आधा गाँव : Adha Gaon Novel by Rahi Masoom Raza

Dr. Mulla Adam Ali
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Adha Gaon Novel by Rahi Masoom Raza

Adha Gaon Novel by Rahi Masoom Raza

राही मासूम रज़ा का उपन्यास ‘आधा गाँव’

         राही का जन्म एक संपन्न एवं सुशिक्षित शिक्षा परिवार में 1 सितंबर,1927 को गाजीपुर जिले के गंगौली गाँव में हुआ था और प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गंगा किनारे गाजीपुर शहर के एक मुहल्ले में हुई थी। बचपन में पैर में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए छूट गई, लेकिन इंटरमीडिएट करने के बाद वह अलीगढ़ गए और यहीं से एम.ए. करने के बाद उर्दू में ‘तिलिस्म-ए-होशरूबा’ पर पीएच-डी. किया। पीएच-डी. करने के बाद राही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ उर्दू विभाग में प्राध्यापक रूप में कार्य करने लगे और अलीगढ़ के ही एक मोहल्ले बदरबाग में रहने लगे। अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवाद दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हो गए थे।

    19 से राही बम्बई में रहने लगे थे। वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यंत लोकप्रिय हो गए थे। यहीं रहते हुए राही ने ‘आधा गाँव’, ‘दिल एक सादा कागज’, ‘ओस की बूंद’, ‘हिम्मत जैनपुरी’, उपन्यास लिखा और 1965 के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी ‘छोटे आदमी की बड़ी कहानी’ लिखी। उनकी सभी कृतियां हिंदी में ही थी। इससे पहले वह उर्दू में एक महाकाव्य 1968 जो बाद में हिंदी में ‘क्रांति कथा’ नाम से प्रकाशित हुआ। ‘आधा गाँव’, ‘नीम का पेड़’, ‘कटरा बी आर्जु’, ‘टोपी शुक्ला’, ‘ओस की ‘ और ‘सीन 75’ उनके प्रसिद्ध उपन्यास है।

      बी.आर. चोपड़ा द्वारा निर्मित प्रसिद्ध टीवी सीरियल महाभारत की पटकथा भी राही ने लिखी थी और 1979 में ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ फिल्म के लिए फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ संवाद पुरस्कार मिला था। राही मासूम रजा का निधन 15 मार्च 1992 बंबई में हुआ।

‘आधा गाँव’ (Adha Gaon)

     सन् 1966 में राही मासूम रजा का उपन्यास ‘आधा गाँव’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में राही मासूम रजा ने गाजीपुर से बारह-चौदह मील की दूरी तक स्थित गंगौली गाँव के मुस्लिम समाज का प्रमुख रूप से और अन्य वर्गों का भी चित्रण किया है। इस उपन्यास में स्वतंत्रता से पूर्व और स्वतंत्रता के बाद की घटनाओं को बांधने का प्रयास किया है। इस गाँव में हिंदूओं और मुसलमानों की अनेक जातियां निवास करती थी परंतु लेखक ने इस उपन्यास में केवल शिया मुसलमानों के जीवन को चित्रित करने का प्रयास किया है।

     राही मासूम रजा ने इस उपन्यास में 1937ई. से 1952ई. तक के पंद्रह वर्षों की अवधि में होने वाले प्रभावों को बांधने का प्रयत्न किया है। यह काल वर्तमान भारत के इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण काल है इसी काल में 1937 में प्रांतीय विधानसभाओं में पहली बार चुनाव हुए और प्रांतों में भारतीय सरकारों का प्रथम बार निर्माण हुआ। 1942 में भारत छोड़ो का प्रस्ताव पारित हुआ। जिसके परिणाम स्वरूप देशव्यापी क्रांति का प्रभावशाली कांड प्रस्तुत हुआ। ब्रिटिश सरकार द्वारा हुए अत्याचार सामने आए। 16 अगस्त 1946 में मुस्लिम लीग के ‘डायरेक्ट एक्शन’ की घोषणा हुई जिसके फलस्वरूप देशभर में हिंदू-मुस्लिम दंगे शुरू हुए गए। 1947 में भारत का बंटवारा हुआ और पाकिस्तान का निर्माण हुआ। भारत में नए संविधान की स्थापना हुई। प्रांतीय सरकारों ने जमींदार उन्मूलन के कानून बनाए। इन सभी परिवर्तनों का गंगौली के शिया मुसलमानों पर क्या प्रभाव पड़ा और उनके जीवन में कैसे परिवर्तन आए, लेखक ने इन विषयों दर्शाया गया है।

      गंगौली नामक गाँव को कथा के केंद्र में रखकर वहां आपसी सौहार्द के साथ बसने वाले मुसलमानों एवं हिंदूओं के बीच किस प्रकार का विभाजन मौजूद न था। इस बात से उनका कोई लेना-देना न था कि राष्ट्रीय स्तर पर हिंदूओं और मुसलमानों के बीच क्या घट रहा था। उन्हें उनकी कोई परवाह भी न थी। वे तो बस यही समझते थे कि जिस गाँव में रहते थे वही उनका घर, उनकी जमीन, उनका वतन है। वे इस देश के बराबर हकदार थे। धर्म भले ही अलग-अलग हो उनमें धर्म के नाम पर आपसी किसी भी मतभेद के लिए कोई स्थान नहीं था। लेकिन विभाजन ने इनके बीच मतभेद खड़े कर ही दिये।

     देश विभाजन को लेकर लिखे गए उपन्यासों में उपन्यासकारों ने उन सब समस्याओं को चित्रित किया है जो उन्होंने अनुभव की थी। इस उपन्यास के संदर्भ में राही ने लिखा है कि –-“यह उपन्यास वास्तव में मेरा सफर है। मैं गाजीपुर की तलाश में निकला हूं, लेकिन पहले मैं अपनी गंगौली में ठहरूंगा... यह कहानी न कुछ लोगों की है और न कुछ परिवारों की... यह कहानी न धार्मिक है, न राजनीतिक, क्योंकि समय न धार्मिक होता है, न राजनीतिक और यह कहानी है समय ही की। यह गंगौली से गुजरने वाले समय की कहानी है।.. या कहानी जितनी सच्ची है उतनी झूठी भी। मुझे सच में झूठ और झूठ में सच की मिलावट की कला आती है। इस कहानी में जगह-जगह “मैं” इसलिए इस्तेमाल कर रहा हूं की कहानी मुझसे दूर ना जा सके।“

डॉ. मुल्ला आदम अली

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