स्पर्शिल मनोरचना तो लघुकथाओं का संवेदन है : बी. एल. आच्छा जी से डॉ. लता अग्रवाल की बातचीत

Dr. Mulla Adam Ali
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लघुकथा केंद्रित साक्षात्कार

लघुकथा केंद्रित साक्षात्कार

"स्पर्शिल मनोरचना तो लघुकथाओं का संवेदन है"

बी. एल. आच्छा जी से डॉ. लता अग्रवाल की बातचीत

देवगढ़ मदारिया (राजसमंद, राज.) में जन्मे बी. एल. आच्छा जी का नाम समीक्षा साहित्य में शीर्षस्थ समीक्षकों में लिया जाता है। समीक्षा आपकी प्रमुख विधा है, किन्तु इसके साथ ही आपने व्यंग्य, काव्य आदि विधाओं में भी साहित्य साधना की है। उच्च शिक्षा,म.प्र. शासन से सेवानिवृत्त प्रो.आच्छा जी वर्तमान में चेन्नई में निवासरत हैं। जब भी लघुकथा में समीक्षा को लेकर चर्चा होती है तो आपका नाम प्रमुखता से लिया जाता है। लघुकथाओं की गहरी पड़ताल के साथ भाषा कौशल आपकी विशेषता है ।पिछले दिनों भोपाल में आपसे मिलने का सुअवसर मिला ।बातों ही बातों में लघुकथा के विभिन्न पहलुओं पर आपसे विस्तार में चर्चा हुई। उसी चर्चा के कुछ अंश आप सभी के समक्ष। (साक्षात्कार - 19 सितम्बर, 2018)

डॉ. लता अग्रवाल : सर! स्वयं को लघुकथाकार कहलाना पसंद करेंगे या लघुकथा समीक्षक?

बी. एल. आच्छा : लघुकथाएं तो कम ही लिखीं हैं, समीक्षा पर मेरा ज्यादा काम रहा है। इस वजह से लोग समीक्षक के रूप में ही मुझे जानते हैं।


डॉ. लता अग्रवाल : जी, तो हम एक समीक्षक से मुखातिब होते हैं। लघुकथा लेखन और समीक्षा में किस काम को अधिक गम्भीर मानते हैं?

बी. एल. आच्छा : सृजन और समीक्षा दोनों साहित्य के योजक पक्ष हैं। आलोचना भी पुनःसृजन और विश्लेषण पूर्वक रचना का ही विस्तार है। रचना में लेखक का आंतरिक व्यक्तित्व होता है। लोक व्यवहार और सामाजिक यथार्थ होता है। ज्ञानधाराओं का स्पर्श होता है। लेखक के भीतर के रसायन होते हैं।पर लेखक से अलग आलोचक में भी इनको खंगालने का नजरिया होता है। लेखक के होमवर्क की तुलना में आलोचक का काम हल्का नहीं होता।

डॉ. लता अग्रवाल : अर्थात् आलोचक या समीक्षक की दृष्टि लेखक की दृष्टि को खंगालती है। आप शिक्षाविद, भाषाविद, लघुकथा समीक्षक के रूप में हमारे साथ हैं, तो सबसे पहले बात भाषा की करते हैं। लघुकथा के माध्यम से भाषा विकास की क्या संभावना है?

बी. एल. आच्छा : साहित्यकार के पास लोक की भाषा होती है। भावों की भाषा होती है। लोक की पीड़ा और संवेदना की भाषा होती है। यह सब उसके भीतर के रसायनों से तरल होती है। फिर वह न तो लोक की बोली से परहेज करता है और न ही सहज तत्सम रूपों से, न विदेशी शब्दों से। यह भी कि लघुकथाकार नुकीलेपन के साथ उसी शब्दावली में संवाद करता है, जो सामान्य पाठक को भीतर से चीरकर पसर जाए। लघुकथाएं इसलिए आसानी से रास्ता बना लेती हैं कि वे जटिल होने के बजाय भावसाध्य होती हैं। व्यंग्य- विडंबना से पाठक को खींचती हैं और उपदेश विहीन संदेश से पाठकीय मित्रता सहेजती हैं।


डॉ. लता अग्रवाल : लघुकथा, लोक भाषा एवम लोक संस्कृति को आप किस तरह परिभाषित करेंगे?

बी. एल. आच्छा : असल में बड़ा कथाकार वही होता है, जो लोक से या लोक संस्कृति - व्यवहारों से गहरा रिश्ता बनाता है  हमें लोक संस्कृति और जन- व्यवहारों के छीजने या बदलते रिश्तों को मूल्यपरकता से संजोता है। इसका अर्थ यह नहीं कि लेखक मनोवैज्ञानिक गहराइयों की अनदेखी करे । समाज जिस तरह बदलता है, भाषा बदलते समाज संवेदन में उतार लाती है।


डॉ. लता अग्रवाल : लघुकथा समीक्षा के दौरान क्या कसौटी होती है आपके समक्ष?

बी. एल. आच्छा : मैं रचना की भाषा के सिंहद्वार से ही रचना में प्रविष्ट हो कर उसकी बुनावट की पड़ताल करता हूँ। यूँ तो विभिन्न विधाओं के शास्त्रीय तत्त्व दौड़े चले आते हैं रचना की पड़ताल के दौरान। पर मैं रचना को पूर्ण इकाई मानकर उसके भाषिक तत्त्वों को बारीकी से देखता हूँ, निपात से लेकर वाक्य तक। शीर्षक की सार्थकता और कथा से सम्बध्दता तक, कथा के सन्देश की वहनीयता तक। फिर यथार्थ, चरित्र की आतंरिक ग्रंथियों और बाहरी तनावों तक। कथा की यति- गति और नाट्य विधान, दृश्यात्मकता और सन्देश की अर्थवत्ता, भाषा और संवेदना की एकतानता, जीवन और जीवन मूल्यों से कथा-विन्यास की पड़ताल तक। मूल्यबोध और सन्देश तक। पूरी लघुकथा को शीर्षक में व्यक्त करती व्यंजकता वगैरह-वगैरह। कभी ये लघुकथाएँ समय और विन्यास की चौखट का अतिक्रमण करती हैं, तो उस क्षमता को भी कसौटी पर कसकर समीक्षा करता हूँ।


डॉ. लता अग्रवाल : उफ्! वाकई बहुत गहराई है आपकी समीक्षा में। होना भी चाहिए तभी लेखन में स्तर बना रहता है। एक समीक्षक होने के नाते आप कैसी लघुकथा को पहली नजर में हरा सिग्नल देंगे?

बी. एल. आच्छा : यह तो लघुकथा पर निर्भर है। कई बार लघुकथा समीक्षा के पैमाने का अतिक्रमण करती है। आलोचक को नए प्रतिमान के लिए मजबूर करती है। इसलिए लाल हरे पीले सिग्नल तो आलोचक के नजरिए की स्टेज है। पर जीवन का स्पंदन कितना नुकीला और विन्यास कितना बुना हुआ इंटीग्रेटेड होता है, यह खास बात है।


डॉ. लता अग्रवाल : बिल्कुल। आज लघुकथा की जमीन पर अगर 30% पुराने लेखक हैं, तो 70 प्रतिशत नये। दोनों की दृष्टियों में आप क्या अंतर पाते हैं ?

बी. एल. आच्छा : नये पुराने का सवाल खूब आ रहा है। पुराने रचनाकार तकनीक और सामाजिक आपा-धापी से थोड़े दूर हैं। उनमें प्रकाशन का धीरज जरूर है। नए लघुकथाकार नये संवेदन को पकड़ते हैं, पर परिपक्व चिंता और विन्यास की तड़प के बगैर प्रकाशन के लिए अधीर हो जाते हैं। पर ऐसा नहीं कि पुरानों में नयापन नहीं और नयों में पुरानापन चुक गया है।


डॉ. लता अग्रवाल : यदि इसे खूबी और कमियों में रेखांकित करना पड़े तो आप कितने अंक देंगे दोनों को?

बी. एल. आच्छा : अंक देना टीवी सीरियल या परीक्षकों का काम है। मैं तो खूबियों कमजोरियों - का विश्लेषण करता हूँ। सृजन संभावनाओं का होता है, नंबरों का गेम नहीं। अलबत्ता पुरस्कारों के लिए मजबूरी बन जाती है।


डॉ. लता अग्रवाल : आज लघुकथा क्षेत्र में कौन-सी समस्याएं आप देखते हैं? और उनसे उबरने के उपाय?

बी. एल. आच्छा : असल में आज की हिंदी लघुकथा मध्यमवर्गीय समाज तक सिमट रही है। उसके कुछ अंदाज ग्लोबल हैं, तो कुछ किसानों- मजदूरों की व्यथा के परिवेशीय। समाजशास्त्र के विभिन्न परिदृश्यों के भीतर जीते हुए नई जमीन तलाशना जरूरी है। इस अनुभव से आज लघुकथा समाज की गलियों से, घर से, अपार्टमेंट और अपने बेडरूम तक सिमटती जा रही है।


डॉ. लता अग्रवाल : अन्य विधाओं की अपेक्षा लघुकथा में समीक्षक कम हैं। क्या आप सहमत हैं? यदि हाँ तो कोई खास वजह?

बी. एल. आच्छा : क्योंकि समीक्षक को वह दर्जा नहीं मिलता, जो लेखक को मिलता है। फिल्मी गीतों को देखिए। अभिनेता उस गीत को गाकर अमर हो जाता है और गीतकार सब देखकर भी पृष्ठभूमि में है। फिर उसे भी लगता है कि उसे क्या मिलेगा? फतवा यह भी कि आलोचकों की मूर्ति नहीं बनती।

डॉ. लता अग्रवाल : लघुकथा पत्रिका के संपादक को लघुकथा की विधा का ज्ञान कहाँ तक आवश्यक है?

बी. एल. आच्छा : अगर पत्रिका ही लघुकथा की है, तो संपादक को लघुकथा की ऐतिहासिक यात्रा को जानना होगा। उन पड़ावों को समझना होगा, जो बदलाव लाती हैं। समय की धड़कन और लघुकथा में उसके स्पंदन को समझना होगा। शैलियों की समझ भी पुख्ता करनी होगी। संपादक को पत्रिका के तकनीकी लेआउट को भी साधना होगा।


डॉ. लता अग्रवाल : अन्य विधाओं की तरह लघुकथा में शैलियों का क्या स्थान है? आपने अब तक कई समीक्षाएँ की हैं। इस दौरान आप ने किन शैलियों का अधिक प्रभाव देखा?

बी. एल. आच्छा : शैली प्रयोग भी है, कथा विन्यास का नया सोच भी है।लेखक का आंतरिक व्यक्तित्व भी है। लेआउट तो - प्रभावी होना चाहिए। लघुकथा का स्थापत्य तो बदलना ही चाहिए। पर अधिकतर लघुकथाएओं में कथाकथन की वर्णनात्मक या संवादात्मक होती है। कभी मानवेतर पंचतंत्र घर शिल्प में।आत्मकथात्मक, पत्रात्मक या डायरी शैली उतनी सहज न हो, पर नाट्यतत्व और दृश्यात्मकता के साथ बुनावट में इंटीग्रेटेड यानी अंतर्गठित तो हो ही।


डॉ. लता अग्रवाल : समाज में चेतना का विकास करने हेतु किस तरह की लघुकथाएँ अपेक्षित है?

बी. एल. आच्छा : लघुकथा किसी संदेश को लेकर प्रायोजित नहीं होतीं पर सामाजिक चेतना तो साहित्य का आंतरिक प्रयोजन है। उसकी इयत्ता है। जो लघुकथाएं तर्कसम्मत भाव को जगाए, बाजार की कुटिलता पर आघात करे। रिश्तों के उदात्त अंदाज को सहेजे।वे ही अच्छी लगती हैं, जो चट्टानों से टकराएँ।


डॉ. लता अग्रवाल : वर्तमान वे लघुकथा आदर्शवाद की अपेक्षा यथार्थ के अधिक निकट है। इसकी कोई खास वजह?

बी. एल. आच्छा : आदर्शों की फसल तो प्रेमचंद की पूस की रात में भी नील गायों द्वारा चर ली गई थी। इसका अर्थ यह नहीं कि आदर्शो की जरूरत नहीं है। दरअसल आदर्श अब यथार्थ से टकराते हुए उस भाव तरलता में आ रहे हैं, जो प्रायोजित संदेश नहीं देते । सामाजिक दृष्टि भी वास्तविकताओं से रूबरू होकर उन रास्तों को तलाशती है, जो वास्तविक है। आदर्शों की काल्पनिकता अब बीते जमाने का यूटोपिया है। अब संदेशों का उदात्त पक्ष यथार्थ की टकराहटों के बीच से ही सृजन करता है।

 

डॉ. लता अग्रवाल : जी सहमत हूँ। लघुकथा मनोविज्ञान को किस हद तक छू पाई है?

बी. एल. आच्छा : जिसे मनोविज्ञान या मनोविश्लेषण कहते हैं, उसमें वर्णित ग्रंथियों का समावेश तो नहीं हुआ है। कथा साहित्य में यह अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी या जैनेन्द्र में था। पर भावों की स्पर्शिल मनोरचना तो लघुकथाओं का संवेदन है। लघुकथा के छोटे से कलेवर में इन ग्रंथियों को उतार लाने के लिए स्पेस कम ही होता है।

लघुकथा केंद्रित साक्षात्कार : बी. एल. आच्छा जी से डॉ. लता अग्रवाल


डॉ. लता अग्रवाल : जी। मनोविज्ञान को, जो भाव प्रभावित करे वह भी लघुकथा की सार्थक उपादेयता है। क्या आपको भी लगता है कि लघुकथा को व्याकरणिक विधा में बाँधने की आवश्यकता है?

बी. एल. आच्छा : कतई नहीं। शास्त्र को समझ कर रचना में सिद्ध करना चाहिए, न कि उसकी सीढ़ियों से रचना की जानी चाहिए। यह व्याकरण तो बदलता रहता है। सिद्ध रचनाकार चौखट को ही चरमरा कर नया उन्मेष देते हैं। पर नवागतों को विधा के व्याकरण को जानना चाहिए। जो जाने-माने रचनाकार हैं, उनकी रचनाओं से गुजरना चाहिए।


डॉ. लता अग्रवाल : अगर कहूँ कि अनुभव और अध्ययन ही लेखन को सशक्त बनाते हैं। लघुकथा में सैद्धांतिक और व्यावहारिक विमर्श को पाठकों के लिए स्पष्ट करें?

बी. एल. आच्छा : सैद्धांतिक रूप से विमर्श दो तरह के होते हैं ।एक तो लघुकथा की बुनावट का शास्त्रीय पक्ष, दूसरे जो नारी विमर्श की तरह अनेक विमर्श वैचारिक स्तर पर हैं। व्यावहारिक विमर्श रचना केंद्रित होगा और बड़े स्तर पर शास्त्रीय मान्यताओं को भी चुनौती देगा। यह चुनौती बनावट के स्तर पर भी और चेतना के बदलाव के स्तर पर भी है। आलोचक कैसे अपने नजरिए से इन रचनाओं को चीरकर उसके नये संवेदन की पड़ताल करता है, यह देखने की बात है। लघुकथाएँ जब लेखकीय उद्वेलन से विमर्श की ओर जाती है तो अधिक सहज होती है। विमर्शों से सृजन की ओर आती हैं, तो कुछ कुछ प्रायोजित।

डॉ. लता अग्रवाल : मतलब यह कि शास्त्रीय और व्यावहारिक दोनों ही पक्षों की ओर लघुकथाकार की दृष्टि होनी चाहिए। लघुकथा में माइक्रोस्कोपिक फोकस कितना आवश्यक है?

बी. एल. आच्छा : माइक्रोस्कोपिक फोकस तब जरूरी है जब किसी अंतर्द्वंद्व को पात्र में उभारना हो। चरित्र के मनोगत पक्ष के उद्वेलन को दिखाना हो। पर यदि यह परिप्रेक्ष्य किसी सामाजिकता से जुड़ा हो तो वह 'मेक्रो' भी हो जाता है। बस इतना जरूर है कि विन्यास जटिल, अमूर्त और ज्यादा सांकेतिक ना हो।


डॉ. लता अग्रवाल : जी। कहते हैं कि लघुकथा का सौंदर्य घाव में नहीं दर्द में समाया है? इसका अर्थ आपसे जानना चाहेंगे?

बी. एल. आच्छा : इसे यूँ समझिए कि काँटा चुभता है, तो पाँव ऊँचा करके चलते हैं। पर जब काँटा निकल जाता है, तो भी दर्द बना रहता है और कुरेदते रहने की इच्छा बनी रहती है। पाठक यह सचेत कुरेदन महसूस करता रहे। अच्छी लघुकथाएं इस कुरेदन के कारण पाठक से चिपक जाती हैं।


डॉ. लता अग्रवाल : बहुत खूब। लघुकथा सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने में कितनी सशक्त साबित हुई है?

बी. एल. आच्छा : लघुकथाओं ने सामाजिक रुढ़ियों पर आघात किए हैं। पूजन और श्राद्ध के बजाए बीमार पात्र की सेवा चिकित्सा को तरजीह दी है। असल में सारी धार्मिक या सामाजिक परंपराओं में मानवीय अर्थवत्ता और सामाजिकता के तर्क को रचनात्मक संगति दी है। यही नहीं आधुनिकताओं के कर्मकांड पर भी प्रहार किए हैं।


डॉ. लता अग्रवाल : अर्थात् लघुकथा अपने लक्ष्य में सफल हुई है। लघुकथा में विचार और संवेदना में कितना संतुलन होना चाहिए? 

बी. एल. आच्छा : विचार और सम्वेदना का अनुपात नहीं, बल्कि रचना प्रक्रिया में विचार का संवेदना में रूपांतरण जरूरी है। प्रतिबद्ध विचारधाराएं भी रचना का सहज विन्यास बनें। व्यक्तिगत विचार रचना में लेखकीय प्रवेश न बनें। यह जरूरी है कि पात्र खुद बोलें। लेखक पात्रों को अपना तोता ना बनाएँ। संवेदना विचार को मजबूत कर उसे तरल रसायन बना देती है, जो पाठक भी अपना लेता है। यही भावांतर की रासायनिक प्रक्रिया है।


डॉ. लता अग्रवाल- बीजपरक लघुकथाएँ अथवा उर्वर लघुकथाएं किसे कहेंगे?

बी. एल. आच्छा : बीजपरक लघुकथाएं टाइप्ड होती चली जाएंगी और उर्वर लघुकथाएँ अपनी जमीन, अपने तेवर अपनी सहजता के साथ अपने समय में धड़कती चली जाएँगी उनमें ही नए संवेदन और नवोन्मेषी प्रयोग की संभावनाएं हैं।


डॉ. लता अग्रवाल : अर्थात् लघुकथाकार का प्रयास उर्वर लघुकथाओं की ओर अधिक होना चाहिए। भूमंडलीकरण के दौर में लघुकथा को कहां पाते हैं?

बी. एल. आच्छा : यह दौर बैलगाड़ी से भी मुक्त नहीं है और भूमंडलीकरण से अछूता भी नहीं। हिंदी लघुकथा अभी भूमंडलीकरण और प्रौद्योगिकी को उतना आत्मसात नहीं कर पा रही है। पर हमारी अंतड़ियों में अब तकनीक का स्पर्श झलकने लगा है। प्रवासी रचनाकार इसे ज्यादा व्यक्त कर रहे हैं।


डॉ. लता अग्रवाल : वैसे वह दौर छूटना भी नहीं चाहिए। भूमंडलीकरण की यात्रा संस्कृति के साथ हो तो ही सामंजस्य बना रहेगा। आप वरिष्ठ समालोचक हैं। आपकी दृष्टि से कई लघुकथाएं गुजरी हैं। क्या कभी ऐसा महसूस हुआ कि इन विषयों सम्बन्धी कथानक वाली रचनाओं की कमी है?

बी. एल. आच्छा : मैंने पहले ही कहा है कि प्रौद्योगिकी अंतरराष्ट्रीय क्षितिज और एलीट समाज के कथानकों का वैसा समावेश नहीं हुआ है। इसीलिए कथानक मध्यमवर्गीय परिवेश में अधिक लिपटे-सिमटे हैं। किसान मजदूर भी परिदृश्यों से कमतर हुए हैं। पर्यावरण और जीव-जंतुओं की पीड़ाओं से सरोकार कमतर।


डॉ. लता अग्रवाल : जी। गौतम सान्याल जी ने लघुकथा को प्रतिशोध का रचना कौशल, विरुध्द का कथ्य, विरोध की कला माना है। इस संबंध में खुलासा करें।

बी. एल. आच्छा : मुझे यह एकांगी विचार लगता है। जिन लघुकथाओं में व्यंग्यपरकता है, वहाँ प्रतिकार है। प्रतिशोध शब्द मुझे रुचता नहीं है। पर अनेक लघुकथाओं में सामाजिक यथार्थ की सारी बिवाइयों के बावजूद सामंजस्य की संभावनाएं हैं। यों मोटे तौर पर साहित्य को प्रतिपक्ष की सर्जना कह दिया जाता है, पर हमारी धारणा विरुध्दों के सामंजस्य की भी है और लघुकथाओं में यह ज्यादा ही है। विसंगतियों से गुजरते हुए संगतियों की रुझान अवांछित नहीं है।


डॉ. लता अग्रवाल : सही कहा। नई कलम से आप क्या अपेक्षा रखते हैं?

बी. एल. आच्छा : इतना ही कि वे बदलती राजनीति, समाज, पारिवारिक रिश्तों, दबे हुए वर्गों की चिंताओं, पर्यावरण, प्रौद्योगिकी के प्रभाव, अंतरराष्ट्रीय दबावों की समझ को तार्किकता के साथ समझें। श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों से गुजरें। असल में उन्हीं में से नया कथातत्व फूटता है और प्रयोगी शिल्प भी दरकता है। नयी जमीन और लघुकथा की फसल को कुछ समय अनाकुल होकर दें। छपना सिद्धि नहीं है। उस तड़प, संवेदना या सौंदर्य को पाठक में धकेल देना सिद्धि है।


डॉ. लता अग्रवाल : सहमत हूँ। रचना पाठकों के दिलों पर राज करे, उसी में उसकी सिध्दि है। लघुकथा में विषय वैविध्य को लेकर आपसे विस्तार में जानना चाहेंगे?

बी. एल. आच्छा : विषयों की विविधता लेखक को बड़ा कैनवास देती है। क्योंकि लघुकथा का अक्स या क्षेत्रफल सीमित है, पर क्षणों का अनुभव विराट। उससे नये अक्स विकसित होते हैं। विषय एक सा हो पर उसका वस्तुतत्व भिन्न हो, व्यंजना अलग हो, ट्रीटमेंट अलग हो। शैली में नयापन है, तो यह भी वैविध्य है। बस इकहरेपन से हर स्तर पर बचना चाहिए। तय है कि लेखकों को अनजाने परिवेश से भी जुड़ना पड़ता है। मनोभावों और तकनीक से उपजे नये परिदृश्यों को समझना पड़ता है। घटनाओं से साक्षात होना पड़ता है। मैं तो कई बार कहता हूँ कि नेपथ्य में रहकर जासूसी करनी पड़े तो भी। पर नए संदर्भ और नए परिदृश्यों की गहरी पड़ताल लेखकीय सृजन में यथार्थ और सृजनात्मक कल्पना का अनुभव बने।


डॉ. लता अग्रवाल : अर्थात् विषय एक हो सकता है किन्तु लेखक का अनुभव संसार प्रस्तुतीकरण में वैविध्य उत्पन्न कर सकता है। बदलते परिवेश का लघुकथा पर प्रभाव?

बी. एल. आच्छा : बदलते परिवेश के कारण कई बार कुछ लघुकथाएँ ऐतिहासिक महत्व की बनकर रह जाती हैं। भले ही वे अपने समय में शीर्ष पर रही हों। एक युग भावुकता और आदर्शों का था। एक युग यथार्थ और उदात्त संदेशों का होता है। तो अंतर साफ है। भावुकता पर तर्क, नैतिक उपदेशों की स्थूलता पर तरल सहकार, वर्णनात्मक शिल्प पर नाट्य-दृश्यों का समावेश, विधाओं का संक्रमण ये सब बदलाव आते हैं। फिर मार्क्स- गांधी का युग अब ग्लोबल बदलावों के साथ अपनी प्रासंगिकताओं को तलाशता है, तो सामंजस्य की दृष्टि बाजार और वैश्विक स्तर पर सामाजिक, राजनैतिक बदलावों से टकराती है। तकनीक कुछ नया रचती है। यह भी कि बैलगाड़ी और किसानों की आत्महत्याएं भी हैं और अन्य ग्रहों पर बसने की तैयारी भी। इस फांक के बीच जीवन है, संचार हैं, मीडिया है, युध्द है, पड़ौस का भूगोल है, पारिवारिक बिखराव हैं. वगैरह वगैरह। तो टूटन और बदलाव तो साफ हैं। रिश्तों की नैतिक भावुकता अब वृध्दाश्रमों में शरणार्थी बन गयी है। राजनीति का चरित्र बदला है। अंतरराष्ट्रीय बाजार की कूट चालें अनसमझी हैं। ये सब परिवेश के बदलाव हैं और लघुकथाओं के छोटे से भूगोल में तनाव और मानसिक संरचना को सामने लाते हैं।

डॉ. लता अग्रवाल : आशय यही कि बदलते परिवेश ने लघुकथा को विस्तृत फलक की चुनौती दी है। लघुकथा में विविध विमर्श के बारे में आपकी क्या राय है? लघुकथा में विमर्श के माध्यम से कितनी सार्थक चर्चा हुई है?

बी. एल. आच्छा : असल में विमर्श पढ़कर लघुकथा संरचना नहीं होती। आदमी या समुदाय, जेंडर या जाति, व्यक्ति और प्रतिबद्ध समूह जब टकराते हैं, तो अनुभव भी नया होता है। पर फैशन के बतौर पराए विमर्श सृजन नहीं बन पाते। सांस्कृतिक और सामाजिक भूगोल अलग होता है, तो यह विमर्श भी अलगाव दिखाते हैं । मसलन पश्चिम का नारी विमर्श, भारतीय नारी विमर्श से अलग जमीन पर रेखांकित हुआ। यही बात अन्य जेंडरों या दलित जैसे विमर्शों की है। प्रसिद्ध व्यक्तित्व और विमर्श सामाजिक चेतना को जगाते हैं। पर वे सब सृजन के अंगभूत बनें और पात्र लेखक की कठपुतली ना बनें। न ही लेखक के अनुभव से गुज़रे बगैर फैशन के बतौर इन विमर्शों के साथ विधा में उतरें।


डॉ. लता अग्रवाल : बिलकुल सही। विमर्श किसी विचार को पाठकों तक पहुँचाने का स्वस्थ जरिया बने। बदलते परिवेश के साथ क्या समस्याएं लघुकथा के क्षेत्र में महसूस हो रही हैं?

बी. एल. आच्छा : जब से लघुकथाएँ यथार्थ से जुड़ी हैं, तो समस्याएं तो हर कोने से सृजन का अंग बन रही हैं। बस लेखक के अनुभव संसार में यह समस्याएं कैसी तड़प दिखाती हैं और किस नुकीले स्पर्श के साथ ट्रीटमेंट पाती हैं, यही देखने की बात है। आदर्शों की पुरानी भावुकता रह-रहकर इसलिए भी झांकती हैं कि सामाजिक टूट-फूट में हम ऐसे चरित्र को तलाशने की कोशिश करते हैं, जो दिशा दे। हमारे यहाँ आज भी विरुध्दों के सामंजस्य की बात आलोचना में कायम है। इसलिए अक्सर समाधान या संदेश की व्यंजना होती है और यह अपेक्षा भी रहती है। क्योंकि आखिरकार साहित्य मानवीय अर्थवत्ता तो तलाशता ही है। व्यक्ति स्वातंत्र्य, विस्थापन, पारिवारिक टूटन, वृध्दाश्रम, किन्नर कथा, नारी अस्मिता, राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टता, एकाकीपन,उत्तर आधुनिकता के दंश आदि न जाने कितनी ही समस्याएं इन रचनाओं में विस्फोट कर रही हैं।


डॉ. लता अग्रवाल : बिलकुल। जीवन और समाज की समस्याओं को सबके सामने लाना ही साहित्य की विधाओं का उद्देश्य होता है, लघुकथा इससे परे नहीं। प्राचीन समय में बोध कथाएं जिनका उद्देश्य नैतिक मूल्य का विकास करना होता था और आधुनिक लघुकथाएं नैतिक मूल्य के कितने करीब हैं?

बी. एल. आच्छा : दोनों में रात दिन का अंतर है। संदेशों में भी और शिल्प में भी। बोधकथाओं में उपदेश दिया जाता है । लघुकथा वास्तविकता से रूबरू होती है। बोधकथा में उपदेश कथा का लक्ष्य बन जाता है, यह भी एक तरह से लेखक का रचना में प्रवेश ही है। लघुकथा संदेश देती है, मगर लेखकीय प्रवेश उसका दोष है। फिर नैतिक संदेश एक रूढ़ नजरिया है। अब वह यथार्थ से टकराकर माननीय विवेक का अंग बन जाता है। वह नजरिया है बदलते हुए तर्क का वैज्ञानिक प्रगति का, बदलते समाज और व्यक्ति के सोच का यह नजरिया अधिक उदात्त यथार्थ तरल और व्यापक कैनवास वाला है।


डॉ. लता अग्रवाल : अर्थात लघुकथा उपदेश नहीं देती, पाठक को बाध्य नहीं करती कि वह बताये हुए रास्ते का अनुगमन करे ही। बस स्थितियाँ उसके समक्ष रख देती है। राह चुनने का कम पाठक का है। हिंदी लघुकथा समसामयिक बोध को प्रस्तुत करने में कहीं तक सफल हुई है?

बी. एल. आच्छा : कुछ लेखकों ने तो भूमंडलीकरण के विभिन्न पक्षों को छुआ है। विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के यथार्थ को परखा है। सामाजिक पारिवारिक विघटन के साथ वृद्धों के विस्थापन को संवेदी बनाया है। जातियों के संघर्षों में कोमल संवेदना को भी तरजीह दी है। समसामयिक बोध की चमक तो है, पर उसके अंतर्जाल को गहरी बुनावट देने की जरूरत है। यह तर्क मांगती हैं। अन्वेषी राह मांगती है। कुछ ऐसी कि कांटे की तरह पैर में धँस जाए और चेतना का अंग बन जाए।


डॉ. लता अग्रवाल : मतलब, कोरी कल्पना या महज संवेग लघुकथा का आधार नहीं। इसकी अवधारणा तर्क पर होनी चाहिए। गंवई बोली से नेट की संस्कृति तक भाषा के क्षेत्र में कई नवोन्मेष हुए हैं। भाषा की धरोहर के लिए आप इसे किस रूप में देखते है?

बी. एल. आच्छा : मैंने पहले भी कहा है कि बैलगाड़ी और जेट के बीच जो फर्क है सामाजिक जीवन में, वैसी ही बोली और अंग्रेजी-उर्दू का स्पर्श करती हिंदी में भी है। आँचलिक स्पर्श बोली की माँग करते हैं। शहरी परिवेश अंग्रेजी में दमकता है। अब समाज के विभिन्न स्तरों के पात्रों के अनुकूल भाषायी संवाद नवोन्मेषी तो होंगे ही। फिर कई बार लगता है कि बोलियों के शब्द शहरी भाषा को आत्मीय परस दे जाते हैं।


डॉ. लता अग्रवाल : हम कह सकते हैं परिवेश के अनुकूल भाषा ही लघुकथा का सौन्दर्य है। क्या लघुकथा से उम्मीद की जा सकती है कि कहानियों की तरह यह भी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित होती रहेंगी?

बी. एल. आच्छा : निश्चय ही बोध- कथा ,दृष्टांत, चुटकुले, पंचतंत्र में सब लघुकथा के शिल्प में घुलते चले गये और लघुकथा ने जीवन की धड़कन को आबाद किया। कथाकुल के साहित्य का ही एक रूप है लघुकथा। सामान्य पाठक के लिए सहज पठनीय और जीवन को कंपन देने वाली। यह भी अगली पीढ़ी की थाती बनेगी, कुछ बनते -संवरते हुए। कथ्य के स्तर पर और शिल्प के स्तर पर भी।


डॉ. लता अग्रवाल : हम कामना करते हैं कि लघुकथा नित नवीन पिलर खड़े करते हुए नवीन सौन्दर्य से लबरेज हो। समीक्षक की नजर से बचा नहीं जा सकता। आज लघुकथा का बाजार भले ही गर्म है। किंतु आलोचक की दृष्टि कमजोर बिंदुओं पर पहुँच ही जाती है। बहुधा क्या कमजोरी इस समय आप लेखन में देख रहे हैं?

बी. एल. आच्छा : आलोचक कोई ऑडिटर नहीं होता पर इतना जरूर होता है कि वह बुनावट में जो अंतर्ग्रंथियां आनी चाहिए, पात्रों में जो अंतर्द्वंद्व या टकराहटें होनी चाहिए, उन्हें पकड़ना है। फिर भाषा और संवेदन में जो बेमेलपन होता है या यथार्थ का सपाटपन या अतिवादिता होती है, उसे प्रश्नांकित करना है। विषय के बासीपन या कहने की शैली के इकहरेपन पर नजरें टेढ़ी करना है। इस समय अधिकतर आसपास के घरेलू चक्र में लघुकथा उलझी है और उसमें भी तनावों को उकसाकर संवेदना को स्पर्शिल बनाने की लंबी कवायद नहीं हो पा रही है। पर लघुकथा में भी यथार्थ के अनेक परिदृश्यों को संजोते हुए अन्विति का सौन्दर्य जरूरी है


डॉ. लता अग्रवाल : अर्थात लेखक को अपने कौशल को अभी और मांजने की आवश्यकता है। परंपराएं, जिनसे समाज वृध्दि और समृद्धि पाता है। लघुकथा पुराने और नई के बीच के सेतु पर हस्ताक्षर करने में कितनी सफल हुई है?

बी. एल. आच्छा : मैंने पहले ही कहा है कि और तर्क भावुकता के स्थान पर प्रतिरोध की, प्रतिकार की शक्ति आई है, तो नारी का समूचा व्यक्तित्व ही बदल रहा है। आस्थाओं का मानवीय पक्ष में रूपांतरण हो रहा है कर्मकांडों के स्थान पर।राजनीति में आदर्शों के स्थान पर भ्रष्टताओं पर कचोट लघुकथाओं का तेवर बना है। कभी वह उस पात्र, उसके विचार और तेवर को भी बुनता है, जो तार्किक चुनौतीपूर्ण संवेदनीय भाव तरलता, बदलाव की दृष्टि और पाठकीय सम्प्रेषणीयता के नए अंदाज को व्यक्त करे। कम ही सही, पर ये नये तेवर हिंदी लघुकथा का तेजस बनते जा रहे हैं।


डॉ. लता अग्रवाल :बिलकुल नई दृष्टि। आज काफी गहराई से विषयों की पड़ताल लेकर आ रही है। अगर आप कुछ कहना चाहें।

बी. एल. आच्छा : काफी लंबी बात हो गई, काफी कुछ कह दिया ।संदेश देने की आदत नहीं । जो भी लघुकथा के क्षेत्र को हरा भरा कर रहा है, छपने को सिद्धि नहीं मानता ,वह संवेदन और बुनावट के स्तर पर अनाकुल होकर सर्जक बना हुआ रहे। इस लंबी बातचीत के लिए हार्दिक धन्यवाद।

बी. एल. आच्छा

फ्लैटनं-701टॉवर-27
नॉर्थ टाउन अपार्टमेंट
स्टीफेंशन रोड (बिन्नी मिल्स)
पेरंबूर, चेन्नई (तमिलनाडु)
पिन-600012
मो-9425083335

डॉ लता अग्रवाल, 73, यश विला भवानी धाम फेस-1, नरेला शंकरी, भोपाल(मप्र)

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