Rabindranath Tagore, a Nobel laureate poet and thinker, was not only a literary genius for adults but also a pioneer in children’s literature. His poems, stories, and plays for children reflect innocence, imagination, and moral values woven with artistic brilliance. Tagore believed in nurturing creativity and curiosity rather than imposing rigid lessons, making his children’s literature timeless and inspiring for generations.
Rabindranath Tagore’s Contribution to Children’s Literature
संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का संगम : रवीन्द्रनाथ टैगोर का बालसाहित्य
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बच्चों के लिए ऐसा साहित्य रचा, जिसमें खेल-खिलौनों की सहज दुनिया के साथ जीवन-मूल्यों और सृजनात्मक ऊर्जा का सुंदर संगम मिलता है। उन्होंने बच्चों को नादान नहीं, बल्कि संवेदनशील और समझदार माना। उनकी कविताएँ, कहानियाँ और नाटक केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनमें शिक्षा, संस्कार और समाज के प्रति जागरूकता भी है। यही कारण है कि उनका बालसाहित्य आज भी प्रेरणादायी और कालजयी महत्व रखता है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर का बालसाहित्य
एक साक्षात्कार में वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' ने बच्चों के लिए लेखन प्रक्रिया पर अपने विचार दो टूक शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा था कि- "बच्चों के लिए रचनाएँ लिखी तो हैं किंतु बालसाहित्य लिखना बड़ा कठिन है। बच्चों के बीच में रहे बिना, उनके मनोविज्ञान का, उनकी भावनाओं का अध्ययन किए बिना बालसाहित्य नहीं लिखा जा सकता। कुछ कविताएँ लिखी हैं, पर पूरा प्रयत्न नहीं कर पाया।" - (कादंबिनी, मई 2002, पृष्ठ 104)
डाॅ. सुमन का उपर्युक्त कथन इस अर्थ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि बच्चों के लिए लिखना कोई हँसी खेल नहीं नहीं है। सुप्रसिद्ध बालसाहित्यकार निरंकारदेव सेवक बालसाहित्य लेखन को न केवल कठिन मानते हैं बल्कि उसे परकाया प्रवेश भी कहते हैं। उनके अनुसार- बच्चों का साहित्य लिखने के लिए अपना बड़प्पन छोड़कर बच्चा बनना पड़ता है, परंतु रवींद्रनाथ ठाकुर का बालसाहित्य सृजन इसका अपवाद है। लीला मजूमदार ने लिखा है कि- "रवीन्द्रनाथ ठाकुर ऊँचाई से, जहाँ उनकी आत्मा निवास करती थी, कभी नीचे नहीं उतरे, कभी बच्चे की बोली बोलने वाले बच्चे जैसे नहीं बने, हालाँकि एक बच्चे के अज्ञाततम स्वप्न उनके लिए कोई रहस्य न थे।" (रवींद्रनाथ ठाकुर : एज़ ए राइटर फॉर चिल्ड्रन का रूपांतर, बालसाहित्य की अवधारणा: पृष्ठ 214, 215 से उद्धृत)
रवीन्द्रनाथ नाथ ठाकुर के बालसाहित्य पर विस्तार से चर्चा करने के पूर्व अंग्रेजी बालसाहित्य के समीक्षक लिलियन स्मिथ के कथन पर भी गौर कर लेना अप्रासंगिक नहीं होगा- "यह आवश्यक नहीं है कि बच्चों के लिए लिखी गई सभी पुस्तकें साहित्य ही हों, और न यही आवश्यक है कि बड़े लोग जिसे बालसाहित्य मानते हैं, बालरुचि के अनुकूल चुनी गई पुस्तक उस कसौटी पर खरी उतर जाए। ऐसे लोग भी हैं जो बड़ों की बातों का सरल ढंग से विवेचन ही बालसाहित्य मान लेते हैं, लेकिन यह विचार बच्चों को बड़ों का सूक्ष्म संस्करण सिद्ध करता है और वास्तव में यह धारणा बचपन को गलत तरह से समझने से उत्पन्न हुई है क्योंकि बच्चों का वास्तव में जीवन अनुभव बड़ों से बिल्कुल भिन्न होता है। उनकी एक अलग दुनिया होती है जिसमें जीवन के मूल्य बालसुलभ मनोवृत्ति के आधार पर निर्धारित होते हैं बड़ों के अनुभव के आधार पर नहीं।" - बालसाहित्य के सरोकार पृष्ठ 7, 8
रवीन्द्रनाथ नाथ ठाकुर ने जहाँ बड़ों के लिए विपुल मात्रा में साहित्य का सृजन किया है, वहीं बच्चों के लिए बड़े मन से रचनाएँ लिखी हैं। उन्हें बच्चों से विशेष लगाव था। यही नहीं बच्चों की हर गतिविधि पर उनकी पैनी नजर रहती थी। धूलधूसरित बच्चे को देखकर उन्हें अकस्मात अपना बचपन याद आ जाता है। उन्हें यह स्वीकार करने में कतई संकोच नहीं है कि वे बचपन की कला को बिल्कुल भूल गए हैं तथा जीवन की आपाधापी में सोना - चांदी बटोरकर अपना घर भर रहे हैं-
"तुम बैठ धूल में शिशु, कितना आनंद बनाते हो
टूटी टहनी के साथ, सुबह से खेले जाते हो।
यह खेल देख टूटी साहनी का, मैं मुस्कराता हूँ
मैं दुनियादारी का हिसाब ही, सदा लगाता हूँ।
ओ शिशु, मैं भूल गया हूँ, बचपन की वह सभी कला
जब टहनी और घरौंदे में, लगता था बड़ा भला
अब बड़े कीमती खेल-खिलौने, खोजा करता हूँ
सोना बटोर, चाँदी बटोर, अपना घर भरता हूँ
तुमने जो कुछ पाया उससे ही खेल रचाया है
मैंने अप्राप्य पर समय और बल, सदा लगाया है।"
- उत्तरप्रदेश: मासिक पत्रिका :जनवरी 1979, पृष्ठ 1
यहाँ रवींद्रनाथ ठाकुर के मन में में न केवल बचपन की स्मृतियाँ उभर रही है अपितु उनका संपूर्ण जीवन-संघर्ष हिलोरें ले रहा है। जीवन में संघर्षों से लड़ना भी एक चुनौती है, क्योंकि संघर्षों के बिना जीवन का कोई आस्वाद ही नहीं है-
"नन्हीं-सी नैया और इधर इच्छाओं का सागर
लड़ता हूँ वह नैया लेकर, मैं अपनी ताकत भर
पर मेरा यह संघर्ष, खेल ही तो है जीवन में
यह एक बार बस कभी नहीं, आ पाती है मन में।"
- वहीं :जनवरी 1979, पृष्ठ 1
रवीन्द्रनाथ ठाकुर यह मानते थे कि जिन बच्चों के लिए हम साहित्य-सृजन कर रहे हैं, उनके प्रति हमारे मन में उचित सम्मान भी होना चाहिए। अगर लेखक के मन में ऐसा नहीं है तो उसे समाज में उचित आदर नहीं मिलना चाहिए। उन्होंने जिस बालक को केंद्र में रखकर साहित्य- सृजन किया वह अपने आपने संपूर्णता और गौरव लिए हुए है। उसे संसार से प्यार है तभी तो संसार उसे अपनी ओर खींच रहा है-
"चारों ओर विशाल विश्व यह
कण-कण मुझको खींचता।
सारा जगत द्वार खुलवाता
मुझे प्यार से सींचता।
पैठ साँस में, अंतस्तल में
पवन चिर आह्वान उलीचता।
मानूँ जिसे पराया, वही स-नेह
पल पल मुझको खींचता।"
बालसाहित्य सृजन के संबंध में रवींद्रनाथ की स्पष्ट अवधारणा थी कि जिसे बच्चे समझ न सकें, ऐसे विषय और उनका निर्वाह बालसाहित्य के क्षेत्र में नहीं आते। वे बच्चों को नादान, अबोध नहीं बल्कि समझदार मानते थे। उनका विश्वास था कि- "यदि सरल बनाकर समझाया जाए तो बच्चे कठिन से कठिन विषय को हृदयंगम कर सकते हैं। बच्चों को डाँटने-फटकारने की बजाय अगर उनके साथ खेला जाए और बातचीत की जाए तो उनके गुण उभरकर विकास पा सकते हैं। शांतिनिकेतन के आश्रम में इसी सिद्धांत पर चलते थे।" - रवींद्रनाथ का बाल साहित्य: पृष्ठ 23
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का बच्चों के प्रति यह असीम प्यार ही था कि वे वर्षा में खेलने के कारण बच्चों को बिगड़ने के लिए आते, लेकिन उन्हें देखकर उनके साथ स्वयं गीत गाने लगते थे। ऐसी भावभूमि पर लिखे गए उनके प्रसिद्ध गीत मेह बरसता टपर-टूपुर की कुछ पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं-
"बुझा उजाला दिन का, सूरज अब डूबा तब डूबा
घिरा चाँद लोभी मेघों से आसमान का सूबा।
बादल पर बादल रंगों पर रंग चढ़ाकर सज उठे
मंदिर में काँसे के घंटे टन-टना-टन बजे उठे।
सारे आसमान में खेत मेघ, न-सीमा है कहीं
देश-देश खेलते डोलते कोई मना करें नहीं
खेल देख मेघों के, कितने खेल उमड़ते याद में
दुबकी कितनी लुका-छिपी, कितने कीनों की माँद में।
और उन्हीं के संग मन जाता, बचपन के इस गान पर
मेह बरसता टपर-टुपुर नदिया का पूर उठान पर। - वहीं : पृष्ठ 30
रवींद्रनाथ ठाकुर की किस्सागोई अद्भुत थी। उन्होंने बच्चों के लिए कविताएँ, कहानियाँ, नाटक और निबंध आदि जो कुछ भी लिखा, उसमें उनकी विलक्षण प्रतिभा के दर्शन होते हैं। वह कथानक में इतना डूब जाते थे कि उनका एक-एक शब्द सूत्र के रूप में निकलता था। उनकी प्रत्येक रचना बच्चों के लिए अमूल्य उपहार होती थी। वे परंपरागत कथानक को आज के परिवेश में ऐसा ढाल देते थे कि पाठक और श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। राम के बनवास को आधार बनाकर लिखी गई इन पंक्तियों में बालक का अबोध मन लंबी कुलाँचे भर रहा है-
"बापू मुझको राम की तरह, अगर भेज दें वन में
तो क्या मैं जा ही न सकूँगा, सोच रही तू मन में?
चौदह बरस हुए कितने दिन, मुझे नहीं अनुमान
दंडक वन है कहाँ, जहाँ पर बड़ा खेल मैदान ?
जहाँ कहीं हो, जा सकता हूँ, डरने का क्या काम
यदि भाई लक्ष्मण संग- संग हों तो वन भी ओ धाम। - वहीं : पृष्ठ 50
यहाँ पर वन को भी घर समझने की कल्पना मन मोह लेती है। वन में रहने वाले वाले ऋषियों-मुनियों में दादाजी की कल्पना तथा निषादराज (गुह) को दाहिना हाथ कहना बड़ा सुखद है। रावण का प्रसंग आते ही जानकी हरण की घटना सामने आ जाती है, लेकिन अगर जानकी साथ ही न हो तो रावण क्या कर लेगा-
"दादा जैसे बूढ़े ऋषि मुनि, वन में रहें अनेक-अनेक
चरणों में प्रणाम सर सुनता,कथा एक से एक।
राक्षस भय क्यों हो, गुह जैसा मीत दाहिना हाथ
रावण मेरा क्या कर लेगा, नहीं जानकी साथ।" - वहीं : पृष्ठ 52
रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाधर्मिता जहाँ बांग्ला के बालसाहित्य को समृद्ध करती है, वहीं उनकी सोच की उड़ान को नए पंख देता है। लीला मजूमदार की ये पंक्तियाँ रवीन्द्रनाथ के बालसाहित्य सृजन को नए आयाम देती हैं-
"अपने लंबे और सक्रिय जीवन में जो विशाल सर्जना उन्होंने (रवींद्रनाथ ठाकुर) की उसमें एक भी ऐसा शब्द शायद ही लिखा हो, जिसमें उनका पूर्ण विश्वास न हो। बालसाहित्य के क्षेत्र में भी उन्होंने मन की इसी ईमानदारी का निर्वाह किया। समझदारी के साथ ही शाश्वत सत्य को संप्रेषित करने के उद्देश्य के अलावा कल्पना का ताना-बाना नहीं बुना। - बालसाहित्य की अवधारणा :पृष्ठ 218
मेरा अनुमान है कि यहाँ लीला मजूमदार ने जिस कल्पना की बात की है, शायद वह झूठ की बुनियाद पर खड़ी कपोलकल्पित कल्पना है। वैसे कल्पना के डैने फैलाकर ही साहित्यकार सृजन करता है, परंतु उसमें विश्वसनीयता का होना आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं होता है तो वह साहित्य कालजयी नहीं होता है।
रवींद्रनाथ नाथ ठाकुर का एक प्रसिद्ध गीत है- एकला चलो रे! जिसमें वे विपरीत परिस्थितियों और झंझावातों में भी अकेले चलने की बात करते हैं। उन्हें विश्वास है कि इस अकेलेपन में भी लक्ष्य को प्राप्त करने का सूत्र छिपा हुआ है। शायद इसीलिए उन्हें सभी जगह अपना घर दिखलाई पड़ता है और वे किसी भी कीमत पर उसे प्राप्त करना चाहते हैं-
"सभी कहीं मेरा घर है, मैं खोज वही घर लूंगा
देश-देश में देश है अपना, उसको लड़कर लूँगा।
मैं परदेसी जाता हूँ जिस द्वार, वहीं महल में मेरा ठौर उदार
पैठ किधर से हो-चिंता बेकार, पग भीतर धर लूँगा
परम सगे घर-घर हैं, उनकी टोह मैं जी - भर कर लूँगा" - रवींद्रनाथ का बालसाहित्य : पृष्ठ 216
रवींद्रनाथ की अनेक बालकविताएँ हास्य रस की चाशनी में लगी हुई हैं । कुछ बालकविताएँ तो ऐसी हैं कि हँसते-हँसते पेट में बल पड़ने लगता है। उनकी प्रसिद्ध कविता 'घास में होता विटामिन' में घास खाने के फायदे गिनाए गए हैं। घास खाने में इतना आकर्षण होता है कि घरनी की उपेक्षा करके जानवर घास चरने चल देते हैं-
"घास में होता विटामिन गायें, भेड़ें, घोड़े
घास खाकर पीते, उनके बावर्ची हैं थोड़े।
कहते हैं अनुकूल बाबू-आदत गलत लगा दी।
कुछ दिन खाओ घास, पेट खुद हो जाएगा आदी
व्यर्थ नाज की खेती, कोई खेत न जोते-गोड़े
घरनी गोहराती रह जाती, वह निकल पड़ते हैं चरने
ठुकराकर चल देते, जब वह पैरों को लगती है धरने
मानव हित का जोश, भला वह अपना हठ क्यों छोड़े ? - रवींद्रनाथ का बालसाहित्य :पृष्ठ 110
ठाकुर ने बच्चों के लिए जो भी साहित्य लिखा, उसमें उनका उद्देश्य केवल बच्चों का मनोरंजन करना नहीं था बल्कि वे बच्चों को सही मार्ग पर चलने तथा अपनी मेधा शक्ति को जीवन का अमूल्य अंग बनाने पर भी बल देते हैं। उनके बालसाहित्य की यह कसौटी है कि बच्चे उसमें अपना प्रतिबिंब निहारें तथा उसे अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाएँ। रवींद्रनाथ की इस मेधा शक्ति को जीवन में अपनाने वाले बच्चे विकासोन्मुख समाज की उपलब्धि हैं। लीला मजुमदार यह मानतीं हैं कि-
"कवि (रवींद्रनाथ ठाकुर) ने बच्चों के लिए सर्जना की तो उनकी मंशा सिर्फ बच्चों का मनोरंजन करने मात्र की अथवा अवकाश का समय बिताने में उनका सहयोग करने भर की न थी, बल्कि उसने उदारतापूर्वक अपनी मेधा शक्ति का सबसे मूल्यवान कोष उनके जीवन का अभिन्न अंग बनने के लिए प्रदान किया गया। ये बच्चों के खिलौने नहीं हैं, जिन्हें कुछ समय बाद बड़े होने पर बच्चे छोड़ दें, बल्कि उनमें रचनात्मक उपलब्धि का वह दुर्लभ गुण है, जिसका तात्पर्य और महत्त्व पाठक के मानसिक विकास के अनुपात में बढ़ता जाता है।" - बालसाहित्य की अवधारणा पृष्ठ 221
इस बात में सच्चाई है कि रवींद्रनाथ बच्चों में अपने विचारों को थोपने के पक्षधर नहीं थे। वे सही अर्थों में बच्चों की बुद्धि और क्षमता के प्रशंसक थे। वे उन्हें एक संपूर्ण मनुष्य के रूप में देखना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने भाषा के स्तर पर भी भी कोई समझौता नहीं किया। सही अर्थों में रवींद्रनाथ की दृष्टि में- "बालक एक सुंदर कमल के समान है, जिसकी हजारों पंखुड़ियों में से प्रत्येक पंखुड़ी अपने स्वाभाविक रूप में विकसित होनी चाहिए। इसी कार्य में उन्होंने अपने को लगाया और इसी उद्देश्य से उन्होंने एक बड़े नगर के दुष्प्रभाव से दूर स्कूल की स्थापना की। इसके लिए उन्होंने प्रत्येक बाल पुस्तक में ऊँचे आदर्श की स्थापना की है, जिसके समीप उन्हें पहुँचना है, बजाय इसके कि उस आदर्श को ही घटाकर बच्चों के स्तर का बना दिया जाए।" - बालसाहित्य की अवधारणा:पृष्ठ 222
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी बालकविताओं के साथ-साथ अपनी बालकहानियों के माध्यम से भी बच्चों में असामाजिक परंपराओं के विरुद्ध चेतना का सफल प्रयास किया है। अपनी आरंभिक कहानी 'राजर्षि' में देवता के सामने प्राणियों की बलि चढ़ाने का विरोध करके रवीन्द्रनाथ ने समाज को नया जीवन देने का प्रयास किया है।
।उन्होंने अपनी कहानी 'डॉक्टरी' में डॉ. विश्वंभर बाबू के नौकर शंभु की बहादुरी का ऐसा व्यंग्यात्मक चित्र खींचा है कि हँसते-हँसते पेट फूल जाता है। कहानी का समापन सच्ची मानवता का जीता जागता उदाहरण है। डॉ. विश्वंभर बाबू मरीज देखने सप्तग्राम जा रहे हैं, तभी डाकुओं का का एक दल उनके ऊपर हमला कर देता है। उनका नौकर शंभु डाकुओं की जमकर धुनाई करता करता है, उसमें तीन डाकू घायल हो जाते हैं। यहाँ घायल डाकुओं की मरहम पट्टी कर विश्वंभर बाबू डॉक्टरी पेशे की अनोखी मिसाल कायम करते हैं। कहानी का संवाद ही इसका निचोड़ है-
"तभी डॉक्टर ने ने पुकारा - शंभू
शंभू बोला - जी साहब
विश्वंभर बाबू ने कहा - 'अब झटपट दवाइयों की पिटारी तो निकालो।
शंभु ने पूछा-' क्यों उसकी क्या जरूरत आ पड़ी'
डॉ. बोले-' इन तीनों की डाक्टरी तो मुझी को करनी पड़ेगी। पट्टी - वट्टी बाँधनी पड़ेगी। '
- रवींद्रनाथ का बालसाहित्य :पृष्ठ 36
रवींद्रनाथ ने अपनी तोता कहानी में जबरदस्ती ठूँसी गई शिक्षा का मखौल उड़ाया है। शिक्षा जबरदस्ती ठूँसने से नहीं आती है। रवींद्रनाथ ने तोते को प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया है, जिसकी आड़ में सब अपना-अपना उल्लू सीधा करते हैं। इससे बढ़कर और विडंबना क्या हो सकती है कि- *"पंडितों ने एक हाथ में कलम और दूसरे में बरछा ले-लेकर यह कांड रचाया जिसे शिक्षा कहते हैं।" - रवींद्रनाथ का बालसाहित्य: पृष्ठ 44
रवीन्द्रनाथ की अन्य बाल कहानियों में काबुलीवाला, मास्टरजी, भोलाराजा, राजा का न्याय तथा पारसमणि में भी उनकी अनूठी प्रतिभा के दर्शन होते हैं। उनकी बाल कहानियाँ बच्चों में न केवल ऊर्जा का संचार करती हैं, अपितु उन्हें जीवन-पथ पर निरंतर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रहती हैं।
जिस प्रकार अंग्रेजी साहित्य की बहुत सी कृतियाँ आरंभ में बच्चों के लिए नहीं लिखी गईं, परंतु बाद में बच्चों ने उन्हें अपनी-अपनी रुचि के अनुसार अपना लिया। 'आश्चर्यलोक में एल (Alice in Wonderland), गुलीवर की यात्राएँ (Gullivers Travels), रॉबिंसन क्रूसो (Robinson Crusoe) आदि ऐसी ही कृतियाँ हैं। हिंदी में' पंचतंत्र',' 'कथासरित्सागर', 'हितोपदेश', 'बैताल पचीसी' जैसी कृतियाँ मूल रूप से बच्चों के लिए नहीं थीं, परंतु इनकी अनेक कथाएँ बच्चों में लोकप्रिय हैं। ये बताएँ किशोरों के लिए लगभग सभी हिंदी की की पाठ्यपुस्तकों में पढ़ने को मिल जाएँगी। रवींद्रनाथ की पुस्तक 'गल्पगुच्छ' विशेष रुप से बच्चों को केंद्र में रखकर नहीं लिखी गई, परंतु उसमें से छाँटकर किशोरों के लिए एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक बनाई जा सकती है क्योंकि उसकी अधिकांश रचनाएँ बांग्ला में बच्चों को पसंद हैं।
रवींद्रनाथ ने बच्चों के लिए रोचक जानकारी प्रदान करने वाली अनेक कृतियों का सृजन किया है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने अपनी बेटी इंदिरा के लिए जेल से पत्र लिखे थे, बाद में उनका संकलन 'पिता के पत्र : पुत्री के नाम' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। रवींद्रनाथ ने भी अपनी पोती के लिए कई अद्भुत, रोचक, रुचिपूर्ण तथा मनोविनोद से भरपूर पत्र लिखे हैं। इन पत्रों का विशिष्ट महत्त्व इस अर्थ में है कि वे हृदय की कोमल भावनाओं से लिखे गए हैं। इन्हीं पत्रों में उन्होंने शांतिनिकेतन की स्थापना, उसके आदर्श तथा उद्देश्यों पर प्रकाश डाला है। इन पत्रों में अपने व्यक्तिगत जीवन के अमूल्य क्षणों को भी रवीन्द्रनाथ ने बखूबी उद्घाटित किया है। कोई भी कार्य छोटा नहीं होता है, कार्य को संपादित करने की कला से छोटा कार्य भी बड़ा हो जाता है यह कौशल भी रवींद्रनाथ के पत्रों में में देखा जा सकता है। लीला मजूमदार के शब्दों में कहें तो-
"ये पत्र बच्चों के प्रति उनके संपूर्ण दृष्टिकोण का चेतन प्राणियों के रूप के उनकी स्वीकृति का, जो गंभीर विचारों को, यदि सरल और सुंदर भाषा में व्यक्त किया जाए तो ग्रहण करने में असमर्थ रहते हैं, प्रदर्शन और छल के प्रति उनकी घृणा और ईश्वर की मंगलकारिता में उनके गहरे विश्वास का सूत्र प्रदान करते हैं।" - बालसाहित्य की अवधारणा: पृष्ठ 220
रवीन्द्रनाथ के बालसाहित्य की एक और विशेषता है, जो उन्हें बांग्ला के अन्य बालसाहित्यकारों से अलग करती है। उन्होंने जितना बच्चों के लिए लिखा है, उतना ही बच्चों के विषय में भी लिखा है। रवींद्रनाथ में बच्चों के मन को समझने का अभूतपूर्व कौशल था। इस कौशल का उपयोग उन्होंने छोटी-छोटी बाल-पाठ्यपुस्तकों में किया। आरंभिक वर्ण सीखने से लेकर कविताएँ, कहानियाँ और नाटकों के सृजन में उन्होंने जिस प्रतिभा का परिचय दिया है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि रवीन्द्रनाथ सही अर्थों में बालसाहित्य के कुशल शिल्पी थे।
रवीन्द्रनाथ के बालनाटकों की चर्चा किए बिना उनके बालसाहित्य पर किया गया यह चिंतन अधूरा ही रहेगा। उन्होंने शांतिनिकेतन के बच्चों के लिए कई नाटक लिखे। अवसर विशेष पर लिखे गए उनके बालनाटकों की संख्या भले ही बहुत अधिक न हो, परंतु इनमें उनका श्रम साफ झलकता है। वे बच्चों के साथ मिलकर नाटकों के रिहर्सल में पूरा सहयोग करते थे। बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए वे सभागार में सबसे आगे बैठकर नाटक देखते थे और मंचन की बारीकियाँ उन्हें समझाया करते थे।
रवीन्द्रनाथ के बालनाटकों की यह विशेषता है कि छोटे बच्चों के अलावा बड़े बच्चे भी उनका आनंद लेते हैं। उन्हें बालमनोविज्ञान की गहरी समझ थी, इसीलिए उनके नाटकों में न केवल बालकों की समस्याएँ हैं बल्कि उनका निदान भी प्रस्तुत किया गया है। लीला मजूमदार ने उदाहरण देते हुए लिखा है कि- "अचलायतन नाटक में 'पंचक' नाम का नियंत्रणविहीन छात्र है, जो अपने अनुशासनरहित मन में स्वतंत्रता तथा आनंद के ऐसे बीज बोता है कि अवरोध तथा नियमों को तोड़ देता है और प्रकाश आने लगता है।" -बालसाहित्य की अवधारणा: पृष्ठ 213
'छात्र की परीक्षा' नाटक में बच्चों को मारपीट के नहीं, बल्कि प्यार से दिखाने पर बल दिया गया है। काला चाँद मास्टर को मधुसूदन इसलिए उल्टे सीधे जवाब देता है की कल मास्टर साहब ने मार-मार कर उसकी पीठ लाल कर दी थी। अंत में अभिभावक के माध्यम से रवीन्द्रनाथ ने जो तर्क प्रस्तुत किया है वह आदर्श शिक्षा व्यवस्था का मूल मंत्र है-
"मारपीट से शायद ही कोई काम बन पाता है। कहा गया है कि गधे को घोड़ा पीटकर नहीं बनाया जा सकता पर अक्सर घोड़ा पिटते-पिटते गधा हो जाता है। अधिकतर लड़के सीख सकते हैं पर अधिकतर मास्टर सीखा ही नहीं सकते। और मार पड़ती है बेचारे लड़के पर ही। - रवीन्द्रनाथ का बाल साहित्य: पृष्ठ 57
रवीन्द्रनाथ के अन्य बालनाटकों में 'बाल्मीकि प्रतिभा', 'प्रसिद्धि का कौतुक', 'बिरछा बाबा', 'लक्ष्मी की परीक्षा' तथा 'मुकुल' आदि उल्लेखनीय हैं।
रवीन्द्रनाथ के द्वारा लिखी गई और चर्चित बड़ों की महत्त्वपूर्ण पुस्तकों के अतिरिक्त उनके बालसाहित्य सृजन पर भी चर्चा इसलिए भी सुखद है इन्होंने बच्चों को लेकर एक खुशहाल भारत का स्वप्न देखा था और देश की मिट्टी को अपना प्रणाम निवेदित किया था। उनका यह दृष्टिकोण आज भी हमें उनके प्रति श्रद्धा से भर देता है-
"ओ मेरे देश की मिट्टी, तुझ पर सिर टेकता मैं
तुझी पर विश्वमयी का
तुझी पर विश्व-माँ का आँचल बिछा देखता मैं
कि तू घुली है मेरे तन-बदन में
कि तू मिली है मुझे प्राण-मन में
कि तेरी वही साँवली सुकुमार मूर्ति मर्म-गुँथी एकता में। "
- प्रो. (डॉ). सुरेन्द्र विक्रम
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