ये कुर्सी पर नज़र का कसूर है : बी.एल. आच्छा

Dr. Mulla Adam Ali
0
ये कुर्सी पर नज़र का कसूर है : बी.एल. आच्छा

       कुर्सी का चुंबक भी कितना खेंचू होता है। कुर्सी से प्यार हल्का हल्का नजरों का सुरूर भर नहीं रह जाता। यही कुर्सी- चुंबक खींचता -चिपकाता है लोहे को, मगर पलट देता है स्वर्णिम चमक में ।इस चमक के लिए कुर्सीनसीन भीतर से चटकचाले करने वालों को चमकाता भी है, सहेजता - लिपटाता भी है। जो भी करता है छाती पर सिद्धांतों के टर्राते दमखम के साथ । मगर भीतर में छलाछल मचाते हुए। शीतयुद्ध के कौशल के साथ कुर्सियाँ दिल्ली दौड़ लगाती हैं। होटलों में कोप- भवन बनाती हैं। हाईकमान भी लंबी साँसों के साथ सूंघता रहता है। लोकतंत्र के खेला तो शाकाहारी ज्यादा होते हैं। पद खाकर पद पर बैठ जाने की कलाबाजियों को कलहबाजियों में पलट देते हैं। कितने ही शाकाहारी हों, पर सब्जियाँ तो चाकू- कैंची की धार की मारी होती हैं। सल्तनतों के कुर्सीपलट नहीं होते, बम- -गुब्बारों में तख्तापलट हो जाते हैं।

            दिन चले गये । कुर्सी पर चिपक जाते थे शनि की महादशा के पूरे उन्नीस साल‌ ।नयों की आँखें टिमटिमाती तरस जाती हैं। उन्हें लगता है कि जब तक पुच्छल तारों की तरह टूट नहीं दिखाएंगे ,तब तक सत्तामुकुट सपना बना रहेगा। तब नीलोफ़र जैसे अंदरूनी तूफान ही बरगदों को गिरा पाएँगे। टूटेंगे- जुड़ेंगे।पांचा-पाँचा के बजाय ढैया-ढैया के खेल रचेंगे। यों अब तो सालाना मुख्यमंत्री के गठबंधन जुगाड़ भी ।अजीब सा है यह शतरंजी खेल। अपने ही पाले में दो घोड़े, दो ऊँट ,दो हाथी ।और वेअपने पाले में ही पाला बनाकर शह-मात के खेल खेलने लगते हैं ।बेचारे प्यादे असमंजस में। कभी इधर,कभी उधर। कितने राकेटार दागे जाते हैं, पर कुर्सी की एल.ओ. सी. पर पूरा तोपखाना उतर आता है ।जनता इस टाइमपास लोकतांत्रिक खेल में अपने को बहलाती रह जाती है।
हिन्दी व्यंग्य आलेख
  
        कितना मजेदार है लोकतंत्र ! 'ठहाके 'जब राजनीति की राह पर आ जाते हैं, तो 'बहाके' हाइकमान का भ्रमजाल बन जाते हैं। इनमें कुर्सी का ढैया-ढैया गठजोड़ ढाँचा-ढाँचा भर रह जाता है। फिर कुर्सी की ढैया-ढैया रेलें लाल- पीले-हरे डिब्बों का भेद नहीं देखतीं। और ये गठजोड़ टूटने लगें तो गठबंधन गांठबंधन में हलकान हो जाता है।टूटने -बिखरने का अमीबा- रोग सत्ता के डीएनए में है। अमीबा के भीतर अमीबा ।और उसके भी वैरिएंट पर वैरिएंट! उनकी चीख हाईकमान को हिला देती है। टुच्चक- टुच्चक कुनबे बड़ा दचका देकर सत्ता के रन बना जाते हैं। विपक्षी भी ताक में | धड़ा टूटे! होटलों में कोप -भवन बने| संपर्क सधे ,तो बात बने। मगर ऐसे में कुर्सी को ही शनि की पनौती लग जाती है। वे पाट से उतरना नहीं चाहते और दूजे उन्हें उतारे बिना झपकी नहीं लेते।

         कितना ही मुहूर्त देखकर स्थायी लग्न में शपथ ले लो, पर गलबहियां कब गलबान बन जाएँगी ? सत्ता का पंचसाला स्थायी- राग कब ढैया- ढैया चौपाई-दोहा में बदल जाएगा। पता नहीं । नयी पीढ़ियों के नये रागों में पुराने राग कितना कसमसाते रहेंगे। ढैया-ढैया कब ढाँचा ढाँचा चिन्ताओं में घिर जाएगा। पटखनियों के इन खेला में कब तीसरा बाजी मार ले जाएगा? कब उतरे हुए चेहरों पर यह शेर उतर आएगा-"हम किसी और से मनसूब हुए, क्या ये नुकसान तुम्हारा न हुआ?" और अफसाने फुसफुसाएँगे-" जो हमारा था हमारा न हुआ, जो मिला उससे गुजारा न हुआ।"
    अजीब है कुर्सियाँ और अजीब सा सुरूर। चढ़ने लगता है तो अपने ही पाले में गलवान बना लेता है। गुटों के क्वाड रचा लेता है। मान को कमान तक खींच लेता है। कुर्सी पर नज़र का यही कुसूर है कि सुरूर की अनदेखी नहीं कर पाता। खूँटा ठोक दिया, अब बिलबिलाते रहो। गुटों की गोलंदाजी करते रहो! इस्तीफों और दावों के खेल खेलते रहो!'मैं नहीं तो ये भी नहीं' के दांव रचते रहो। लड़खड़ाते रहो, खड़खड़ाते रहो, उलझाते रहो। घर-परिवार को गलबान बनाते रहो।
©® बी.एल. आच्छा


बी.एल. आच्छा
फ्लैटनं-701टॉवर-27
स्टीफेंशन रोड(बिन्नी मिल्स)
पेरंबूर
चेन्नई (तमिलनाडु)
पिन-600012
मो- 9425083335

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top