गाँधी जयंती पर विशेष : गाँधीजी का सत्याग्रह दर्शन

Dr. Mulla Adam Ali
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2 October 2024 Gandhi Jayanti : Mahatma Gandhi Birthday Special - Gandhiji's Satyagraha philosophy

Gandhiji's Satyagraha philosophy

गाँधी जयंती पर विशेष : गाँधीजी का सत्याग्रह दर्शन

आयत ललाट पर त्रिवली रेखाएँ, प्रभावशाली आँखों पर सफेद चश्मा, वृत्ताकार मुख, हलकी मूछें, वर्तुल नासिका, मनमोहक आभा इन रेखाओं से जिस महामानव का मुखचित्र बनता है, वह भारतीय प्रतिभा का सच्चा प्रतीक, सत्याग्रह, अहिंसा, अपरिग्रह, क्षमा, हरिजनोत्थान एवं राष्ट्रीय चेतना का अग्रदूत, मानवता व विश्वमैत्री का युग प्रतिनिधि मोहनदास करमचन्द गाँधी भारत के इतिहास में ही नहीं, अपितु विश्व के इतिहास में एक नवीन प्रेरणा लेकर अवतरित हुआ था। अल्बर्ट आइंस्टाइन गाँधी जी से बहुत प्रभावित थे और अपने पत्र-व्यवहार के माध्यम से वे गाँधीजी को इतना समझ गए थे कि उन्हें कहना पड़ा, "संभव है कि आगामी पीढ़ियाँ यह कठिनाई से विश्वास करें कि इस प्रकार का कोई रक्त-माँस वाला पुरुष धरती पर उत्पन्न हुआ होगा" सचमुच, गाँधीजी ने एक विशाल राष्ट्र का उत्थान करने, उसे गौरवान्वित करने, उसमें स्वाभिमान भरने और उसका स्वाधीनता संग्राम में सफलतापूर्वक नेतृत्व करने तथा उसे स्वाधीनता के द्वार तक पहुँचाने में अपना समूचा जीवन, अपनी सारी साधना और अपनी समस्त शक्ति अर्पित कर दी। भावना, ज्ञान और कर्म का समन्वय तथा मस्तिष्क, हृदय और आत्मा का ऐसा अद्भुत सामंजस्य अन्यत्र दुर्लभ ही होता है।

दरअसल, बचपन में प्राप्त सत्यनिष्ठा का विशिष्ट गुण आगे चलकर गाँधीजी के सत्याग्रह की जननी बना। रस्किन एवं टॉलस्टॉय ने उन्हें अहिंसात्मक प्रतिशोध करने की प्रेरणा दी। इस सबके सद्परिणामस्वरूप शान्तिपूर्ण वैध सत्याग्रह आन्दोलन का जन्म हुआ। तत्कालीन दक्षिण अफ्रीका की सरकार द्वारा भारतीयों पर थोपे गए अनेकों काले कानूनों के विरोध में इस सत्याग्रह अस्त्र के सफल प्रयोग हुए। फीनिक्स आश्रम की स्थापना, 'इंडियन ओपीनियन' पत्र का प्रकाशन, नेटाल-भारतीय कांग्रेस (Natal Indian Congress) की स्थापना आदि गाँधीजी के अटूट प्रयासों के नतीज़े थे। अहिंसा, ब्रह्मचर्य, तप, अस्तेय, सत्य अपरिग्रह जैसे गुणों ने उनकी प्रसिद्धि को प्रस्तारित किया। गाँधीजी ने अध्यात्म के साथ अहिंसा, अद्वैत के साथ करुणा, सत्य के साथ प्रेम और ज्ञानयोग के साथ कर्मयोग का समन्वय साधने की विराट चेष्टा की, जिससे वेदान्त तत्त्वज्ञान के साथ सामाजिक क्रान्ति और सत्य के साथ शिव का शुभ संयोग सिद्ध हो सके। कहना न होगा कि यही स्वस्थ समन्वय सत्याग्रह दर्शन का मेरुदंड है।

मोटे तोर पर सरकार या प्रतिपक्षी के आक्रमण अथवा हिंसा का जवाब निःशस्त्र रहकर हिम्मत और दृढ़ता के साथ स्वयं कष्ट सहकर सत्य (सही बात) पर डटे रहने का नाम ही सत्याग्रह है। यह एक ऐसी शक्ति है जो किसी भी प्रकार की आर्थिक या दूसरी किसी भौतिक सहायता से स्वतंत्र है। हिंसा इस महत्ती आध्यात्मिक शक्ति का तिरोभाव है। सत्याग्रह, हिंसा या सब प्रकार के अत्याचार और अनीति के लिए वही काम करता है, जो प्रकाश अन्धकार के प्रति करता है। सच्चा सत्याग्रही अपने राष्ट्र के कानूनों को भय से नहीं, बल्कि इसलिए मानता है कि वह उन्हें समाज के कल्याण के लिए हितकारी समझता है। लेकिन कभी-कभी ऐसे अवसर भी आ जाती हैं, जब कुछ कानूनों को वह अनीतिपूर्ण समझता है और फिर खुले तौर पर विनयपूर्वक उनको भंग करता है। जब सत्याग्रह की शक्ति सार्वदेशिक हो जाती है तो यह सामाजिक आदर्शों एवं व्यवस्था में क्रान्ति ला देती है। "हिन्दी स्वराज्य (1908) में गाँधीजी ने ठीक ही कहा था, 'सत्याग्रह एक ऐसी तलवार है जिसके सब ओर धार है। उसे जैसे चाहे वैसे काम में लाया जा सकता है। उस पर न तो कभी जंग लता है और न कोई उसे चुरा ही सकता है।"

गाँधीजी मानते थे कि सत्याग्रही का बल संख्या में नहीं, आत्मा में है अर्थात ईश्वर में है। अतः उसकी ईश्वर में जिन्दा श्रद्धा होनी चाहिए। सत्याग्रह स्वयं में आर्त्त हृदय की एक मूक और अचूक प्रार्थना है। यह जीने और मरने की कला सिखाता है। उल्लेखनीय है कि गीता के दूसरे अध्याय के अठारह श्लोकों में, जो प्रार्थना के समय पढ़े जाते हैं, जीवन की कला का सार समाया हुआ है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन के सवाल का जवाब देते हुए इन श्लोकों में स्थितप्रज्ञ यानी सत्याग्रही का ही वर्णन किया है। गाँधीजी की आत्मशक्ति एवं आध्यात्मिकता की संजीवनी श्रीमद्भगवतगीता ही थी। सत्याग्रह में सत्य की महत्ता को बताते हुए उन्होंने 'यंग इंडिया' (14 फरवरी, 1920) में लिखा था, “सत्याग्रह का मूलार्थ सत्य को ग्रहण करना है। सत्य के अनुगमन में विरोधी के प्रति हिंसा करने की कोई गुंजाइश नहीं है। उसकी गलती तो धैर्य और सहानुभूति के द्वारा ही दूर करनी पड़ेगी। इसलिए सत्याग्रह का यह अर्थ लिया गया है कि विरोधी को पीड़ा देकर नहीं, बल्कि स्वयं कष्ट उठाकर सत्य की रक्षा करना" जाहिर है कि गाँधीजी एक पूर्ण सत्याग्रही थे, एक पूर्ण मनुष्य भी थे। उन्होंने लोगों का हृदय बदला और विदेशी शासनवाद का अंत किया।

आध्यात्मिक कोण से देखा जाए तो गाँधीजी के सत्याग्रह में सत्य के साथ-साथ प्रेम, धर्म, अहिंसा, न्याय आदि तत्त्वों को भी स्थान मिला है। उनका मानना था कि सत्याग्रह के लिए सत्य भी चाहिए और प्रेम भी । सत्य इसलिए कि सत्य के अतिरिक्त किसी का अस्तित्व नहीं । सत्य बल ही धर्म बल है। प्रमाण साक्षी हैं कि भारतीय ऋषियों ने सत्य को धर्म के रूप में ही देखा है 'सत्यं धर्माय दृष्टये' (ईशावास्योपनिषद् 15) सत्य ही धर्म की सच्ची प्रतिष्ठा है - 'सत्यं धर्मस्य प्रतिष्ठतः' (वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकांड, 14/7)। इसलिए सत्य से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं सत्यान्नास्ति परोधर्मः (महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 162)। शतपथ ब्राह्मण में यहाँ तक कहा गया है। कि सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं, कोई नीति नहीं, कोई तप नहीं (14/3/4/ 2)। महाभारत शांतिपर्व में लिखा है कि सत्य पर ही सृष्टि संस्थित है, सत्य से ही सूर्य तपता है, वायु चलती है और सत्य पर ही स्वर्ग अधिष्ठित है (अध्याय 162)। यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस सत्य को ही ईश्वर की आत्मा मानते हैं। सुकरात के विचार में प्रकृति स्वयं सत्य का साक्ष्य है और परमेश्वर इसका साक्षी है। इसलिए जहाँ सत्य है वहीं जय है। निस्संदेह, गाँधीजी ने यूनानी दर्शन, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भगवतगीता आदि का गहन अध्ययन किया था। उनकी यह सदैव मान्यता रही है कि सत्य के साथ असत्य और न्याय के साथ अन्याय का सृष्टि में सनातन संघर्ष चलता आया है। अन्याय करने से अधिक पाप अन्याय सहना है। अन्याय के विरुद्ध लड़ते रहना एक वीरोचित जीवन दर्शन है।

गाँधीजी के प्रथम सत्याग्रह के जन्म की एक दिलचस्प गाथा है जिसे फ्रेन्च लेखिका एलेनी सेमियो ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'प्यारे बापू'-अहिंसक असहयोग की ओर (अनुवादकः सरला बहन) में बड़े मार्मिक ढंग से दर्शाया है। ऐतिहासिक तथ्य कुछ इस तरह है कि दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश सरकार ने हिन्दुस्तान से मजदूरी की खोज में जाने वाले भारतीयों के खिलाफ एक कानून बनाया था कि हर भारतीय, चाहे वह पुरुष हो, स्त्री हो एवं बच्चा हो, को साल में तीन पौंड का कर देना पड़ेगा। असल में, यह सर्वथा अमानुषिक बात थी और सरकार ने हिन्दुस्तानियों पर एक तरह की गुलामी लाद दी थी। अपने 'इंडियन 'ओपीनियन' अखबार में युवा गाँधीजी ने इस कानून का कड़ा विरोध किया। ब्रिटिश सरकार की ओर से सेनापति स्मट्स ने पक्का वायदा किया कि यह कानून रद्द कर दिया जाएगा। लेकिन यह वायदा धोखा साबित हुआ। इस पर गाँधीजी ने अपने साथियों को सम्बोधित करते हुए कहा, भाइयो, अभी सब काम बन्द करो। सब सरकारी नौकरियाँ छोड़ दो। हम ऐसी सरकार का साथ नहीं देना चाहते जो अपना वायदा तोड़ देती है। फिर धीरे-धीरे गाँधीजी ने एक शांति सेना तैयार की जो अहिंसा के द्वारा ही अंग्रेज़ों की हिंसा का सामना करने के लिए तत्पर थी। गाँधीजी ने उन्हें बताया कि अहिंसा में इस्पात से भी ज्यादा शक्ति है।

इस सत्याग्रह के संबंध में एक अन्य घटना भी घटी। उनदिनों एक मुकदमे पर उच्च न्यायालय में एक अजीब सा फैसला हुआ था कि दक्षिण अफ्रीका में इसाई रीति से हुआ विवाह ही वैध हैं। इससे भारतीय परिवारों को बहुत बड़ा धक्का लगा। फिर, न्यायाधीश के एक आदेश से भारतीय लोगों के सभी विवाह अवैध घोषित कर दिए गए। इस पर गाँधीजी ने निश्चय किया कि हम सत्याग्रह द्वारा अंग्रेजों से लड़ेंगे। उन्होंने अपने उत्साही संबोधनों वक्तव्यों से सभी भारतीयों में अहिंसात्मक असहयोग की नई ऊर्जा भर दी। गाँधीजी को यह सुखद लगा कि स्त्रियों का एक बड़ा वर्ग भी उनके साथ चल पड़ा है। इन स्त्रियों ने मजदूरों के एक बड़े वर्ग को काम न करने तथा खानों में न जाने के लिए मनवा लिया। चारों ओर से स्त्री-पुरुष मजदूर गाँधीजी के पास आए। गाँधीजी ने उन्हें प्रेम और अहिंसा का पाठ पढ़ाया। लेकिन अंग्रेजों का भारतीय मजदूरों पर अत्याचार बढ़ता गया। गाँधीजी को अपने साथियों से अलग करके जेल में डाल दिया गया। भारतीय लोग जितने ही ज्यादा सताए जाते, वे उतनी ही ज्यादा हिम्मत दिखलाते। अंत में ब्रिटिश सरकार समझ गई कि भारतीयों के साथ मनमानी करना स्वयं को व्यापारिक हानि पहुँचाना है। एक दिन सेनापति स्मट्स ने गाँधीजी को बुलाकर कहा, "यदि विलायत ने अपनी गलती समझ ली है तो हम दुबारा उनके साथ सहयोग करने को तैयार हैं।" फिर, छः महीने के अंदर ब्रिटिश सरकार ने गाँधीजी की माँगें पूरी कीं ओर उनके साथियों ने शांति से काम करना शुरू कर दिया। इस प्रकार सत्य एवं अहिंसा के शस्त्र से गाँधीजी ने अपना पहला महायुद्ध जीत लिया।

हिन्दुस्तानी कौम के इस संकल्प और विजय को आन्दोलन स्वरूप शुरू में गाँधीजी ने 'पैसिव रेजिस्टेंस' का नाम दिया। लेकिन उन्हें शीघ्र ही अहसास हो गया कि यह नाम भारतीयों की जबान पर आसानी से चढ़ नहीं सकता है। इंडियन ओपीनियन में सबसे अच्छा नाम ढूंढ़ निकालने वाले के लिए छोटे-से इनाम की घोषणा की गई। एक प्रतियोगी मगन लाल ने 'सद्ग्रह' नाम भेजा। गाँधीजी को यह नाम पसंद आया। उन्होंने 'द्' को 'त्' करके उसमें 'य' जोड़कर 'सत्याग्रह' नाम बनाया। उन्होंने सत्य में शांति का अंतर्भाव माना और आग्रह भी वस्तु का किया जाए तो उसमें से बल उत्पन्न होता है। अतः आग्रह में बल का भी समावेश किया और भारतीय आन्दोलन को 'सत्याग्रह' अर्थात् शांति से उत्पन्न होने वाले बल के नाम से पुकारना शुरू किया। गाँधीजी ने अपने लेखों में भी 'सत्याग्रह' शब्द के प्रयोग को प्रचलित कर दिया।

यह जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि गाँधीजी के इस महाआन्दोलन 'सत्याग्रह' का विदेशी भूमि पर पहला सत्याग्रह कैदी कौन था ? मालूम न हो तो बता दें कि जब एशियाटिक कार्यालय को 500 से अधिक आदमी नाम दर्ज कराने वाले नहीं मिल सके, तब उस विभाग के अफसरों ने जर्मिस्टन नगर के पंडित राम सुन्दर को, जो हिन्दुस्तानी कौम का एक प्रतिनिधि था, गिरफ्तार कर लिया और उसे एक महीने की साधारण कैद की सजा मिली। उसे जोहान्सबर्ग की जेल में रखा गया और इससे भारतीय जनता में गहरी हलचल मची। एक महीना पूरा होने पर राम सुन्दर को रिहा कर दिया गया। लेकिन गाँधीजी के विचार में वह व्यक्ति गिरमिटिया साबित हुआ। उसका सच्चा रूप प्रकट हो गया था और इसीलिए भारतीय कोम उसे भूल गई। एक अन्य प्रसंग याद करा दें कि 7 नवंबर, 1940 को पंडित जवाहर लाल नेहरू सत्याग्रह करने वाले थे। लेकिन इससे पूर्व ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। लोगों का विचार था कि प्रथम सत्याग्रही या तो कांग्रेस अध्यक्ष होंगे या कोई अन्य प्रभावशाली नेता। लेकिन गाँधीजी को पूर्ण विश्वास था कि विनोबा भावे के सिवाय उनमें से एक भी व्यक्ति उस श्रेणी में नहीं आता था। उन्होंने लिखा भी था, "मेरे बाद अहिंसा के सर्वोत्तम प्रतिपादक और उसे समझने वाले श्री विनोबा ही हैं।" वे मूर्तिमान अहिंसा हैं। उनमें मेरी अपेक्षा काम करने की दृढ़ता अधिक है। युद्ध के प्रति उनका विरोध विशुद्ध अहिंसा से उत्पन्न हुआ है। कह देना होगा कि गाँधीजी एक सच्चे निष्ठावान, वफादार, बलिदानी एवं पारदर्शिता के पारखी थे।

द्वितीय महायुद्ध (1939-1945) की लपटें एशिया में फैल चुकी थीं। जापान युद्ध में कूद पड़ा था और उससे चीन एवं पूर्वी एशिया के लिए भारी खतरा पैदा हो गया था। भारत के तत्कालीन वाइसराय लार्ड लिनलिथगो ने तार देकर गाँधीजी को मिलने के लिए बुलया। गाँधीजी तुरंत शिमला पहुँचे। बातचीत के दौरान उन्हांनेवाइसराय को आश्वासन दिया कि उनकी सहानुभूति इंग्लैंड और फ्रांस के साथ है। लेकिन अहिंसावादी होनके नाते वे मित्र राष्ट्रों का केवल नैतिक समर्थन ही कर सकते हैं। इसी संदर्भ में उन्होंने 14 अक्तूबर, 1939 के 'हरिजन' में अहिंसा के प्रति अपनी दृढ़ आस्था व्यक्त करते हुए लिखा, मेरी आस्था अकेले मुझी तक सीमित है। देखना है कि इस पर मुझ एकाकी का कोई सहयात्री है भी या नहीं। मैं तो ज़ोर देकर कहूँगा कि अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए भी भारत हिंसा का अवलंबन न करे। ब्रिटेन का भारत के प्रति रुख निर्मम और निर्दय बनता जा रहा था। तभी 17 अक्तूबर, 1940 को सत्याग्रह आन्दोलन प्रारंभ हुआ। उस दिन पहले सत्याग्रही विनोबा भावे ने यह प्रतिज्ञा दोहराते हुए कहा कि जन या धन से ब्रिटेन के युद्ध प्रयत्न में सहायता देना गलत है।

स्पष्ट है कि गाँधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में अपना पहला सफल एवं प्रभावी सत्याग्रह चलाकर जीवन में सत्य के प्रयोग को सामूहिक रूप से समाज में क्रियान्वित करने का अनुभव और साधना प्राप्त की थी। इस सत्याग्रह से गाँधीजी के आत्मविश्वास, आत्मबल, दृढ़ निश्चय एवं इच्छा शक्ति का ग्राफ बहुत ऊँचा उठ गया। दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटकर गाँधीजी ने चम्पारन (बिहार) में निलहा लोगों के कष्ट निवारण के लिए सत्याग्रह चलाया और उसमें भी सफलता प्राप्त की। 'खेड़ सत्याग्रह' गुजरात के किसानों के अकाल राहत और कर मुक्ति के लिए था। उन्होंने 'नमक सत्याग्रह' का प्रभावपूर्ण ढंग से नेतृत्व किया। उनकी दाँडी यात्रा एक ऐतिहासिक घटना बन गई। जगह-जगह नमक " बनाकर कानून तोड़ा गया। भारी संख्या में लोगों की गिरफ्तारियाँ हुई और जेलें भरी गई। अंत में ब्रिटिश सरकार को घुटने टेकने पड़े और 'गाँधी-इरविन' समझौता हुआ। उल्लेख्य है कि ये सभी सत्याग्रह गाँधीजी की सीधी देख- रेख में चलाए गए थे।

गाँधीजी के जेल चले जाने के कारण उनकी अनुपस्थिति में सरदार वल्लभभाई पटेल ने 'बोरसद सत्याग्रह' का नेतृत्व किया। बोरसद में जब डाकुओं का जोर जुल्म बढ़ गया तो सरकार ने वहाँ के लोगों पर सामूहिक कर लगा दिया। यह कर बेरहमी से वसूल किया जाने लगा। इससे लोग घबरा रहे थे। इसी समय सरदार पटेल बोरसद गए और सरकार को चुनौती दी। उन्होंने लोगों को दृढ़ रहने तथा कर न देने के लिए संगठित रहने को कहा। उन्होंने 200 स्वयंसेवकों को गाँवों में रात-दिन पहरा देने के लिए तैनात कर दिया। इस नाजुक स्थिति को देखते हुए बंबई के नए गवर्नर ने होम मेम्बर के द्वारा बोरसद की सारी स्थिति की जाँच करायी और बाद में वहाँ से तुरन्त पुलिस हटा ली गई। यहाँ भी सरकार को सत्याग्रहियों के सामने झुकना पड़ा। 'गुरु का बाग' एक दूसरा सत्याग्रह था जो गाँधीजी की अनुपस्थिति में चलाया गया। ज्ञातव्य है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी सिखों का सुधारक अकाली दल था। लेकिन गुरुद्वारे के महन्त 'उदासी' कहे जाने वाले सिखों का पक्ष लेते ।। अकाली दल गुरुद्वारों में हस्तक्षेप करना चाहता था और इसके लिए उन्होंने सत्याग्रह का आश्रय लिा था। दोनों गुटों में झगड़े की जड़ गुरुद्वारे की जमीन थी। महन्तों की शिकायत पर पुलिस सत्याग्रही अकालियों पर लाठियाँ बरसाती रही, लेकिन सत्याग्रहियों ने सहनशीलता का इतना परिचय दिया कि उनकी प्रशंसा सरकारी क्षेत्रों तक की गई। सरगंगाराम की मध्यस्थता से सत्याग्रह समाप्त हो गया।

इन सत्याग्रहों की श्रृंखला में 'झंडा सत्याग्रह' का भी विशिष्ट महत्व है। नागपुर की पुलिस ने 1 मई, 1923 को 144 धारा के तहत सिविल लाइन्स में राष्ट्रीय झंडे समेत जुलूस ले जाने पर रोक लगा दी। सरकार का कहना था कि जुलूस वालों को पूर्व अनुमति लेनी चाहिए। स्वयं सेवकों ने कहा, "हमें अधिकार है, जहाँ चाहें झंडा ले जाएँगे।" इस पर गिरफ्तारियाँ और सजाएँ आरम्भ हो गई। नागपुर के इस सत्याग्रह आन्दोलन में कांग्रेस की कार्यसमिति और महासमिति के आह्वान पर देश के कोने-कोने से सत्याग्रही आकर गिरफ्तार होने लगे और उन्हें काफी कष्ट भी दिए गए। सरदार पटेल ने इस अखिल भारतीय सत्याग्रह आन्दोलन की जिम्मेदारी लेते हुए नागपुर आकर इसका कुशल संचालन किया। अंत में 18 मई को जुलूस का मार्ग निश्चित करते हुए सत्याग्रहियों को जाने दिया गया।

इस स्थल पर एक वाजिब सवाल उठता है कि गाँधीजी के नेतृत्व एवं उनकी अनुपस्थिति में पराधीन भारत में सत्याग्रह आन्दोलन ही क्यों चलाए गए और अन्य मार्ग को क्यों नहीं चुना गया ? इस सवाल के जवाब के लिए हमें कुछेक ऐतिहासिक तथ्यों को जानना समीचीन प्रतीत होता है। मनोवौज्ञानिक कोण से देखा जाए तो अन्याय के प्रतिकार का विचार किसी व्यक्ति विशेष या देशकाल विशेष का नहीं है। यूनान में यही अहिंसक प्रतिकार सुकरात ने किया और भारत में प्रह्लाद ने भी यही रास्ता अपनाया। गैलेलियो अंतिम साँस तक अपने सत्य पर अडिग रहा कि पृथ्वी ही सूर्य के चारों ओर घूमती है। हेनरीडेविड थोरो भी हिंसा के प्रति कभी हिंसक प्रतिक्रियावादी नहीं बना। आइंस्टीन ने भी मदान्ध अमरीकी सत्ता के कम्युनिस्ट आखेटवाद को संरक्षण देने वाले नियम को अहिंसात्मक ढंग से भंग किया था। अणुशक्ति, शोषण, उत्पीड़न, वैषम्य एवं युद्ध की बर्बरता के विरुद्ध रसेल, ट्रफालगर, अल्बर्ट स्वाइत्जर, डोलची, आवे पियरे, लांजादेल वास्तो, मार्टिन लूथर किंग, जॉन बायज, एजेमस्ते आदि ने समय-समय पर जो अहिंसक संघर्ष किए, उनके सामने हिंसा की शान भी छोटी दिखाई पड़ती है। जाहिर है कि ईसा मसीह से लेकर गाँधीजी तक की इंसानियत नेसत्याग्रह का एक लंबा और कष्टमय रास्ता तय किया। गाँधीजी के सामने ईसा मसीह का यह शांतिपूर्ण प्रतीकारात्मक कथन, "हे ईश्वर इन लोगों को माफ कर देना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं ?" एक प्रेरणादायी विचार था। वे ईसा मसीह को शुद्ध सत्याग्रह का नेता मानते थे।

गाँधीजी यह सच्चाई भी भलीभाँति समझते थे कि सुव्यवस्थित राज्यतंत्र में हर वक्त यकायक बगावत करके ही हक हासिल करने का तरीका चल नहीं सकता। उन्होंने यह भी अच्छी तरह से जान लिया था कि किसी आन्दोलन को विजयी बनाने में शस्त्र बल की अपेक्षा आत्मबल अधिक कारगर सिद्ध हुआ है। उनका वैचारिक निष्कर्ष था कि सत्याग्रह में स्वयं दुःख झेलकर विरोधी को जीत लेने की मारक सोच होती है। इसीलिए अन्याय का प्रतिकार करना केवल जन्मसिद्ध अधिकार ही नहीं, बल्कि मनुष्य का धर्म और कर्तव्य भी है। इसलिए गाँधीजी ने अन्याय से लड़ने के लिए नीति बल पर आधारित अहिंसक युद्ध प्रणाली का आविष्कार किया, जिसे 'सत्याग्रह' कहा गया।

यहाँ विशेष रूप से स्मरणीय है कि मानव सभ्यता के प्रारंभ से ही सत्य, अहिंसा और प्रेम तीनों शक्तियाँ मानवीय व्यवहार का अविच्छिन्न अंग रही हैं। हर युग में इनकी महत्ता, उपयोगिता, सार्थकता एवं प्रासंगिकता विद्यमान रही है। सत्य में शांति है, अहिंसा में विनम्रता है। और प्रेम में करुणा है। असत्य, हिंसा एवं नफ़रत ने 20वीं सदी में जितना नरसंहार किया है, उतना पूर्व की समस्त सदियों का मिलाकर भी नहीं हुआ है। गाँधीजी के सामने अपने युग का मानव मानचित्र स्पष्ट था और उन्होंने भी असहनीय ज्यादतियों को सहा था। लेकिन पराधीन भारत में उनके सत्याग्रह के प्रयोग सफल होते चले गए। उनका हृदय, विचार एवं कार्य विशुद्ध एवं उद्देश्यपरक थे। इच्छाशक्ति संपन्न एवं दृढ़ निश्चयी जनाधार था। तत्कालीन भारत में अन्याय, शोषण, दमन एवं स्वार्थसिद्धि केन्द्रीय तत्व थे। लेकिन आज इस आज़ाद देश में अर्थ एवं भ्रष्टाचार केन्द्र में हैं। नई सदी के इस देश का यह नया चेहरा है। लेकिन इस चेहरे के पीछे छिपा एक और भी छद्म चेहरा है जिसे जनता के सामने लाने में पिछले दिनों सफल अहिंसक प्रयोग भी किया गया है। इस प्रयोग से गाँधीजी की सत्याग्रह की सार्थकता एवं प्रासंगिता स्वतः सिद्ध होती है। किन्तु वर्तमान भारतीय शासन नीति तत्कालीन ब्रिटिश शासन नीति से बहुत भिन्न है। इसे गाँधी टोपी एवं धोती पहनकर हर कोई नहीं समझ सकता है। फिर भी, अनुकूल तापक्रम की सच्चाई यह है कि इस नई सदी में भारत की सुव्यवस्था, अभ्रष्टाचारी राजनीति, स्वस्थ एवं स्वच्छ प्रशासन अहिंसक प्रतिशोध एवं सत्य आग्रहों के रणक्षेत्रों में ही पड़ा है।

- डॉ. अमरसिंह वधान

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