नदी- नाले सेल्फी न खींचो श्याम

Dr. Mulla Adam Ali
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hindi vyangya lekh nadi naale

नई दुनिया , इंदौर में आज

नदी- नाले सेल्फी न खींचो श्याम

बी. एल. आच्छा
 
        सावन के झूले और बरसात के पकौड़े अब पुरानी पेंगें बन गई हैं। पूरी प्रकृति ही महाबाथरूम में बदल गई है। हवाओं के साथ तेज झड़ी के फव्वारे। तो भीगने का भी अपना आनंद। तभी स्वर फूट पड़ा-" देखो, देखो! ये बादल भी पहाड़ की चोटी पर उतर कर सेल्फी ले रहे हैं।" अब युगल सरकार है और दृश्यावली ही बूंदों की झड़ी- झड़ी ।मन ही गीत उकेर देता है-" देखो ना! बदरों का सांवलियाना कितना है जुल्फियाना।" पहाड़ से लौटती प्रतिध्वनि आई- "और मन है सेल्फियाना।" बरसाती धरती पर अट्टहास गूंज गया। आकाश में कड़कड़ाती बिजलियों ने जबरदस्त फ्लैश किया , साउंड एंड लाइट शो की तरह।

           पल-पल बदलते आकाश ने मन को रंगरेज बना दिया। दूर बादलों से छन- छनकर आती सूर्यकिरण ने आकाशी इंद्रधनुष तान दिया। पुराने हीरो हीरोइन होते तो चुनरी लहराने और बरसात हो जाने का मौसमी गणित फिट कर देते ।नजरें आमने सामने होतीं। पर मोबाइलियाना मन सेल्फियाना गठजोड़ में बदल गया है।

             सेल्फियाने का भी एक अंदाज होता है। लोग घर का वास्तु शास्त्र देखते हैं। सेल्फियाना मन खतरों में सौंदर्य- बिंब रचता है। बादलों की बॉडी लैंग्वेज की तरह मन की बॉडी लैंग्वेज भी कुलांचे भरती है। चोटी पर बादलों की सेल्फी मन को किसी खतरनाक चट्टान पर खड़ा करवा देती है। समंदर की लहरों से टकराते पांव सेल्फी तरंगों में मचल जाते हैं। फुफकारती नागिन की तरह नदी का किनारा सेल्फी का प्राण बन जाता है। बहते झरनों के किनारे युगल सरकार की सेल्फी का हिट दृश्य।

           जमाना था- आमने सामने की नजरों में फिल्माने का। पर इन खतरों के वास्तु- सौंदर्य पर खड़े होकर सहचरी पुराने नगमे को नए शॉट पर गाने लग जाती है- "अगर मेरा कहा मानो तो ऐसे खेल ना खेलो।" पर शरारती मन मोबाइल के परदे पर उतरे बगैर मानता नहीं। जान ही नहीं पाता कि बरसाती हवाएं कातिल हैं। जुल्फियाना मनोराग कातिल है। बादलों की अठखेलियां कातिल हैं। नदियों के बांके बहाव कातिल हैं। जैसे डिप्रेशन में आदमी खिंचा चला जाता है वैसे ही इस प्राकृतिक रिफ्रेशन में खतरों के सौंदर्य शास्त्र में। हॉस्टल में मौजमस्ती मनाते युवा भी मचल पड़ते हैं। पानी के चुंबक बन जाते हैं झरने। नदियों को थाप देते नाले। पहाड़ी चट्टानों के नुकीले कोर। और सेल्फी में कैद होती अदाएं।

             कहां तो कोई अर्जी लगाता था- "नदी नाले न जाओ श्याम।" और कहां अब सेल्फी के लिए मचलता है पुराने गीत की तर्ज पर हजार बार रेडलाइट दिखाता है-" निशाना चूक ना जाए ,जरा नजरों से कह दो जी।" सेल्फी-नजरें चूकती तो नहीं है। पर मोबाइल में ऐसी कैद हो जाती है कि नुकीली चट्टान पर दिलकश नज़ारों को देख पांव गच्चा खा जाते हैं। ऐसे मौकों पर पांवों को आंख चाहिए।फुफकारती नदी में बहती सेल्फी किसी पेड़ की लटकती टहनी को ढ़ूंढ़ती रह जाती है। समंदर की रेत पावों के साथ बह जाती है ।सहचर मोबाइल के शॉट पर नगमे का नया स्वर देता है- "नदी नाले सेल्फी न खींचो श्याम।" मगर सेल्फियाना मन को लगता है जैसे कंचनजंगा की चोटी पर चढ़ रहा हो। यह वास्कोडिगामा की तरह लहराते समंदर को चीरता हुआ‌।या भागती ट्रेन के कोच के दरवाजे से लटकते जांबाज सा।मगर.....धड़ाम। प्रकृति की बरसात रिश्तों की आंखों में झड़ी लगा देती है। और अवसाद घने बादलों की तरह चेहरों पर चिपक जाता है। हिदायत अनुगूंज बनी रह जाती है- "नदी नाले सेल्फी न खींचो श्याम..!"

hindi vyangyakar achha ji

बी एल आच्छा
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