अटल बिहारी वाजपेयी : कविता की कोख से जन्मे राजनीति के शिखर-पुरुष

Dr. Mulla Adam Ali
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भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर विशेष 

अटल बिहारी वाजपेयी

कविता की कोख से जन्मे राजनीति के शिखर-पुरुष

बी.एल. आच्छा

          अटलबिहारी वाजपेयी राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय राजनेता तो रहे ही हैं, परन्तु उनका संवेदनशील व्यक्तित्व कविता के रसायनों से भरा पूरा है। उनमें ओजस्वी वक्ता का तेज, देशवासियों में भावनाओं का ज्वार पैदा करने वाला रक्त संचार, राष्ट्रीय विविधताओं का समावेशी भारतीय रूप, राष्ट्रहित में निर्णय लेने की साहसिकता और समर्पण का ऐसा योजक- व्यक्तित्व रहा है, जिससे प्रतिपक्ष और साधारण जन भी सदैव प्रभावित रहा। विश्व के शक्तिशाली देशों में भी उनके व्यक्तित्व वैचारिक ऊष्मा और संवेदनशीलता की गहरी छाप अंकित है।

        25 दिसंबर 1924 को उनका जन्म ग्वालियर (म.प्र.) में हुआ। काव्यानुरागी पं. कृष्णबिहारी वाजपेयी के पुत्र के रूप में उनका मन भी कविता के संस्कार और उदात्तता लिए हुए था। अपने जमाने के कवि सम्मेलनों में जाने से पूर्व ही उस काल की समस्यापूर्ति कविताओं और अत्यांक्षरियों से यश अर्जित किया। तुलसी से लेकर अज्ञेय तक के साहित्य से उनका सरोकार रहा। उनके भीतर रस धार बहती रही पर राजनीति की राह पर चलते हुए यह धारा अवरुद्ध भी होती रही। कविता का उफान उनके भाषणों में रूपान्तरित होता रहा, जिसमें वैचारिक उष्मा भी होती थी, काव्यात्मक स्पर्श की कोमलता भी, हास्यपरक दृष्टान्त भी होते थे, निर्णयात्मक संकल्प भी उनकी वक्तृता से पूरा देश प्रभावित था। उनका मानना भी है कि जब कोई साहित्यकार राजनीति करेगा तो वह अधिक परिष्कृत होगी। यदि राजनेता की पृष्ठभूमि साहित्यिक है, तो वह मानवीय संवेदनाओं को नकार नहीं सकता। उनकी दृष्टि में साहित्य और राजनीति अलग-अलग खाने नहीं हैं। पर राजनीति साहित्य, संगीत, कला आदि से वैसा आन्तरिक सरोकार नहीं रख पाती। परन्तु वाजपेयी जी ने अध्ययनकाल में अर्जित इस संस्कार को जीवन्त बनाये रखा। विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर से बी.ए. करने के बाद वे स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए परिवार की आर्थिक स्थितियाँ विषम होने के बावजूद श्रीमन्त जीवाजीराव सिंधिया द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्ति के कारण डॉ.ए.वी. कॉलेज, कानपुर पहुंचे। वहाँ से वे राजनीति की ओर प्रवृत्त हुए। यद्यपि वे कानून की पढ़ाई करना चाहते थे, पर उसे अधूरा छोड़कर लखनऊ से प्रकाशित राष्ट्रधर्म के सम्पादक नियुक्त हुए। 

         1957 में वे पहली बार लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। हिन्दी के प्रति उनका अनुराग तो सर्वविदित है ही, परन्तु विदेशी नीति उनका प्रिय विषय थी। स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू उनकी विदेशी नीति विषयक सम्बोधनों से प्रभावित थे। 1962 एवं 1986 में वे राज्यसभा के भी सदस्य रहे। विश्वनाथ प्रतापसिंह की सरकार में वे विदेशमंत्री रहे। 16 मई 1996 को वे देश के प्रधानमंत्री बने। पर वह सरकार विश्वास मत प्राप्त नहीं कर सकी। लेकिन बाद में एन.डी.ए. की सरकार में वे प्रधानमंत्री बने। उनका प्रधानमंत्री का कार्यकाल चुनौतीपूर्ण था। खासकर परमाणु विस्फोट के कारण लगे अन्तरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद वे निर्णय से नहीं डगमगाये। बाद में अमेरिका से भी गहरी संवादिता स्थापित हुई और पाकिस्तान से भी। वार्ताओं और समझौतों के कारण वातावरण उदार बना। वे उदारीकरण के राह पर चले। टेलीकॉम के निजीकरण और चतुर्भुज सड़कों के निर्माण के कारण वे विख्यात हुए। देश के आर्थिक विकास, औद्योगीकरण, चीन-अमेरिका से नीतिपरक सहयोग और राष्ट्रीय स्तर पर धार्मिक समन्वय जैसे व्यावहारिक समाधानों के कारण वे अन्तरराष्ट्रीय राजनेता और भारतीय जनमानस के उदारचेता राजपुरुष के रूप में मान्य होते गये।

           वाजपेयी जी के लेखों और भाषणों में भारतीयता का सत्व मुखरित है। भारतीयता की उनकी संकल्पनाओं में विविधता का समावेश है। स्वतंत्रता की स्वीकृति है और एक दूसरे सम्प्रदायों के प्रति सद्भाव तथा सम्मान रहा है। पर इससे भी बड़ा उनका मातृभूमि के प्रति संकल्पित समर्पण भाव है। इसीलिए वे परम्परा से चली आ रही भारत माता की आकृति का चित्र ही नहीं खींचते बल्कि लिखते हैं-यह वन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है। इसका कंकर-कंकर शंकर है, इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। हम जियेंगे तो इसके लिए मरेंगे तो इसके लिए‌।" वे सारी चुनौतियों और भारत के इतिहास की घटनाओं से गहरा सरोकार रखते हैं पर एक संकल्पित वाक्य में इस देश की जीवनी शक्ति को भी रेखांकित करते हैं-" किनारे वही खड़ा रहता है, जिसकी जड़ें पाताल से जीवन रस प्राप्त करती हैं।" भारत का शताब्दियों का गौरवममय इतिहास ही उनका पाताल है, जिसके जीवन रस से वर्तमान को मजबूत करना चाहते थे। ऐतिहासिक निरन्तरता और भविष्य के प्रगतिशील सपनों के साथ।

         वाजपेयी जी इस देश की आत्मा और उसके मूल स्वर को पहचानते हैं। यही कि भारतीय राष्ट्र का मूल स्वरूप राजनीतिक नहीं सांस्कृतिक है। उपासना पद्धति की स्वतंत्रता इस देश की संस्कृति का सहिष्णुरूप है। साहित्य के बारे में उनकी धारणाएँ स्पष्ट रही है। वे यथार्थ और समसामयिकता से गहरा सरोकार रखते हैं, पर साहित्यकार से यह अपेक्षा भी करते हैं कि वह आने वाले कल की चिन्ता जरूर करे। पुरातन गौरव की रक्षा के साथ ये शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रीय विकास की अपेक्षा रखते हैं। इसीलिए उनके ऐतिहासिक सत्व में आधुनिक प्रौद्योगिकी उनकी भविष्य-दृष्टि रही। वे लोकतंत्र के परम विश्वासी रहे, परन्तु उसमें नैतिक व्यवस्था के प्रबल पक्षधर भी। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने वाले वे पहले राजनेता रहे, पर भारतीय भाषाओं के प्रति उनका उपेक्षाभाव नहीं रहा। उनकी धारणा थी कि सच्ची एकता तब पैदा होगी, जब भारतीय भाषाएँ अपना स्थान ग्रहण करेंगी। 

      अटलबिहारी वाजपेयी की कविताएँ आवेगात्मक हैं, संकल्पनात्मक हैं, आह्वानपरक हैं और श्रोताओं को अपने रागात्मक रूप में बहा ले जाने वाली हैं। उनकी अदायगी की मुखमुद्राएँ भी प्रभावी रही हैं। पर कहीं कहीं व्यंग्य उक्तियों का तीखापन भी उनके प्रहारात्मक स्वरूप की उत्तेजना को प्रकट करता है। उनके संकल्पात्मक स्वरों में कितनी दृढ़ता है-

टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी

अन्तर को चीर व्यथा 

पलकों पर ठिठकी

 हार नहीं मानूँगा, रार नयी ठानूँगा

काल के कपाल पर

 लिखता-मिटाता हूँ।

गीत नया गाता हूं।

         वे भारतीय अस्मिता और शक्तिमानता को इन स्वरों में व्यक्त करते हैं- "आज/जबकि राष्ट्र जीवन की समस्त निधियाँ दाँव पर लगी हैं और एक घनीभूत अंधेरा हमारे जीवन के सारे आलोक को निगल लेना चाहता है/ हमें ध्येय के लिए जीने जूझने और आवश्यकता पड़ने पर मरने के संकल्प को दोहराना है/ आग्नेय परीक्षा की इस घड़ी में आइए उनमें जनहित के लिए पीड़ाओं का वरण करने वाली आस्था है और अर्जुन की तरह उद्घोष करें ,न दैन्यं न पलायनम्। सांस्कृतिक अस्मिताबोध की यह जीवनी शक्ति उनकी कविताओं का बीज स्वर है।   

           व्यंग्य और हास्य में भी अटलजी खूब रमे है। प्राचीन छन्दों में उन्होंने नये जमाने को घोला है-"

पोस्टकार्ड में गुण बहुत

 सदा डालिए कार्ड,

कीमत कम सेंसर सरल

 वक्त बड़ा है हार्ड।

कह कैदी कविराय 

लोभ सत्ता का भारी।

सत्ता के हित सब कुछ

 स्वाहा की तैयारी।

कह कैदी कविराय

 सूखती रजनीगन्धा। 

राजनीति का पड़ता है

 जब उल्टा फन्दा।     

        परन्तु कवि अटलबिहारी का काव्यात्मक स्वर सामान्य जन सापेक्ष है।भारतीय आत्मा का सांस्कृतिक विस्तार है, संकल्पात्मक आस्था का निर्माणपरक रूप है, सांस्कृतिक क्षितिजों का उदात्त विस्तार है, ऐतिहासिक गौरव के साथ नवीनता का रचनात्मक उद्घोष है।

           राजनीति के कार्यक्षेत्र के कारण अटलजी कविता से भले ही छिटके नजर आते हैं, परन्तु उनकी कविता में उनका आंतरिक व्यक्तित्व, उनकी संचारी प्रतिभा, विश्वात्मकता का उदार नजरिया, युद्ध के बदले शांति की चाह, युद्ध की अनिवार्यता में संघर्ष की चट्टानी दृढ़ता, सत्ता और पदों के बीच आदमी की अस्मिता को मंडित करने की चाह, विनाशक शस्त्रों के बदले रचनात्मक विकास, सामंजस्य और समाधान की विराट चेष्टा, मनोग्रंथियों और बदले भी भावनाओं में न उलझने की सुलझी हुई मनोवृत्ति, शिखरत्व के बावजूद अहंकार से दूर रहने का विवेक, बड़े संकल्प के लिए कुश-काँटों का वरण, अंतश्चेतना से उपजे अन्तर्विरोध, दैन्य और पलायन वृत्ति पर प्रहार जैसे अनेक पहलू उनकी कविता में उभरकर आये हैं। इन विशिष्टताओं को उनके राजनैतिक व्यक्तित्व, राजनैतिक संघर्षो, राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय नीतियों और समाधानों की सुलझी हुई आस्था में देखा जा सकता है। कविता की सरल भाषा और सरल से परिवेश में वे अपने से ही संवाद करते हैं-

बाबा की बैठक में

बिछी चटाई,

बाहर रखे खड़ाऊ,

मिलने वालों के मन में

 असमंजस,

जाऊँ या ना जाऊँ।

माथे तिलक

नाक पर ऐनक,

पोथी खुली,स्वयं से बोले।

आओ मन की गाँठे खोलें।

        उनमें जनहित के लिए पीड़ाओं का वरण करने वाली आस्था है और सबको कदम मिलाकर साथ चलने का सहकार भी

 उन्नत मस्तक, उनेरा सीना,

पीड़ाओं में पलना होगा,

कदम मिलाकर चलना होगा।

         कुश- काँटों में पलकर सुसज्जित जीवन की चाह उनकी वैयक्तिक लाभवाली आस्था न होकर त्याग की भारतीय दार्शनिकता है-

नीरवता में मुखरित मधुवन,

परहित अर्पित अपना तन मन

 जीवन को शत-शत आहुति से

जलना होगा, गलना होगा।

        विश्व की कूटनीति के बावजूद भारतीय जीवन दर्शन के सर्वकल्याण का संकल्प उनकी राजनीतिक आस्था में भी परिणत हुआ है-

"आसमान फिर कभी न

 अंगारे उगलेगा,

एटम से नागासाकी

 फिर नहीं जलेगा,

युद्धविहीन विश्व का सपना,

भंग न होने देंगे

जंग न होने देंगे।"

        परन्तु यदि कोई चुनौती देता है, तो वे प्राणपण से प्रतिकार करते हैं, तब न 'दैन्यम् न पलायनम्' ही उनका मंत्र बन जाता है। यद्यपि वे चाहते हैं कि

"हमने छेड़ी जंग भूख से बीमारी से,

आगे आकर हाथ बँटाए दुनिया सारी, हरीभरी धरती को खूनी रंग न लेने देंगे।

      राजनीति और जीवन संघर्षों से परे भी उनका एकांतिक पार्श्व है, जहाँ दर्शन उनके काव्याकाश में शुभता बिखेरता है-

जन्म मरण का अविरल फेरा, 

जीवन बजारों का डेरा,

आज यहाँ, कल वहाँ कूच है,

कौन जानता किधर असीमित

 प्राणों के पंखों को तौलें,

अपने ही मन से कुछ बोलें।

         एक ओर उनमें मानवीय अस्मिता और गौरव की अपराजेय आस्था है. चुनौतियों की ललकार है, तो अन्तस् में आम आदमी की अस्मिता और उसके गौरव का भाव भी-

"आदमी न ऊंचा होता है,

 न ही नीचा होता है,

 न बड़ा होता है, न छोटा होता है।"

        राजनीति का यह शिखर- पुरुष अपने ही से संवाद करता है-"

"मैं भीड़ को चुप करा देता हूँ.

मगर अपने को जवाब नहीं दे पाता,

मेरा मन मुझे अपनी ही अदालत में खड़ा कर जब जिरह करता है.

मेरा हलफनामा

 मेरे ही खिलाफ पेश करता है. 

तो मैं मुकदमा हार जाता हूँ..

अपनी ही नज़रों में

 गुनहगार बन जाता हू‌ं।"

    परंतु वे आदमी की अनवरत विकास यात्रा और उसके लक्ष्यों को सामने रखते हैं-

"धरती को बौनों की नहीं

 ऊंचे कद के इंसानों की जरूरत है इतने ऊंचे कि आसमान को छूलें

नये नक्षत्रों में प्रतिभा के बीच बोलें

परंतु इतने इतने ऊंचे भी नहीं

कि पांव तले दूब ही न जमे

कोई कांटा न चुभे 

कोई कली न खिले।"

            व्यक्तित्व और सत्ता के शिखरत्व के बावजूद वे तलहटी की नीचाइयों से भी उतने ही जुड़े हैं। इसलिए उनका समरस, उदात्त, संघर्षशील जनहितैषी रूप आम भारतीयों के बीच स्नेह का परस लिए हुए था। वाजपेयी जी के व्यक्तित्व में एक जागरूक पत्रकार, राजनेता का जुझारूपन विश्व राजनेता का सहकार, साधारण नागरिक की साँ सरलता, कुशल संगठन क्षमता, रचनात्मक विपक्ष और दूरदर्शी नेतृत्व, सांस्कृतिक प्रवाह को बढ़ाने की क्षमता और राष्ट्र के लिए समर्पण का आंतर-संगीत एक साथ मौजूद है। 1992 में उन्हें राष्ट्र के प्रति समर्पित सेवाओं के लिए पद्मविभूषण से अंलकृत किया गया। वे लोकमान्य तिलक पुरस्कार एवं गोविन्द वल्लभ पंत पुरस्कार के साथ सर्वश्रेष्ठ सांसद के रूप में सम्मानित हुए। मेरी इक्यावन कविताएँ, मेरी संसदीय यात्रा (चार खंड), संकल्पकाल और गठबंधन की राजनीति उनकी प्रमुख पुस्तकें है।

      भारत रत्न का सम्मान निश्चय ही उनके राष्ट्रप्रेम, दिलेर व्यक्तित्व, भारतीय दर्शन की विश्वात्मक चेतना, लोकतांत्रिक सहकार और विश्व क्षितिज पर भारत को रेखांकित करने की राजनैतिक सांस्कृतिक आस्था का ही प्रतिरूप है।

बी.एल. आच्छा
फ्लैटनं-701टॉवर-27
स्टीफेंशन रोड(बिन्नी मिल्स)
पेरंबूर
चेन्नई (तमिलनाडु)
पिन-600012
मो-9425083335

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