मातृभाषा का योगदान : प्रो. अन्नपूर्णा .सी

Dr. Mulla Adam Ali
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मातृभाषा का योगदान : प्रो. अन्नपूर्णा .सी
राष्ट्र की क्षमता और राष्ट्र के वैभव के निर्माण में भाषा का महत्वपूर्ण योगदान है। आयातीत भाषाएं न तो राष्ट्र के वैभव की समृद्धि करती हैं और न ही राष्ट्रत्व की भावना को जागृत करती हैं। संस्कार, साहित्य, संस्कृति, सोच, समन्वयता, शिक्षा, सभ्यता का निर्माण, विकास और उसका वैशिष्ठय अपनी भाषा में ही संभव है। उसे ही हम मातृभाषा कहते हैं. उस के प्रति समर्पण और अनुराग-भाव की दृष्टि से विचार करें. भारत के लोकप्रिय पूर्व राष्ट्रपति डॉ.ए.पी.जे अब्दुल कलाम ने स्वयं अपने अनुभवों के आधार पर कहा था कि मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना. क्योंकि मैं गणित और वैज्ञानिक की शिक्षा मातृभाषा में प्रप्त की थी। आप के द्वारा कहे गए शब्द अक्षरशः सत्य है।
        “बच्चों के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी है आवश्यक है, जितना शारीरिक विकास के लिए माँ का दूध।” महात्मा गांधी
  मातृभाषा से ही मनुष्य के आत्मगौरव की वृद्दि होती है। आत्मबल बढ़ता है, जिस से वह ज्ञानार्जन की ओर अग्रसर होता है। सहजता, सरलता, बोधगम्यता और प्रवाहमयता की दृष्टि से मातृभाषा का महत्वपूर्ण स्थान है। वर्तमान में मातृभाषा दिवस के रुप में लोग अपनी भाषा या बोली के प्रति जागरूक है। उसे आगे पीढ़यों के लिए सुरक्षित रखना चाहते हैं। यह विकास का एक मुख्य संकेत है। भाषा और संस्कृति केवल भावनात्मक विषय नहीं, अपितु देश की शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी विकास से जुड़ा है। मातृभाषा के द्वारा ही मनुष्य ज्ञान को आत्मसात करता है, नवीन सृष्टि का सृजन करता है तथा मेधा का विकास करता है। किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी भाषा और उसकी संस्कृति से होती है। विचारों एवं भावनाओं की अभिव्यक्ति तो मूलतः मातृभाषा में ही होती है। मातृभाषा सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित योजना की पूर्ति का महत्वपूर्ण घटक है।

   शिक्षा के लिए भाषा की आवश्यकता है।
इस विषय पर विश्व के स्तर पर अनेक अनुसंधान हुए है। उन अनुसंधानों का निष्कर्ष यही निकाला गया कि शिक्षा मातृभाषा में ही होनी चीहिए क्योंकि बालक को माता के गर्भ से ही मातृभाषा के संस्कार प्राप्त होता है। वे बेहतरीन ढंग से अनुसंधान कार्य कर सकते है। सर्वांगीण विकास को देख सकते हैं जैसे बुद्धि का विकास, सामाजिक विकास, नैतिक मूल्यों का विकास आदि। इस के साथ सृजनात्मक क्षमता का विकास, नागरिकता के विकास को भी देख सकते हैै। ज्ञानार्जन का सशक्त माध्यम है। बच्चा निर्बाध गति से ज्ञान का अर्जन करेगा व्यावहारिक कार्यों में सहायक, सांस्कृतिक चेतना में सहायक, सामाजिक विकास में सहायक तथा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम के रूप में कान करती है। इतना ही नहीं आध्यात्मिक ज्ञान की वृद्धि के लिए भी सशक्त सारणी है।

विश्व कवि रवीन्द्र का कहना है कि “यदि विज्ञान को जन सुलभ बनाना है तो मातृभाषा के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा दी जानी चाहिए।”
भारत के ख्याति प्राप्त अधिकतर वैज्ञानिकों ने अपनी शिक्षा मातृभाषा में ही प्राप्त की है। जिसमें जगदीश चंद्र बोस, लालबहदुर शास्त्री, श्रीनिवास रामानुजम और डॉ.अब्दुल कलाम को प्रमुख रूप से ले सकते हैं। जापान, चीन, इण्डोनेशिया, मलेशिया आदि ने मातृभाषा अपनाकर ही विकास के मार्ग पर प्रशस्त हुए हैं। सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी, वैज्ञानिक एवं अन्य समसामयिक ज्ञान का विस्तार मातृभाषा में ही किया। चीन और जापान तो ऐसे अनुकरणीय उदाहरण हैं, जिन्होंने मातृभाषा के माध्यम से विकास कर वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित हुए हैं। वर्तमान में केन्द्र सरकार द्वारा जो नई शिक्षानीति बनाई गई है। उसमें भी शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा को रखने की बात पर विचार-विमर्श चल रहा है। मैं इसको बात को समर्थन करती हूँ। कम से कम मातृभाषा में हाईस्कूली शिक्षा तक पढ़ता है तो बच्चा बाद में अपनी रुचि के अनुसार अन्य भाषाएँ भी सीख सकता है। लेकिन इसके लिए जबर्दस्ती नहीं करना चाहिए। उस पर थोपना नहीं चाहिए।
देश की आजादी की लड़ाई तथा जागरण काल में सभी वर्गों के या सभी देशवासी हिन्दी या हिन्दुस्तानी को अपने संघर्ष का माध्यम बनाया। हिन्दी पूरे देश या राष्ट्र के लिए माध्यम के रूप में चुना गया है। उसी प्रकार भारत बहुभाषी राष्ट्र होने के कारण हर राज्य या प्रांत की अलग-अलग भाषाएँ भी उन-उन प्रांतों में जागरण के लिए अपनी प्रांतीय भाषा को माध्यम माना। इस कारण से भारत देश में हिन्दी के साथ 22 या 23 प्रमुख भाषाएँ संविधान के स्तर पर मान्यता प्राप्त कर चुके हैं। भारत की भाषाओं को दो रूपों में देखते हैं - उत्तर भारत की भाषाएँ और दक्षिण भारत की भाषाओं के रूप में देखते हैं। आर्य भाषाएँ और द्रविड़ भाषाएँ कहते हैं।

देश को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राज्य में तथा देश में हिन्दी और अन्य भाषाओं को माध्यम के रूप में अपनाया गया। इन भाषाओं के द्वारा समाज में चेतना लाने के लिए जागरूकता को फैलाने के लिए हर राज्य में अपनी-अपनी भाषाओं में रचनाएँ लिखकर लोगों को जानकारी देते थे। इस प्रकार केन्द्र और राज्य सरकार के बीच में एक भाषा को संपर्क भाषा और राजभाषा के रूप में अपनाया गया है। वही हिन्दी भाषा है।
आजादी प्राप्त होने के बाद किसी भी राष्ट्र की उन्नति और विकास का स्रोत मात्र पूंजी और तकनीक नहीं, अपितु उस राष्ट्र की संकल्प शक्ति होती है और संकल्प शक्ति मातृभाषा से ही आती है. किसी आयातीत भाषा के ज्ञान से नहीं।
 विश्व के अनेक राष्ट्रों के विकास और उनकी संकल्प शक्ति का मूल्यांकन करें तो यही तथ्य उभर कर सामने आता है कि मातृभाषा की अद्भुत शक्ति के सामाने कोई विकल्प नहीं है.
ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें मातृभाषा के प्रति अनुराग और समृद्धि ने राष्ट्र के सम्मान को अभिवृद्धि किया है। अपनी भाषा में शासन चलने के लिए नेता लोगों ने अपनी भाषाओं का प्रयोग पर जोर देने लगे। समाज में हर व्यक्ति द्विभाषिक रूप में सोचने लगे। क्योंकि केन्द्र में प्रशासन का माध्यम एक भाषा हो और प्रांतों में अपनी भाषाओं को माध्यम बनाने के लिए बहुत प्रयास किया गया। साथ में साहित्यकारों ने भी अपनी मातृभाषा में रचनाएँ लिखकर अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए लोगों में प्रेरणा भर दी। केन्द्र और राज्यों के बीच में संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी को अपनाया गया। साथ में अंग्रेजी का प्रयोग भी होने लगा। प्रांतीय स्तर पर स्थानीय भाषा के प्रयोग को ज्यादा प्रोत्साहन मिलने लगा। आजकल जनता समाज में अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस और मातृभाषा दिवस को एक उत्सव के रूप में मानने लगे। साथ में विश्व तेलुगु भाषा सम्मेलन और विश्व हिन्दी सम्मेलन भी मनाया जा रहा है। समाज में अपनी भाषा के प्रति जागरूकता लाने का प्रयास किया जा रहा है। देश में हिंदी के बाद ज्यादा जन संख्या द्वारा बोली जानेवाली भाषा है तेलुगु।
यहाँ मैं विशेष संदर्भ में मातृभाषा तेलुगु के बारे में चर्चा करना चाहती हूँ। तेलुगु द्रविड़ परिवार की भाषा है। तेलुगु भाषा को “Italian of The East” कहते हैं। कई अंग्रेजी विद्वानों ने तेलुगु भाषा सीखकर उसके साहित्य को समृद्ध बनाया। तेलुगु में अनुसंधान कार्य भी किया गया है। सी .पी. ब्राउन महोदय की प्रशासनिक कार्य के लिए अंग्रेजी सरकार की तरफ से नियुक्ति हुई। परंतु उन्होंने तेलुगु सीखकर अंग्रेजी- तेलुगु, तेलुगु- अंग्रेजी कोश तथा मिश्र भाषा कोष का निर्माण किया ।

तेलुगु - देश मंटे मट्टि कादोय
            देश मंटे मनुषुलोय
मिट्टि नहीं देश माने मनुष्य ही है माने देश का अर्थ सिर्फ मिट्टि नहीं है । देश का अर्थ मनुष्य।
तेलुगु –
 देशमुनु प्रेमिंचु मन्ना
 मंचि अन्नदि पेंचुमन्ना
 वट्टिमाटलु कट्टि पेट्टोय
 गट्टि मेल तलपेट्टवोय
हिन्दी अनुवाद-
 देश को प्यार करो
 अच्छाई को बढ़ाओ
 बंदकरो बकवास
 करो कुछ काम ठोस।
अर्थात देश को प्रेम करो, अच्छाई को बढ़ाओ, झूटे ऐश्वासन देना बंदकरो, कुछ ठोस काम करके आचरण योग्य बने।
उपरोक्त पंक्तियाँ आंध्रप्रदेश के राष्ट्रकवि श्री गुरजाड अप्पाराव जी ने वे अपने देश भक्ति की कविताओं को मातृभाषा तेलुगु में लिखकर लोगों में प्रेरणा जगाने का सफल प्रयास किया।
इस प्रकार दक्षिण भारत की प्रमुख तेलुगु भाषा में प्रेरणा दायक रचनाओं का निर्माण करने वाले आधुनिक साहित्यकार है – आंध्रा के भारतेंदु वीरेशलिंगम पंतुलु, देशोध्दारक काशीनाथुनि नागेश्वरराव पंतुलु, उन्नव लक्ष्मीनारारण, गुर्रम जाषुवा, देवुलपल्लि वेंकटशास्त्री, श्री.श्री., दाशरथी, आचार्य गोपी, प्रों माणिक्यांबा आदि प्रमुख है। ये सभी साहित्यकार और शिक्षा विद मातृभाषा का समर्थन करते हैं। इतना ही नहीं इन लोगों ने तेलुगु साहित्य में उत्कृष्ट रचनाओं का निर्माण कार्य किया।
राष्ट्र निर्माण के संदर्भ में मुख्य पात्र भाषा का होता है। हर व्यक्ति अपनी भाषा में आसानी से सोच सकता है। अपने ज्ञान का विकास करता है। पूर्ण रूपसे अपनी रूचि के अनुसार व्यक्ति विशेषज्ञ बन सकता है। भाषा के साथ तुरंत याद आनेवाले विषय है शिक्षा। शिक्षा के संदर्भ में यह कह सकते है कि प्राचीनकाल में गुरुकुल पद्धति और आधुनिक काल की शिक्षा पद्धति में घर से या हास्टल में रहकर पढ़ते हैं । वर्तमान काल में भी गुरुकुल जैसे ही घनवान लोग पहली कक्षा से अपने बच्चों को बोर्डिंग स्कूल भेजते हैं। इस वजह से बच्चा अपनी भाषा, समाज और संस्कृति से दूर चला जाता है और विद्रोही के रूप में बन जाता है। आधुनिक शिक्षा नीति में बहुत बदलाव आ चुके हैं। आजकल केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित नयी शिक्षा नीति का प्रयोग करने का पहल शुरु किया गया । इस प्रस्ताव में हिन्दी के साथ-साथ मातृभाषाओं का भी स्थान दिया गया। बच्चों को प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा से मिलनी चाहिए। इससे बच्चों की बुध्दि का विकास होता है। भले ही ढ़ंग से शोधकार्य कर रहे हैं लेकिन मातृभाषा से जो शोध करते है। वे दृढ़ वैज्ञानिक बन जाते है।
तेलुगु के समर्थन में शिक्षा विद, आलोचक और साहित्यकार श्री. सी. आर रेड्डि जी के कथन से स्व भाषा और स्व देश पर प्रेम देख सकते हैं।

ई वंशमुन केदिवच्चिना रानिंडु
तेनुगुभाषा योक्कटि अक्षयमुगा
निलिचि युंडिन चालुनु ।।
अर्थात हमारे वंश को कुछ भी हो जाय कोई परवाह नहीं। अगर तेलुगु भाषा जीवित रहती है तो और कुछ नहीं चाहिए।
 हर कोई भाषा अपने-अपने देश और प्रांत की सांस्कृतिक संवेदना की वाहक होती है। उसके साथ समाज में भाषा कोअनेक प्रकार की भूमिकाएँ निभानी पड़ती है। जैसे – सामान्य जन की भाषा, एक दूसरे से संपर्क करने के लिए, राज काज करने के लिए। जिस भाषा के द्वारा उस देश और प्रांत को पहचाना जाता है। विश्व की संपर्क भाषा अंग्रेजी, देश की संपर्क भाषा हिन्दी और प्रांत के स्तर पर प्रांतीय भाषा को संपर्क रूप में प्रयोग करते है। देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय समाज के विभिन्न क्षेत्रों की पुनः समीक्षा करने की जरूरत पड़ी। नई विचार धाराओं को और ज्ञान-विज्ञान के नए आविष्कारों को आत्मसात करने के लिए निजी क्षेत्रों में सुधार की आवश्यकता महसूस हुई। उसके अनुसार प्रयास भी शुरू किये गये। सामाजिक स्तर पर भाषाओं को भी बदलते परिवेश के अनुसार विकसित करने का प्रयत्न शुरु हुआ। इस तरह भाषाओं को नवीन भाव रचनाओं की पूर्ती के लिए सक्षम बनाने के लिए शिक्षकों पर जिम्मेदारी है, जिस में व्यक्तियों, संस्थाओं और सरकारी संगठन अपना-अपना योगदान दे रहे हैं। आज के भूमंडलीकरण के परिदृश्य में हिन्दी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति भी रुचि बढ़ रही है। आज के वातावरण में भाषा के प्रयोजन के अनुसार किया जा रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी में भी अंग्रेजी हिन्दी के समान प्रमुख भारतीय भाषाओं का प्रयोग होने लगा। भारतीय भाषाओं का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। इससे राष्ट्र सुदृढ़ बनता है।

अंत में मैं कहना चाहती हूँ कि प्रगतिवाद की दृष्टि से अतीत के प्रति निराशा और वर्तमान परिस्थियों के प्रति असंतोष की भावना भरी हुई है। उस निराशा को दूर करते हुए नव समाज की निर्माण के लिए अनेक कवियों ने अपनी भाषा में कविताएँ लिखकर लोगों को जगाया। प्रेरणा और देश भक्ति भर दी. तेलुगु कवितालोक में श्री.श्री.(श्रीरंगम श्रीनिवास राव) को न जाननेवाले कोई नहीं है। श्री.श्री. अपने प्रसिद्द काव्य “महा प्रस्थानम’’ में लिखते हैं
तेलुगु
मरो प्रपंचं मरो प्रपंचं
पिलिचिंदी

अर्थात नया संसार पुकार रहा है.
       अत: निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि भाषा जितनी समृद्ध होगी, उतने ही दृढ़ होंगे राष्ट्र के नीव. ज्ञानात्मक, भावात्मक और साहित्यक औचित्य केलिए सशक्त भाषा चाहिए। वह भाषा मातृभाषा ही होती हैै। भाषा जितनी मजबूत होगी उतना ही सुदृढ़ राष्ट्र निर्माण होगा।
                                                 डॉ. अन्नपूर्णा .सी.
हिन्दी विभाग, मानविकी संकाय
 हैदराबाद विश्व विद्यालय, गच्ची बोली
  हैदराबाद -500046, तेलंगाणा।

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