स्तुति राय की कविता : बूढ़ी दाई

Dr. Mulla Adam Ali
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Stuti Rai Ki kavita : Budhi Dai

Stuti Rai Ki kavita Budhi Dai

कविता कोश में आज आपके लिए बिहार की एक छोटी सी नदी "बूढ़ी दाई" के बारे स्तुति राय की कविता। पढ़े और शेयर करें। Stuti Rai Poetry Budhi Dai in Hindi...

"बूढ़ी दाई"

आज मैं

अपनी कहानी सुनाऊंगी

मेरा नाम

बूढ़ी दाई था,

था इसलिए, क्योंकि

अब मैं नहीं हूं

सबसे पहला परिचय यह कि

मैं एक नदी थी,

बिहार के

कैमूर पहाड़ियों के

जमरदाम गांव के करीब

एक सोता से

मैं निकालती थी,

न जाने कितने घरों को

पोसती थी

न जाने कितनी नवयौवना

मुझे में खुद को छुपाएं

खुद को सुरक्षित महसूस करती

और खुद के लिए मांगती थी वर

ताकि अगली बार मनौती पूरी होने पर

आएं वो किसी और के साथ

स्नान करने,

नहाना और मटकी - तसला भर कर

पानी ले जाना

कितने खूबसूरत थे वो दिन,

लेकिन मुझे तो सबसे अच्छा

तब लगता, जब मैं

अपने भाई बंधुओं के पास होती 

खेतों के पेट भरती 

गमकउवा सोनाचूर, ठाकुर भोग

कामोच, स्याहजीरा, कनकचूर से

किसानों के घर

धान से भर देती, लेकिन

मैं यह नहीं कह सकतीं की

नियति को कुछ और मंजूर था

बल्कि मैं यह कहूंगी कि

मनुष्यों ने ज्ञान और इरादों की

जो पहलकदमी शुरू की,

विकास के तरीकों और

तत्कालिक जरूरतों पर

ऐसे जोर दिया गया

जैसे बंदर के हाथ में उस्तरा,

यानी मेरी मौत

प्रायोजित और सुनियोजित थीं,

ठीक वैसे ही जैसे

स्याह रस्म थलाइकूथल होती थी

मेरी नियति भी

कुछ एसी ही निकलीं,

जो गांव कभी

मेरे भरोसे था, आज

योजनाएं के भरोसे

खुद को जिन्दा रखने की

जद्दोजेहद कर रहा,

इनकी योजनाओं से

ना लोगों के पेट भरे

ना खेतों के,

और हां एक और बात बता दूं

योजनाओं के नाम पर 

सिर्फ मेरी मौत की 

साज़िश नहीं रची गई

बल्कि मेरे जीवनसाथी

मेरा जंगल, उसे भी

काट डाला,

मेरे हमसफ़र ने

मुझे अपने बाहों में यूं भरा था कि

मेरे दोनों किनारों पर

सखुआ, महुआ, कुसुम,पियार

और गुलर, मेरे ऊपर छाएं रहते

और हां, मुझे आप लोगों से

अपने प्रेम को बताने में

समस्या नहीं, क्योंकि

यह किसी परियोजना के

अंतर्गत नहीं आता,

मेरी जमीन पर 

तुम्हारी दावेदारी ने

मुझे रौंद दिया,

मेरी किमत आज क्या है

एक पसेरी धान?

मुझे आज भी याद है

वो बरगद का पेड़

जिसने मेरा हाथ थामा

और कहा था,

चलों दुनिया बदलते हैं

वह भूल गया था

मनुष्यों की सुसंगत

परियोजनाओं को,

मेरे जिस स्वर्णकाल का

साथी रहा,

आज परम्परा और आधुनिकता की

युद्धभूमि में अधमरा खड़ा है और 

मैं मर चुकी हूं।

- स्तुति राय

शोध छात्रा,
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ
वाराणसी

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