Hindi Children’s Literature has a rich history that began with folk traditions and later evolved into a structured literary form. Despite being overlooked by many critics, significant research and scholarly works shaped its growth during the 19th and 20th centuries. This article explores the history, development, and research on Hindi Children’s Literature up to the end of the twentieth century.
Research in Hindi Children’s Literature
हिंदी बालसाहित्य का इतिहास और शोध: आरंभ से 20वीं शताब्दी के अंत तक
हिंदी बालसाहित्य का इतिहास उतना ही समृद्ध और विविधतापूर्ण है, जितना स्वयं हिंदी साहित्य का। किंतु विडंबना यह रही कि साहित्य के गंभीर इतिहासकारों और आलोचकों ने इसे लंबे समय तक हाशिये पर रखा। वास्तव में बालसाहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि बालमन के विकास, संस्कारों के निर्माण और समाज की सांस्कृतिक धारा को सुरक्षित रखने का सशक्त माध्यम है। आरम्भ से लेकर बीसवीं शताब्दी के अंत तक हिंदी बालसाहित्य पर हुए सृजन और अनुसंधान को समझना न केवल साहित्यिक आवश्यकता है, बल्कि सामाजिक दायित्व भी है। यही दृष्टि इस लेख की मूल प्रेरणा है।
हिन्दी बालसाहित्य में शोध : आरम्भ से बीसवीं शताब्दी के अंत तक
इस तथ्य में कोई दो राय नहीं है कि हिंदी बालसाहित्य का इतिहास बहुत पुराना है, मगर उतनी ही सच्चाई यह भी है कि हिंदी के समीक्षकों ने बालसाहित्य को कभी गंभीरता से नहीं लिया। जिसका परिणाम यह है कि हिंदी साहित्य के गंभीर इतिहास ग्रंथों में बालसाहित्य की कभी चर्चा ही नहीं हुई। यदि बालसाहित्य की गहराई में जाकर छानबीन करें तो हमें ज्ञात होगा कि बालसाहित्य सृजन न केवल दुरूह कार्य है, बल्कि बच्चों के विकास के लिए तथा समाज में उनकी स्मिता को सुरक्षित रखने के लिए अत्यंत आवश्यक भी है। चूँकि बालसाहित्य सृजन कठिन है इसलिए यह सबके बस की बात भी नहीं है।
बालसाहित्य की समीक्षा और उस पर चिंतन-मनन उससे भी दुष्कर कार्य है। इसके बावजूद विडंबना यह है कि जिनके हाथों में साहित्य की महंती है, वह बालसाहित्य के बारे में न तो पढ़ना चाहते हैं और न ही जानना और सोचना चाहते हैं। आज हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं इसलिये इस सदी में हो रहे बच्चों के बदलाव को देखते हुए नए माहौल में बालसाहित्य की पड़ताल अत्यंत आवश्यक है। बालसाहित्य के समीक्षा-सिद्धांत, उसमें हुए और हो रहे शोध-कार्यों तथा उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि पर निरंतर विचार-विमर्श की आवश्यकता है।
जहाँ तक बालसाहित्य लेखन का प्रश्न है- इसकी विधिवत शुरुआत भारतेन्दु युग में ही हो गई थी तथा सन् 1882 में बच्चों की पहली पत्रिका बालदर्पण भारतेंदु हरिश्चंद्र के सहयोग से प्रकाशित हो चुकी थी। परंतु बालसाहित्य समीक्षा का विधिवत प्रारंभ स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ही प्रारंभ हुआ। हालाँकि आचार्य कृष्णविनायक फड़के ने सन् 1946 में बालदर्शन नामक पुस्तक लिखकर इसका सूत्रपात कर दिया था। श्रीमती ज्योत्स्ना द्विवेदी सन् 1952 में हिंदी किशोर साहित्य नामक महत्त्वपूर्ण शोधपरक पुस्तक लिखी जो आज भी बालसाहित्य और किशोरसाहित्य के आधार ग्रंथ के रूप में जानी जाती है। कुछ अंतराल के बाद सन 1960-61 में निरंकारदेव सेवक ने बालसाहित्य विशेष रूप से बाल गीतों के अलग-अलग पक्षों को लेकर कुछ आलेख लिखे थे जिनका प्रकाशन उत्तर प्रदेश शिक्षा विभाग द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 'शिक्षा' (संपादक: महेश्वरदयाल शर्मा) में हुआ था। सेवक जी के अतिरिक्त आनंदप्रकाश जैन ने धर्मयुग: 14 जून 1964: बच्चों का साहित्य कैसा हो शीर्षक से, हरिकृष्ण देवसरे ने 'साप्ताहिक हिंदुस्तान :21 नवंबर 1965: क्या बाल साहित्य बचकाना साहित्य ही है' शीर्षक से, विष्णुप्रभाकर ने 'कादंबिनी : जून 1966: भारतीय भाषाओं में बालसाहित्य' शीर्षक से सत्यकाम विद्यालंकार ने 'नवनीत: नवंबर 1968 :बच्चों का कथाजगत शीर्षक से आलेख लिखकर बालसाहित्य पर चिंतन की शुरुआत कर दी थी। इसी समय जहाँ हरिकृष्ण देवसरे 'बालसाहित्य के नए प्रतिमान :माध्यम: सितंबर 1964' लेकर सामने आए वहीं जयप्रकाश भारती ने 'बालसाहित्य: कुछ विचार सूत्र' नवभारत: 15 नवंबर 1965 ' प्रस्तुत किए।
इसके अतिरिक्त हरिकृष्ण देवसरे ने बालसाहित्य को लेकर अपने आलेखों में कुछ प्रश्न भी भी उठाया। जैसे- आज का बालसाहित्य और उसकी समस्याएँ: धर्मयुग: 18 नवंबर 1962', 'क्या लोककथाएँ बालसाहित्य हैं' :मधुमती :नवंबर 1966',' क्या बच्चों को उपन्यास पढ़ने दिया जाए? ' धर्मयुग 4 जून 1967 आदि।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने 'बालसाहित्य: चमकदार अस्तबल, कमजोर घोड़े' शीर्षक से 'दिनमान :16 नवंबर1969' में एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण प्रस्तुत किया। मन्मथनाथ गुप्त ने 'बालसाहित्य की समस्याएँ : योजना : 5 मई 1963 ' शीर्षक से अपने आलेख में सुझाव दिया कि जितने भी उच्च स्तर के लेखक बाल साहित्य के निर्माण की ओर अग्रसर होंगे राष्ट्र निर्माण की दृष्टि से उतना ही लाभ होगा।
इन आलेखों से इतना तो लाभ हुआ कि स्वस्थ बालसाहित्य लेखन की ओर साहित्यकारों का ध्यान गया। सन् 1966 में निरंकारदेव सेवक महत्त्वपूर्ण कृति ''बालगीत साहित्य" शीर्षक से किताब महल, इलाहाबाद से प्रकाशित हुई जिसमें बालगीतों की विभिन्न प्रवृत्तियों तथा उनके ऐतिहासिक कालक्रम पर अनेक दृष्टियों से विस्तारपूर्वक विचार किया गया। इस पुस्तक में हिंदी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं के बालगीतों का उदाहरण परिचय भी सम्मिलित किया गया। पहली बार इस पुस्तक के माध्यम से बालसाहित्यकारों को प्रमुखता से स्थान दिया गया।
सेवक जी की की उपर्युक्त कृति अपने संशोधित परिवर्धित संस्करण तथा नई सज-धज के साथ 'बालगीत साहित्य: इतिहास एवं समीक्षा' शीर्षक से उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ से सन् 1983 में प्रकाशित हुई। इसमें तत्कालीन बालसाहित्यकारों तथा कविता के संदर्भ में बालसाहित्य का अद्यतन इतिहास प्रस्तुत किया गया है।
यह बड़े गौरव और प्रसन्नता की बात है कि निरंकारदेव सेवक की यह कृति प्रो. उषा यादव के संपादन में पुनः संशोधित और परिवर्धित संस्करण के साथ सन् 2013 में प्रकाशित हुई, जिसमें प्रो. उषा यादव ने बड़ी मेहनत से अनेक नए बालसाहित्यकारों को जोड़कर प्रस्तुत किया। उनका संपादकीय इस अर्थ में विचारणीय और अनुकरणीय है-
"सेवक जी के ग्रंथ को अद्यतन करते हुए मेरी यथासंभव चेष्टा रही कि उनकी मूल-संवेदना, स्वर और चिंतनधारा को कहीं खंडित न होने दूँ। इसीलिए मैंने ऐसे स्थलों को यथावत रखा है। हांँ, उत्तर आधुनिकता और भूमंडलीकरण के प्रभाव से हिंदी बालकविता में जो नव्यताबोध आया, उसका समाहार भी जरूरी था। सूचना-प्रौद्योगिकी और तकनीक के जबरदस्त विस्फोट ने परिवर्तन की जो युगांतरकारी लहर आज सर्वत्र प्रवाहमान की, उसने बाल-स्वभाव तक को आमूल बदल दिया है। समकालीन बालकवियों ने पूरी इमानदारी से इस बदलाव के रंगारंग चित्रों को कविता की पटी पर उकेरा है। सामयिकताबोध से जुड़ने के लिए मैंने ऐसे बिंदुओं का गंभीरतापूर्वक संस्पर्श किया है। निश्चय ही इससे पुस्तक का आयाम बढ़ा है।"
बालसाहित्य पर अनुसंधान करने वालों के लिए यह सभी कृतियाँ- बालदर्शन, हिंदी किशोर साहित्य, तथा बालगीत साहित्य : इतिहास और समीक्षा आज भी मील का पत्थर बनी हुई हैं। हालाँकि ये कृतियाँ किसी विश्वविद्यालय की पीएच.डी., उपाधि के लिए प्रस्तुत नहीं की गई हैं लेकिन इनका महत्त्व किसी शोध-प्रबंध से कम नहीं है।
भारतीय भाषाओं में बालसाहित्य पर पहला शोध प्रबंध कलकत्ता विश्वविद्यालय से सन् 1960 में पीएच.डी., उपाधि के लिए स्वीकृत हुआ, तथा इसका प्रकाशन सन् 1961 में हुआ। सुश्री आशा गंगोपाध्याय का यह शोध-प्रबंध 'बांग्ला शिशु साहित्येर क्रम-विकास' शोध के साथ-साथ बच्चों की दिशा में किए गए चिंतन की दृष्टि से भी अनूठा प्रयास था। इसमें बांग्ला के बालसाहित्य का लेखा-जोखा तो है ही, समकालीन बालसाहित्य के अन्य बिखरे सूत्रों को भी खोजकर शोधार्थी ने इसमें संग्रहित किया है। हिंदी में बालसाहित्य पर शोध करने वालों के लिए यह शोध-प्रबंध एक मार्गदर्शक के रुप में उपयोगी रहा है।
हिंदी में बालसाहित्य पर सर्वप्रथम शोध करने का श्रेय डॉ. हरिकृष्ण देवसरे को है। डॉ. देवसरे ने सन् 1968 में जबलपुर विश्वविद्यालय से 'हिंदी बालसाहित्य: एक अध्ययन' शोध प्रबंध पर पीएच०डी० की उपाधि प्राप्त की। यह शोध प्रबंध सन् 1969 में आत्माराम एंड संस दिल्ली से प्रकाशित हुआ। हिंदी में बालसाहित्य पर पहला शोध-प्रबंध होने के कारण इसे बहुत आदर और सम्मान प्राप्त हुआ।
आठ अध्यायों में विभक्त इस शोध प्रबंध में बालसाहित्य का स्वरूप-विवेचन, बालसाहित्य और बालमनोविज्ञान, बालसाहित्य का उद्भव और विकास, हिंदी बालसाहित्य का विकास-क्रम तथा युग-विभाजन, हिंदी बालसाहित्य: सिद्धांत विवेचन, हिन्दी बालसाहित्य : तुलनात्मक विवेचन, हिंदी बालसाहित्य : कला-विधान तथा बालसाहित्य के विकास में बाल-पत्रों का योगदान विषयों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। परिशिष्ट में बाल साहित्य और अनुवाद, पहेलियाँ और बच्चे, कहानी सुनाने की कला, बच्चों के लिए पुस्तकालय तथा चुटकुलों की कहानी की इस प्रबंध के विवेच्य विषय हैं।
डाॅ. देवसरे का उपर्युक्त शोध-प्रबंध जहाँ बालसाहित्य के सम्यक् एवं समग्र अध्ययन की दिशा में प्रकाश डालता है, वहीं बालसाहित्य में नई संभावनाओं की भी खोज करता है। आज बालसाहित्य जिस मुकाम पर पहुँचा है, उसमें इस शोध-प्रबंध ने अहम भूमिका निभाई है।
डॉ. हरिकृष्ण देवसरे के बाद डॉ. मस्तराम कपूर को 'हिंदी बालसाहित्य का विवेचनात्मक अध्ययन' शोध-प्रबंध पर सरदार पटेल वल्लभ विद्यानगर, गुजरात से बालसाहित्य पर दूसरी पीएच.डी., की उपाधि प्राप्त हुई। 47 वर्षों बाद 2015 में इसका प्रकाशन होना भी अपने आपमें सुखद आश्चर्य से कम नहीं है। इसके प्रकाशन की व्यथा-कथा लेखकीय वक्तव्य में पढ़ी जा सकती है। कुछ भी हो, लेकिन इस ग्रंथ के प्रकाशन से डाॅ. मस्तराम कपूर का बालसाहित्य पर चिंतन-मनन और दृष्टिकोण पाठकों के सामने आया अन्यथा विश्वविद्यालयों में उपाधि के लिए प्रस्तुत शोध प्रबंध आलमारियों में पड़े धूल फाँकते रहते हैं।
उपसंहार को छोड़कर अन्य सात अध्यायों में विभक्त इस शोध प्रबंध के बारे में सुरेश सलिल की टिप्पणी महत्त्वपूर्ण है- "हिन्दी में बालसाहित्य तो बहुत रचा गया है किंतु समीक्षा और विश्लेषण की कसौटी पर उसका अध्ययन लगभग नहीं हुआ है। इस दृष्टि से विचारक और साहित्य मर्मज्ञ मस्तराम कपूर की इस पुस्तक का महत्त्व बढ़ जाता है। इसके पहले दो अध्याय बालसाहित्य के सैद्धांतिक विवेचन के हैं। इनमें विश्व प्रसिद्ध बालसाहित्य मर्मज्ञों के विचारों को समाहित किया गया है। ये अध्याय बालसाहित्य के रचना शास्त्र को जानने के लिए उपयोगी हैं। तीसरा अध्याय बालसाहित्य के इतिहास से संबधित है। शेष अध्याय हिन्दी बालसाहित्य का विधाओं के अनुसार अध्ययन प्रस्तुत करते हैं।"
इसी क्रम में डॉ. ज्योति स्वरूप का शोध प्रबंध 'हिंदी में बाल साहित्य' इस दिशा में बढ़ाया हुआ अगला कदम है। इस शोध प्रबंध पर पर आगरा विश्वविद्यालय से सन् 1971 में पीएच.डी., की उपाधि प्राप्त हुई थी। यह शोध प्रबंध भी लंबे समय तक प्रकाशन की बाट जोहता रहा, अंत में उसकी परिणति सन् 2002 में हुई। 31 वर्षों की लंबी प्रतीक्षा के बाद इसका प्रकाशन हुआ।
समाज में बालक की स्थिति, उसके लिए शिक्षा का महत्त्व और बालसाहित्य की उपयोगिता तीनों का आपस में गहरा संबंध है। शोध प्रबंध की प्रमुख स्थापना है कि- बालसाहित्य चाहे पुस्तक के रूप में हो और चाहे स्वतंत्र, उसमें अनंत प्रेरणाओं और देश-काल की मान्यताओं का तरंगित होना आवश्यक है। बालसाहित्य की प्रत्येक रचना बालमनोविज्ञान के सामान्य सिद्धांतों के अनुकूल होनी चाहिए।
डाॅ. ज्योति स्वरूप ने अपने शोध प्रबंध में प्राचीन काल से लेकर अद्यतन बालसाहित्य के विकास की चार अवस्थाओं का जिक्र किया है-
- अलिखित पारंपरिक बालसाहित्य जिसमें लोकगीत, लोककथाएँ आदि आती हैं।
- ब्रजभाषा का बालसाहित्य
- खड़ी बोली के बालसाहित्य का उद्भव- जिसमें भारतेंदु, श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, हरिऔध तथा सोहनलाल द्विवेदी आदि के प्रयत्न स्तुत्य हैं।
- स्वातंत्र्योत्तर बालसाहित्य
इसके साथ ही शोधार्थी का मत है कि आज के बालसाहित्य में कुछ खामियाँ भी हैं जिन्हें दूर करने में लेखक, प्रकाशक, अभिभावक एवं प्रशासन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
इसी वर्ष सन् 1971 में ही डॉ. श्रीकृष्ण चंद्र तिवारी 'राष्ट्रबंधु' को उनके शोध प्रबंध 'हिंदी में बालसाहित्य का मनोवैज्ञानिक एवं साहित्यिक अनुशीलन' विषय पर सागर विश्वविद्यालय से पीएच.डी., की उपाधि प्राप्त हुई। इस शोध प्रबंध में हिंदी बालसाहित्य के अध्ययन की आवश्यकता, बालक के स्वाभाविक विकास में बाल मनोविज्ञान का स्थान, हिंदी में बालसाहित्य का प्रामाणिक इतिवृत्त, हिंदी में बालगीत साहित्य का वर्गीकरण, बालकहानियों के तत्त्व एवं वर्गीकरण, बाल नाटकों का वर्गीकरण तथा बालसाहित्य की अन्य उपलब्धियों में चुटकुले, ज्ञान-विज्ञान साहित्य आदि का उल्लेख किया गया है।
शोधार्थी ने अकारादि क्रम से अनेक प्रमुख बालसाहित्यकारों का परिचय भी प्रस्तुत किया है। हिंदी के अतिरिक्त गुजराती, मलयालम, बंगला, उड़िया, कन्नड़ तेलुगू, पंजाबी, मराठी, उर्दू, सिंधी, तथा कश्मीरी के बालसाहित्य का लेखा-जोखा इस शोध प्रबंध की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। अंत में मनोवैज्ञानिक शैक्षिक एवं साहित्यिक दृष्टि से बालसाहित्य का किया गया मूल्यांकन संभावनाओं के नए द्वार खोलता है। यह शोध प्रबंध अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। खेद की बात है कि अब डॉ. राष्ट्रबंधु इस दुनिया में सशरीर हमारे बीच में उपस्थित भी नहीं है इसलिए इस शोध प्रबंध के प्रकाशन की संभावनाएँ भी बहुत क्षीण हो गई हैं।
सन् 1973 में डॉ. श्रीप्रसाद को काशी विद्यापीठ वाराणसी से 'हिन्दी में बालसाहित्य' शोध प्रबंध पर पीएच.डी., की उपाधि प्राप्त हुई थी। यह शोध प्रबंध सन् 1985 में 'हिन्दी बालसाहित्य की रूपरेखा' शीर्षक से लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ था। प्राय: शोध प्रबंधों के द्वितीय संस्करण/संशोधित संस्करण कम ही प्रकाशित होते हैं मगर यह शोध प्रबंध हाल ही में नए रूप में प्रकाशित हो गया है जो हिन्दी बालसाहित्य के लिए एक उपलब्धि ही है।
यह शोध प्रबंध प्रारंभ से लेकर सन 1970 तक के बालसाहित्य पर आधारित है। प्रारंभ में विषय निरूपण के बाद बालसाहित्य के अध्ययन का उद्देश्य स्पष्ट किया गया है।साथ ही शिशुसाहित्य, बालसाहित्य और किशोरसाहित्य का परिचय स्पष्ट करते हुए बालसाहित्य की परिभाषा, उसके तत्त्व और क्षेत्र पर संक्षिप्त में प्रकाश डाला गया है। संस्कृत और पालि, मध्यकालीन हिंदी तथा लोकसाहित्य में बालसाहित्य की परंपरा पर प्रकाश डालते हुए शोधार्थी ने आधुनिक हिंदी बालसाहित्य साहित्य की पृष्ठभूमि पर गहराई से विचार-विमर्श किया है। अंत में, भारतेन्दु युग में बालसाहित्य की भूमिका स्पष्ट करते हुए द्विवेदी युग, स्वातंत्र्य-पूर्व बालसाहित्य तथा स्वातंत्र्योत्तर बालसाहित्य का विवेचन-विश्लेषण जहाँ उसके महत्त्व पर प्रकाश डालता है, वहीं उसमें नए आयाम का भी संकेत देता है।
अंतरराष्ट्रीय बालवर्ष सन् 1979 में डाॅ. कुसुम डोभाल ने अपना शोध प्रबंध 'हिन्दी बालकाव्य में प्रतीक एवं कल्पना-तत्त्व' गढ़वाल विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया था, जिस पर उन्हें सन् 1980 में पीएच.डी., की उपाधि प्राप्त हुई। उपाधि प्राप्त करने के 10 वर्षों बाद सन् 1990 में यह शोध प्रबंध लाइब्रेरी बुक सेन्टर, दिल्ली से प्रकाशित हुआ।
छः अध्यायों में विभक्त इस शोध प्रबंध में साहित्य और बालसाहित्य की आधारभूमि, प्रतीक: स्वरूप एवं विश्लेषण, बालमनोविज्ञान बालकाव्य के संदर्भ में, हिंदी बालकाव्य : गति, प्रगति और प्रतीक योजना, हिंदी बालकाव्य में कल्पना तत्त्व तथा बालसाहित्य का महत्त्व और उपसंहार में बालसाहित्य का महत्त्व तथा अध्ययन की उपलब्धियों सहित विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
विषय और प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से यह नया और अनूठा प्रयास था। शोधार्थी ने हिंदी बालकाव्य में प्रतीक एवं कल्पना तत्त्व को गंभीरता से विश्लेषण किया है। प्रतीकों से काव्य में नया सौंदर्य आ जाता है इस दृष्टि से हिंदी बालकाव्य में प्रतीकों का प्रयोग प्रारंभ से ही होता आया है और कल्पना बालकाव्य का एक अनिवार्य तत्त्व है। इस प्रकार प्रतीक एवं कल्पना हिंदी बालकाव्य की अत्यंत महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है।
शोध प्रबंध की प्रमुख स्थापना है कि बालकाव्य में प्रतीकों का प्रयोग बालकों में अमूर्त भाव के प्रति मूर्त अनुभूति को विकसित करने के लिए किया जाता है जो कि भविष्य में उन्हें प्रतीकों को समझने की आधारभूमि तैयार करता है। बालकाव्य में कल्पना का सर्जनात्मक तत्त्व बच्चों की मूल प्रवृत्तियों तथा रचनात्मक प्रतिभा को विशेष रूप से प्रभावित करता है। कल्पना की निरर्थकता और विसंगति की विचित्रता भी बालमन का आकर्षण है, इससे बालकों को स्वस्थ मनोरंजन प्राप्त होता है।
इसके बाद हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में बालसाहित्य पर शोध कार्य की दृष्टि से दो बहुत ही महत्त्वपूर्ण शोध प्रबंध पीएच.डी., की उपाधि के लिए प्रस्तुत किए गए। इनमें डॉ. प्रदीप कुमार हंस का शोध प्रबंध 'हिंदी और गुजराती का लोरी साहित्य: तुलनात्मक अध्ययन' सन् 1980 में बंबई विश्वविद्यालय से तथा डॉ. स्नेहप्रभा महापात्र का शोध प्रबंध 'हिंदी एवं उड़िया के बालसाहित्य का तुलनात्मक अध्ययन' सन् 1981 में रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर (म.प्र.) से स्वीकृत हुआ। किसी महिला शोधार्थी द्वारा उड़िया बाल साहित्य पर प्रस्तुत यह पहला शोध कार्य था। यह दोनों ही शोध प्रबंध अभी तक अप्रकाशित हैं मगर गुजराती लोरियों के मिठास की दृष्टि से तथा उड़िया बालसाहित्य के वैविध्य के कारण आज भी इनकी प्रासंगिकता बनी हुई है।
गुजराती बालसाहित्य का हिन्दी में सर्वाधिक अनुवाद प्रस्तुत करके पाठकों तक पहुँचाने वाले गोपालदास नागर ने लिखा हैकि- "गुजराती में लोरियों को 'हालेरां' कहते हैं। माताएँ लोरियाँ गाकर अपने बच्चों को सुलाती हैं, उनमें संस्कार डालती हैं। लोरियाँ गाते गाते-गाते उनका हृदय वात्सल्य रस से भर उठता है।"
उड़िया बाल साहित्य में शोध कार्य आठवें दशक से प्रारंभ हुआ। सर्वप्रथम सन् 1977 में संबलपुर विश्वविद्यालय, उड़ीसा ने मणींद्र महांति को 'उड़िया शिशु :साहित्य उन्मेष व विकास' शीर्षक से पीएच.डी., की उपाधि प्राप्त हुई। इसे ही सर्वप्रथम शोध ग्रंथ होने का गौरव भी प्राप्त है।
- प्रो. (डॉ). सुरेन्द्र विक्रम
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