स्वामी विजयानंद : स्मृतियों के इन्द्रधनुष (पुस्तक समीक्षा)

Dr. Mulla Adam Ali
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स्वामी विजयानंद जी की कृति

 डॉ. स्वामी विजयानंद जी की कृति

 "स्मृतियों के न्द्रनुष"

(पुस्तक समीक्षा)

     एम. एससी गणित, भौतिकी), एम.ए., (हिन्दी), एम.एड., पी. एचडी से विभूषित सेवानिवृत्त प्राध्यापक (हिन्दी पत्रकारिता) डा स्वामी विजयानंद जी के बारे में कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। प्रारंभिक गणित, भौतिकी के सिद्धांत, विज्ञान और समाज, किशोर मनोविज्ञान, विज्ञान और अध्यात्म, अध्यात्म और मनोविज्ञान, द्वादश ज्योतिर्लिंगानि, जैसी विज्ञान और अध्यात्म से जुड़े विभिन्न विषयों के साथ साथ हिंदी कविताओंं में नारी सौन्दर्य, बाल सतसई प्रबोधिनी, बाल धारावाहिक: अनुभूति और अभिव्यंजना, स्वामी विजयानंद सतसई (खंड-1एवं 2) और स्मृतियों के इन्द्रधनुष जैसी उत्कृष्ट पुस्तकों के रचियता एवं मासिक पत्रिका "एक रोटी" के संस्थापक प्रमुख संपादक, डाक्टर स्वामी विजयानंद जी के शोध आलेख, यात्रा संस्मरण, कहानियाँ और कविताएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होते रहते है।

 आदरणीय स्वामी जी की कृति "स्मृतियों के इन्द्रधनुष" एक मनमोहक काव्य संकलन है जो कवि के काव्य जीवन के विभिन्न सोपानों में विभिन्न परिवेश एवं विभिन्न परिस्थितियों से प्रभावित हैं। कविता में व्याप्त उनके भाव, कहीं पर बहती नदी के वेगवान प्रवाह के समान सारे सामाजिक प्रतिबंधों को ध्वस्त करने के लिए प्रयास करते तो कही अध्यात्म से प्रभावित हो परम शून्य में विलीन होने के लिए उत्कंठित नजर आते हैं।

 जीवन में सम्मान, अपमान, उपेक्षा के साथ साथ अभाव के उपरांत शरीर और आत्मा की भूख से उपजे दुख दर्द को झेलते, संघर्ष करते व्यक्ति के मनोभाव उनकी रचनाओं में सहजता से उभरते हैं । समाज से जुड़ा व्यक्ति उपेक्षा और तिरस्कार से कब थक या प्रत्युत्तर में समाज से विमुख हो अध्यात्म की तरफ उन्मुख हो उस परम सत्य परम शून्य की तरफ बढ जाता है जिस राह पर चलने की उसने कभी कल्पना भी नही की होती है, उनकी रचनाओं में क्रमबद्ध रूप से नजर आता है। मानवीय संवेदनाओं को केंद्र में रखकर उनकी रचनाएँ हर्ष और विषाद के विभिन्न आयामों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अतृप्तता से संतृप्तता की तरफ उनकी यह यात्रा उनकी रचनाओं में निरंतर जारी है।

पुस्तक में संकलित उनकी कविता "मन पतंग" का एक अंश देखिए 

"कहीं दूर किवाड़ में अमल दीप जलता है

विरहाकुल मेरा मन पतंग भी जलता है।

दोनों की पीड़ा एक अभिव्यक्ति अलग है

भीतर से जलता है एक बाहर जलता है।"


मन की आंतरिक दुर्बलता पर कवि मुखरित होता है 

"मैला हो गया मन का दर्पण 

कीच कपट की मोटी परत जमी

कैसे देखूँ उजाला मुख अपना

कैसे पिय से आँख मिलाऊँ"


 उनकी कविता "मछेरे" में, दार्शनिक अंदाज में कहा गया कविता का मर्म भाव निखरकर कवि के मनोभावों को मनमोहक बना देता है

"मछेरे 

भूल भुलैया मछरी का जीवन

कितने हैं जी के जंजाल

नदिया प्यासी प्यासी मछरिया

जाने कितने भ्रम जाल "


कवि का ईश्वर , मंदिर मस्जिद देवालयों के भीतर न होकर कवि के अंदर ही विराजमान है।

"घट भीतर बैठा सेज सजाए मेरा प्रिय प्रियतम

कंठ लगाया बाँहों में भरकर टूटा मतिभ्रम"

"ना तुम तुम हो ना मैं मैं हूँ 

मैं तुमसे तुम मुझसे मिल एकाकारिता हो गए"


अतृप्ति की पीड़ा पर चलती उनकी लेखनी का एक अंश उनकी कविता "अतृप्ति रह गई ढूंढती" से देखिए 

"अतृप्ति रह गई ढूंढ़ती संतृप्ति सतत् 

विस्तृत सागर के खारे अंतस्तल में 

आकुल लहरों ने रो रो कर लिख डाली

व्यथा कथा उर की फेनिल आँचल में"


दुनिया के छल से व्यथित उनके मनोभाव उनकी कविता "जीवन भर मैं छला गया हूँ" में उभर कर आते है - एक अंश

"जीवन भर मैं छला गया हूँ

हार नहीं मानी है तब भी"


अपने मन की पीड़ा को व्यक्त करता हुआ उनका व्यथित हृदय छलिये के लिए मंगलकारी भावना ही रखता है। कविता "शांत झील के निश्चल जल में" के अंश देखिए 

"रिसते हैं घाव बहुत धीरे धीरे नासूर बन गए सभी

अवमानना प्रिय की कैसे दुनिया को उन्हें दिखा दूँ।"


"एकाकी अंध निविड़ में ढूंढता पथ सोच रहा आहत मन

सुरभित पुष्प बिछा दूँ राह तुम्हारी अपनी में काँटें बो दूँ।"


सामयिक परिस्थितियों पर उनकी चिंता आक्रोश, उनकी कविता, "भीड़ के जंगल में " के निम्न अंश में नजर आती है ।

 "कफनों के लंबे सिलसिले में 

   दबी हुई है कहीं 

   इंसानियत की लाश

   मृतकों की इमारत में 

   कोई नहीं रहता 

   न जोगी न भोगी, न सपनों का चोर"


एक दूसरी बानगी के लिए उनकी कविता "चंदन के दरख्तों पर" का एक अंश देखिए 

"चंदन के दरख्तों पर नागों के बसेरे हैं 

उजालों की तलहट में स्याह अँधेरे हैं 

फूलों की महक पर काँटों की पहरेदारी 

विश्वासों की बस्ती में धोखों के लुटेरे हैं।"


देश की आंतरिक परिस्थितियों पर उनकी चिंता की एक बानगी देखिए 

"तुम तो रह लेती हो कैसै भी कैसे मैं करूँ निर्वाह यहाँ

 प्रवाह हीन सरिताएँ हैं सूखे हैं बावली कूप तड़ाग यहाँ 

छाती दरकी फटी लिए बंजर धरती भरती है आह यहाँ 

मृत्यु कामना करते हैं नित अधनंगे सूखे भूखे पेट यहाँ 

रोग शोक अपवंचन वंचन क्रंदन करुण चहुँ ओर यहाँ "


उनकी कविता "गली कूचों में भटकते रात दिन" का एक अंश देखिए 

"गली कूचों में भटकते रात दिन

ढेर कचरों के पलटते रात दिन।

दुश्वारियों में कट रही जिंदगी 

पेट भर रोटी को तरसते रात दिन।"


कश्मीर की बदलती परिस्थितियों पर कवि खामोश नहीं रहता बल्कि चिंतित कवि की भावनाएं फूट पड़ती हैं।

"फिजाएँ आज कुछ बदली हुई लगती

झेलम की तरंगें मौन क्यों मचलती हैं 

गाँव खाली हो रहे हैं अब सरहदों पर

आँधियाँ बारूद की क्यों उठने लगी हैं"


पर्यावरण संरक्षण की महत्ता पर बल देती यह अंश देखिए 

"प्रलय के शिलालेख लिख डाले

कितने मौन प्रकृति ने पथरीले 

पर्वत के सूखे जर्जर सीने में 

चिंतित छोटी सी गौरैया बैठी

पढ़ती लिखी विनाश की गाथाएँ 

कटे पेड़ की निर्जीव पड़ी बाँहों में 

घुटन बहुत है साँस रुक रही है 

आसन्न मृत्यु की आहट ड्योढ़ी पर

शिथिल नदी गुम हो गई कछारों में 

हरीतिमा करती करुण विलाप

सुबक सुबक कर आधा मुँह ढाँके

भटकती फिरती शहरी गलियारों में"


पर्यावरण प्रदूषण पर भी कवि की बेचैनी साफ साफ नजर आती है। गंगा के प्रदूषण पर आक्रोशित कवि कह उठता है

"जहाँ तक जाती दृष्टि विस्तारित 

गंगा के पंकिल तट पर

आश्रय स्थल थे मल मूत्र विष्ठा के

जल विस्तार तो था अपरिमित 

आस्था के अर्पण सड़ते 

दुर्गंधित हविष्य पुष्प पर्ण

गलित वस्त्रों से पटा पड़ा था

लक्ष लक्ष के पाप धोता नित 

मैला मटमैला प्रदूषित अकल्पित।"


विपरीत परिस्थितियों में भी वसुधैव कुटुंबकम में व्याप्त मानवीय संवेदनाओं को व्यक्त करती उनकी रचना "सुलगती सरहदों के पार" का एक अंश देखिए 

"सुलगती सरहदों के पार भी

आकाश में उगते हैं इन्द्रधनुष"


हिन्दी का विद्वान कवि देश में हिंदी की सोचनीय दशा पर न लिखे ऐसा हो नहीं सकता, उनकी कविता "हिन्दी दिवस" का एक अंश देखिए 

"दिवस अँग्रेजी में लिखे आदेशों निर्देशों का

दिवस राष्ट्रीय शर्म एवं लज्जा का "


"भारत के संविधान का मूल पाठ अँग्रेजी में 

नियम कानून कायदे सब अँग्रेजी में"


"हमारा खाना पीना सोना सब अँग्रेजी में 

कुछ भी तो नहीं हिन्दी में आज के दिवस"


हिन्दी उत्थान के प्रति उनकी कामना की एक बानगी 

उनकी कविता "हिन्दी दिवस" से ही देखिए 

"राज भाषा राष्ट्र भाषा हिन्दी हो

भारत के जन जन की कंठहार हिन्दी हो

विश्व भाषाओं की शीर्ष शिखर हिन्दी हो

हम हिन्दी हमारी पहचान शान हिन्दी हो"

भाषा की दृष्टि से उनकी कविताओं में हिन्दी के स्थानीय शब्दों के साथ साथ जहां तत्सम संस्कृतनिष्ठ शब्दों के प्रयोग ने कविता की सुन्दरता में निखार लाया है वहीं औसत दर्जे का हिन्दी ज्ञान रखने वाले के लिए कविता कहीं कहीं पर क्लिष्ट सी हो गई है परंतु भाषा की अनुपम खूबसूरती पाठक को अपना हिन्दी ज्ञान बढाने को ही प्रेरित करती है।

जी एच पब्लिकेशन, प्रयागराज से प्रकाशित एक सौ बानबे पृष्ठों वाली इस मनमोहक पुस्तक (मूल्य ₹300/-) में कवि की बार बार पढ़ने योग्य 134 कविताएँ संकलित हैं। 

आदरणीय डाक्टर स्वामी विजयानंद जी की, काव्य यात्रा, हिन्दी काव्य जगत को अपनी मनोहर रचनाओं से इसी तरह अविराम समृद्ध करती रहे, इस शुभकामना के साथ-

©® अशोक श्रीवास्तव "कुमुद"

समीक्षक;
अशोक श्रीवास्तव "कुमुद"
राजरूपपुर
प्रयागराज (इलाहाबाद)
ashokkumarsrivastava6430@gmail.com
Mobile : 9452322287


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