भाषा अभिव्यक्ति का साधन है - पांडित्य का साध्य नहीं

Dr. Mulla Adam Ali
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Bhasha Abhivyakti Ka Sadhan Hain : Panaditya Ka Sadhya Nahi

Bhasha Abhivyakti Ka Sadhan Hain

भाषा अभिव्यक्ति का साधन है - पांडित्य का साध्य नहीं

हम सभी इस तथ्य से सहमत होंगे कि भाषा उतनी ही पुरानी है जितनी मानव सभ्यता। मानव सभ्यता द्वारा युगों से संपादित यात्रा में भाषा ने भी संकेत ध्वनि एवं शब्द रूपी क्रमिक परिवर्तन के तौर पर विकास यात्रा पूर्ण की है एवं सदा ही अभिव्यक्ति के अमोघ साधन के रूप में प्रयुक्त होती रही है। इतना ही नहीं भाषा किसी भी संस्कृति-विशेष का अभिन्न संघटक है जिसके बिना संस्कृति की कल्पना संभव नहीं है। विगत हजारों वर्षों से भाषा निरन्तर विभिन्न प्रयोगों से गुजरती रही है एवं असंख्य विद्वानों, मनीषियों ने भाषा का प्रयोग अभिव्यक्ति के अतिरिक्त अन्य उद्देश्यों के संपादन हेतु भी किया है। किन्तु क्या भाषा उनके अन्य उद्देश्यों के संपादन में सहायक सिद्ध हुई है ? अधिकारिक तौर पर कुछ भी कहना कठिन है किंतु इतना निश्चित ही कहा जा सकता है कि भाषा के ऊपर होते रहे निरंतर प्रयोग एवं पड़ते रहे थपेड़े उसके अभिव्यक्ति का साधन होने के गुण को लेश मात्र भी प्रभावित नहीं कर सके एवं जब-जब ऐसा प्रयास किया भी गया तो इतिहास साक्षी है कि सामाजिक चेतना ने उसका विरोध कर भाषा के साथ इस खिलवाड़ को कभी भी स्वीकार नहीं किया। भाषा की सत्ता सार्वभौमिक है जिसे मुट्ठी भर हाथों में कभी भी केन्द्रित नहीं किया जा सकता। भाषा सर्वहारा बहुजनों के कंठ से निकलकर विद्वानों एवं विचारकों की लेखनी से प्रवाहित होती है, न कि विद्वानों एवं विचारकों की लेखनी से निकलकर जन-सामान्य के विचार- विनिमय का माध्यम बनती है।

अतीत से सबक: संस्कृत जो कि हमारे देश की विभिन्न भाषाओं की ही नहीं अपितु विदेशी भाषाओं जैसे जर्मन आदि की भी जननी है, एक जनभाषा के रूप में स्थापित क्यों नहीं हुई एवं भाषाई सार्वभौमिकता क्यों नहीं प्राप्त कर सकी ? क्योंकि वह जन-सामान्य के कंठ से आविर्भूत अभिव्यक्ति की सरिता न होकर विद्वानों एवं विचारकों के पांडित्य परितोष का साधन थी। वह जन सामान्य का प्रतीक न होकर वर्ग-विशेष का प्रतिनिधित्व कर रही थी। हमें यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जिस समय संस्कृत का बोलबाला था उस समय भी जन सामान्य के विचार विनिमय अथवा अभिव्यक्ति का माध्यम प्राकृत भाषा थी। संस्कृत तो मात्र एक वर्ग-विशेष का प्रतीक बनकर संग्रहणीय वस्तु के रूप में पुस्तकों की शोभा बढ़ा रही थी। इस तरह यह जन सामान्य के प्रतिनिधित्व के अभाव में समाज में स्थापित न होकर पांडित्य प्रदर्शन का अखाड़ा बनकर रह गई। जबकि अन्य दूसरी बोलियाँ एवं भाषाएँ जन सामान्य के बीच से उद्भूत होकर समाज में स्थापित हो गई। जबकि आज हिन्दी भाषियों, हिन्दी प्रचारकों, विद्वानों एवं विचारकों को चाहिए कि वे संस्कृत भाषा के साथ घटित इस सत्य से सबक लेकर जन सामान्य द्वारा प्रयुक्त भाषा का प्रयोग ही अपने लेखन एवं कृतियों के संपादन में करें तथा भाषा को अभिव्यक्ति का साधन ही बना रहने दें न कि पांडित्य प्रदर्शन का साध्य।

भाषायी विकास हेतु जन प्रतिनिधित्व गुण की अपरिहार्यता : साहित्यकारों, लेखकों एवं विचारकों को चाहिए कि वे इस तथ्य का विशेष ध्यान रखें कि उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा अधिकाधिक लोगों की प्रतिनिधिपरक एवं सर्व साधारण तौर पर व्यवहार में लायी जाने वाली भाषा हो। क्योंकि वायवीय विचार अत्यंत सरल एवं सहज ढंग से जन सामान्य की भाषा में अभिव्यक्त होकर ही जन मानस में अधिक गहराई तक पैठ कर पाते हैं एवं एक वृहत् जन समुदाय को प्रभावित करते हैं। आज हमारे पास मुंशी प्रेमचंद जी का अत्यंत सशक्त उदाहरण विद्यमान है जिनके रचनाकर्म में इसी गुण के होने के कारण उनके विचार एवं कृतियाँ सामान्य जन- मानस की धरोहर बन चुकी हैं एवं उनकी तुलना में शायद ही किसी अन्य लेखक की अभिव्यक्ति में इतनी वृहत् व्यापक अपील देखने को मिलती हो। नवीन साहित्य की बात छोड़कर यदि हम प्राचीन साहित्य पर भी दृष्टि डालें तो हम देखते हैं कि महर्षि वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में रचित रामायण की तुलना में जनभाषा में रचित तुलसीकृत रामचरित मानस सैकड़ों वर्षों से जन-जन का कंठहार बन चुका है एवं इसका व्यापक प्रभाव जन-मानस में स्पष्ट दिखाई देता है। अभिव्यक्ति में नितांत सार्वजनीन सहजता एवं बोधगम्यता के कारण ही रामचरित मानस भारतीय जनमानस में अतल गहराई तक पैठ पाया है। क्योंकि आचार्यवर तुलसी ने नीतिपरक शिक्षा एवं आचारगत उपदेश के पांडित्यपरक संप्रेषण हेतु नितांत सर्वमान्य, जनसुलभ, बोधगम्य एवं सर्वग्राह्य भाषा को अपनाया न कि भाषा को पांडित्य प्रदर्शन के शस्त्र के रूप में प्रयुक्त किया। इस प्रसंग में अंग्रेजी के एक विद्वान की यह उक्ति नितांत प्रासंगिक लगती है कि ए - राइटर केन बि मोर ऑब्स्क्यूर इन नोशन, डिक्शन एण्ड ग्लोसरी एज़ ही लाइक्स, बट देन ही शुड नॉट ब्लेम दैट रीडर्स आर नॉट बायिंग हिज़ बुक्स।

हिन्दी भाषा की स्थापना हेतु सहिष्णुता की अनिवार्यता : हम यह जानकर अचंभे में पड़े सकते हैं कि आज हम जिस विदेशी भाषा के शिकंजे में चेतन एवं अचेतन रूप से जकड़े हैं वह स्वयं एक समय में अपने मूल देश की भाषा नहीं रह गई थी एवं वर्षों तक पराभूत रहने के पश्चात कितनी कठिनाई से उसका अभ्युदय हो सका। 11वीं शताब्दी के अंत तक इंग्लैण्ड में फ्रैंच भाषा का ही बोलबाला रहा एवं राजकाज से लेकर समस्त निकायों में फ्रैंच भाषा ही प्रयुक्त होती रही। यहाँ तक कि इंग्लैण्ड नार्मन्स के अधिपत्य से स्वतंत्र हो जाने पर भी फ्रैंच भाषा के प्रभाव से मुक्ति नहीं पा सका। अंग्रेजी भाषा के विकास एवं स्थापना की प्रक्रिया में विविध कठिनाइयाँ आई। यहाँ तक कि इसमें ज्ञान-विज्ञान के शब्दों की बात तो दूर सामान्य जीवन से संबंधित शब्दों तक का भाषा में अभाव था। अंग्रेजी में राजकाज विषयक समस्त शब्द, किंग और क्वीन को छोड़कर, फ्रेंच भाषा से आयातित किए गए। यही नहीं न्याय, कला, कानून, साहित्य, रहन-सहन, भूषाचार से लेकर ज्ञान-विज्ञान की समस्त शब्दावली अंग्रेजी द्वारा फ्रेंच भाषा से गृहण की गई है। ए हिस्ट्री ऑव इंग्लिश लेंगवेज के लेखक अल्बर्ट सी. बाक के अनुसार अंग्रेजी भाषा में लगभग 10000 शब्द तो अकेले फ्रेंच भाषा से ही शुरुवात में लिए गए तथा आगे चलकर अंग्रेजी ने विश्व की विभिन्न 50 भाषाओं से हजारों शब्द गृहण किए। अंग्रेजी के मूल शब्द बमुश्किल 15 प्रतिशत भी नहीं हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि अंग्रेजी भाषा ने अपने अभ्युदय हेतु अभूतपूर्व सहिष्णुता का परिचय दिया है। लेकिन क्या हम आज हिन्दी के मामले में नितांत असहिष्णु नहीं हैं ? क्या हम आज शुद्धता के नाम पर असहिष्णुता एवं कट्टरवादिता के शिकार होकर हिन्दी भाषा को उसके अभिव्यक्ति के मौलिक गुण से वंचित करने की प्रवंचना में नहीं जुटे हैं ? इस प्रकार क्या हम भाषा को पांडित्य प्रदर्शन का अखाड़ा नहीं बना रहे हैं?

सहिष्णुता का अभिप्राय : दुनिया की कट्टर से कट्टर भाषाओं ने सार्वभौमिक शब्दों को जैसा का तैसा स्वीकार कर लिया चाहे वे शब्द किसी भी भाषा के क्यों न रहे हो, फिर हम टेलिफोन को दूरभाष कहलवाने पर क्यों तुले हैं ? सुबह उठकर जीवन की नित्य क्रियाओं में टूथ ब्रश एवं मुंह धोने जैसी नितांत सहज अभिव्यक्तियों का प्रयोग अपने निजी जीवन व्यवहार में धड़ल्ले से करने वाले लोग साहित्य संपादन के समय दंतकुंची एवं मुख प्रक्षालन जैसी दुरूह अभिव्यक्तियों में भटक कर क्या अपने पांडित्य प्रदर्शन की पिपासा को भाषा के माध्यम से बुझाने का तुच्छ प्रयास नहीं कर रहे हैं ? निस्संदेह यदि समय रहते हमारी इस प्रकृति पर अंकुश नहीं लगा तो हम हमारी प्यारी भाषा हिन्दी को एक सार्वजनीन भाषा के रूप में भला कैसे स्थापित कर पाएँगे। हम जन सामान्य में रूढ़ हो चुके शब्दों को गृहण करने के प्रति इतने असहिष्णु क्यों हैं ? क्या अंग्रेजी भाषा ने हमारी हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं से शब्द गृहण नहीं किए एवं क्या आज भी अंग्रेजी द्वारा हिन्दी के नए-नए शब्द गृहण नहीं किए जा रहे हैं? किसी काल विशेष की भाषा तत्कालीन जन सामान्य की परिस्थिति एवं परिवेश के अनुसार निर्धारित मान्यताओं एवं ग्राह्यता पर ही आधारित रहती है न कि विद्वानों या लेखकों द्वारा जनता पर थोपी जा सकती है। क्योंकि भाषा सदैव जन सामान्य से वर्ग विशेष की ओर प्रवृत्त होती है न कि वर्ग विशेष से जन सामान्य में प्रसारित होती है।

निष्पत्ति एवं समाधान: सहिष्णुता से मेरा तात्पर्य भाषाई भ्रष्टता से कतई नहीं है। मुझे डर है कि कहीं मेरे वरिष्ठ हिन्दी कर्मी और विद्वान लेखक सहिष्णुता को भ्रष्टता का पर्याय न समझ लें। आज यदि हम वास्तव में हिन्दी को राजभाषा, राष्ट्रभाषा एवं भारत की सार्वभौमिक भाषा के रूप में स्थापित करना चाहते हैं तो हमें उसके नितांत सार्वजनीन एवं सुगम स्वरूप को ग्राह्य करना होगा। उसे सरल एवं बोधगम्य बनाना होगा। भाषायी कट्टरवादिता का मोह छोड़कर सहिष्णुता को अपनाना होगा एवं ट्यूबलाइट को नलिका- प्रकाश अथवा बैंक को अधिकोष की संज्ञा देने संबंधी दुराग्रह से बचना होगा और वहीं दूसरी ओर अन्य भाषाओं के वे शब्द जो जन सामान्य में रूढ़ हो चुके हैं उन्हें सहिष्णुता के साथ नितांत सहज एवं खुले दिल से अपनाना होगा। तभी हमारी हिन्दी को अभिव्यक्ति का साधन होने का मौलिक अधिकार प्राप्त होगा अन्यथा हमारी प्यारी भाषा हिन्दी महज़ पांडित्य प्रदर्शन का साध्य बनकर किताबों में ही दफ़्न हो जाएगी।

- संजय जोशी

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