प्रेमचंद का व्यसन विषयक दलित चिंतन

Dr. Mulla Adam Ali
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Munshi Premchand and Dalit Literature

Premchand's Eternal Contribution to Dalit Literature

प्रेमचंद का दलित साहित्य में योगदान : इस आलेख में मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में दलित संवेदना और प्रेमचन्द के उपन्यासों में दलित चेतना के बारे में विस्तार से बताया गया है, मुंशी प्रेमचंद ने अपने साहित्य लेखन में दलित साहित्य को अपना व्यसन विषय बनाया है, प्रेमचंद साम्प्रदायिकता और जातिवाद, जातिभेद, किसान जीवन और दलित संवेदना पर विस्तार से अपने रचनाओं में यथार्थ चित्रण किया है, तो चलिए पढ़ते हैं दलित साहित्य के प्रति प्रेमचंद का क्या योगदान है।

प्रेमचन्द का व्यसन विषयक दलित चिंतन

व्यसन और जीवन साथ-साथ चलते रहते हैं। कुछ अपवाद छोड़ दें तो इस सूत्र को मानना पड़ेगा कि जहाँ जीवन वहाँ व्यसन और जहाँ व्यसन वहाँ जीवन। व्यसन जहाँ सीमाहीन हो जाता है, मर्यादाओं को तोड़ देता है वहाँ व्यक्ति की जिन्दगी भी दूभर हो जाती है। व्यसन का कोई एक ही प्रकार नहीं होता। अर्थात् अनंत प्रकार के व्यसनों के कारण व्यक्ति एवं समाज का हित की अपेक्षा अहित ही होता है। वर्तमान काल में नई पीढ़ी असंख्य एवं असीम व्यसनों का शिकार बनती जा रही है।

प्रेमचन्द के समय में भी समाज में व्यसनाधीनता थी। दलित समाज भी इसके लिए अपवाद नहीं था। समकालीन समाज की सच्चाइयों का अंकन करने वाला यह रचनाकार दलित समाज को ईमानदारी से प्रस्तुत न करता तो ही आश्चर्य। अपनी अनेक कहानियों तथा उपन्यासों में प्रेमचन्द ने ऐसे दलित पात्रों को प्रस्तुत किया है जो छोटे-मोटे व्यसन के अधीन हैं। प्रेमचन्द ने ऐसे अनेक दलितों का चिन्त्रण किया है जो व्यसनाधीन थे। 'सद्गति' कहानी का दुखिया चमार चिलम तम्बाकू का आदी है। जब वह पंडित जी के घर का सारा काम करके थक जाता है तब उसे कुछ ताकत बटोरने के लिए चिलम की याद आती है। जैसे-"अगर चिलम और तम्बाकू पीने को मिल जाती तो शायद कुछ ताकत आती।"

प्रेमचन्द के समय का कडुआ सच है कि समाज के अन्य वर्ग की तुलना में दलित वर्ग के लोग ही व्यसन के अत्यधिक आदी थे। इसके मूल में एक तरफ अज्ञान और दूसरी तरफ चेतना का अभाव ही कहना पड़ेगा। प्रेमचन्द कालीन सवर्ण समाज दलितां की तुलना में उन्नत और चेतना संपन्न था इसलिए वह व्यसन के अधीन उतना नहीं दिखाई देता।

दलित समाज में अज्ञान की स्थिति और उन्नति के अहसास का अभाव-ये वे दो कारण दिखाई देते हैं जिसके परिणाम स्वरूप उसमें व्यसन का स्थान दृढ़ होता गया। 'सवा सेर गेहूँ का शंकर कुरमी किसान चिलम पीता है। लेकिन विप्र से हो रहे शोषण को देखते हुए वह व्यसन का त्याग करता है।

व्यसन और गंदी आदतों के कारण भो दलितों की दुर्गति हुई है इसे प्रेमचन्द ने भली भाँति खाना था। उन्होंने दलितों को व्यसन से मुक्त करना ही जरूरी समझा और मन से चाहा। कहना होगा कि दलितों के साथ सवर्णों के दुर्व्यवहार के जितने भी कारण हैं उनमें से एक है दलितों की व्यसनाधीनता। लेकिन ऐसा भी नहीं कि व्यसन के अधीन सवर्ण नहीं सिर्फ शूद्र या दलित ही हथा करते थे। प्रेमचन्द जानते थे कि समाज के कुलीन वर्ग में भी व्यसन के आदी लोग हैं। देवचन्द सूक्ष्म निरीक्षक (मायक्रो आब्जर्वर) थे। वे जानते थे कि दलित चाहे विद्वान हो या आचारवान-समाज उसे शूद्र तथा हीन ही समझता है। ऐसे में व्यसन के शिकार बने दलित के बारे में सवर्ण समाज की मानसिकता की क्या कहें? खाने-पीने की बुरी आदतों के कारण दलित वर्ग सवणों की घृणा और उपेक्षा का पात्र बना था। प्रेमचन्द परिवर्तनवादी रचनाकार थे। वे चाहते थे किशुद्र समाज को अपना अधिकार मिले, उसका जीवन उन्नत बने। अतः प्रेमचन्द ने दलितों को व्यसन से मुक्त होना सामाजिक मुक्ति के लिए अनिवार्य समझा।

प्रेमचन्द द्वारा व्यसनाधीन दलित चित्रण में कृत्रिमता की अपेक्षा सहजता ही दिखाई देती है। लेकिन इसे अनायास नहीं कहा जा सकता। दलितों के इस रूप के चित्रण के पीछे उनकी धारणा थी कि दलित अपने लाभ और हानि से अवगत हो। प्रेमचन्द जानते थे कि बिना इसके अहसास के उसकी मुक्ति संभव नहीं। यही कारण है कि दलितोद्धार की कामना करने वाला यह रचनाकार निर्व्यसनी दलित की हिमायत करता रहा। अपनी रचनाओं में प्रेमचन्द ने कुछ ऐसे पात्र भी दिए हैं जो व्यसनाधीन थे। लेकिन अपनी भूल का अहसास होने पर उन्होंने व्यसन का त्याग किया-हमेशा के लिए। इसे प्रेमचन्द के दलित विमर्श के अत्यंत महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक मानना होगा।

'कर्मभूमि' उपन्यास में प्रेमचन्द ऐसे दलित को प्रस्तुत करते हैं जो शराब का आदी है। लेकिन उसे अपनी बरबादी का अहसास होता है और शराब पीना छोड़ देता है। इस उपन्यास का चमार पात्र गूदड़ चौधरी पियक्कड़ है। इससे उसके रुपये नशा में उड़ते गए। लेकिन उपन्यास के एक अन्य पात्र अमर को शराबबंदी कार्यक्रम में अपूर्व सफलता मिलती है। अपने कर्म में वह पूरे उत्साह और सद्व्यवहार से जुट जाता है जिसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। अमर के तर्क आचरण का ऐसा प्रभाव पड़ता है कि दलित गूदड़ चौधरी शराब पीना छोड़ देता है। यहां नहीं अपना नफा-नुकसान समझने की चेतना उसमें जागृत होती है। स्पष्ट है कि यहाँ प्रेमचन्द ने ऐसे दलित पात्र को प्रस्तुत कर दलितों की चेतना का संस्कार किया है जो व्यसनाधीन हैं। 'कर्मभूमि' के दलित गूदड़ चौधरी के बरिए ऐसे व्यसनाधीन दलित को प्रस्तुत किया है जिसमें आत्मचेतना ही नहीं बल्कि सामाजिक चेतना भी विकसित होती गयी।

प्रेमचन्द जीवन भर मानवता के पक्ष में रहे। उनके लिए पशुता की तबाही और मानवता की रक्षा अहम बात थी। उन्होंने भली-भाँति जाना था कि व्यसन मनुष्य के पतन का कारण है उन्नयन का नहीं। इसके चंगुल से चाहे सवर्ण हो या अवर्ण, कोई भी बच नहीं सकता। लेकिन प्रेमचन्द की चिंता का विषय सवर्ण से ज्यादा दलित ही रहा। दलितों की दोहरी दुर्गती प्रेमचन्द की चेतना को चिंता में बदलती रही। दलितों का दोहन दोहरा था-सवर्ण समाज के शोषण से और अज्ञानवश व्यसन से। प्रेमचन्द जानते थे कि व्यसन कभी-कभी दलितों को निर्मम बनाता है। इससे उनका दयनीय ही नहीं बल्कि दुर्गतिपूर्ण जीवन सामने आता है। प्रेमचन्द ने प्रसंगवश दलितों के व्यसन का अत्यंत निर्मम चित्रण भी प्रस्तुत किया है जी कभी-कभी गले उतरने से पूर्व पीड़ा देता है।

'कफ़न' के घीसू और माधव चमार जाति के वे दलित पात्र हैं जिनके घर में लाश पड़ी है और जो कफ़न खरीदने के लिए निकल पड़े हैं किन्तु नशापन की ख्वाहिश उन्हें मधुशाला ले आई है। दोनों कितने भाग्य के बलि हैं। पूरी बोतल बीच में है। ऐसी निर्ममता स्वयं प्रेमचन्द की 'सद्गति' जैसी एकाध रचना में अवश्य मिलती है कि चमार लोग दुखिया चमार की लाश को पंडित जी के यहाँ ही छोड़ वापिस लौटते हैं। लेकिन वहाँ चमारों का वापिस लौटना, व्यसन या कर के कारण नहीं, गोंड के तहकीकात के आग्रह के कारण है। प्रेमचन्द दलित-मनोविज्ञान के ही नहीं शराबियों के मनोविज्ञान के भी कुशल चितेरे थे। वे जानते थे कि दलित अज्ञानवश होश में नहीं रहता लेकिन 'पीने' के बाद वह होश में आता है और सच को उगलता है, उडेंलता है। बुरे रिवाज़ पर प्रहार करने वालों में अपने समय में प्रेमचन्द का कोई सानी नहीं था।

मदिरापान करने के बावजूद भी यहाँ प्रेमचन्द का घीसू इस तथ्य को बेबाकी से प्रस्तुत करता है कि अमीर लोग गरीबों का निर्मम शोषण करते हैं और इस पाप को धोने के लिए के ही वे गंगा स्नान करते हैं, मंदिर जाते हैं। अर्थात गरीबों को सताने, दबाने और लूटने वाले लुटेरों को ही अपने पाप प्रक्षालन के लिए तीर्थाटन की आवश्यकता होती है। घीसू को अपने बेटे माधव की पत्नी बुधिया को लेकर विश्वास था कि उसने कभी किसी का बुरा नहीं किया। अतः घीसू तथा माधव दोनों की धारणा बनी कि बुधिया निश्चय ही वैकुंठ जाएगी। फिर भले ही अपनी इस मान्यता का इजहार दोनों ने शराब के नशे में किया हो। सवाल यह है कि मदिरालय की ओर कोई क्यों जाता है? प्रेमचन्द ने देखा था जिन्दगी के अवरोध और अभाव ही लोगों को मदिरालय की ओर ले आते हैं। विशेषता निम्न वर्ग के लोग वहाँ जाकर अपनी गमगीन दुनिया से थोड़ी देर के लिए छुटकारा पाते हैं। इस सत्य का उद्घाटन 'कफ़न' में ही प्रेमचन्द इन शब्दों में करते हैं। "जीवन की बाधाएँ वहाँ खींच लाती थी और कुछ देर के लिए वे भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं।"

शराब के आदी दलित पात्रों का एक और तथ्य प्रेमचन्द ने 'कफन' में प्रस्तुत किया है हि व्यसन के अधीन क्यों न होते हो, मानव संवेदना से शून्य नहीं हो सकते। माधव घीसू के साथ जाकर शराब पीता है नाचता गाता है। लेकिन बुधिया की याद में आँखों पर हाथ रख बौख-चीखकर रोता है।

'कफ़न' प्रेमचन्द की अत्यधिक विवादास्पद कहानी है जिसके कारण प्रेमचन्द पर दलितों के अमानवीय तथा संवेदनाशून्य चरित्रों को प्रस्तुत कर उनके अवमान और अपमान का अरोप लगाया जाता है। लेकिन मानवता तथा संवेदनशीलता किसी की बपौती नहीं होती। स्वयं प्रेमचन्द ने इसका जवाब 'कफ़न' में ही दिया है। दलित पात्रों को उन्होंने संवेदनशील रूप में प्रस्तुत किया है। अपना पेट भरने पर 'कफन' के गईसू और माधव ने बचा हुआ खाना (पूरियाँ का पत्तल) एक भिखारी को दे दिया जो भूखी आँखों से देख रहा था। 'देने' का आनंद दोनों ने जीवन में पहली बार अनुभव किया है। एक तथ्य यह भी सामने आता है कि अति धनिकता और अति निर्धनता मनुष्य को संवेदना शून्य बनाती है। उच्चवर्ग की बात अलग है लेकिन आवश्यकता की पूर्ति होने पर दलित वर्ग मनुष्यता की रक्षा करता है। पौसू-माधव के जरिए यही स्पष्ट होता है इससे संदेह नहीं।

यह सच है कि दलित पात्र घीसू और माधव ने भूख मिटाने और शराब पीने में कफ़न के पैसों का दुरुपयोग किया। लेकिन उन्होंने ही भूखे भिखारी की तड़फ को समझ लिया और उसे बचा हुआ खाना देखकर अपने दातृत्व का भी परिचय दिया। इसे न संवेदनशील पाठक भूल सकता है और न आलोचक। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि व्यसन की हालत तथा नशापान की दशा में भी दलितों में मानव संवेदना जीवित मिलती है इसे नकार नहीं सकते।

हिंदी की श्रेष्ठ कृति 'गोदान' का नायक कुरमी किसान होरी भी व्यसन से बच नहीं सका। यह वह पात्र है जो प्रेमचन्द के नाम के साथ अभित्र रूप से जुड़ा गया। लेकिन व्यसन के तौर पर चिलम के चंगुल से छुट नहीं पाया। यहाँ पर यह नहीं स्थापित करना कि होरी की दुर्गति का कारण व्यसन था। उसकी दयनीय जिन्दगी का मूल कारण शोषण ही था। लेकिन यह सच भी स्वीकारना होगा कि शोषण के साथ-साथ व्यसन भी उसका साथी बना था। प्रेमचन्द ने 'गोदान' में इसका जो बार-बार जिक्र किया है। उसे अनायास नहीं कहा जा सकता। 'गोदान' के दर्जनों पन्नों में होरी के चिलम पीने का चित्रण सोद्देश्य ही मानना होगा। लेकिन एक सच स्वीकारना होगा कि नशापान में होरी न भटकता है, न अंड-बंड बातें कहता है। नशे में भी वह दर्ददायी नब्ज पकड़ता है, मार्के की बात करता है। जैसे- 'होरी ने चिलम के कई कश लगाकर कहा-मजूरी करना कोई पाप नहीं है। मजूर बन जाय, तो किसान हो जाता है। किसान बिगड़ जाय तो मजूर हो जाता है। किन्तु चिलम का आदी होरी स्वयं को भाग्य के भरोसे छोड़ता है। कर्मवाद की अपेक्षा वह भाग्यवाद में विश्वास करता है। उसकी मान्यता है कि- "मजूरी करना भाग्य में न होता तो यह सब बिपत क्यों आती? क्यों गाय मरती? क्यों लड़का नालायक निकल जाता?" प्रेमचन्द ने उस दलित की दयनीय जिन्दगी को बेबाकी स प्रस्तुत किया है जो शोषण एवं व्यसन की चक्की के दो पाटों में पिसता रहा।

प्रेमचन्द के व्यसन विषयक दलित चिंतन को देखने से निष्कर्षतः कह सकते हैं कि दलितों की दयनीय जिन्दगी के जितने भी कारण मिलते हैं उनमें शोषण, अज्ञान और अशिक्षा प्रमुख रहे हैं लेकिन दलितों की दुर्गती का एक और कारण प्रेमचन्द ने व्यसन को मान लिया है। समाज की ओर से दलितों के होनेवाले शोषण को भले ही प्रेमचन्द ने प्रमुखता दी हो लेकिन इसके साथ-साथ व्यसन से उनके हो रहे पतन को भी उन्होंने बार- बार रेखांकित किया है। किन्तु दलितों में व्यसनाधीन पात्रों का प्रस्तुतीकरण प्रयत्नपूर्वक नहीं, सहजता से हुआ महसूस होता है। एक और तथ्य स्वीकारना होगा कि प्रेमचन्द के व्यसनाधीन दलित पात्र परिस्थिति की चपेट में आकर जहाँ एक और संवेदनाशून्य बन जाते हैं, अमानवीय बन जाते हैं, वहा वक्त आने पर तथा हालात बदल जाने पर ये पात्र उतने ही संवेदनशील और मानवता के संरक्षक नजर आते है। कभी वे चेतना जागृत होने पर व्यसन को 'गुडबाय' करते हैं तो कभी उनको व्यसनाधीनता से बाहर आने के लिए चेतना जागृति का अवसर नहीं मिलता। आशय यह कि प्रेमचन्द का व्यसन विषयक दलित चित्रण दलितों के अवमान या अपमान के लिए नहीं बल्कि उनके वैयक्तिक और सामाजिक उन्नयन के लिए कहना होगा। क्योंकि सामाजिक परिवर्तन के हिमायति और मानवता के मसीहा प्रेमचन्द जितनी आत्मीयता से दलितों की शोषण से मुक्ति चाहते थे उतनी ही आत्मीयता से उनकी व्यसनों से मुक्ति चाहते थे इसको इन्कार नहीं किया जा सकता।

- डॉ. अर्जुन चव्हाण

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