देवनागरी लिपि : एक व्यापक दृष्टिकोण

Dr. Mulla Adam Ali
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Devanagari Lipi : Ek Vyapak Drustikon

Devanagari Lipi : Ek Vyapak Drustikon

देवनागरी लिपि : एक व्यापक दृष्टिकोण

भाषा विचारों की संवाहिका है, जबकि लिपि भाषा का लिखित एवं मूर्त रूप है। वर्णमाला और उसमें प्रयुक्त ध्वनियों की वैज्ञानिक व्यवस्था, सांकेतिक चिन्ह आदि को अंकित करना ही लिपि का मुख्य कार्य है। भारतीय लिपियों और देवनागरी लिपि के स्रोत अन्वेषण के तीन प्रमुख स्रोत उपलब्ध होते हैं। जिनमें मोहनजोदड़ों लिपि खरोष्ठी लिपि ब्राह्मी लिपि, पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष भाषा विज्ञान विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय ने यह स्वीकार किया है कि ब्राह्मी या द्रविड लिपि से इसे जोड़ना न्यायसंगत नहीं है अपितु मोहनजोदड़ों की लिपि चित्रात्मक और ध्वन्यात्मक लिपियों का मिश्रित रूप है। डॉ० सुनीति कुमार चैटर्जी, डॉ० राजवलि पाण्डेय एवं गौरीशंकर हीरानंद ओझा आदि ने देवनागरी लिपि का मोहनजोदडों की लिपि से सम्बंध स्वीकार किया है। बहुत से अन्य मत भी है लेकिन अंतत ब्राह्मी लिपि का विकास और अन्य भारतीय लिपियों के विकास के साथ-साथ देवनागरी लिपि के विकास का क्रम भी सामने आया, और इसे "देव तुल्यम् नागरं वैदर्गा या ददाति सा देवनागरी' मानकर स्वीकार किया।

नागरी लिपि का प्रारंभिक रूप सातवीं शती से आरंभ हो जाता है। नागरी लिपि में लिखा सर्वप्राचीन लेख समंगढ़ का है जो 724 ई० में राष्ट्रकूट राजा दंतिदुर्ग के काल में लिखा गया था। कुछ विद्वानों ने देवनागरी लिपि का पूर्ण विकास 8वीं से 10वीं शती के बीच माना है। ग्यारहवीं शती तक आते-जाते पूर्ण उत्तर भारत में देवनागरी का प्रयोग होने लगा। देवनागरी लिपि का प्रयोग अलाउद्दीन तथा शेरशाह के सिक्कों पर भी हुआ है। डॉ० ज्ञानशंकर पाण्डे जी के लेख नागरी लिपि और उसकी वैज्ञानिकता में स्पष्ट कहा गया है कि देवनागरी लिपि के वर्णों पर प्रारंभ में शिरोरेखा नहीं थी। अ. ध. प. म. ष, स के सिर दो भागों में बंटे थे। ग्यारहवी शताब्दी में इसका पर्याप्त विकास हुआ। बारहवीं शती तक आते-आते यह इतनी विकसित गई कि आधुनिक देवनागरी से साम्य रखने लगी थी किन्तु फिर भी इ और प की आकृति पुरानी ही थी। दसवीं शताब्दी के तो अनेक वर्ण आधुनिक देवनागरी वो वर्णों से बहुत भिन्न थे. उदाहरणार्थ आधुनिक इ पहले में अंकित होती थी। इसी प्रकार अन्य अनेक वर्णों के आज से भिन्न रूप होते थे।

आचार्य विनोबा भावे जी ने कभी कहा था कि वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को अगर वास्तविक रूप में लाना है तो सारे विश्व की भाषाओं की लिपि देवनागरी ही होनी चाहिए क्योंकि देवनागरी लिपि वैज्ञानिक स्वीकारी गई है। देवनागरी लिपि स्वाभाविक और वैज्ञानिक है। इस लिपि के अर्न्तगत जिनते भी स्वनिम हिन्दी में हैं। वे देवनागरी लिपि में शुद्ध लिखे जाते हैं। प्रत्येक वर्ण एक ही स्वनिम का प्रतिनिधित्व करता है, लिखने और बोलने में अंतर नहीं है, अत्यधिक गत्यात्मक और व्यावहारिक लिपि है। भारतवर्ष की सर्वप्रमुख लिपि होने के कारण सर्वत्र शताब्दियों से इस लिपि का प्रयोग किया जाता रहा है। भारतवर्ष की अनेकता में एकता लाने के लिए इस सर्वांगपूर्ण लिपि का विस्तार देश में हुआ है।

वैज्ञानिकता के दृष्टिकोण से सुरों का सुव्यवस्थित हस्व एवं दीर्घ का वर्गीकरण, व्यजनों का वर्गीकरण और उच्चारण प्रत्यक वर्ग की नासिक्य ध्वनियां, लिपि चिन्ह, लिपि का उच्चारण के अनुकूल लिखा जाना अनेक ध्वनि चिन्हों की सरल और सुस्पष्ट रूप विद्यमानता हिन्दी और अहिंदी भाषा क्षेत्रों में भी प्रयोग इस बात का सूचक है कि यह लिपि आक्षरिक होने के साथ-साथ वैज्ञानिक भी हैं नागरी में स्वरों की मात्राओं का वैज्ञानिक विकास संसार की सभी लिपियों से विकसित दशा में है। जहा नागरी एक और संस्कृत जैसी प्राचीन योगालक भाषा की सफल लिपि रही वहीं हिन्दी, मराठी, नेपाली आदि आधुनिक अयोगात्मक प्रवृत्ति की भाषाओं की भी सफल वाहिका है। नागरी लिपि में आदर्श वैज्ञानिक लिपि के सभी गुण विद्यमान है। विद्वानों के अनुसार नागरी चीनी एवं जापानी जैसी भाषाओं या अन्य भाषाओं की लिपियों की अपेक्षा अधिक सरल लिपि है अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सभी योग्यता प्राप्त अगर कोई लिपि है तो वह नागरी है। नागरी लिपि में वह शक्ति हैं जो स्वर व्यंजन प्राणत्व और महाप्राणत्व के आधार पर सभी भाषाओं को व्यक्त करने में समर्थ है।

वैज्ञानिक होते हुए भी नागरी लिपि की कुछ सीमाएं है कहीं-कहीं इसमें भी कमी दिखाई देती है। इसके सुधार के लिए अनेक प्रयास हुए हैं। नागरी लिपि के सुधार के लिए अनेक संस्थाओं व्यक्तियों द्वारा प्रस्ताव रखे गये और उन्हें विस्तृत रूप से जांचा भी गया जिसमे एक ध्वनि के लिए एक से अधिक चिन्ह का होना एक ध्वनि के लिए दो चिन्हों का प्रयोग होना और एक वर्ण के लिए दो या अधिक चिन्हों का होना इ की मात्रा के लगाने में क्रम में व्यतिक्रम संयुक्त ध्वनियों का प्रयोग चिन्हों की अपर्याप्तता अनुनासिक, अनुस्वार, के निर्णयहीन चिन्ह और शिरोरेखा तथा पूर्णविराम के विवादों का समाधान भी प्रस्तुत किया गया। वर्तमान स्थिति के अनुसार अन्य प्रदेशों और देशों के साथ सम्पर्क बढ़ता जा रहा है तो इस दिशा में और विवाद को देखते हुए देवनागरी लिपि में सुधार जरूरी है। डा० नरेश मिश्र ने आदर्श लिपि के गुण और लक्षण बताए हैं उनके आधार पर वर्तमान में यह लिपि खरी उतरती है।

नागरी लिपि में सुधार भिन्न विद्वानों ने करने का प्रयास किया है जिसमें मुम्बई के गोविन्द रानाडे और महाराष्ट्र के सावरकर, विनोबा भावे, काका कालेलकर आदि ने गांधी जी का पूर्ण समर्थन प्राप्त करके सुधार करने के कदम उठाये। जिसमें 1935 और 5 अक्टूबर 1941 को महात्मा गांधी के सभापतित्व में सर्वसम्मति से सुधार करने का प्रयास किया गया जिसमें शिरोरेखा का विवाद प्रत्येक वर्ण को उच्चारण क्रम में रखकर पूर्णविराम के लिए एक खड़ी रेखा का प्रयोग करना बिंदु और चंद्रबिंदु को समझाने के लिए दाहिनी तरफ से हटकर लगाना घ और ध, भ मे के क्रम को दूर करने के लिए ध तथा में को चुर्डीदर प्रयोग करना संयुक्त वर्णों का प्रयोग करना आदि जैसे सुधार प्रचलित किए गए। इसी तरह 1945 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने वर्ण और स्वर के लिए सुझाव दिए। 31 जुलाई, 1947 में उत्तरप्रदेश में नागरी सुधार हेतु नागरी सुधार समिति का गठन हुआ और उसने भी देवनागरी लिपि के लिए निम्नांकित विचार दिए। भाषा विज्ञानी डॉ० धीरेन्द्र वर्मा, डॉ० उदयनारायण तिवारी, डॉ० भोलानाथ तिवारी, डॉ० हरदेव बाहरी आदि ने व्यक्तिगत रूप से सुधार और प्रयत्न किए।

आधुनिक काल में नागरी की व्यापकता और महत्ता का प्रश्न भी उठता है, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अनेक पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित होते रहे और बहुसंख्यक लेखों में यह स्वीकार किया गया कि भारतीय भाषाओं में अधिकांश नागरी लिपि को ही माना जाए। भाषा के अन्तर्गत आने वाले अधिक से अधिक ध्वनि चिन्हों से सम्पन्न वैज्ञानिक यह लिपि भारत की भाषाओं के लिए उपयुक्त हैं। क्योंकि अलग-अलग स्वतंत्र वर्णी वर्णमाला और वर्तनी को सीखने के लिए और भाषा के शुद्ध उच्चारण के लिए नागरी सर्वश्रेष्ठ है। ब्राह्मी लिपि की उत्तराधिकारीणी होने के कारण समस्त आधुनिक लिपियों से इसका यत्किंचित साम्य है जो लिखा जाता है वही पढ़ा जाता है और वही बोला जाता है। इसका रूप भी अत्यंत प्राचीनतम बाडमय में इसी में लिपिबद्ध है, देववाणी से सम्बंद होने के कारण शास्त्रपूत है, वैज्ञानिक पद्धति से निर्मित होने के कारण सरलता से सीर ने योग्य है। संसार की कोई भी भाषा कुछ अपेक्षित परिवर्धन करके इसके माध्यम से सफलतापूर्वक लिखी जा सकती है अतः अन्तर्देशीय लिपि होने के कारण यह अन्तर्राष्ट्रीय होने के योग्य भी है। निष्कर्षतः वैज्ञानिक संतुलन और पूर्णता की विलक्षण क्षमता देवनागरी लिपि में ही सम्भव है। देवनागरी लिपि सर्वथा उपयुक्त लिपि है मेरे विचार से देवनागरी लिपि वैज्ञानिक है और वर्तमान समय के लिए उपर्युक्त और स्वाभाविक है इसे सुव्यवस्थित ढंग से प्रयोग करने पर अधिक गतिशील, प्रभावशाली, और आधुनिक रूप दिया जा सकता है। बहुभाषा भाषी देश में ऐसी लिपि के होने से और उसके साथ-साथ राजभाषा हिन्दी होने से राष्ट्र की भाषिक उन्नति के साथ-साथ राजनैतिक, आर्थिक सामाजिक उन्नति का भी मार्ग आलोकित हो सकता है। सुभाषचंद्र बोस,  आचार्य विनोबा भावे और न्यायमूर्ति शारदाचरण जैसे प्रसिद्ध भारतीयों ने तन मन धन से प्रयत्न किया कि स्वाधीन भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी हो और आंतरिक सम्पर्क की लिपि देवनागरी हो।

ऊपर कहे गये सभी विचार सत्य तो हैं लेकिन क्या हम हिन्दी और देवनागरी को अपनाने में कहीं चूक तो नहीं कर रहे कहीं भारतीय अस्मिता की पहचान में हिन्दी भाषा का और लिपि का व्यापारीकरण तो नहीं कर रहे, कहीं अंग्रेजों को अधिक और हिन्दी को कम महत्व तो नहीं दे रहे, कहीं अपने और अपने देश के साथ इस विषय में अन्याय तो नहीं कर रहे ऐसे प्रश्न बार-बार एक शिक्षाविद होन के कारण और हृदय में बार-बार उठते है मुझे शतप्रतिशत उत्तर नहीं मिल पाता लेकिन मेरा आंशिक प्रयास देश प्रदेश में यही रहा है कि अपने से अपनी भाषा से अपनी लिपि से और अपने देश से मुँह मत मोड़ों, स्वतंत्रता भारत का सपना हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि के माध्यम से ही पूर्ण होगा।

- प्रो. डा. जोगेशकौर

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