Hindi is not just a language — it's the voice of India's soul and cultural identity. Despite being spoken by millions, Hindi has been pushed aside by the legacy of colonial influence. On Hindi Diwas, it's time to question this mindset and reclaim our linguistic pride. This essay sheds light on why Hindi deserves its rightful place as India's national and official language.
Hindi: The Soul of India and a Symbol of National Pride
हिंदी दिवस पर विशेष निबंध
प्रस्तावना : हिंदी केवल एक भाषा नहीं, भारत की आत्मा है। यह हमारी सोच, संस्कार, संस्कृति और स्वाभिमान का प्रतीक है। दुर्भाग्यवश, अंग्रेजी के अंधानुकरण ने भारतीय समाज में एक ऐसी हीन भावना भर दी है, जिसमें हम अपनी ही भाषा को दोयम दर्जे की समझने लगे हैं। गिरीश त्रिवेदी द्वारा लिखा गया यह लेख इस मानसिक दासता के विरुद्ध एक सार्थक प्रतिरोध है। हिंदी दिवस के अवसर पर यह आवश्यक है कि हम हिंदी के वास्तविक स्वरूप, उसकी उपेक्षा और संभावनाओं को नए दृष्टिकोण से समझें।
हिन्दी भारत का स्वाभिमान
मनोवैज्ञानिक कारण है कि व्यक्ति अपने जीवन में जो अभिलाषा पूरी नहीं कर पाता उसे वह अपने सन्तान से करवा कर तृप्त होता है। जैसे वह डॉक्टर बनना चाहता था मगर नहीं बन पाया सो बेटे को डॉक्टर बनाने में मर खप रहा है। उसकी जीन्स पहनने की बहुत तमन्ना थी मगर बेचारी पहन न पाई, अब अपनी बिटिया को जींस पहनाकर तृप्त हो रही है। उसने अपने पुत्र-पुत्री अंग्रेजी माध्यम की स्कूल में इसलिए पढ़ने भेजे क्योंकि उसे अंग्रेजी माध्यम से बोलना समझना नहीं आता। जब वह लोगों को अंग्रेजी पढ़ते-बोलते देखता है तो खुद आत्मग्लानि में अपने आप की नजर में गिर जाता है। उसकी भी अपनी प्रतिभा है। उसकी भी अपनी योग्यता और विशेषताएं हैं जो बहुमूल्य ही नहीं अमूल्य है। मगर वह उन सबको भुलाकर अंग्रेजी के आगे अपने को दीन-हीन समझता है।
इस बात पर फिर से चिंतन करें तो हम पाते हैं कि अंग्रेजी के आगे वह अपना आत्मस्वाभिमान खो बैठा है। और दूसरी बात उसे अपने बच्चों से प्यार भी है। वह अपने बच्चों को दुनिया की दौड़ में पीछे नहीं देखना चाहता।
ठीक यही बात मैं अपने देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरूजी के साथ भी पाता हूँ। वे अंग्रेजी भाषा के, अंग्रेजियत के दीवाने थे। वे भारत को इंग्लैंड की तरह उन्नत देखना चाहते थे। वे भारत को इंडिया बनाना चाहते थे। सच में ये उनका देश प्रेम था। मगर भारत के लिए बड़ा खतरनाक था। क्योंकि भारत के पास अपनी संस्कृति थी। भारत के पास अपनी भाषा थी। भारत मात्र भूमि नहीं राष्ट्र था। नेहरुजी ने देश की दिशा ही बदल दी और देश ने उन्नति की किसी और का ही राज चल पडा। जो कि कोई श्रेष्ठ विकल्प नहीं था। अच्छा होता हम राष्ट्रवाद की भावना के साथ, संस्कृति विकास और अध्यात्म को साथ लेके प्रगति और समृद्धि को पाते। इंडिया को उजागर करने के लिए भारत के गौरव-शाली इतिहास को भुला दिया गया। भाषा के नाम पर भारत से छल किया गया। कहा गया मात्र पंद्रह वर्ष अंग्रेजी को राज भाषा के रूप में और राज करने दो फिर हिन्दी अपना लेंगे। मगर छल हुआ। आज 15 नहीं 64 वर्ष हो गए अंग्रेजी का ही शासन है। और अब तो आँखें दिखाई जाती है और कहा जाता है अनिश्चित काल तक अंग्रेजी ही रहेगी। इस अनिश्चित काल की समय सीमा को पूरा करने की और हिन्दी ही को राष्ट्रभाषा, राज भाषा के रूप में प्रतिष्ठापित करने की जिम्मेदारी मेरी, आपकी और प्रत्येक राष्ट्रभक्त नागरिक की है।
अंग्रेजी को राजभाषा रहने का कोई हक नहीं है क्योंकि यह भारत के किसी एक गांव में भी बोली जाने वाली भाषा नहीं है। किसी भी भारतीय की मातृभाषा अंग्रेजी नहीं है। अंग्रेजी को अपनाना मात्र हमारे दिमाग में गुलामी की, दासता की जड़ें बड़ी गहरी बैठी है बस यही दर्शाता है। अंग्रेजी की दुहाई देते हुए कहा जाता है कि यह विश्व की संपर्क भाषा है। यह बात भी पूरी तरह झूठ है। जो 40 देश अंग्रेजों के गुलाम रहे वे और अमेरिका और इंग्लैंड ही अंग्रेजी को जानते हैं। जबकि विश्व के 160 देश अंग्रेजी नहीं जानते। विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा चीनी है और दूसरा क्रमांक हिन्दी का है। रूसी, स्पेनिज, पोर्तुगीज और डच इत्यादि ग्यारह भाषाओं के बाद सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में अंग्रेजी बारहवें पायदान पर है। फिर यह कैसी विश्व भाषा। यह भी सत्य है कि 30 करोड लोग ही अर्थात विश्व की 4% आबादी ही अंग्रेजी को जानते, बोलते समझते और लिखते हैं। हमारा चीन से व्यापार बढ़ा है वहाँ अंग्रेजी कुछ काम नहीं आ रही।
भारत और चीन की बात दुभाषियों से होती है। हम रूस, जापान, जर्मन आदि से भी अंग्रेजी में बात नहीं कर सकते । अतः जिनके दिमाग में अंग्रेजी की श्रेष्ठता का कीड़ा लगा हुआ है उन्हें अपने दिमाग को ठीक करना चाहिए।
वैसे भी अंग्रेजी कोई श्रेष्ठ भाषा नहीं है। इसका व्याकरण बिना लगाम के घोड़े जैसा है। जिसमें कोई वैज्ञानिकता नहीं है। पांचवी शताब्दी में इंग्लैंड के जंगली लोगों ने इसे बोलना शुरु किया और बनी अंग्रेजी भाषा। इससे पहले वहाँ लेटिन भाषा चलती थी। अंग्रेजी के शब्द भी इधर-उधर की भाषाओं से उधार लिए गए जो संख्या में एक लाख पचियासी हजार हैं। अंग्रेजी मूल के तो मात्र पैसठ हजार शब्द ही है। जबकि हिन्दी में अपने मौलिक साठ लाख शब्द हैं।
यह भी तर्क दिया जाता है कि विज्ञान और तकनीकी में प्रगति करने के लिए अंग्रेजी सीखना आवश्यक है। यह भी झूठ है क्योंकि विज्ञान और तकनीकी की अधिकतम पुस्तकें रूसी भाषा में है। शोध पत्र भी रूसी भाषा में है क्यों न हम रूसी सीख लेते। वास्तव में हमें विज्ञान और तकनीकी के लिए अंग्रेजी नहीं चाहिए। पुस्तकें तो अनुवादित भी की जा सकती है। ज्ञान किसी एक भाषा का गुलाम नहीं होता। हमें तो अंग्रेजी के माध्यम से अंग्रेजों के तलवे चाटने की आदत जो पड गई है।
यह भी तर्क दिया जाता है कि दक्षिण भारत हिन्दी नहीं चाहता। यह बात भी पूरी तरह असत्य है। मैं एक ऐसे शहर में रहता हूँ जहाँ दक्षिण भारत के सभी प्रांतों के एवं सुदूर ईशान्य भारत के नागरिक भी बहुतायत में रहते हैं। मेरा प्रतिदिन 125 से 150 व्यक्तियों से वार्तालाप करने का काम पड़ता है। और में पाता हूँ सभी लोग बहुत अच्छी हिन्दी बोलते हैं। विशेष रूप से दक्षिण भारत के भी। भाषा के बारे में विभिन्न प्रांतों के व्यक्तियों से बातें करके मैंने पाया किसी दक्षिण भारतीय के मन में हिन्दी के प्रति द्वेष नहीं है। वे सहजता से हिन्दी सीखते हैं और हिन्दी को ही पूरे भारत के लिए संपर्क भाषा स्वीकार करते हैं। फिर हिन्दी विरोध जो देखने को मिलता है बस सब राजनैतिक स्तर पर है। प्रांतीय सरकारें हिन्दी का स्थान अंग्रेजी को दिए बैठी है। यदि दक्षिण भारत का ग्रामीण हिन्दी नहीं जानता तो वह अंग्रेजी भी तो नहीं जानता। और मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि राजस्थान के कई ग्रामीण भी हिन्दी नहीं जानते। ऐसे ग्रामीणों की आड़ में हिन्दी का स्थान अंग्रेजी को देना एक सोचा समझा षडयंत्र है। आज दक्षिण में अंग्रेजी का जो प्रचार दिखता है यदि हिन्दी को राजभाषा रखा जाता तो यह प्रचार हिन्दी का हुआ होता।
हिन्दी ही वह भाषा है जो भारत की प्रतिभा निखार सकती है अतः मात्र हिन्दी दिवस पर हिन्दी के लिए मातम मनाने से कुछ नहीं होगा। हिन्दी को राजभाषा बनाना चाहते हो तो संसद और विधान सभाओं में हिन्दी को चाहनेवालों को पहुँचाओं। जब तक काले अंग्रेज शासन करते रहेंगे अंग्रेजी ही राजभाषा रहेगी। हमें राजतंत्र, कानून, शिक्षा, चिकित्सा और कृषि आदि सभी क्षेत्रों में हिन्दी और प्रांतीय भाषाएं ही चाहिए। बस यही मांग है भारत स्वाभिमान आंदोलन की। जय हिन्द जय भारत।
निष्कर्ष;
हिंदी भाषा ही भारत की आत्मा और पहचान है। अंग्रेजी को आधुनिकता और तरक्की का पर्याय मान लेना एक सामाजिक, सांस्कृतिक और मानसिक गुलामी है। इस लेख में स्पष्ट किया गया है कि न तो अंग्रेजी वैज्ञानिक भाषा है, न ही वैश्विक। भारत की उन्नति तभी संभव है जब हम हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को शासन, शिक्षा और विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में सम्मानपूर्वक स्थान देंगे। केवल हिंदी दिवस पर शोक मनाने से कुछ नहीं होगा, बल्कि हिंदी प्रेमियों को राजनीतिक और प्रशासनिक मंचों तक पहुँचना होगा, तभी हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होगी।
FAQs (Frequently Asked Questions):
Q1. क्या हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है?
उत्तर: संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार हिंदी भारत की राजभाषा है, लेकिन व्यवहार में अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है।
Q2. क्या अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा है?
उत्तर: नहीं। विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाएं चीनी और हिंदी हैं। अंग्रेजी 12वें स्थान पर है और केवल लगभग 4% आबादी इसे बोलती है।
Q3. क्या दक्षिण भारत में हिंदी का विरोध है?
उत्तर: नहीं। यह विरोध केवल राजनीतिक स्तर पर है। आम जनमानस में हिंदी के प्रति कोई विरोध नहीं है; दक्षिण भारत के लोग सहजता से हिंदी बोलते और समझते हैं।
Q4. हिंदी के विकास में सबसे बड़ी बाधा क्या है?
उत्तर: अंग्रेजी के प्रति मानसिक दासता, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, और नीतिगत अस्पष्टता ही हिंदी के विकास की सबसे बड़ी बाधाएं हैं।
Q5. हमें हिंदी को कैसे राष्ट्रभाषा बना सकते हैं?
उत्तर: संसद, न्यायालय, शिक्षा, चिकित्सा, तकनीकी व प्रशासन जैसे क्षेत्रों में हिंदी को अनिवार्य बनाकर और हिंदी समर्थक प्रतिनिधियों को संसद में भेजकर।
- गिरीश त्रिवेदी
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