हिंदी भाषा के प्रेरणा पुरुष : पंडित रामनरेश त्रिपाठी

Dr. Mulla Adam Ali
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Pandit Ram Naresh Tripathi

Pandit Ram Naresh Tripathi

हिंदी भाषा के प्रेरणा पुरुष : पंडित रामनरेश त्रिपाठी

भाषा के संदर्भ में त्रिपाठीजी ने कहा था "हिन्दी उर्दू के साथ हमें गुजराती, मराठी, बंगला, तमिल आदि भारतीय भाषाएँ अवश्य सीखनी चाहिए। मैंने स्वयं संस्कृत, बंगला, गुजराती, मराठी सीखी हैं और इससे मुझे बड़ा लाभ हुआ है। पर यह लाभ बनिएवाला लाभ नही है। लाभ यह हुआ है कि मैं हिन्दी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं का रिश्ता समझ सका। यह रिश्ता जितना मजबूत बनेगा उतना ही हमारी 'भारतीयता' का विकास परिष्कार होगा।"

आज के स्पर्धात्मक युग में त्रिपाठीजी का यह कथन कितना उपयुक्त जान पड़ता है। यदि हमारे पास कम से कम पाँच या छः भाषाओं का ज्ञान होगा तो जीवन में कुछ पा सकते है। मगर महानगरों का जीवन खास करके दक्षिण भारत में यह बड़ी समस्या देखने को मिलती है कि, जिनकी मातृभाषा तेलुगु या मराठी या गुजराती या कन्नड है वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाते है। आगे यह देखने को मिला है कि वह लडका ना अपनी मातृभाषा पर पूरा अधिकार रख पाता है न राष्ट्रभाषा पर न अंग्रेजी पर ऐसे में जीवन जीने की समस्या बढते जा रही है। कम से कम एक भाषा पर तो पूरा अधिकार होना चाहिए।

श्रीधर पाठक से शुरू होने वाली स्वच्छदतावादी परंपरा को नवीनता का जामा पहनाने वाले पं. रामनरेश त्रिपाठी हिन्दी के मंच पर राष्ट्रीयता के गायक बनकर उभरे। भारतेन्दु युग से चली आ रही राष्ट्रीयता की भावना को उन्होंने मोहक रूप प्रदान किया। मानवपरक गीतधारा का पथ- संधान किया। उनकी कविताएँ अंग्रेजी के खिलाफ और सामंतिकता के विरूद्ध भारतीय जनजागरण का संदेश बनकर उमडी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ठीक ही कहा था- "देशभक्ति को रसात्मक रूप त्रिपाठीजी द्वारा प्राप्त हुआ।"

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त्रिपाठीजी के साहित्यिक जीवन की शुरूआत राजस्थान में हुई। आज भी देश के अनेक विद्यालयों की प्रार्थना सभा में गाई जानेवाली कविता "हे प्रभु ! आनंद दाता ज्ञान हमको दीजिए" (Hey Prabhu Anand Data Gyan Humko Deejiye) यही रची गई। यहां से वर्षों बाद वे प्रयाग जहाँ महात्मा गाँधी पुरुषोत्तमदास टंडन और मदनमोहन मालवीय जी के विचार सान्निध्य ने उन्हें पूरी तरह अपने में समेट लिया। राजनीतिक और राष्ट्रभाषा आन्दोलनों में वे उनके साथ हो लिए। राष्ट्रभाषा हिन्दी द्वारा समग्र भारत को एकता के सूत्र में बाँधने का कार्य उन्होंने सबके साथ मिलकर किया।

त्रिपाठीजी ने युवावस्था से लिखना शुरू किया और जीवन के अंत तक बराबर कुछ-न-कुछ लिखते रहे। अपनी लेखनी द्वारा हिन्दी साहित्य की लगभग सभी विधाओं को समृद्ध करनेवाले त्रिपाठीजी को कविता के क्षेत्र में सर्वाधिक ख्याति मिली। पथिक के भाव प्रभाव लोक का जादू लोगों के मन पर छाता चला गया। राष्ट्रीय चेतना की जो पौद भारतेन्दु युग ने लगायी उसे सींचने का काम त्रिपाठीजी ने किया। त्रिपाठीजी की विचार संपदा को भारतीय संस्कृति के मूल्यवान स्त्रोतों और गांधीजी के आदर्शों, आस्थाओं एवं दर्शन से शक्ति मिली। लोकरंग ने उनकी कविताओं को ऐसा रँगा कि द्विवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता का सूखापन गायब हो गया।

त्रिपाठीजी द्विवेदी युग और छायावाद के बीच के सेतु तो थे ही मगर लोकतांत्रिक चेतना की नवीन पृष्ठभूमि से उगे छायावाद को देखकर लगता है कि त्रिपाठीजी छायावाद का महत्वपूर्ण आधारा भी थे। त्रिपाठीजी शुद्ध सात्विक जनपदीय स्वाभिमान के साथ साहित्य और जीवन दोनों से जूडे। आत्मसत्य से निर्देशित मार्ग पर चलने वाले त्रिपाठीजी अपने रचना आलोचना विचार और कथन में द्वंद व असमंजस को बहोत देर तक टिकने नही देते थे। कविता के क्षेत्र में उनके जीवन काल में ही छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता कि दौर में विकसित हुए लेकिन उन्होंने अपनी राह नही छोड़ी।

भाषा के संदर्भ में उनका दृष्टिकोण अत्यंत उदार तथा व्यापक था। उर्दू और हिन्दी में उन्होंने कभी विरोध नहीं माना। वे उर्दू को 'मुसलमानी हिन्दी' कहते थे। उन्होंने अपने साहित्य के ज़रिए कठिन उर्दू के बीच की उस शैली को विकसित किया, जिसे वे राष्ट्रभाषा का वास्तविक स्वरूप समझते थे जो भारतीय जन-मन में रचा बसा है। राष्ट्रभाषा हिन्दी के साथ-साथ उन्होंने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया वह है ग्रामीण गीतों का संग्रह। ये ग्रामगीतों के प्रथम संकलन कर्ता थे। गाँव-गाँव, घर-घर घूमकर रात-रात भर घरों के पिछवाड़े बैठकर साहस और विवाह गीतों को चुन-चुन कर उन्हें 'कविता कौमुदी' बनानेवाले इस संवेदनशील रचनाकार ने अपने इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए कभी बैलगाडी से, कभी उँट से तो कभी पैदल सैंकडों मील की यात्रा की। इस गीतसंग्रह की यात्रा का प्रयोजन बड़ा व्यापक था। दरअसल वे कविता को प्रकृति को गान मानते थे त्रिपाठीजी ने जीवन और साहित्य दोनों में आत्मरमण नही वरन लोकरमण किया। लोक के प्रति इसी प्रतिबद्धता ने उनके रचनाकर्म को सार्थक और चिरजीवी बना दिया।

- एस. दत्तागुरु

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