राजनीतिक व्यंग्य: कौन आरेला है, कौन जारेला है, किसको पता!

Dr. Mulla Adam Ali
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Political Satire by B. L. Achha : Rajnitik Vyanga in Hindi

Political Satire by B. L. Achha

अकेला ..थकेला...आरेला.. जारेला

बी. एल. आच्छा

       राजनीति के रंग भी बहुत इन्द्रधनुषी हैं। मगर कभी घटाटोप अंधेरे में राग एकलवन्ती भी। यों लम्बी पारियों के जश्न। वे जनता तो कभी थे ही नहीं, बस नेता ही नेता थे। जब देखो तब मंच पर। सदाबहार मंचेला। मंच पर ही पड़ोसी शिखरों से अपना-अपना 'साधेला।' बिन माला के गला कभी सजा नहीं। गला तो सदाबहार 'मालेला'। विचार भले ही उधार के, पर अपनी ब्रांड बनाकर विचार का 'परोसेला'। उनके नाम से कोई लेख लिख लाए, पर अखबार में उनके नाम से ही 'छपैला'। जीत के जश्न में सदाबहार 'रंगरेला'।

समय भी कैसे रंग बदल देता है। बादल कभी इस रंगत के, कभी उस रंगत के। चुनावी रंगत में खुद ऊँट को पता नहीं होता कि वह किस करवट बैठेगा। बादलों को खुद पता नहीं होता कि उनके वक्तव्यों की आकाशी कड़कड़ाहट के कितने मायने धुने जाएँगे।अपने गणित से सधी उनकी जबानी अलंकार भाषा क्या गुल खिलाएगी? फिसली जबान के कितने देसी संस्करण ज़ुबां- ज़ुबां पर हल्ला मचाएँगे। उन्हें भनक ही नहीं पड़ती कि जो अलंकार उनके वक्तव्यों की मिसाइल थे, वो अपने ही पाले में फटकर विरोधी की खुशनुमा जीत की साधक बन जाएंगे। 

फिर चाहे अलंकार अनेक-अर्थी हों। श्लेष हों या यमक। पर विरोधियों के अर्थान्तर हँसवाइयों के गोल- गप्पे बन जाएँगे। कुछ समय का फेर। लगातार दो-चार बयानबाजियों ने पंगे ही पंगे खड़े कर दिये। वे अपने ही जनताई खेत में नागफनी की कँटीली बाड़ उगा गये। समझ गये कि अब इनसे पिण्ड छुड़ाना ही मुश्किल।

जेब में पड़े वोट और समर्थन में हाथ हिलाते लोग भी सिग्नल को पहचानते हैं। हाईकमान का सिग्नल हो तो मुकम्मल दौड़ में आगे। लाल हो तो 'सटकेले' । पीली बत्ती में जरा 'डरेले'। और एक समय के बाद सिग्नल ही नहीं मिलते, तो सैलाब में 'अकेले'।

लोगों ने पूछा-'आजकल वे मंच पर नहीं दिखते?"

उत्तर मिला-'आजकल अकेले से हैं।" 

खोदकर पूछा तो उत्तर मिला-"थकेले- से हैं।" 

"पर उनकी बातें खूब सुनी जाती थीं। अब क्या हो गया है?"

वे बोले-"अब वे हर किसी को कोसते ही कोसते हैं। बदलते रंगों को और फिसलते वक्तव्यों को पहचानते नहीं। नये देवता और नये गीत की लड़ियों को समझते नहीं।"

मैंने पूछा- "यह तो हर किसी की जिन्दगी की सुर्खियाँ हैं। अपने अपने इतिहास का एल्बम।"

पर वे बोले- "लोग कहते हैं कि अब वे 'पकेला' हैं।"

मैंने कहा-" पर पार्टी ने तो इनको 'छिटकेला' बना दिया है।" 

"हां, पर किसी आस में 'अटकेला' है।"

मैंने पूछा -"पर आपने तो सहानुभूति के दो बोल भी नहीं टपकाए?" वे बोले - "आजकल वे बहुत नाराज हैं। कब बरस जाएँ अपनों पर। बहुत 'सरकेला' हैं।" 

 मैंने पूछा -"फिर पार्टी छोड़ क्यों नहीं देते? किस-आस में 'लटकेला' हैं

वे बोले- "अभी तो वे विचारों और विकल्पों में ही 'भटकेला' हैं। नब्ज टटोल रहे हैं हर किसी की। पता नहीं, कब 'पलटेला' हो जाएं।"

मैंने पूछा-"पर बाहर में कुछ भी न कहना तो दाल में....!" वे बोले - "हां, कुछ तो 'छुपैला' बने रहना पड़ता है। कभी अनेक संदेहों में 'भरमेला'।" मैंने कहा- 'पर ऐसे में तो भीतरी सुरंगों की भूल- भुलैया !" वे बोले - "हाँ इसीलिए पता नहीं चलता कि कब किस पार्टी में 'टपकेला' और कब समय देखकर 'बदलेला'। मैंने कहा - "पर लोग रात के अंधेरे में भी टूटते हुए तारों के बारे में कयास लगाए रहते हैं ।"वे बोले-" हां, इस कुहासे में पता नहीं चलता कि कौन किस पार्टी में 'आरेला' है और कौन कब'जारेला'। अखबार वाले भी हवाबाजी में कुछ छापते रहते हैं।"

मैंने पूछा- "पर आखरी में होगा क्या?" वे बोले- "यह तो पता नहीं। आदमी खुद ही अपनी ताकत और समर्थकों को 'तौलेला', तो समझ जाएगा।" मैंने कहा-" फिर भी करेगा क्या?" वे बोले - "या तो दूसरी पार्टी में 'फटकेला'; नहीं तो, अपने इन्द्रधनुषी इतिहास में रमे हुए इदरीच 'अटकेला'।"

- बी. एल. आच्छा

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मो-9425083335

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