Kamleshwar : कमलेश्वर के कहानियों में नारी पात्र
कमलेश्वर की कहानी में नारी अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को लेकर आयी है, वह किसी की पत्नी है, किसी की बहन है, किसी की माँ है, परन्तु इस रूप में भी वह अपनी अस्मिता और स्वतंत्र अस्तित्व को कभी भूलती नहीं। समाज के सभी विभिन्न स्तरों की नारियाँ यहां है, पर अपनी सम्पूर्ण मजबूरी को विशिष्टता को और यातनाओं को लेकर इसके पूर्व की कहानियों में नारी के जो विविध रूप मिलते हैं। अनादि काल से साहित्य में नारी का चित्रण करने का प्रयास कवि और कहानिकारों ने किया है। रीतिकाल के श्रृंगारी कवियों ने नारी को कला का अलंबन बनाकर चित्रण किया था। उस युग में कला वासना पूर्ति का साधन बन गई थी। नारी का सांगोपांग चित्रण कलाकारों का एक आदर्श बन गया था । भक्ति काल में श्रृष्टी की मूलभावना 'रती' को जीवन के व्यवहारिक पक्ष से अलग कर अलौकिक पुरुष के प्रति समर्पित कर दिया गया था। उनके लिए 'रति' मुक्ति का साधन थी। उसका आधार अध्यात्मिक था। परंतु श्रृंगार युग की 'रति' उस उच्च काल्पनिक स्तर से नीचे यथार्थ की भूमिपर उतर भक्त के छद्मवेशी आवरन को दूर फेंक यथार्थ वादीनी बन गई थी। श्रृंगारी कवी इस 'रती' की साधना को ही जीवन और मुक्ति का एक साधन मानने लगे थे। जैसे -
"चमक-तमक हाँसी ससक मसक झपक लटकानि
ए जिहि रति, सो रति मुकति और मुकति सब हानि॥"
आधुनिक काल के कहानिकारों ने भी नारी के विविध रूपों का अपने कहानियों में चित्रण करने का प्रयास किया है। नारी के विविध रूपों का बड़ा सन्दुर विवेचन राजेंद्र यादव ने भी एक स्थान पर किया है।- "छायावादी युग की नारी, न तो नारी है, न सामाजिक संदर्भों में रहनेवाली जीवित इकाई ।" वह प्रायः निराकर है, एक हवा है, जो कवि हृदय कलाकर अंदोलित करती रही है। कथाकार या तो उसके हाड-मांस के रूप को देखने से इन्कार करता रहा है या उस रूप को देखते ही अपने आपको अध्यात्मिक उँचाइयों से गिरा हुआ पाता है और उसे दानवी कहकर धिक्कारता है।"" द्विवेदी काल में नारी को देवी के रूप में देखा गया तथा प्रगतिवादियों ने उसे शोषण की इकाई के रूप में देखना शुरू किया। वास्तव में भारतीय भाषाओं के साहित्य में नारी या तो श्रृंगार की पुतली बनकर आई है या देवा अथवा कुल्टा। उसके अन्य रूपों को देखने की कोशिष ही नहीं हुई।
आज का आधुनिक साहित्य का नारी को अलग-अलग इकाइयों में बांटकर नहीं देखता वह तो उसे एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में ही देखना पसंद करता है। उसे देवी या राक्षसी रूप में न देखकर यथार्थ मानवी और समाजिक प्राणी के रूप में (नये साहित्यकारों ने) देखा है, उन्हें मजबूर होना पड़ा है कि नारी को एक सामाजिक समस्या के रूप में देखे।' नारी को कथाकार न पुरुष की दृष्टि से देखे न स्त्री की दृष्टि से वह उसे एक सामाजिक इकाई के रूप में देख। उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को स्वीकार करके देखे ऐसा आग्रह शुरु हुआ।
एक और बात की आवश्यकता भी कि वह नारी को परम्परा से मुक्त होकर नैतिक सामाजिक, मानदण्डों के परे जाकर उसकी भीतरी स्थिति को जानने की कोशिश करे। यह कार्य बड़ा कठिन तो है ही क्योंकि भारतीय संस्कारों के व्यक्ति को इस प्रकार की साफ दृष्टि बडी मुश्किल से प्राप्त होती है। साहित्य में अभिव्यक्त उसके परम्पराबद्ध रूप के सम्बद्ध में कमलेश्वर ने लिखा है- "उसका कोई रूप ही नजर नहीं आता और अगर आता भी है, तो वह धुंध के पार खड़ी एक नारी आकृति की कुछ रूप-रेखाओं वाला उसके बाल नहीं केश या अलके हैं जिनसे नहाने के बाद की कुछ बूँदे टपकती हैं, मांग और माथा सिंदूर और बिंदी लगाने के काम आते हैं पलकों का काम केवल जल्दी-जल्दी झपकना या आँसू भर लाना है, कान सुनने के लिए हैं गाल नहीं कपोल है और व शर्म से लाल होने के अलावा आँसू ढुलकाकर आंचल पर टपकाने के लिए है कन्धे गायब है, केवल कलाइयाँ जिनमें चूडियाँ हैं आँचल वस्त्र नहीं । सिरे वाली कोई चीज है जिसे उसकी उंगलिया मरोडती-बल देती रहती है, वक्ष ऊपर-नीचे उठने के लिए है, बीच का धड गायब है, पाँव के तलुए है जिनमें महावर है और अंगूठा चप्पल या मिट्टी कुरेदने के लिए होता है". जोशी की समस्त सेक्स ग्रंथियों के बावजूद प्रसाद से लेकर ..या वह नारी है जो इलाचंद्र यशपाल तक हमें मिलती है। वह विद्रोह करके क्रांतिकारिणी बन जाए या किसी की पत्नी के रूप में अपने को समर्पित कर दे मर्यादाओं में बँधा उसका रेखाचित्र यही है। आज भी जैनेन्द्र जी को उसका यही रूप आक्रांत किए है।"
प्रेमचन्द ही एक ऐसे अपवादात्मक साहित्यकार जिनके साहित्य में नारी में का स्वतंत्र व्यक्तित्व का चित्रण हुआ है। चाहे वह गोदान की नायिका धनिया हो या चाहे वह मालती के रूप में। एक दो अपवादों को छोड़ भी दे तो भी इस बात को स्वीकार करना होगा कि हिन्दी साहित्य में नारी का चित्रण अनेक रूपों में हुआ है। भोगवादी, आदर्शवादी, घुट-घुट कर जीने- वाली या प्रत्येक परिस्थिति के समुख या तो नत मस्तक होनेवाली अथवा परिस्थिति के विरुद्ध जाकर आत्महत्या करनेवाली यही विविध रूप प्रचलित थे। अज्ञेय की कहानियों में इस नारी के तरल और करूण रूप की अभिव्यक्ति हुई लेकिन नये कहानीकारों ने नारी को एक स्वतन्त्र चेता व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया। आधुनिकता की इस गतिशील प्रक्रिया में नारी की इस मानसिकता को शब्दबद्ध करने का प्रयत्न कमलेश्वर ने अपने कहानियों में किया है।
कमलेश्वर की कहानियों की नारियाँ जीवन के विविध स्तरों से आयी हुई हैं। कस्बे से लेकर शहर तक की नारियाँ यहाँ हैं। कस्बे की नारी परम्पराबद्ध पद्धति से सोचती है वह पतिव्रता के नियमों का पालन करती है। लेकिन अन्य श्रद्धालू नहीं, गुलाम नहीं, अपने व्यक्तित्व के प्रति सजग है। "राजानिरबंसिया" कहानी की चन्दा इसका प्रमाण है। वह अपने पति को बचाने के लिए बचनसिंह कम्पाउन्डर से समझौता कर लेती है। मौत के मुँह से पति को छुड़ा लाने के लिए वह अपने शरीर को समर्पित कर देती है। अपने बचाव के लिए चंदा को झूट बोलना पड़ा। परन्तु उसके बाद भी पति महाशय अपने स्वार्थ के लिए उसके शरीर का माध्यम के रूप में प्रयोग करना चाहते हैं। तब वह विद्राह कर बैठती है। यह विद्रोह भी तुरंत नहीं करती बल्कि जब पति उसके शरीर के माध्यम के रूप में प्रयोग करने के बाद भी उसका अपमान करता है उसकी दुश्चरित्रता पर असन्तोष प्रकट करता है तब वह ऐसे पति से विद्रोह कर बैठती है। यह विद्रोह उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व का परिचयाक ही है।
'बयान' की नारी अपने पति की ईमानदारी का बयान कर रही है। तथा जन से यह निवेदन कर रही है कि वे पति की आत्महत्या का इल्जाम उस पर न लगाए अपितु उस सम्पूर्ण परिस्थिति का विचार करें। "मांस का दरिया" की जुगूनू एक संवेदनशील नारी है और एक वेश्या। नारी अपने मांस के अलावा किसी और दूसरी बात का समर्पण करने में कैसी असमर्थ है यह स्पष्ट कर रही है। 'नीली झील' की पारवती विधवा है। परन्तु संतति के मोह के कारण समाज से विद्रोह कर महेश पांडे जैसे एक साधारण व्यक्ति से विवाह कर लेती है। माँ बनने के उसके सपने कभी पूर्ण नहीं हुए। परन्तु विधवा की स्थिति को वह घुट-घुट करके सहती नहीं बल्कि निर्भयता से विवाह लेती है। उसका यह निर्णय भी उसके स्वतन्त्र व्यक्तित्व को ही स्पष्ट करता है। 'नागमणि' की सुशिला विवाह के कुछ घण्टों के बाद ही अपने देवर विश्वनाथ को अपने मन की सही स्थिति बतला देती है। विश्वनाथ से ही उसका विवाह होने वाला था, वह उसको मन ही मन चाहती भी थी। परन्तु विश्वनाथ की ध्येयवादिता के कारण यह विवाह कैसे संभव नहीं हो सका और मजबूरी से आज उसका विवाह उम्र में उससे काफी बड़े एक विधुर से हो गया था। अपनी इस यातना को वह बतला देती है।
'तलाश' की ममी अपने नारी व्यक्तित्व की तलाश में है। 'तलाश' की नायिका ममी अपने खोये हुए व्यक्तित्व की तलाश में हैं जो विभिन्न आरोपित सम्बन्धों में लुप्त हुई है। वह माँ होने के साथ ही एक नारी भी है जो अपने पति की मृत्यु के साथ ही अपनी नारी सुलभ भावनाओं को दफना नहीं देती अपितु उन्हें जीवित रखना चाहती है।
प्रस्तुत कहानी में व्यक्ति सता को एक मूल्य के रूप में ही स्वीकार किया गया है। तलाश की माँ संभवतः हिन्दी कहानी की पहली माँ है जो माँ होने के पूर्व एक नारी है और जो जीवन में अपने नारीत्व को ही सार्थक करना चाहती है।
'आसक्ति' की सुजाता आरंभ में एक बहन का दर्द लेकर आती है। एक बहन के नाते वह अपने कर्तव्यों का पालन करती रहती है। परन्तु आखिर वह एक नारी है और एक नारी होने के नाते उसके अपने स्वप्न है; उसका अपना भविष्य है। इसी कारण वह विवाह का निर्णय लेती है। विवाह के बाद भाई की उपेक्षा सामान्य सी बात थी फिर भी वह नारी, पत्नी और बहन इन दोनों जिम्मेदारियों का निर्वाह करना चाहती है।
निष्कर्षतः अंत में कहना होगा कि कमलेश्वर के कहानियों में नारी अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व का परिचय देती है। वह किसी की माँ है, बहन है, पत्नी है फिर भी वह अपनी स्वतंत्र आस्मिता को तथा स्वतंत्र अस्तित्व को भूलती नहीं है। अस्तु..... •
प्रा. बालाजी टी. जगताप,
सहायक ग्रंथसूची;
1. हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास राजनाथ शर्मा, पृष्ठ
क्र. 381
2. एक दुनिया: समान्तर भूमिका राजेंद्र यादव, पृष्ठ क्र. 32
3. एक दुनिया समान्तर भूमिका राजेंद्र यादव, पृष्ठ क्र. 33 4. कहानी स्वरूप और संवेदना राजेंद्र यादव, पृष्ठ क्र. 41
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