संस्कृत साहित्य में पर्यावरण चेतना : एक अध्ययन

Dr. Mulla Adam Ali
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Environmental Consciousness in Sanskrit Literature : Poonam Singh

संस्कृत साहित्य में पर्यावरण चेतना : एक अध्ययन

"प्रकृति का न करें हरण। आओ बचाएँ - पर्यावरण"

 "साँसे हो रही कम, आओ वृक्ष लगाएँ हम। मानव जीवन के साथ, पर्यावरण को बचाएँ हम॥"

     भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही पर्यावरण की महत्ता रही है। भारतीय ऋषि मुनियों ने अपना स्थल प्रकृतु के खुले वातावरण को चुना। जो पर्यावरण की दृष्टि से उपयोगी रहा है। प्राचीन काल में जितने भी तीर्थ स्थल रहे वह सभी जन कोलाहल से दूर प्रकृति की गोद मे स्थित था। उस समय पर्यावरण की कोई समस्या नहीं थी, क्योंकि ऋषिगण पर्यावरण के प्रति पूर्ण समर्पित थे। वे यज्ञादि करते थे पर्यावरण को शुद्ध रखने की दृष्टि से।ऋषिगण नगर से दूर से वनों मे अपना आश्रम बनाते थे। ऋषि, मनीषियों का मानना था, कि प्रकृति के मनोरम छटा व शुद्ध वातावरण में अच्छे विचार आते हैं। जैसा कि वर्तमान समय के वैज्ञानिकों का है कि शुद्ध वातावरण में ही अच्छे मस्तिष्क का विकास होता है।अतः प्राचीन काल में पर्यावरण की समस्य न होते हुए भी ऋषिगण शुद्ध पर्यावरण के संरक्षण के लिए समाज मे उत्कृष्ट व्यक्तित्व के निर्माण में अपना विशेष योगदान दिया करते थे।

आज पर्यावरण एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है।आज लोगों में इसके प्रति जागरूकता की कमी है। पर्यावरण का मानव जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। लोगों के इसके प्रति जागरुक होना आवश्यक है। आज जहाँ एक ओर मनुष्य ने अपनी बुद्धि विवेक के द्वारा विज्ञान एवं टेक्नोलाजी के विभिन्न क्षेत्रों में नये-नये आविष्कार किये हैं, तो वही दूसरी ओर उसी से मनुष्य प्रभावित भी हो रहा है। आज इस वैज्ञानिक युग मे पर्यावरण प्रदूषण एक अभिशाप बनकर कर उभर रहा है। सारा विश्व एक चुनौती के दौर से गुजर रहा है। आज पर्यावरण से सम्बन्धित ज्ञान को व्यावहारिक बनाने की आवश्यकता है ताकि, व्यक्ति समस्या को आसानी से समझ सके और पर्यावरण के प्रति सचेत रहे। जीव-जगत में मनुष्य सबसे सचेतन प्राणी है। वही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य पशु-पक्षियों, जीव जन्तु - पेड़ पौधे, वायु, जल तथा भूमि आदि पर निर्भर रहता है।इसलिए आवश्यक है मनुष्य को पर्यावरण के प्रति सजग रहने की। पर्यावरण की सुरक्षा के लिए मनुष्य को उसके उपाय को खोजने होंगे जिससे मानव जीवन सुलभ हो सके।

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पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है परि+आवरण जिसमे परि का अर्थ है चारों ओर तथा आवरण का अर्थ-घेरा परित: अभियन्ते आच्छाद्यन्ते जलादीनि पञ्चतत्वानि विचाराः या यस्मिन् तत् पर्यावरणम् - अर्थात् जिसमे चारों ओर से आकाश, जल, वायु आदि पंचतत्व या सामाजिक नैतिक आदि विषयों से सम्बंधित विचार आवृत रहते हैं उसे पर्यावरण कहते हैं। हमारे शरीर की संरचना पंच महाभूतों से ही हुई है। तुलसी दास ने रामचरित मानस के किष्किन्धाकाण्ड में लिखा है कि मनुष्य का शरीर भी प्रकृति के पाँच तत्वो पृथ्वी,जल, पावक गगन व समीर से मिलकर बना है- छिति जल पावक गगन समीरा। पंच तत्व मिलि बनहु सरीरा ।।1

भारतीय संस्कृत साहित्य में पर्यावरण शब्द का प्रयोग 'परिधि और परिवेश के रूप मे प्राचीन काल से ही होता रहा है।अथर्ववेद में पर्यावरण को निम्न रूप में परिभाषित किया गया है- सर्वो वे तत्र जिविति गौरवः पुरुष पशु:।यत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधि जिवानायाकम्।।2 अर्थात् गो अश्व तथा पशु आदि सभी प्राणियों के जीवन के लिए पर्यावरण अति आवश्यक है।

 ईशावास्योपनिषद् का प्रथम मंत्र ही पर्यावरण को समर्पित है-

ईशावास्यामिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत/ तेन त्यक्तेन भुंजीथा: मा गृध: कस्यस्विद्धनम् ।3

वायु, जल, वनस्पति, मृदा, पेड़-पौधे, प्राणी आदि सभी पर्यावरण के अंग कहलाते हैं तथा इन्ही के द्वारा पर्यावरण का निर्माण होता है।जीव सृष्टि एवं वातावरण का पारस्परिक सम्बन्ध ही पर्यावरण है।पर्यावरण प्रकृति द्वारा दिया गया वरदान है।

पर्यावरण की वैज्ञानिक परिभाषा देते हुए बद्रीनाथ कपूर ने लिखा है कि-" आस- पड़ोस् की परिस्थितियाँ और उसके प्रभाव से समीकृत करते हैं। परि संस्कृत का अपसर्ग है जिसका अर्थ अच्छी तरह और आच्छादन भी है, आवरण का शाब्दिक अर्थ ढकना, छिपना, घेरना चहारदीवारी है। यद्यपि शाब्दिक अर्थ से इस‌का पूर्ण अभिप्राय प्रकट नहीं होता तथापि इसका मूल अर्थ इसमें समाकृत है।" 4

 संस्कृत साहित्य का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि पर्यावरण की रक्षा के लिए मनुष्य का सहयोग आवश्यक है।पर्यावरण के महत्व को सामाजिक, आर्थिक साहित्यिक एवं वैज्ञानिक स्तरों पर स्वीकारा गया है। प्राचीन ऋषियों ने वृक्षों में देवत्व को स्थापित कर, जनमानस से जोड़ने का अद्‌भुत कार्य किया है। प्रथम शताब्दी ई० पू० मे जन्मे कवि कालिदास ने अपने काव्यों मे पर्यावरण को स्थान दिया, जिसे भारतीय अवधारणा की मानदण्ड कह सकते हैं। उनके साहित्य में प्राचीन ऋषियों के भाँति पर्यावरण संरक्षण की संकल्पना को आधुनिक पर्यावरण समस्या के समाधान में उपर्युक्त और प्रासंगिक प्रतीत होती है। कालिदास ने शिव की अष्टमूर्तियों के माध्यम से विश्व पर्यावरण के समस्त अजैविक-जैविक कारको का सारगर्भित निरूपण किया है। उन्होंने पर्यावरण के महत्व को आठ तत्वों के माध्यम से अभिज्ञानशाकुन्तलम् के नान्दी पद्य में वर्णित किया है- या सृष्टि: स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च होत्री।

ये द्वे कालं विधत्तः श्रुति विषयगुणा: या स्थिता व्याप्य विश्वम्।

यामाहुः सर्वबीज प्रकृतिरिति यया प्राणिन: प्राणवन्तः।

प्रत्याक्षाभिः प्रपन्त्रस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः।।5 अर्थात् इस पद्य में जल, अग्नि, यजमान, सूर्य, चन्द्र, आकाश पृथिवी, वायु इन आठ मूर्तियों के रूप मे साक्षात् विद्यमान शिव की प्रार्थना रक्षा के लिए के लिए की गयी है। इन आठ शरीरों द्वारा शिव समस्त सृष्टि को धारण करते हैं।

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संस्कृत साहित्य के आदिकवि वाल्मीकि का पर्यावरणीय प्रेम उनके काव्य में प्रस्फुटित हुआ है। जो एक श्लोक के माध्यम परिणत हुआ और वही रामायण का मूल है।जिसका उदाहरण निम्नवत है- मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत्कौच मिथुनादेकमवर्धा: काम मोहितम्।।6

पर्यावरण की सुरक्षा में पशुओं का विशेष स्थान है। ऋग्वेद मे गो, अश्व, वृषभ, अज अपि, भेड़, श्वान आदि का पर्याप्त वर्णन है। जहाँ कृषि के लिए गो तथा वृषभ (बैल) का उपयोग था, वहीं युद्ध के लिए अश्व। मानव और पशु-पक्षियों का संबंध प्राचीन काल से ही घनिष्ठ रहा है। ये कहीं न कही एक दूसरे के आश्रित रहे हैं। प्राचीन धर्मग्रन्थों जैसे वेद, पुराण और उपनिषदों आदि साहित्यो मे पशु-पक्षियों में मानवीकरण का प्रत्यारोपण किया गया है। जैसे रामायण में सुग्रीव, हनुमान, जामवंत, जटायु, नल नील आदि ने राम की मानव कल्याण के प्रयासों मे अपना अमूल्य योगदान दिये थे। इससे पता चलता है कि पशु पक्षी मानवता के कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहे हैं। पर्यावरण के संतुलन मे पशु-पक्षी सदा मनुष्य के साथ रहे हैं, किन्तु आज का मनुष्य अपनी भोग लिप्सा के कारण उन्हें नष्ट कर रहा है जो आज के पर्यावरण के लिए खतरा है। आज भी बहुत से पशु-पक्षी अपनी वंश के रक्षा के लिए मनुष्य समाज की ओर दृष्टि लगाये बैठा है। बहुत से पशु-पक्षी की प्रजातियाँ मनुष्य के कुत्सिक स्वार्थ के कारण नष्ट हो रही हैं तथा कई प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर है।पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने के लिए इनका संरक्षण जरूरी हैं।

प्राचीन काल में जहाँ पशु-पक्षी के संरक्षण के लिए मनुष्य समाज को उचित दिशा निर्देश दिया गया है। वैदिक समाज तथा पौराणिक समाज ने धर्म व सहारा और मार्गदर्शन लिया तथा इनके प्रतिहिंसा को प्रतिबंधित किया। इससे पता चलता है कि तत्कालीन समाज मे पर्यावरण की समस्या न होते हुए भी हमारे मनीषी, ऋषिगण पर्यावरण संतुलन के प्रति सचेष्ट थे। जैसा कि अग्निपुराण में लिखा गया है –

गोश्वो ष्ट्रगर्दभश्वान: सारिका गृहगोद्धिका। चटका भास कुर्माघा: कथिता ग्रामवासिनः।।7 अर्थात् गाय, घोड़ा,गधा, कुत्ता, मैना, छिपकली, गौरैया, भास्, पक्षी विशेषद्ध तथा कछुए इत्यादि ग्रामवासी पक्षी कहलाते थे। इनका वध निषेध माना गया है।

आधुनिक कवि राधेश्याम गंगवार ने भी अपने काव्यों मे पर्यावरणीय चेतना को मुखरित किया है। चन्द्रगुप्तचरितम् महाकाय मे कवि ने पशु-पक्षियों का चित्रण कर उसे पर्यावरण का विधायक माना है। चन्द्रगुप्तचरितम् में वर्णन करते हैं-

 आखु: काको नकुल भुजगेो हरिया यो मृगेन्द्रों।

 व्याघ्रश्चीन: शलभ विहगौ ग्रामसिंहो विलाल:।।

कह्वों मत्स्यो निखिल जगतस्वस्थुषो भूतवर्गो।

 धर्माक्रांत: स्म वसति मिथो द्वंद्वभावं विहाय।।8

 चूहा, कौआ, नेवला- साँप, सियार, सिंह बाघ- चीन, मृग, कीट, पक्षी, कुत्ता, बिल्ली, बगुला, मछली आदि समस्त चराचर के प्राणी गर्मी से व्याकुल होकर परस्पर वैमनस्य छोड़कर मित्रवत निवास करने लगे।अत: स्पष्ट है कि ये सभी चराचर जगत के प्रेम प्राणी भी पर्यावरण चेतना में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं, क्योंकि पशु-पक्षी पर्यावरण अभिन्न अंग माने गये हैं। इनकी मित्रता पर्यावरण चेतना को विकासोन्मुख बनाती है।वस्तुतः जलचर, थलचर और उभयचर जीव पर्यावरण के सहायक तत्व होते हैं।

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पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने के लिए वृक्षों का योगदान वैदिक विज्ञान से लेकर आधुनिक विज्ञान तक ने स्वीकारा है। पुराणों मे वृक्षो के सम्बर्धन को पवित्र कार्य माना गया क्योंकि वृक्ष पर्यावरण के अभिन्न अंग है। पर्यावरण वृक्षों की उपयोगिता के साथ वृक्ष संरक्षण के सभी मूलभूत सिद्धान्त जैसे निराई, गुड़ाई, सिंचाई, देखभाल (रखवाली) आत्मीयता वृक्ष-कर्तन निषेध को कालिदास ने अपने महाकाळी मे बड़ी कुशलता के साथ वर्णित किया है।कालिदास ने वृक्षों में चेतन भावना अनुभव किया है। अभिज्ञानशाकुन्तलम् की नायिका शकुन्तला का वृक्ष जगत के प्रति अपनत्व और ममतामयी व्यवहार मार्मिक एवं रमणीय है। वह वृक्षों को जल पिलाए बिना स्वयं जल ग्रहण नहीं करती थी। सम्पूर्ण प्रकृति उसके सगे भाई-बहन थे।

कुमारसम्भवम् में माता पार्वती स्वयं ही सिंचन घटों से वृक्षों को सींचती थी। पुत्र कार्तिकेय का जन्म हो जाने पर भी उनका ममतामयी प्रेम वृक्षों के प्रति कम नहीं हुआ। पुराणों मे एक मान्यता भी है जिसको पुत्र नहीं है उसके लिए वृक्ष ही पुत्र है। वृक्ष को पुत्र मानकर उसकी रक्षा स्वयं शिवजी करते हैं जिसका उल्लेख रघुवंशम् में मिलता है- अमुंपुर: पश्यसि देवदारु पुत्रीकृsसौ वृषभध्वजेन।

 यो हेमकुम्भस्तननिः सृतानां स्कन्दस्य मातुः पयसां ररसज्ञ रघुवंशम् ।।9

 हे राजन! देखते हो यह सामने देवदारू का वृक्ष है। भगवान शिव ने इसे पुत्र मानकर पाला है और माता पार्वती ने इसे अपने स्तनों के समान हेमकुम्भ से निःस्मृत दूध पिलाया है।यही पर्यावरण की रक्षा का अमर संदेश कालिदास जी देना चाहते हैं। प्राचीन समय में राजा वृक्षों की कुशलता अपने पुत्रों की भाँति ही पूछते थे। उनका संरक्षण संबर्धन करते थे।

 मानव सम्पदा और प्रकृति सौन्दर्य के लिए पर्वत, पहाड़, नदी, झरना आदि भी पर्यावरण का अभिन्न अंग है। उनका अस्तित्व मानव जीवन के लिए निर्विवाद रूप से सत्य है।कालिदास पर्वतों के चित्रणों में यही संदेश देते हैं। पर्वतो, माल्यवान, मलयाचल, चित्रकूट, रामगिरि, आम्रकूट, कैलाश आदि का उल्लेख कालिदास ने किया है। उन्होंने हिमालय वर्णन में से अधिक तत्परता दिखाई है।

वर्तमान समय में पर्यावरण समस्या केवल प्रकृतिक बाह्यरूप में नही हष्टिगोचर होती अपितु मानव की प्रवृत्ति भी प्रदूषित हो रही है।सहानुभूति, ममता, दया, उदारता, आचार- विचार की शुद्धता आदि सब न जाने कहाँ विल्लुप्त होती जा रही हैं। कब तक आचार-विचार शुद्ध नहीं होंगे तब तक पर्यावरण भी पवित्र नहीं होगा। कालिदास ने भौतिक एवं मानसिक पर्यावरण का भी उल्लेख किया है। सज्जनो से वातावरण शुद्ध होता है इस बात को कालिदास ने हिमालय के माध्यम से सिद्ध किया है- अघ प्रभृति भूतानामधिगम्योऽस्मि शुद्धये। यदध्यासितमर्हभ्दिस्तद्धि तीर्थ प्रचक्षते ॥10

वैदिक काल से यह के भौतिक एवं आध्यात्मिक महत्व को स्वीकारा जाता है। घृतं खलु विषनाशकम इस तथ्य को वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं।

कवि कालिदास ने पशु-पक्षी, पर्वत, झरना, नदी आदि को भी पर्यावरण का अंग मानकर उसे भी मानवीय जब परिवेश में चित्रित किया है। उन्होंने नदियों को भी सजीव चेतना से युक्त माना है। मेघदूतम् में वे नदियों का चित्रण करते हैं।जहाँ यक्ष के मार्ग में गंभीरा नदी पड़ती है। गंभीरा के ऊपर मेघ की छाया पड़ने का एक सुन्दर पर्यावरणी विम्ब के रूप में कवि कालिदास ने चित्रित किया है-

 गंभीराया: पयसि सरितश्चेतसीव प्रसन्ने छायात्माऽपि प्रकृति सुभगो लप्स्यते प्रवेशम्।

तस्मादस्याः कुमुदविशदार्न्यहसि त्वं धैयान्मोधीकर्तुं चतुलशफरो द्वर्तन प्रेक्षतानि ॥11

नदी,जलाशय,समुद्र,झरना आदि पर्यावरण के घटक हैं। जिसका वर्णन हमारे पुराणों में भी मिलता है। इस प्रकार संस्कृत साहित्य में पर्यावरण संरक्षण की एक लंबी रूपरेखा देखने को मिलती है।

संदर्भ सूची :

  1. रामचरितमानस : किष्किंधा कांड लोक 11 चौपाई 2 तुलसीदास गीता प्रेस गोरखपुर
  2. अथर्ववेद 8/2/55
  3. ईशावास्योपनिषद् 01
  4. वैज्ञानिक परिभाषा कोष- डॉ० बद्रीनाथ कपूर पृ०325
  5. अभिज्ञानशाकुंतलम्- कालिदास प्रथम अंक, प्रथम श्लोक
  6. वाल्मीकि रामायण-आदिकवि वाल्मीकि
  7. अग्निपुराण-231/11
  8. चन्द्रगुप्तचरितम्- (5/21) राधेश्याम गंगवार पृ०63
  9. रघुवंशम्- कालिदास, 2 सर्ग / 36 वाँ श्लोक
  10. कुमारसम्भवम् – कालिदास 6ठां सर्ग/ 56 वां श्लोक
  11. उत्तरमेघ – कालिदास, 44वां श्लोक

पूनम सिंह

सहायक आचार्य, हिंदी विभाग
हिन्दू कन्या महाविद्यालय सीतापुर 
सम्बद्ध- लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
उ० प्र०261001, मो०6388852346

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