विद्रूप का प्रतिकार और सृजन की आस्था : कठपुतलियां जाग रही हैं

Dr. Mulla Adam Ali
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विद्रूप का प्रतिकार और सृजन की आस्था

विद्रूप का प्रतिकार और सृजन की आस्था : कठपुतलियां जाग रही हैं

- बी. एल. आच्छा

         "कठपुतलियां जाग रही हैं" श्रीराम दवे का नवीनतम काव्य-संग्रह है। इन कविताओं में यथार्थ के परिदृश्य मात्र नहीं हैं। सात्विकता की पिछली यात्रा में जो स्वर प्रतिक्रियाओं के तेज का था, वह विरोध और प्रतिकार में ज्वलंत हुआ है। ये कविताएं मनुष्य के भीतर की आखेट वृत्ति को परिदृश्यों में ही नहीं, उसकी आंखों के भीतर उगे बीहड़ों में उस पैशाचिकता को लक्षित करती है। पात्रों के बदलते रूपों में उगी राजनीति को पहचानती हैं। इसीलिए इन कविताओं में उबड़-खाबड़ जिंदगी की चुभती हुई पथरीली अनुभूतियां भर नहीं है, उनके भीतर झांकने और प्रतिकार भरी चुनौतियों के तेवर भी हैं। धरती की सदानीरा नदियों में बहती गंदगी और पर्यावरण के सड़ांध वाले चेहरे ही इन कविताओं के विद्रूप नहीं हैं; कई कविताओं में सृजनात्मक आस्था भरी पूरी है। यहीं आस्था प्रकृति और जीवन में इंद्रधनुष को रचाने के लिए बेचैन है ।ये कविताएं समय की तात्कालिकता पर असंगत के खिलाफ विद्रोही बनती हैं, पर प्रकृति की तरह पतझर और बसंत की निरंतरता को अपनी सृजनात्मकता की पहचान बनाती हैं। इसीलिए वे विचारधाराओं के वाम -दक्षिण में अपने सृजनात्मकता को अटकने नहीं देतीं।

            कठपुतलियां एक व्यंंग्य रूपक है: विवशता का भी और अनचाहे के स्वीकार की नियति का भी। यह अलग बात है कि कठपुतलियां तो अपने काष्ठ -रूप पहनावे में सूत्रधार के हाथों नचाई जाती हैं, पर इन कठपुतलियों में जीवंत पात्रों का चैतन्य उस सब को स्वीकारता है, जो सूत्रधार के नचावत रूप में अपने शोषण और दुरुपयोग का प्रतिकार नहीं कर पातीं। मनुष्य के भीतर का संवेदनहीन काष्ठ उस सब के लिए नचने को तैयार है ,जो न उसकी स्वेच्छा का है, न लोक हितैषी प्रकृति का ।फिर भी उसकी समझदारी सूत्रधार के हाथों में नचने में ही सफलता का इज़हार करती है। व्यवस्थाओं, समाज-व्यवस्थाओं और राजनीतिक तंत्रों पर व्यंग्य करती यह कविता बहुत पैनी है और इन्हीं में से फूटती हैं चुप्पियां, जो प्रकृति को भी और असमय बेरंग कर देती हैं। शब्दों में पसरती जड़ता में बूढ़ा शब्दकोश बुदबुदाता है -"इस जड़ होते समय में/ जब कोयल और अमलतास / अपने धर्म विस्मृत करते जा रहे हों / जब वसंत गुमसुम हो / आम्रमंजरियां अपने समय पर अनुपस्थित हों/ अकल्पनीय हरियाली कृत्रिमता के उत्तरीय पहन / ठाठ से यहां से वहां घूम रही हो / अनाम पुष्पों की सुगंधविहीन बहार छायी हो /तब प्रकृति के हिस्से के शब्द भी दुखी होते हैं।"

               इन कविताओं में मोहभंग तो है ,पर अलग किस्म का। उसमें विवशता है, दैन्य है, निराशा है; पर अंकुरित विश्वासों की सजलता भी है। यथार्थ की निर्ममता की जमीन पथरीली है, मगर उसी के भीतर से सृजन की दूर्वाएं अपने हरे रंग छिटकाती हैं -'शब्दों का इंद्रधनुष' कविता में जीवन के रंग और शब्दों के रंग ऐसी एकाकारता साधते हैं कि यह कविता प्रयोग भी बन जाती है और सृजन का इंद्रधनुष भी। प्रकृति और व्यक्ति का मनोजगत् सारी अंत:वृत्तियों के साथ समाहित होकर व्यक्त होता है- "शब्दों का यह इंद्रधनुष जब तनता है /तब तब संवेदना की बरसात /बरसने को होती है / और सूजन के अंकुर / वृक्ष बनने के लिए फूट पड़ते हैं।"

            इस संग्रह की कुछ कविताओं का शीर्षक एक ही है, मगर परिद‌श्यों और भीतर की मनोदशाओं की हलचल के पार्श्व अलग-अलग। 'बीहड़' कविताओं में नारी -देह के साथ आखेट वृत्ति की पैशाचिता कि दंश भी है और दुनालियों के आतंक के बीच समाजवादी आस्था के बीज भी। 'यात्रा' कविता के आठ पार्श्व हैं; अधूरे भी , स्मृतियों से भरे -पूरे भी ।अनुभवों के स्वर -व्यंजन और अंतर्मन का अंतरंग भी। आंदोलनों की भाषा भी और गंतव्य के पड़ाव भी। फिर यात्रा और शब्द का सृजन- समीकरण- "यात्रा को सांसो में सहेजना पड़ता है/ यात्रा को शब्द बनाना पड़ता है।" चेहरा शीर्षक कविताओं में भी समय और अंत:वृत्तियों को, पर्यावरण और लोकतांत्रिक चेतना को मुखर स्वर मिला है।

विकास और पर्यावरण के संधि- क्षेत्र में कई सवाल कुनमुनाते हैं। 'मौत का लिबास पहने धरती का धूजना 'कविता नेपाल में आए भूकंप की विनाश -लीला की संवेदनात्मक तस्वीर नहीं है, बल्कि विकास के नाम पर कुदालियों- कुल्हाड़ियो का आतंक बेबस पर्यावरण की मृत्युलिपि बन जाती है। 'पहाड़ों की मौत' के बहाने केदारनाथ की त्रासदी श्रद्धांजलियों की विवशता बन जाती है। एक और स्वर है इन कविताओं का, जो अमृत की सांस्कृतिक आस्था वाले पर्वों-जलसों में नदियों की पवित्रता तलाशता है। मानव सुरक्षा के लिए आगाह करता है ।पाखंड के बीच मानवीयता और करुणा का आख्यान करता है। समय की संवेदना के सूखेपन में पशु पक्षियों की आर्त पुकार को स्वर देता है -"वनस्पतियां कम हो रही हैं / गौरैया कम हो रही हैं / गिद्ध कम हो गए हैं / और तो और / कौवे श्राद्धपक्ष तक में नहीं दिखते। "हमारी परंपराएं तो वनस्पति और प्राणियों को प्रतीक बनाकर पूजती हैं, पर अब वे इन जलसों की गगनभेदी गुंजारों के शोर में गायब से हो चले हैं।

         बदलते समय ने दुनिया को भी बदल दिया है। वैश्वीकरण और बाजार में बदलती चीजों में वह बहुत कुछ हाशिए में आ गया है, जो वैश्विक जीवन मूल्यों और प्रकृति के साथ मानव जीवन का सार्थक सहकार रहा है। 'न तो दिन मीठे हैं'- कविता में कवि बदलाव के माइलोमीटर को आंकता है- "अर्थ खो रहे हैं कुछ शब्द / अपने औचित्य पर प्रश्नवाचक मुद्रा में है / शांति, सद्भाव, एकता, विश्वास और विश्वबंधुत्व /शेयर बाजार में धड़ाम हो जाने की तर्ज पर / औंधे मुंह पड़े हुए हैं। "तब सत्ताएं और विश्व की शक्तिशाली अर्थव्यवस्थाओं के निजाम वैश्वीकरण और मानवतावादी रेशमी नारों के पीछे अपने स्वार्थों के तंतुजाल में दुनिया और हरीभरी प्रकृति को कैसे लीलते जा रहे हैं।

        पर इन्हीं खरखड़ाती विडंबनाओं के बीच कवि व्यक्ति और समाज की रही सही आस्था के बीच उस प्रतिमान को नमन किए बगैर नहीं रहता। स्टीफन हॉकिंग को, उनकी विकलांगता के बीच मानव मात्र और सृष्टि कल्याण के लिए सोचती कंप्यूटर- मेघा को शब्द संवेदना में ढाल देता है। 'अभी शेष है 'कविता में कवि बदलती दुनिया के बीच गवाही कस्बाई संस्कृति के भाव -अवशेषों को बहुत आर्द्रता से याद करता है ,जहां रिश्तों की ललक है। गांव की हर आंख में ससुराल जाती बेटी के लिए गीली कोर है। पशु- पक्षियों के लिए दाना पानी है ।निरक्षरता में भी नारी अत्याचारों के विरुद्ध बद्दुआ और आंसू हैं और सड़क चलते अनजाने से राम- राम का स्नेहिल संवाद है। एक तरह से कुछ कविताओं में पुरानी दुनिया और बदलती दुनिया आमने-सामने हो जाती है। तब वैश्वीकरण के प्रतिमानों में पसरे स्वार्थी सूखेपन में पुरानी दुनिया के लिए निरक्षर मगर गीले रिश्ते प्रतिबोध दे जाते हैं, बदलती दुनिया को।

             इन कविताओं की रेंज बहुत लंबी है -कठपुतली के काष्ठ से लेकर कठपुतली बनी समझदार मानव-कठपुतलियों तक। यात्रा के मीलों के भीतर अंतर्मन की यात्रा तक। आंखों के सौंदर्य के नारी देह के शोषक बीहड़ों तक। आस्था की अमृत चेतना से पाखंडों के उत्सव तक। ग्राम्य-मानस की सहज -सरलता से वैश्वीकरण के स्वार्थी बाजार- जाल तक। बेलदार के श्रम की विवशता से लेकर पूंजी के साम्राज्य तक। सूखती नदियों में पसरी गंदगी से लेकर वसंत की प्रतीक्षा के इंद्रधनुष तक। इसीलिए इन कविताओं में धरती जितनी यथार्थ रंगों में पसरी है, आकाश उतना ही इंद्रधनुषी रंगों को उगाने के लिए बेचैन। यथार्थ वही सकर्मक होता है, जो संवेदना के जल और धरती के जीवन को जीने योग्य बनाने के सपनों की आकांक्षा लिए हुए हो ।ये कविताएं संवेदना और यथार्थ के संधि- क्षेत्र में इन्हीं अरमानों से भरी -पूरी हैं।

(समावर्तन के संपादक श्रीराम दवे के काव्यसंग्रह की समीक्षा समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका में प्रकाशित)

पुस्तक : कठपुतलियां जाग रही हैं
लेखक : श्रीराम दवे
प्रकाशक : अयन प्रकाशन, दिल्ली
प्रकाशन वर्ष : 2020
मूल्य : ₹220

B. L. Achha 

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नॉर्थ टाउन अपार्टमेंट 
स्टीफेंसन रोड ,
पेरंबूर, चेन्नई (टी.एन)
पिन -600012 
मो- 9425083335

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