विसंगतियों से जूझता व्यंग्य संग्रह : मंडी में ईमान

Dr. Mulla Adam Ali
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Mandi Mein Iman Book by Shashikant Singh 'Shashi'

Mandi Mein Iman Book by Shashikant Singh 'Shashi'

विसंगतियों से जूझता व्यंग्य संग्रह ‘मंडी में ईमान’

- राजेन्द्र वर्मा

वर्तमान गद्य व्यंग्य के लेखकों में श्री शशिकांत सिंह ‘शशि’ का नाम प्रमुखता से लिए जाने योग्य है। वे सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों वाले लेखकों में हैं। उनके लेखन का उद्देश्य मात्र मनोरंजन नहीं, शायद इसीलिए उनके यहाँ हास्य मुश्किल से मिलता है। समीक्ष्य पुस्तक से पहले उनके नौ व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पहला संग्रह ‘समरथ को नहिं दोष’ 2001 में आया था। इन संग्रहों में एक व्यंग्य काव्य है, तो दो उपन्यास हैं : प्रजातंत्र के प्रेत और दीमक। वे लगातार फेसबुक पर ही सक्रिय हैं और सामयिक मुद्दे उठाते हुए अपनी जनसरोकारी राय भी रखते आए हैं। विचार-गोष्ठियों में भी वे व्यंग्य के सरोकारों को लेकर चिंतित दिखाई देते हैं और अवसर पाकर अपनी बात सशक्त ढंग से प्रस्तुत करते हैं। पेशे से वे शिक्षक हैं, अतः समाज को शिक्षित और सुधारने के लिए उनकी प्रतिबद्धता सहज-स्वाभाविक है।

     ‘मंडी में ईमान’ 33 गद्य व्यंग्य लेखों का संग्रह है। इन लेखों में सत्ता की विद्रूपता और सामाजिक कायरता जहाँ उनके निशाने पर है, वहीं पत्रकारिता और साहित्य-जगत में उग आई विसंगतियों पर वे कड़ा प्रहार करते हैं। शीर्षक व्यंग्य, ‘मंडी में ईमान’ पर आधारित है। इसमें पत्रकारिता पर प्रखर व्यंग्य है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ— मीडिया, यानी अख़बार और टी.वी.चैनल, अपने दायित्व से कितना विमुख हो चुके हैं— यह बताने की ज़रूरत नहीं। सजग पाठक और दर्शक नित्य ही इनके कारनामे देखता है, लेकिन आश्चर्य तब होता है जब लेखक समुदाय भी अपने निहित स्वार्थों के चलते इनके विरुद्ध मुँह नहीं खोलते। पत्रकारों के गिरते चरित्र को दलाल कहना किंचित भी अनुचित नहीं। व्यंग्यकार ने इस व्यंग्य-लेख में ऐसे दलालों की मंडी का प्रबल चित्रण किया है जिसके हर दूसरे-तीसरे वाक्य में व्यंग्य उभरकर आता है। क्रिकेट कभी खेल भावना के लिए जाना जाता था, लेकिन आज उसकी पहचान बाज़ार से है। सारा खेल प्रीमियर लीग से सम्पन्न होता है, फिर भी क्रिकेटर आज भी लोकप्रिय और सम्मानित बने हुए हैं, नयी पीढ़ी के आदर्श तो हैं ही। लेखक इसी तर्ज़ पर पत्रकारों द्वारा नीलामी किए जाने की मंशा पर व्यंग्य करता है—

   “पत्रकारों ने सरकार से माँग की थी कि उनको भी खिलाड़ियों की तरह बिकने का पूरा अधिकार है, वे बिकने को व्यग्र रहते तो हैं, बिकते भी हैं, लेकिन उन्हें वह गौरव नहीं मिलता जो एक खिलाड़ी को बिकने पर मिलता है। अपने खरीदार के प्रति, वफ़ादारी में वे किसी भी जीव से कम नहीं होते, लेकिन उन्हें वफ़ादारी का वह तमगा नहीं दिया जाता जिसे गले में लटकाकर वे गर से दुम हिला सकें।” (पृ. 38)

     संग्रह में, साहित्यकार और बुद्धिजीवी पर जमकर व्यंग्य किया गया है। इसके पीछे शायद यही कारण है कि लेखक यह नहीं बर्दाश्त कर सकता कि लेखन जैसे ईमानदार और जनप्रतिबद्ध कार्य में भी मिलावट हो। किसी आम आदमी की चारित्रिक गिरावट साधारण व्यंग्य की बात है, लेकिन बुद्धिजीवी और लेखक-कवि की गिरावट सोची-समझी रणनीति है और उस पर प्रहार किया ही जाना चाहिए। ‘कलम के शिकारी, दरबारी राग, मंगलबाबू विमर्शकार, चिंतक नियरे राखिए, कमरे में बंद बुद्धिजीवी, खाल बिकाऊ है’ जैसी रचनाएँ इसी कोटि की हैं। ‘खाल बिकाऊ है’ अत्यंत रोचक रचना है जिसमें साहित्यिक, मध्यमवर्गीय और राजनीतिक— सभी प्रकार के व्यक्तियों पर सलीके से व्यंग्य किया गया है।

     राजनीति, सत्ता और प्रशासन के चरित्र की गिरावट आज के व्यंग्य की धुरी है। जितनी अराजकता इस क्षेत्र में है, वह समाज के किसी भी हिस्से में नहीं है। सता-शासन न केवल अपने दायित्व से विमुख हैं, बल्कि वह जनविरोधी कार्य में भी संलग्न है और उस पर कोई अंकुश नहीं। चुनावों में जनता इनके मुखौटों को बदल भर पाती है, व्यवस्था के सुधार में कुछ भी योगदान नहीं कर पाती। जनता की विवशता के चलते इनकी विद्रूपता दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है। प्रशासन सत्ता के साथ न केवल जुगलबंदी करने में लगा है, बल्कि वह ऊपरी कमाई भी कर रहा है। न्यायतंत्र भी असहायता या भ्रष्टाचार का शिकार है। ऐसे में संग्रह की अधिकांश रचनाएँ राजनीति के विद्रूप और न्यायतंत्र की विफलता की कहानी कहती हैं और निर्लज्ज विसंगतियों पर भरसक प्रहार करती हैं। ऐसे व्यंग्यों में, ‘दधीचि और देवता, अखबार मुकाबिल हो तो, दिमागधारियों से सावधान, बहरा राजा अंधे लोग, जंगल में कानून, कारोनाकाले जम्बूद्वीपे, मुखौटा दर्शनम्, गैंडाराज, बकरी मुर्गी और भाईचारा, किसान और कल्याण,’ शामिल हैं। ‘बेंचू बेच देगा’, लोककथा शैली में प्रस्तुत पठनीय रचना है, जिसमें वर्तमान सत्ता द्वारा सार्वजनिक सम्पत्तियों को बेचने पर सार्थक व्यंग्य किया गया है। ‘कब्रिस्तान में दंगा, बिन दंगा सब सून, दंगा कथा उर्फ़ बंठा-बबली प्रेम’, साम्प्रदायिकता पर केंद्रित धारदार रचनाएँ हैं। ‘महिमा काले कोट की’ न्यायतंत्र की विफलता को रेखांकित करता है।

       ‘गूँगों के शहर में क्रांति’ एक कथात्मक व्यंग्य रचना है। इसमें आम आदमी, पत्रकार, साहित्यकार, कलाकार, समाजसेवी आदि सभी कर्त्तव्यच्युत होने के कारण निशाने पर हैं। इसकी शुरुआत जिस रूपक से हुई है, वह ख़ूब जाना-पहचाना है, लेकिन यह साहित्य की, विशेषतः व्यंग्य की ताक़त ही है कि ऐसे रूपक हमें वैचारिक आधार देते हैं और बदलाव का बायस बनते हैं। जिस सच्ची घटना को हम आम तौर पर देखते हैं और उस पर बस ठंडी आह भरकर चुप हो जाते हैं, पर जब हम उसी घटना को साहित्य में अपेक्षित संवेदना और व्यंग्य के साथ पढ़ते हैं तो वह हमें सोचने पर बाध्य कर देती है—

    “पूरा शहर ही गूँगों का था, ज़ुबान सब रखते थे, लेकिन इस्तेमाल करने में डरते थे। सारे शहर की जवाबदेही एक अकेले कोतवाल साहब के कंधों पर थी। एक अकेले वही बोलते थे, शेष गूँगे थे। अक्लमंद गूँगे अपनी चुप्पी बेच देते थे। शहर में मीडिया, बुद्धिजीवी, कलाकार, क्रांतिकारी, समाज सुधारक इफ़रात से पाए जाते थे। उन्हें प्रतिदिन एक घंटे बोलने की छूट थी जिसमें उन्हें शहर कोतवाल का गुणगान करना होता था। कोतवाल साहब का इक़बाल बुलंद होता जा रहा था, शहर में चोरी हो, डाके पड़ें, बलात्कार हो, बस्तियाँ जलाई जाएँ, मजाल क्या कि कोतवाल साहब की शान में कोई भी कमी रह जाए। जनता अमन-चैन से थी, क्योंकि उन्हें रोज़ शाम सात से आठ (बजे) बताया जाता कि शहर में अमन-चैन क़ायम है।” (पृ. 26)

     प्रगतिशील लेखकों पर आरोप लगता रहता है कि मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नहीं लिखते, हिंदू ही उनके निशाने पर रहते हैं। इसे झुठलाते हुए, लेखक ने मुसलमान दंगाइयों या उनकी कुत्सित मानसिकता पर व्यंग्य किया है, यद्यपि उसने हिंदुओं को भी नहीं छोड़ा है। वास्तव में दंगाई हिंदू या मुसलमान नहीं होता, अवसरवादी स्वार्थी तत्त्व होता है और प्रायः सत्ता द्वारा पोषित या समर्थित होता है। इन सब बातों का दृश्यांकन व्यंग्यकार ने एक व्यंग्य रचना, ‘दंगा कथा उर्फ़ बंठा-बबली प्रेम’ में बख़ूबी किया है —

    “मुसलमानों के नेता सरफ़राज़ आलम रात में कहाँ से प्रकट हो गए, किसी को ज्ञात नहीं हो सका। आये, तो रात में ही तहरीर (तक़रीर) झाड़ी कि यदि दो घंटे के लिए पुलिस हटा ली जाए तो वे हिंदुस्तान को हिंदूविहीन कर देंगे। मुसलमानों में जोश की लहर दौड़ गई जिसमें पूरा मोहल्ला अगले दिन बह गया। (अगर) नहीं बहे तो सरफ़राज़ आलम।” टी.वी. वाले लगातार मुहब्बतपुरा के हालात पर बहस कर रहे थे। स्क्रीन पर मुल्ले थे जो पूरी तरह सुरक्षित होने के कारण चिल्ला रहे थे। गोविंद महतो के घर में, रसूल मियाँ की छत पर (से) किसी ने जलती हुई लकड़ी फेंक दी जिससे गौशाला में आग लग गयी। एक गाय थी, जो उनके जीवन का आधार थी, जल गयी। हाहाकार मच गया। पुलिस वाले चौकन्ने हो गए और अपने धर्म को बचाकर गोली चलाने लगे। अंडरग्राउंड गुंडे, जो पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष थे, अपनी सेवाएँ देने लगे। बलचनवा की बेटी उठा ली गई। फजलू मियाँ की बीवी को चार लोग खेतों में खींच ले गए। अभी हिंदुओं के मुहल्ले में आग बुझाई जा ही रही थी कि सलीम लखनवी की कोठी के अहाते में आग लग गई। लोग हैरान! कमाल का दंगा है, अमीरों के घर में भी आग लग रही है। सलीम साहब पर किसी ने ‘हर-हर महादेव करके गोली चलाई, लेकिन (वे‌) बच गए। (पृ.90-91)

     ‘कैमरा और कलम’ संग्रह की अच्छी रचना है। इसमें लेखक ने प्रतीक शैली में दोनों से संवाद करवाया है और मार्मिक विवरण दर्ज किए हैं। साथ-ही उसने लेखकों की दुरभि संधि पर व्यंग्य क़रारा व्यंग्य किया है। दोनों का संवाद देखिए, जिसमें कैमरा जहाँ अपनी व्यथा दर्ज़ करता है, वहीं कलम अपने बेज़ा इस्तेमाल पर बिल्कुल भी दुखी नहीं है—

     “मैंने अपनी आँखों से देखा कि पुलिस वाला एक महिला को बंदूक की बट से मार रहा था। एक बूढ़े को तो ऐसी लात मारी कि वह खेत में जा गिरा। किसानों को पुलिसवाले लाठियों से पीट रहे थे। गोद के बच्चे को उठाकर जब पुलिसवाले ने ज़मीन पर फेंक दिया तो मैं इंतज़ार कर रहा था कि मालिक फोटो लेगा, लेकिन वह हँस रहा था। जब किसानों ने पत्थर उठाए तब मालिक ने फोटो लेने शुरू कर दिए और टी.वी. पर चिल्लाया— किसानों की भीड़ हिंसक हो गयी, पुलिस पर हुए पथराव। मन में तो आता है कि अपना लेंस फोड़ लूँ।”

     “ख़बरदार! जो मेरे मालिक के ख़िलाफ़ बोला तो? वह मुझे कितना प्यार करता है। सीने से लगाए रहता है। तू उससे जलता है, उसकी तरक्की तुझसे देखी नहीं जाती। मुझे तो भरपेट रौशनाई पिलाता है। मुझ पर उसे बहुत एहसान हैं।”

    “तू तो कहती थी कि तेरा काम दुनिया के दर्द को उभारना है। आज दो ड्रॉपर इंक क्या मिली, लगी मालिक का गुणगान करने। कलम का चरित्र कभी नहीं सुधरेगा!”

    “दुनिया माई फ़ुट! हम तो वही गाएँगे जो मालिक को ख़ुश करे।”  (पृ.97)   

      कलेवर के हिसाब से एक व्यंग्य रचना चार-पाँच पृष्ठ की है। अधिकांश रचनाएँ कथात्मक हैं। अतः खूब पठनीय हैं।  

शशिकांत सिंह ‘शशि’ का मो.नम्बर है- 7387311701

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