Hareram Sameep book by Hindi Ghazal Kosh : Book review in Hindi Rajendara Verma
हिंदी ग़ज़ल का अनूठा संकलन : हिंदी ग़ज़ल कोश
- राजेन्द्र वर्मा
श्री हरेराम समीप हिंदी ग़ज़ल के ख्यात अध्येता हैं। हिंदी ग़ज़ल की पहचान और इस विधा में बहुआयामी सृजन के मूल्यांकन का कार्य भी उन्होंने किया है। वे स्वयं दुष्यंत कुमार की परम्परा के ग़ज़लकार हैं और उनके कई ग़ज़ल-संग्रह प्रकाशित हैं। दुष्यंत कुमार के बाद हिंदी ग़ज़लों के रचने का जो सिलसिला चला है, उसमें क्या और कितना सार्थक है, इसका वे सजग शोधकर्ता के रूप में मूल्यांकनपरक कार्य करते रहे हैं। ‘समकालीन हिंदी ग़ज़लकार’ के चार खंडों के संपादन के बाद उन्होंने हाल ही में एक ‘हिंदी ग़ज़ल कोश’ संपादित किया है, जिसे उन्होंने निम्नलिखित सात खंडों में विभाजित किया है।
इस विभाजन में नामोल्लेख के साथ ख़ास बात यह है कि उन्होंने रचनाकार के जन्म की तारीख़ भी दर्ज़ की है। संकलन में अमीर ख़ुसरो (1253) से लेकर सत्यशील राम त्रिपाठी (2000) तक के कालखंड में जन्में कवियों की ग़ज़लों को स्थान मिला है। इससे लगभग आठ शताब्दियों में हिंदी ग़ज़ल के रूप और उसकी भाषा-शैली के बारे में भी सरसरी तौर पर पता चलता है—
1. हिंदी ग़ज़ल की आधारभूमि : इसमें संपादक ने अमीर ख़ुसरो (1253), कबीर, प्यारेलाल शोकी, गिरिधरदास, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमघन, नारायण प्रसाद बेताब (1872) आदि सहित 12 कवियों की ग़ज़लों को रखा है।
2. आज़ादी के आंदोलन के दौरान लिखी गई ग़ज़लें : ये ग़ज़लें उन दिनों सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दी गई थीं। इनके रचयिताओं में, ‘त्रिशूल’, राम कवि, प्रकाश, मारकंडे, लक्ष्मीसहाय सक्सेना, ‘भीम’, रामलाल छेदीलाल राठौर आदि सहित 20 कवियों की ग़ज़लों को स्थान मिला है। हालांकि इनका रचनाकाल या कवि का जन्मवर्ष नहीं इंगित है, तथापि ये 1857 से 1947 तक के कालखंड की हो सकती हैं। अतः ऐतिहासिक दृष्टि से इनका अतिरिक्त महत्त्व है।
3. हिंदी ग़ज़ल की आधारशिलाएँ : यह खंड हिंदी ग़ज़ल के भवन की नींव के रूप में देखा जा सकता है। इस दृष्टि से यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसमें गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ (1883), जगदम्बाप्रसाद मिश्र ‘हितैषी’, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, प्रसाद, निराला, नेपाली, रंग, अंचल, त्रिलोचन (1917) आदि 20 कवियों की ग़ज़लों को स्थान दिया गया है।
4. हिंदी ग़ज़ल का नवोन्मेष : इसके अंतर्गत 18 कवियों को रखा गया है, जिनमें निरंकारदेव सेवक (1919), श्यामानंद सरस्वती, आर.पी. शर्मा ’महर्षि’, नीरज, त्यागी, हंस, उत्साही, सिंदूर सहित दुष्यंत कुमार (1933) की ग़ज़लें प्रस्तुत की गई हैं।
5. हिंदी ग़ज़ल का समकाल : इस खंड के अंतर्गत ग़ज़लकारों की संख्या सर्वाधिक है, जिसे होनी भी चाहिए थी। बलबीर सिंह राठी (1934), किशोर काबरा, मेयार सनेही, बालस्वरूप राही, चंद्रसेन विराट, कमलकिशोर श्रमिक, शेरजंग गर्ग, रमेश रंजक, सूर्यभानु गुप्त, मयंक श्रीवास्तव, कुँवर बेचैन, गिरिमोहन गुरु, विज्ञान व्रत, भगवत दुबे, रामकुमार कृषक, भवानीशंकर, हस्तीमल हस्ती, ज्ञानप्रकाश विवेक, ज़हीर क़ुरेशी, उर्मिलेश, समीप, राजेश रेड्डी, अशोक रावत, कमलेश भट्ट कमल, इंदु श्रीवास्तव, माधुरी स्वर्णकार, अरविंद उनियाल अनजान (1994) और इन पंक्तियों के लेखक सहित 192 ग़ज़लकारों की प्रायः चार-चार ग़ज़लें हैं जो अपेक्षित विषय वैविध्य और भाषिक एवं शैलीगत वैशिष्ट्य को हमारे सामने लाती हैं। इससे ग़ज़ल का वह स्वरूप दिखाई देता है जो आज की हिंदी ग़ज़ल कही जाती है। अतः इसे संकलन का प्रतिनिधि हिंदी ग़ज़ल खंड के रूप में देखा जा सकता है। इसका एक कारण यह भी है कि सभी ग़ज़लें, ग़ज़लकारों द्वारा संपादक को प्रेषित चुनिंदा ग़ज़लों में से चयनित हैं।
6. हिंदी ग़ज़ल का नवकाल : इसके अंतर्गत उदीयमान ग़ज़लकारों को रखा गया है जिनमें हिंदी ग़ज़ल की सर्जना के प्रति विशेष अनुराग दिखता है। इसमें दिलीप दर्श (1975), दिनेश ‘शम्स’,अवधी हरि, डॉ. भावना, पंकज कर्ण, रामनाथ बेख़बर, ए.एफ़. नज़र, नज़्म सुभाष, राहुल शिवाय और सत्यशील त्रिपाठी (2000) सहित 23 कवियों की ग़ज़लें प्रस्तुत की गई हैं।
7. प्रवासी हिंदी ग़ज़लकार : इस खंड में 14 प्रवासी रचनाकारों की ग़ज़लें हैं जिनमें गुलाब खंडेलवाल, प्राण शर्मा, गौतम सचदेव, तेजेंद्र शर्मा, कपिल कुमार, भावना कुँवर, शिप्रा शिल्पी सक्सेना, आशुतोष कुमार आदि शामिल हैं। इस प्रकार, हिंदी ग़ज़लों का प्रतिनिधित्व लंदन, आस्ट्रेलिया, बेल्जियम, जर्मनी और पूर्व अफ़्रीका में भी हो रहा है।
इसके अतिरिक्त, अपनी भूमिका में संपादक ने हिंदी ग़ज़ल की परिभाषा भी सरल और सटीक ढंग से बतायी है कि हिंदी ग़ज़ल को हम आख़िर क्यों हिंदी ग़ज़ल कहें? संपादक का मानना है कि ग़ज़ल हालांकि फ़ारसी कवियों से ही भारत में आयी, लेकिन यहाँ के सामासिक सांस्कृतिक परिवेश ने इसकी नयी काव्य-परम्परा निर्मित की। हिंदी देश की जनभाषा है, उसकी अपनी संस्कृति है, इतिहास है, परंपरा है और मिथक है, तो उस भाषा में अगर कोई ग़ज़ल कहता है तो उसके साथ वह हिंदी ग़ज़ल लगाएगा ही। वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, “हिंदी ग़ज़ल से यहाँ आशय हिदी कवियों द्वारा लिखी जा रही उन ग़ज़लों से है जो सुदीर्घ हिंदी कविता परम्परा के अंतर्निहित संस्कारों से संस्कारित है। इस ग़ज़ल के साथ हिंदी शब्द लगाने की आवश्यकता (इसलिए) भी है क्योंकि, यह अपनी भाषिक संस्कृति में अन्य भाषाओंकी ग़ज़ल से भिन्न है। यह भिन्नता भाषा के स्तर पर तो है ही, कथ्य, लहजे और आस्वाद के स्तर पर भी है।” (पृ.17)
संपादक ने बहुत परिश्रम से संकलन तैयार किया है, पर ‘आधारशिलाएँ खंड’ में, एकाध स्थलों पर चयन में शिथिलता दिखी, यथा— पहली ही ग़ज़ल (अमीर ख़ुसरो) की फ़ारसीवाली ले ली है। दूसरे नम्बर पर उनकी मशहूर ग़ज़ल, “जब यार देखा नैन भर....” है, जो ठीक है। (पृ. 27); ‘सनेही’ जी की चार रचनाएँ प्रस्तुत हैं, जिनमें से दो ग़ज़लें हैं और दो कवित्त हैं— एक, ‘मदनहरण’ कवित्त (16/16 वर्णिक) है और दूसरा मनहरण कवित्त (16/15) है, बिना मतले की चार शेर की ग़ज़ल के रूप में प्रस्तुत हैं। (पृ. 58-59) इसी प्रकार, रामनरेश त्रिपाठी की एक लम्बी कविता (18 द्विपदियाँ) ग़ज़ल के रूप में रख दी गई है जिसमें ‘वह देश कौन-सा है?’ रदीफ़ के रूप में तो आया है, परंतु क़ाफ़िया का संकट उत्पन्न हो गया है। (पृ. 61). हनुमंत नायडू की चार ग़ज़लें संकलित हैं, दूसरी ग़ज़ल का मत्ला पहली ग़ज़ल के आख़िरी शेर की तरह रख दिया गया है, जिसके कारण दूसरी ग़ज़ल बिना मत्ले की प्रतीत होती है। चौथी ग़ज़ल में मत्ले के मिसरे में, ‘प्यास’ की जगह, ‘प्यार’ छपा है जबकि सानी में उसका क़ाफ़िया, ‘इतिहास’ है। बेशक़ यह प्रिंटिंग की ग़लती है, पर एक नज़र में शायर की ग़लती लगती है। दुष्यंतकुमार की चार ग़ज़लों में एक ग़ज़ल वह रखी गई है जिसमें तबाकुले-रदीफ़ का दोष है। इसे बदला जा सकता था।
प्रस्तुति की दृष्टि से पुस्तक अच्छी बन पड़ी है, परंतु तमाम ग़ज़लकार जो अब दुनिया में नहीं हैं, उनके नाम के साथ उनके मोबाइल नम्बर दिये गये हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे अभी जीवित हैं।
इसके बावज़ूद, संकलन का महत्त्व किसी प्रकार कम नहीं हो जाता। जब इतना महत्त्वपूर्ण और विशालकाय कार्य किया जाएगा तो छोटी-मोटी कमियों का रहा जाना स्वाभाविक है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इसका जब भी नवीन संस्करण निकलेगा, इन कमियों का निराकरण कर लिया जाएगा। इस अनूठे और वृहद कार्य को सुरुचिपूर्ण ढंग से हिंदी साहित्य जगत के सामने लाने हेतु संपादक बधाई के पात्र हैं। हिंदी ग़ज़ल के अध्येताओं, ग़ज़लकारों और ग़ज़ल प्रेमियों की लाइब्रेरी में इस संकलन को होना ही चाहिए। मूल्य भी उचित है-- 590 पृष्ठों (पेपर बैक) का रु. 600 मात्र, जो आजकल के प्रचलन के हिसाब से, कम ही कहा जाएगा।
संकलन अमेज़न पर उपलब्ध है। इसके अलावा उसे प्रकाशक अथवा संपादक से भी मँगाया जा सकता है, जिनके मोबाइल नंबर इस प्रकार हैं :
प्रकाशक : एनी बुक (99716 98930)
संपादक : हरेराम समीप (98716 91313)
- 3/29, विकास नगर, लखनऊ-226 022 (मो.80096 60096)
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