्वतंत्र रूप से लिखनेवाले लेखक हैं। इसीलिए उन्हें किसी भी धारा से जोड़ना उनका अपमान करना होगा, क्योंकि वे प्रबुद्ध संवेदनशील सात्विक वृत्ति के मानवतावादी लेखक हैं। उनके संपूर्ण कथा - साहित्य में प्रमुख रूप से मानवता का स्वर गुंजित होता है। उनके कथा-साहित्य के बारे में उन्हीं के शब्दों को प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है -

"मेरी कलम की अदालत में मेरा जमीर है,

मेरी कलम का सफर कभी रायगाँ नहीं जायेगा।"

संदर्भ ग्रंथ सूची;

1. लोकायती वैष्णव विष्णु प्रभाकर - डॉ. धर्मवीर पृ.सं. 87, 2. संकल्प- विष्णु प्रभाकर पृ.सं. 101

3. अर्धनारीश्वर - विष्णु प्रभाकर पृ.सं. 17

4. विष्णु प्रभाकर के कथा-साहित्य में सामाजिक चेतना - पृ.सं. 220

- शेख मुखत्यार शेख वहाब

ये भी पढ़ें; विष्णु प्रभाकर की कहानी बंटवारा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top