व्यंंग्य के धुआंधार में सृजन का प्रतिबोध: कवि की मनोहर कहानियां - बी. एल. आच्छा

Dr. Mulla Adam Ali
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Kavi Ki Manohar Kahaniyan

Kavi Ki Manohar Kahaniyan
यशवंत व्यास

व्यंंग्य के धुआंधार में सृजन का प्रतिबोध: कवि की मनोहर कहानियां

बी .एल .आच्छा
   'कवि की मनोहर कहानियां' व्यंग्यकार यशवंत व्यास की कवि केंद्रित व्यंग्य फैंटेसी की उड़ान है ।यों कविता में व्यंग्य होता है ,पर गद्य व्यंंग्य की कड़ाही में आज की कविता के रसरंग गोल दें और फिर ब्रज की होली की तरह लट्ठमार हो जाएं तो आस्वाद चौंकाता भी है। इस व्यंग्य कृति पर लिखते हुए सहम भी जा रहा हूं, क्योंकि एक पंक्ति में सारे धरम- करम पर चाकू की पैनी धार पहले ही रखी हुई है -"उसने (कवि) बोरियत को बोरे में भरा और आलोचक के घर के बाहर रख आया । आलोचक से बड़ा कौन? उसके घर तो बोरियत के बोरे ही बोरे।" चलो ,यहां तक तो गनीमत है। पर यह कई कांटों को व्यंग्य का सूत्र वाक्य बनाता हुआ फतवा -"बोरियत पर आलोचक का आई एस आई मार्क है।" तो व्यंग्यकार की सारी फितरतों को व्यंग्य की कलात्मक मार को, दिमागी छलांग को इस तरह लाता है कि क्या विडंबना, क्या आइरनी, क्या बुद्धि की परिहासी छलांग और क्या कवि -आलोचक युग्म को एक साथ लपेटती व्यंग्य भाषा सब एक साथ प्रहार करने लगते हैं।

             व्यंग्यकार और मनोहर कहानियां एक अजीब सा विरोधाभास है। किताब की शुरुआत में ही धूमिल अपनी कविता के साथ मुखातिब होते हैं -"खेत गाए जाते हैं /और अभियोग की भाषा के लिए /टटोलते फिरोगे वे चेहरे/ जो कविता के भ्रम में/ जीने के पहले ही /परदे के पीछे /नींद में मर चुके हैं ।"यही नहीं इस चैतन्य अवसाद के मारक अंदाज के साथ नागार्जुन और मुक्तिबोध की स्मृति को भी नमन किया गया है ।कविता की गूंज का एक ध्रुव यह है और समकालीन परिदृश्य में कविता का दूसरा ध्रुव ये मनोहर कहानियां। कवि धूमिल की एक पंक्ति जो 'कविता के भ्रम में 'से ही व्यंंग्यकार ने प्रयोगी व्यंग्य के रूप में नया शिल्प दिया है।

           और तब लगता है कि समय के संवेदन को ,जन प्रतिरोध को, कठघरे की बुलंद आवाज बनाता धूमिल का संक्रांत स्वर मनोहर कहानियों के हल्के-फुल्के अंदाज में कैसे तब्दील हो जाता है। धूमिल और कवि की मनोहर कहानियां तो विलोम सा अंतर्विरोध है। और इसी अंतर्विरोध में व्यंग्य की रंगभूमि पर न जाने कितने दृश्य, कितने कथानक ,कितने अंतरंग -बहिरंग चरित्र ,संवेदना के ध्वस्त होते ताने-बाने ,क्रांति और केश(नकद ) कर्तनालय क्रांति के छोर स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्थितियों पर फेंटेसीनुमा धुनाई आज के परिदृश्य की पटकथा बनते जाते हैं। धूमिल नागार्जुन ,मुक्तिबोध जैसी गहन संवेदना और आक्रामकता के बरअक्स आज की धंधेबाज केश (नकद)क्रांति वाली कविता के धंधेबाज मनरंजक हास्य को इतना मजाकिया अंदाज में परोसा है कि यह हास्य भी व्यंग्यात्मक तेवर में कविता के मूल संवेदन की याद दिलाता है। बहुत हल्के-फुल्के मगर पैने अंदाज में कविताई के मजाकिया अंदाज पर मजाकिया गंभीरता से प्रहार की विशिष्ट शैली बन जाती है।

               व्यंंग्य की रचना प्रक्रिया को लेकर व्यंग्यकारों की अपनी सोच है। व्यंंग्य की अभिव्यक्ति कोई करुणा की कोख से मानता है ।कोई क्षोभयुक्त आक्रोश से। कोई आक्रामकता से ।कोई मासूमियत की जमीन से। यशवंत व्यास के तेवर अलहदा होते हैं, हर रचना के साथ। इस संकलन में कविता के जिस धूमिल प्रस्थान से शुरू करता है ,वह उसकी गंभीरता और कविता की प्राण शक्ति का संवाहक है। पर धंधेबाज मजाकिया कविताओं के बाजार को मजाकिया लहजे से ही व्यंंग्य भाषा में लाया जा सकता है। न करुणा ,नआक्रोश, न मासूमियत ।पर हर कोने को छानता हुआ, उसके अंतरंग को सलटाता हुआ। इस लिहाज से उसका गंभीर संवेदन इन हल्के-फुल्के रंगों में भी धारदार बना रहता है ।और ऐसा भी नहीं कि बाजार बनती कविताओं के लिए पहले के हिंदी कवियों ने कुछ न लिखा हो। भवानीप्रसाद मिश्र का गीत तो बहुत लोकप्रिय हुआ -"जी हां ,हुजूर मैं गीत बेचता हूं।"अज्ञेय कहा ही था -जो छप जाती है वह कविता है।धंधेबाज कविताई हर ओर से धन को तलाशती है। और बात केवल कविता तक सीमित है,वह उस नजरिए को सामने लाता है, जो केवल धन लक्षित होते हैं। इसीलिए केश कर्तनालय में वह केश के अंग्रेजी-हिंदी श्लेष को व्यंजक बना देता है।

       इस धंधेबाज साहित्यिकता के भी कितने ही परिदृश्य हैं। कितने मुखौटे हैं। कितनी क्रांतिवादी नारेबाजी है। जीवन शैली के कितने पेंच हैं। हर सुरंग से, हर गुफा से ,हर थाने से ,दफ्तर- चौराहे से, शब्दों के फ्लेवर से, फेसबुकिया लाइक्स से ,मंदी और जन- क्रांति से ,गोदी और गोदी-निरपेक्ष कविताई के परचम से ,आम आदमी और खास आदमी से, दर्शनऔर प्रयोगधर्मिता से गुजरते हुए कोई कोना नहीं छोड़ता।और वह भी लघुकथा सा विन्यास रचते हुए।और मार भी हल्के-फुल्के अंदाज में ।कभी-कभी गद्य व्यंग्य में रेखाचित्र, संस्मरण आदि विधाओं को संक्रांत करते हुए। कभी कायर और टायर जैसे शब्दों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के नुकीले अंदाज में। फिर हिंदी आलोचना की बीज शब्दावली ,साहित्य के संगठनों के जनवादी, क्रांतिवादी मुलम्मों तक उसकी राडार दृष्टि फेंटेसी अंदाज में व्यंग्य बरसाती जाती है।

           कविता की संवेदन धुरी के मूल में यशवंत व्यास कवि धूमिल की इस चेतना को अटकाए हुए हैं -,"कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है। "मगर यहीं शब्द- कविता में आदमी होने की तमीज़ और कविता से आदमी के बीच की यह फांक? कितने विलोमी हैं कविता के पार्श्व। इसी में प्रतिबद्धताओं के ,विचारधाराओं के क्रांतियों के कितने कचूमर निकल जाते हैं -"खैर,थर्ड रेट पूंजीपति की आत्मा पर अभी उसने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का एक टिकिया साबुन ही खर्च किया था।" और कितने सधे हुए प्रतीकों में प्रतिगामी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष के तेवर केश (नकद) कर्तनालय में तब्दील होते जाते हैं। जनक्रांतियां निरपेक्षता के कवच में कितनी लाभग्राही बनती चली जाती हैं-" उसके इलाके में विचार से लड्डू बनते हैं ।ये जलेबी से ज्यादा कारगर हैं ।लड्डू में पता ही नहीं चलता कि विचार कहां से शुरु और कहां से खत्म। ऊपर कहां और नीचे कहां ।यहां तक कि वामऔर दक्षिण का भी पता नहीं चलता। जहां जलेबी बनती थी ,बनती रहे। जहां विचार छनते थे, छनते रहें। कवि को कोई फर्क नहीं पड़ता। धन्य है कवि, धन्य है उसकी निरपेक्षता। और क्या कवि की जान लोगे ?"

                  इन व्यंग्यों में नॉम चोम्स्की और प्रति क्रांतिकारी लुम्पेन तत्वों जैसी वैचारिक सरहदें भी है और राज्याश्रयों की कविताई के पारिश्रमिक लोभ के साथ लोकतंत्र के वे कोने भी, जहां से कुछ न कुछ साधा जा सकता है। विषय जो भी हो पर उसे नये सौंदर्य बोध में उतार सके, नये बिंब हों, नई भाषा हो, मुहावरे में ताजगी, अभिव्यक्ति में अद्वितीयता।" और अगली ही पंक्ति में-" अहा ,प्रतिबद्धता! धन्य है कवि।"इस निरपेक्ष से कवि को व्यंंग्यकार ने कहां-कहां के रोल दिए हैं। अमेरिका में फेलोशिप से लेकर स्टार्टअप्स तक।पार्टियों के नारा लेखन से फेसबुक लाइक्स के ग्राफ तक। क्रांति के मजदूर संवेदन से लेकर थाना लिटरेचर फेस्टिवल की थीम जनक्रांति तक। और यह तभी सटाक और फटाक के साथ एक वाक्य फूट पड़ता है -"कवि क्रांति का भुट्टा खाता है, पर कभी स्कूटी का लाइसेंस नहीं रखता।" मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास 'कुरु कुरु स्वाहा 'में जो विषय से विषयांतर की छलांग है, शब्दों की सोची-समझी लंबी कूद है ,निर्विषय से विषय पर सोचा समझा प्रहार है और उनके बीच बनता व्यंंग्य का सेतु है, वही बिना उपन्यास के इन कवि केंद्रित व्यंग्यों में खिलंदड़ीपन के साथ मारक बनता जाता है ।छोटे-छोटे परिदृश्य, छोटे-छोटे वाक्य ,क्रांति और भ्रांति के कवि तत्व को उलीच कर बाहर लाते हैं।कभी मुक्तिदाता, कभी विद्रोही। और अगली ही पंक्तियों में-" कवि की आत्मकथा छप गई। तालियां! कवि की आत्मकथा सरकारी खरीद में लग गई। तालियां! कवि आयोग का अध्यक्ष बन गया। तालियां!"क्रांति से लैस विद्रोही शब्दावली का उन्नयन। आक्रोश की हर सृजन -गेंद पुरस्कार लेकर ही सार्थक हो पाती है।

         लघुकथा जैसी यति-गति और मोड़वाले कथानकों की संरचना के भीतर संवादों का प्रहार बहुत कुछ विजुअल और नाटकीय है। पर शब्दों और वाक्यों के साथ दृश्यों की शिफ्टिंग पट- परिवर्तन की मुस्तैदी के साथ ऐसी छलांग लगाती है कि माजरा ही बदल जाता है। मसलन -"कवि क्वारंटाइन में है ।कविताएं मास्क लगाए बिना बाहर घूम रही हैं। कविताओं को कोरोना नहीं होता।" पंक्तियों की शिफ्टिंग में दूरियां हैं और वे सटकर या दूर रहकर व्यंग्य की कलाबाजियों को असरदार बनाती है नवीनतम परिदृश्यों को समेटे ।'कवि को वेबिनार का चस्का लगा' व्यंग्य में पूरी गंभीरता से व्यंग्यात्मक लहजे वाले विषयों के साथ- दो परिदृश्यों के बीच इस हेशटेग को देखिए -"इतने लोगों ने रजिस्ट्रेशन करवाया ‌, सर्वर फेल हो गया। कवि को मालूम है, कारस्तानी उन्हीं की है, जो अमेरिकी चुनाव में रूस से बैठे-बैठे सत्य के विरुद्ध खेल रहे हैं।"

           पर 'फटी डायरी के साबुत पन्ने' तो व्यंग्य की कई छलांगों का कोलाज है। साहित्यिकता की ओढ़ी हुई बॉडी लैंग्वेज में उदासी के रंग वाया फिल्मी नायक गुरुदत्त और अज्ञेय की सांप कविता तथा पर्यावरण की अंतरराष्ट्रीय चिंताओं के बीच हरे लॉन पर सरसराते हुए स्वप्न और यथार्थ का अजीब व्यंग्य रच जाते हैं-" उसने कहा -'वह देखो, वह मुड़ा और पत्थर की सतह पर जा बैठा। मैंने कहा-" एकल कविता पाठ के पहले का कोई सीन तुम्हारे जेहन में अटका रह गया होगा ।और मंचीयता के जप- माला- छापा- तिलक से होता हुआ यह व्यंग्य इस दंश तक जा लगता है -"निगले हुए मेंढक और सुस्त सांप का रिश्ता फंसी हुई पूंजी जैसा होता है।"

               सारी सरकारी या जमीनी धंधों की कलाबाजियों में हरेपन को भुनाता हुआ यह साहित्यिक व्यक्तित्व अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण प्रेम के शासकीय छायावाद में इस तरह घुस जाता है-" निश्चित ही हरे धंधे में काफी हरा ही हरा है। तुम पर तुम लॉन में बैठी हो। यहां अधिक से अधिक हरे सांप का एक कविता पाठ हो सकता है ।ज्यादा हुआ तो एक लाइट एंड साउंड शो करना होगा ।एनजीओ चलाना हो या कविता करना हो कई बिल चाहिए‌, जिनमें सांप सुगमतापूर्वक सकें।"शासकीय छायावाद को भुनाने की कितनी रंगीन और खर्चीन पेशबंदियों के रास्ते सरसराते हुए निकाल लिए जाते हैं‌ और व्यंग्यकार का पंथ भी व्यंजनाओं के वक्रिल पथ से इतना बेजोड़ कि अज्ञेय का बेचारा सांप भी सहमा रह जाता है, कविता को धंधे के गलियारों में घुमाते हुए।

           एक और साबुत पन्ना है इस फटी डायरी का ‌। घरेलू अर्थव्यवस्थाओं में सिकुड़े हुए हुए मगर जीवन में विश्वकवि कहलाने का सपना। यों सिनेमा में प्रोडक्शन और पारिश्रमिक की जो ज़िल्लत है, उससे ज्यादा साहित्य के प्रकाशन और पारिश्रमिक में ‌-"मैं लेखक के कमरे और लाइब्रेरी से शुरु करके 'अजूबे 'की प्रस्तुतिसे दो सौ बीस रुपये में या बारिश, हवा, उपन्यास की काव्यात्मकता से पारिश्रमिक में कैसे छलांग लगाया करता हूं‌ ‌।"काव्य रस के बीच में यह पारिश्रमिक का अर्थशास्त्र हर समय कसकता रहता है उस साहित्यकार को, जो शोषण और अन्याय के विरुद्ध कंटीले शब्दों से संवेदना को लहूलुहान करता जाता है ‌पाठकों के भीतर‌। कवि संतोष में जीता है, मगर पारिश्रमिक में अनदेखी करती ,खाती-पीती संस्थाओं के लिए लिखता है। पर मुगालता यही पाले रहता है -"दुनिया भर में भ्रष्टाचार है , अन्याय है ,संत्रास है, धोखाधड़ी है; मगर मेरी कविता ईमानदार है।"

         शोषण के विरुद्ध जनचेतना को शब्दों में उगाता कवि आत्मसंतोष और उसके "सृजन के विश्व अवतरण" के मोहक सम्मोहन जीता रहता है। और संस्थाएं या अखबार भले ही तोल- मोल का भाव करती रहें। दुनिया भर के सूचकांकों की आसमानी बढ़त में लेखक के पारिश्रमिक की दरें आदिम काल की गंगोत्री में ही अटकी रहें। फिर भी धूमिल के प्रतीक में किसी बैल या सांड की "डां " की तरह क चीरती आवाज के बजाय कवि-" कहानी का नायक इतने उदात्त विचारों का है कि कविता लिखना ही उसका संतोष है, तो छपास की क्षुद्र तसल्ली उसके कद को क्यों छोटा बना डाल रही है? ( मगर जान लीजिए कहानी और असल के अंतर का यही पेंच है।" कवि कितना आत्मतुष्ट हो जाता है ,जब वह अखबार में उसका अपना वक्तव्य पढ़ता है-" कविता समाज को आंदोलित कर सकती है ।और कवि का यह स्वाभिमानी मुगालता कि" वह रूखी रोटी खाकर जीवन गुजार देगा, मगर झुकेगा नहीं । ...या कि नौकरी पचासों कर सकते हैं ,कविताएं कवि के अतिरिक्त कोई नहीं। .. या कि कवि का भरोसा, विद्रोह हो जाएगा।"और इन्हीं भोली भावुकताओं में डूबा विश्वकवि लंबी देर बाद पत्नी के हाथ की चाय पीता है-"कप आधा है, डंडी टूटी हुई है ‌‌।"

            ये व्यंग्य अपनी बुनावट में शब्द -शब्द में, दृश्य दृश्य में चौंकाते हैं। दृश्यों के समय की तात्कालिकता का भी संकेत दिए जाते हैं। प्रेमचंद की कहानी' कफ़न' की कलाली के घीसू- माधव से शुरु होकर डॉट कॉम की साइबर क्रांति तक ।"अहा!ग्राम्य जीवन में जीवन भी क्या है!" गुप्त जी की रोमानी ग्राम्य मोहकता से लेकर अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण में राष्ट्रपति क्लिंटन के सामने प्रदर्शन के लिए 'नायला' ग्राम को विश्वगांव के रूप में चित्रित करते हुए रंगीन साइबर क्रांति तक ।ग्राम्य जीवन की इसी पर्यावरणीय मोहकता के सपनों में कवि जड़ों की ओर लौटता है। मगर ग्रामीण यथार्थ से छलांग लगाकर साइबर क्रांति के जादुई यथार्थवाद के आकाश में डॉट कॉम होकर रह जाता है। व्यंग्यकार इन सारे धंधों में रमी साहित्यिकता को , अभिव्यक्ति के गलियारों को कवि धूमिल के बहाने साहित्य की प्रभावक मूल संवेदना और चेतना के गरजते स्वर में प्रतिबद्धता की याद दिलाता है। मगर यथार्थ और जादुई यथार्थ के बहाने वह केवल कवि नहीं ,अभिव्यक्ति की पूरी बिरादरी को कठघरे में खड़ा कर देता है-" कहते हैं कि कई बुद्धिशाली संपादक' लेखक, पत्रकार ,फिल्मकार अपनी जड़ों के लिए इसी पर लॉगिन करते हैं। कवि जो है ,अपनी जड़ों समेत बिल गेट्स की कंपनी टेकओवर करने जा रहे हैं।"

           यशवंत व्यास के व्यंग्यों का शब्दाकार मितव्ययी है, पर मार का फलक बहुदिशायी। व्यंग्य करते समय वह शतरंज की हर चाल चलता है। ऊंट की तरह टेढ़ी सीध में ।घोड़े की तरह ढैया चाल में।हाथी की तरह पट्टी की सीध में। वजीर की तरह अपनी किसी भी दिशा में। और पैदल शब्दों से भी राजा को कठघरे में अटका देता है। अलबत्ता उनकी तीरंदाजी इतनी सधी होती है कि समय ,पात्र ,सरकारी गैर- सरकारी सुरंगों के छिद्र और साहित्यिक कांतिदर्शिताओं की तथाकथित चेतना के शोर इस मार से बच नहीं पाते। बल्कि साहित्यकारों के मासूम से मुगालतों पर चोट करने में भी चूकता नहीं है । बल्कि शब्दों के भीतर आत्मतेज को उगाने के संवेदनात्मक दायित्व को धूमिल की कविता के बहाने शुरु में ही इंद्र-ध्वज की तरह रोप देता है ।अलबत्ता बुद्धि और व्यंग्य की छलांगों में सांकेतिकता अमूर्तन की शिकार भी हो जाती है। इस संग्रह के शीर्षक में केवल कवि ही मौजूद नहीं है, उसके भीतर अभिव्यक्ति से जुड़े सभी किरदार समाए हुए हैं । कवि से लेकर पत्रकार तक। अखबार से लेकर इलेक्ट्रॉनिक दुनिया के डॉट कॉम तक ।व्यंग्य के परिदृश्य में ये व्यंग्य सर्वथा अलग और विशिष्ट हैं। इन व्यंग्यों की शब्दशक्तियां पाठक से बहुआयामी और बहुकोणीय सतर्कता की मांग करती हैं ‌‌।

बी.एल. आच्छा 
फ्लैट- 701 टावर -27
  नॉर्थ- टाउन , स्टीफेंसन रोड
 पेरंबूर, चेन्नई (टी.एन)
 पिन 6000012
 मोबाइल- 94250-83335
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