Hindi Vyangya : Hindi Satire By B. L. Achha Ji
हिंदी व्यंग्य : तुरपाई करो, सिलाई नहीं
बी. एल. आच्छा
वे हर बार समझाते हैं- "टिको, पर टिकाऊ मत बनो। पार्टी हो या विचारधारा। यह गीत पुराने जमाने का है - "ये दोस्ती हम नहीं...."। अब जरा टिकाऊ के मुहावरे को भी समझो। दुकानदार तारीफ करते-करते टिका देता है ग्राहक को। आई हुई गिफ्ट नये साहब को टिका देते हैं। अब टिकाऊ और टिका देने की कला को समझे बगैर बदलते जमाने मे टिक नहीं सकते। ऐसी पिरामिड आस्थाएँ बदलते जमाने की तकनीक में इमोजी चमत्कार नहीं दिखा सकतीं।"
वे लंबा मशविरा दे रहे थे, मेरे जैसे फेविकोल से चिपके मित्र को। बोले- "जरा प्रजातंत्र के अभिनय करना सीखो। वरना दरी बिछाने और छोटा-मोटा पद हासिल करने के अलावा कुछ नहीं कर पाओगे।" मैंने कहा- "पार्टी और विचारधारा की लकीर के बाहर नहीं जा सकते।" वे बोले - 'कोई वक्तव्य ऐसा फेंको, जिससे चौकन्ने हों लोग। तुम्हारा वजूद सामने आए। जब खिंचाई ज्यादा होने लगे अपनी बकरौली छुकछुकिया जबान को लेकर, तो कह दो पलटकर कि मेरा यह अर्थ नहीं था।" मैंने कहा -" अगर वे एक्शन मोड मे आ गये तो?"
"तो बोल दो कि यह पार्टी का आन्तरिक लोकतन्त्र है।"
"पर वे मुझे संदिग्ध मानने लगे तो?" " यह तो अच्छा संकेत है। इससे आपका वजूद कायम होगा। ज्यादा से ज्यादा यह कह दो कि यह मेरा व्यक्तिगत विचार है। पार्टी का नहीं।"
"पर इससे थुक्कम - फजीहत तो मेरी ही होगी ?"
"अरे ऐसी लानत-मलानत की परवाह मत करो।बल्कि मुस्कान से पार्टी के भीतर ही भीतर मेल- मिलाप को चिपकाओ। यह जमाना आस्था और विचार की पक्की - मशीनी सिलाई का नहीं, तुरपाई का है।"
मैं अचंभित रह गया। बोला- "अरे ये कैसी सलाह दे रहे हो। लोग तो भरमा कर दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ा देते हैं और फिर घोड़ी को उचका देते हैं।"
"यही तो अवसर है लगाम थामने की कला का। मुस्कुराहट से अपने बने- बनाये लोगों का दमखम दिखाओ। अब तो बाहर ही नहीं पार्टी में भी भाप- ताप और नाप दिखाने की कला से ही कद बनता है।"
"मगर उनको लग जाए कि ये गुट बना रहे हैं तो?" वे बोले -"यही तो ताकत है। मैं तो कहता हूँ कि स्वेटर ऐसा लो कि उलटे-सुलटे पहन- पहनकर अवसर साधा जा सकता हो। दोनों ओर से पहनने की चातुरी से रास्ते खुल जाते हैं।"
मैं इस नये ज्ञान पर हंसता रहा। उनका चेहरा निखरने लगा। बोले-"मैं तो शर्ट भी ऐसा बनवा लेता हूँ कि आधी बाँह का भी हो जाए और पूरी का भी।" मैंने पूछा-"अरे! सो कैसे?" वे बोले- "आधी बांह के अन्दर चिट बटन लगा लो और ऊपर से सिलाई की फैशनेबल किनोर। जब चाहो तो निकाल लो। हाफ भी फुल भी।"
"पर इसका क्या लाभ?"
वे बोले -"अरे जब निकलना हो पार्टी से तो पूरी बांह वाले चिटबटन खोल दो। अब पूरी बांह निकल गयी तो दो तिहाई बहुमत का खेल तो खेल ही लेगी।"
अनायास ठहाका लग गया। मैंने कहा- "कितना हल्ला-गुल्ला मचेगा इसतरह के जोड़-तोड़ के लिबास पर?" वे बोले - "लानत- मलानत पर मत जाओ। न पुराने भाषणों और विडियो की परवाह करो ।जैसा अवसर था, बोल दिया। अब तो लोकतंत्र में पार्टियों का लाभंतु पर्यटक- स्वभाव बन गया है। जब चाहे इसे आदर्शों और जमीनी तकाजों से मंडित करते रहो।" मैंने कहा -"फिर तो वे कहेंगे कि आप ये तो कुछ हथियाने का कर्मकांड रच रहे हैं।",
"तो उन्हें बोल दीजिए कि आप तो सब कुछ पा गये हमारी कीमत पर।यह कौन सी पाटी पढ़ा रहे हैं- "मन लेहु पै देहुं छंटाक नहीं।"
मैंने कहा -"पर तंज तो कसा जाएगा न ?कभी कमीज की बांह का वन फोर्थ, कभी थ्री फोर्थ !!"
वे बोले-"अब बताइए न कि थ्री फोर्थ को भी सरकार बनाने के लिए वन फोर्थ को जरूर दरकार होगी।अगरचे साध लिया तो जोड़युक्त नैचुरल एलायन्स। देखो न, सागर से निकली लोकतंत्र की निर्दलीय बूँद का भी अपना वजूद होता है सरकार बनाने के लिए।"
मैंने भी लोकतंत्र के कुरुक्षेत्र में यह अभिनव ज्ञान लेकर सारथीनुमा साथी को प्रणाम किया। पर रात में चलते हुए यह गुनगुनाहट सवार हो गयी- 'रात भर का है मेहमाँ अंधेरा, किसके रोके रुका सवेरा।"
- बी. एल. आच्छा
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