हिन्दी साहित्य में प्रकृति चित्रण : Hindi Sahitya Mein Prakriti Chitran

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Sahitya Mein Prakriti Chitran

Hindi Sahitya Mein Prakriti Chitran

हिन्दी साहित्य में प्रकृति चित्रण

प्रकृति और मनुष्य

प्रकृति और मनुष्य का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। सृष्टि के प्रत्यूषकाल में जब आदि मानव ने नेत्रोन्मीलन किया होगा तो उसे सर्वप्रथम प्रकृति का ही सहयोग एवं साहचर्य प्राप्त हुआ होगा। इतना ही नहीं, प्राकृतिक तत्त्वों के पारस्परिक घात- प्रतिघात से मानव देह का निर्माण हुआ है। मनुष्य के मानसिक एवं बौद्धिक विकास में भी प्रकृति का बहुत बड़ा हाथ है। प्रकृति के अद्भुत कार्य-कलाप को देखकर मानव की भय, विस्मय, प्रेम आदि विविध भावनाओं का विकास हुआ है। प्रकृति की नियमितता एवं अनुशासनबद्धता को देखकर मनुष्य की ज्ञानविज्ञानात्मिका बुद्धि विकसित हुई है। दार्शनिक दृष्टि से भी प्रकृति का विशिष्ट महत्त्व है। सत्रूपी प्रकृति, चित्त रूपी जीव और आनन्द रूपी परमतत्त्व - इन तीनों के संयोग से सच्चिदानन्द परमेश्वर की सत्ता मूर्त रूप धारण करती है। इस प्रकार मानव और प्रकृति का सम्बन्ध चिरन्तन और शाश्वत है। महादेवी वर्मा प्रकृति और मनुष्य के इस सम्बन्ध के विषय में लिखती है- "दृश्य प्रकृति मानव जीवन को अथ से इति तक चक्रवात की तरह घेरे रही है। प्रकृति के विविध कोमल पुरुष, सुन्दर - विरुप, व्यक्त- रहस्यमय रूपों के आकर्षण - विकर्षण ने मानव की बुद्धि और हृदय को कितना परिष्कार और विस्तार दिया है, इसका लेखा- जोखा करने पर मनुष्य प्रकृति का सबसे अधिक ऋणी ठहरेगा। वस्तुतः संस्कार-क्रम में मानव जाति का भावजगत् ही नहीं, उसके चिन्तन की दिशाएं भी प्रकृति से विविध रुपात्मक परिचय द्वारा तथा उससे उत्पन्न अनुभूतियों से प्रभावित है।

साहित्य और प्रकृति

साहित्य में जीवन की व्याख्या होती है और प्रकृति मानव जीवन का अभिन्न अंग है। अतः वह मानवीय जीवन की व्याख्या का एक अनिवार्य उपादान बन जाती है। फिर भावुक साहित्यकार का तो प्रकृति से अत्यन्त अविच्छिन्न सम्बन्ध है। प्रकृति कवि के लिए सृजन की अद्वितीय प्रेरणा है, वह उसके काव्य का वर्ण्य विषय भी बनी है। प्रकृति से कवि सन्देश भी सुनता है, वह उसके लिए शिक्षिका बन जाती है । पन्त जैसे कवियों के लिए वह काव्य की प्रेरणा है। वे लिखते हैं-"मेरे किशोर प्राण मूक कवि को बाहर लाने का सर्वाधिक श्रेय मेरी जन्मभूमि के उस नैसर्गिक सौन्दर्य को है, जिसकी गोद में पलकर बड़ा हुआ हूँ ।... प्रकृति निरीक्षण और प्रकृति-प्रेम मेरे स्वभाव के अभिन्न अंग ही बन गए हैं, जिनसे मुझे जीवन के अनेक संकट- क्षणों में अमोघ सान्त्वना मिली है।" इसी प्रकार अंग्रेजी के सुविख्यात कवि वर्ड्सवर्थं प्रकृति से सन्देश सुनते हैं, प्रकृति उनके लिए शिक्षिका का रूप धारण कर लेती है और वे उससे तादात्म्य स्थापित करते हैं। प्रकृति के विविध रूप तथा उसका विपुल विस्तार साहित्यकार के लिए विश्व काव्य के सुन्दर पृष्ठों के समान है। प्रकृति से हटकर कवि कवि नहीं रहता। मोहन राकेश ने 'आषाढ़ का एक दिन' में कालिदास के माध्यम से इसी तथ्य की व्यंजना की है। वस्तुतः भावुक साहित्यकार के हृदय में प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति सहज और स्वाभाविक आकर्षण होता है। इसी सौन्दर्यानुभूति के विषय में मोहन राकेश की 'मल्लिका' कहती है-"सौन्दर्य का साक्षात्कार मैंने कभी नहीं किया। जैसे वह सौन्दर्य अस्पृश्य होते हुए भी माँसल हो ।... तभी मुझे अनुभव हुआ कि वह क्या है जो भावना को कविता का रूप देता है।"

काव्य में प्रकृति-प्रयोग के विविध रूप :- हिन्दी के कवियों ने प्रकृति को अनेक रूपों में चित्रित किया है। विवेचन की सुविधा के लिए प्रकृति-प्रयोग को निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-क) आलम्बन रूप में, ख) उद्दीपन रूप में, ग) मानवीकरण रूप में, घ) उपदेशिका रूप में, ङ) रहस्यात्मक रूप में, च) पृष्ठभूमि और वातावरण निर्माण के रूप में, छ) आलंकारिक रूप में ज) प्रतीकात्मक रूप में, झ) दूती रूप में।

क) आलम्बन रूप में जब कवि प्रकृति में किसी प्रकार की भावना का अव्याहार न करके उसका यथातथ्य वर्णन करता है तो वह प्रकृति कवि के लिए साधन न बनकर साध्य बन जाती है। उसका मन प्राकृतिक सौन्दर्य पर रीझ उठता है, उसमें तल्लीनता अनुभव करता है और हृदय की मुक्तावस्था को प्राप्त होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल प्रकृति के इस आलम्बन रूप में चित्रण को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। छायावादी कवियों ने प्रकृति के कोमल और कठोर दोनों रूपों के आलम्बन चित्र प्रस्तुत किए हैं। सुमित्रानन्दन पंत संश्लिष्ट चित्र प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त हैं। एक उदाहरण दृष्टव्य है-

"पावस ऋतु थी पर्वत प्रदेश,

पल-पल परिवर्तन प्रकृति वेश,

मेखलाकार पर्वत अपार

अपने सहस्र हग सुमन फाड़,

अवलोक रहा है बार-बार

नीचे जल में निज महाकार,

जिसके चरणों में पला ताल,

दर्पण सा फैला है विशाल।"

ख) उद्दीपन रूप में जब प्रकृति का उपयोग भावनाओं को उद्दीप्त करने के लिए किया जाता है, तो वह उसका उद्दीपन रूप होता है। काव्य में प्रकृति का यही रूप सर्वाधिक वर्णित है। श्रृंगार-प्रधान रचनाओं में उद्दीपन रूप का प्राधान्य रहता है। 'सूरसागर' से विप्रलम्भ श्रृंगार को उद्दीप्त करने वाला एक प्रकृति-चित्र उदाहरणार्थ देखिये-

"बिनु गोपाल बैरिन भइ कुँजै।

तब ये लता लगति अति सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पँजै। वृथा बहति जमुना खग बोलत, बूथा कमल फूले अलि गूँजै।"

ग) मानवीकरण रूप में प्रकृति में चेतन सत्ता का - आरोपण मानवीकरण कहलाता है। भावुक कवि को प्रकृति मानव की तरह सभी क्रिया-कलाप करती प्रतीत है। निराला की 'जूही की कली', पन्त की 'बादल', प्रसाद की 'किरण' और महादेवी की 'बसन्त रजनी' आदि कविताओं में प्रकृति का सुन्दर मानवीकरण मिलता है। 'जूही की कली' का एक अंश उदाहरणार्थ प्रस्तुत है-

"विजय वन वल्लरी पर

सोती थी सुहागभरी

स्नेह स्वप्न मग्न

कोमल तन तरुणी जुही की कली

हग बन्द किए शिथिल पत्रक में।"

घ) उपदेशिका रूप में काव्य में प्रकृति का इस रूप - में चित्रण बहुत पुराना है। भावुक कवि प्रकृति को शिक्षिका मानता है और प्रकृति की सामान्यतम वस्तु उसी बड़े-बड़े युग पुरुषों एवं ऋषियों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण शिक्षा दे सकने में समर्थ प्रतीत होती है। कबीर, तुलसी, बिहारी आदि प्राचीन कवियों के काव्य में प्रकृति उपदेशिका रूप में अंकित है। तुलसी का वर्षा वर्णन और शरद्-वर्णन इस विषय में दृष्टव्य है । पन्त 'गाता खग' कविता से हँसमुख प्रसूतों से शिक्षा लेते हुए कह उठते हैं-

"हँसमुख प्रसून सिखलाते

पल भर है, जो हँस पाओ।

अपने उर की सौरभ से,

जग का आँगन भर जाओ।"

ङ) रहस्यात्मक रूप में प्रकृति में रहस्य-दर्शन की परम्परा अति प्राचीन है। आधुनिक कवियों ने भी प्रकृति के रहस्य, जिज्ञासा एवं कौतूहल मूलक रूप में भव्य अंकन किया है। सूफी कवि जायसी 'रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोति' आदि पंक्तियों में प्रकृति के माध्यम से अव्यक्त सत्ता की ओर संकेत करते हैं। पन्त ने प्रकृति में जिज्ञासा एवं कुतूहल - सम्पन्न रहस्य भावना को अभिव्यक्ति दी है। 'मौन निमंत्रण' कविता से एक उदाहरण देखिये -

"स्तब्ध ज्योत्स्ना में जब संसार,

चकित रहता शिशु-सा नादान!

विश्व के पलकों पर सुकुमार

विचरते हैं जब स्वप्न अजान!

न जाने नक्षत्रों से कौन,

निमंत्रण देता मुझको मौन।"

च) पृष्ठभूमि एवं वातावरण निर्माण के रूप में - भावों को अतिशय प्रभावोत्पादकता प्रदान करने के लिए प्रकृति का इन रूपों में चित्रण किया जाता है। इसमें वस्तुओं के वर्णन पर कवि की दृष्टि अधिक नहीं रहती। उसका ध्यान उस वातावरण के चित्रण पर अधिक रहता है, जिसका सम्पूर्ण अंग वे वस्तुएं हैं। 'कामायनी' में जल-प्लावन के अनन्तर मानव-सभ्यता के विकास की पृष्ठभूमि का वर्णन किया गया है।

"उषा सुनहले तीर बरसती

जयलक्ष्मी-सी उदित हुई।

उधर पराजित कालरात्रि भी,

जल में अन्तर्निहित हुई।"

पन्त की 'एक तारा', 'ग्रन्थि' एवं 'नौका विहार' में प्रकृति को वातावरण निर्माण के रूप में अंकित किया गया है।

छ) आलंकारिक रूप में - आलंकारिक रूप में प्रकृति का वर्णन करते हुए भावुक कवि प्रायः उपमानों को प्रकृति के क्षेत्र से संगृहीत करते हैं। प्राचीन कवियों ने भी प्रकृति के क्षेत्र से उपमानों का चयन कर भाव एवं वस्तु-वर्णन को अलंकृत किया है। खंजन, मौन, कमल, चंद्रमा, भ्रमर आदि उपमान मध्यकालीन काव्य में प्रचुरता से प्रयुक्त हुए हैं। आधुनिक छायावादी कवियों ने प्रकृति के क्षेत्र से नये उपमानों की खोज की है। उदाहरणार्थ -

"मेरा पावस ऋतु जीवन,

मानस-सा उमड़ा अपार मन।

गहरे धुंधले धुले साँवले,

मेघों से मेरे भरे नयन।" (पन्त)

ज) प्रतीकात्मक रूप में - उपमानों की तरह प्रकृति के क्षेत्र से कवियों ने प्रतीकों को भी ग्रहण किया है। महादेवी के निम्नांकित गीतांश में प्राकृतिक पदार्थों का प्रतीक रूप में प्रयोग द्रष्टव्य है -

"नयन में जिसके जलद वह तृषित चातक हूँ।

शलभ जिसके प्राण में वह निठुर दीपक हूँ।

फूल को उर में छिपाये विकल बुलबुल हूँ।"

झ) दूती रूप में प्रकृति को दूत बनाकर उसके माध्यम से संदेश भेजने की प्रवृत्ति संस्कृत एवं हिन्दी साहित्य में पर्याप्त रूप में मिलती है। कालिदास के 'मेघदूत' में विरही पक्ष बादल को दूत बनाकर उसके माध्यम से अपनी प्रिया के पास संदेश भेजता है। हरिऔध के 'प्रिय प्रवास' में राधा पवन से दूत का कार्य लेती है -

"मेरे प्यारे नवजलद से कंज से नेत्र वाले।

जाके आये न मधुवन से औ, न भेजा संदेशा।

मैं रो-रो के प्रिय विरह से बावली हो रही हूँ।

जाके मेरी सब दुःख-कथा श्याम को तू सुना दे॥"

उपर्युक्त पंक्तियों में प्रकृति के कतिपय रूपों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। इन भेदों के अतिरिक्त नारी रूप में प्रकृति चित्रण, संवेदनात्मक रूप में प्रकृति-चित्रण, राष्ट्र-प्रेम की अभिव्यक्ति हेतु प्रकृति चित्रण आदि प्रकृति-प्रयोग के अन्य रूप भी हो सकते हैं। वस्तुतः काव्य के विकास के साथ-साथ प्रकृति चित्रण के अनेक नये रूपों की उद्भावना होती रहती है।

हिन्दी काव्य में प्रकृति चित्रण का विकास

संस्कृत-साहित्य में प्रकृति-चित्रण की परम्परा अत्यन्त समृद्ध रही है। संस्कृत महाकाव्यों एवं नाटकों में प्रकृति-वर्णन अत्यन्त मार्मिक एवं अनुरंजनकारी रूप में प्राप्त होता है। वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति आदि से दृश्य-चित्रण में अपनी अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन कवियों ने प्रकृति-चित्रण को अपने काव्य का नित्य लक्षण ही बना लिया था। संस्कृत के परवर्ती साहित्यकारों भारवि, माघ, बाण आदि ने प्रकृति का अलंकारिक रूप में अंकन किया है। प्राकृत एवं अपभ्रंश की रचनाओं में संस्कृत काव्यों की अपेक्षा प्रकृति-चित्रण अत्यन्त गौण है।

प्राचीन हिन्दी काव्य में प्रकृति का प्रयोग उद्दीपन एवं अलंकरण हेतु ही किया है। कतिपय कवियों ने आलम्बनगत चित्र भी अंकित किए हैं, फिर भी आधुनिक काल से पूर्व प्रकृति का स्वतंत्र एवं पूर्ण व्यक्तित्व हिन्दी काव्य में नहीं उभर सका। वस्तुतः मध्ययुगीन हिन्दी - काव्य में प्रकृति साध्य न होकर साधन ही रही है तथा कवियों के प्रकृति-वर्णन उनके प्रकृति के प्रति शुद्ध अनुराग को व्यक्त नहीं करते।

आदिकालीन विकसनशील महाकाव्य 'पृथ्वीराजरासो' में प्रकृति का उपयोग केवल अप्रस्तुत विधान के लिए हुआ है । चन्दबरदाई ने पद्मिनी, शशिव्रता आदि नायिकाओं के सौन्दर्य-चित्रण में प्राकृतिक उपमानों की योजना की गई है। मैथिलकोकिल विद्यापति ने श्रृंगार रस के उद्दीपन के लिए प्रकृति का उपयोग किया है।

भक्तिकालीन - सन्तकाव्य में जगत् और प्रकृति को मिथ्या स्वीकारा गया है अतः प्रकृति के प्रति शुद्ध अनुराग की भावना इस काव्य में सुलभ नहीं। फिर भी संत कवियों ने अलंकार, प्रतीक, रहस्य भावना एवं उपदेशमूलक रूप में प्रकृति का उपयोग किया है। डॉ. खण्डेलवाल के अनुसार 'मर्मस्पर्शी प्रतीकों का प्रयोग इनकी एक बड़ी विशेषता है।' सूफी काव्य में प्रकृति-वर्णन प्रेम-निरूपण के प्रसंगों में है। जायसी ने प्रकृति को संयोग में आनन्ददायिनी तथा विप्रलम्भ में दुःखदायिनी रूप में अंकित किया है। रहस्यात्मक रूप में प्रकृति-वर्णन 'पद्मावत' की महती विशेषता है। सिंहलद्वीप के वर्णन में जायसी ने प्रकृति के आलम्बनगत चित्रण भी किये हैं। 'पद्मावत' से प्रकृति के रहस्यात्मक रूप का एक उदाहरण देखिये -

"रवि ससि नखत दियहिं ओहि जोती

 रतन पदारथ मानिक मोती।

जहँ जहँ विहँसि सुभावहि हँसी।

तहँ तहँ छिटकी जोती परगसी॥"

भक्तिकालीन कृष्णकाव्य प्रकृति-वैभव से सम्पन्न है, सूरदास, नन्ददास, रसखान आदि कवियों को प्रकृति कृष्ण के कारण प्रिय है। भक्तिभावना के प्रकाश में इन कवियों ने वृन्दावन, यमुना, कुंज, मधुवन आदि के रम्य चित्र अंकित किये हैं। अप्रस्तुत विधान के लिए प्रकृति-प्रयोग में कृष्ण भक्त कवियों ने रूढ़ एवं परम्परागत उपमानों को संजोया है। सूर के पदों में प्रकृति के उद्दीपनकारी रूप अंकित हुए हैं। उन्होंने पशु- प्रकृति का मनोविज्ञान सम्मत चित्रण किया है। रामकाव्य के सर्वश्रेष्ठ कवि गोस्वामी तुलसीदास को राम के नाते जगत के सभी पदार्थ प्रिय एवं पूज्य हैं। 'रामचरितमानस' में 'वर्षा वर्णन' तथा 'शरद वर्णन' में प्रकृति उपदेशिका रूप में अंकित है।

रीतिकाल - हिन्दी-काव्य में प्रधानतः श्रृंगार रस का 1 है। इस काल में केशव, बिहारी, देव, सेनापति आदि ने युग प्रकृति के सुन्दर चित्र उरेहे हैं। बिहारी और सेनापति को प्रकृति चित्रण में विशेष सफलता मिली है। बिहारी आलम्बन, मानवीकरण, अन्योक्तिपरक तथा उद्दीपन रूप में प्रकृति के चित्रण किए हैं। 'जेठ की दुपहरी' का एक चित्र प्रस्तुत है -

"बैठ रही सघन बन, पैठ सदन तन माँह।

देखि दुहपरी जेठ की, छाँहो चाहति छाँह।"

सेनापति की दृष्टि प्रकृति पर्यवेक्षण के प्रति अधिक सजग है। प्रकृति के मानव-निरपेक्ष चित्रणों में सेनापति मध्ययुगीन कवियों में सर्वश्रेष्ठ है। शरद् के आगमन का एक चित्र द्रष्टव्य है -

"पाउस निकास तातै पायो अवकास, भयो

जोन्ह कौं प्रकाश सोभा रमनीय कौं।

विमल अकास, होता बारिज बिकास, सेना-

पति फूले कास हित हंसन के हिय कौं।

छिति न गरद, मानो रंग है हरद सालि,

सोहत जरद, को मिलावै हरि पीय कौं।

मत है दुरदख, मिटयौ खंजन दरद, रितु

आई है सरद, सुखदायी सब जिय कौं।'

आधुनिक काव्य का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के आविर्भाव से माना जाता है। भारतेन्दु-युगीन काव्य में प्राचीन और नवीन काव्य- - प्रवृत्तियों का समन्वय देखा जा सकता है। इस युग में प्रकृति चित्रण प्रधानतः परम्परागत रूप में ही उपलब्ध होता है । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, ठाकुर जगमोहनसिंह आदि ने कुछ आधुनिक ढंग की प्रकृति-चित्रण सम्बन्धी कविताएँ भी लिखी हैं। । इस दिशा में भारतेन्दुरचित 'गंगा वर्णन' और 'यमुना वर्णन' उल्लेखनीय है। भारतेन्दु युग एवं द्विवेदी युग के स्वच्छन्दतावादी कवियों श्रीधर पाठक, रूपनारायण पाण्डेय, मुकुट घर पाण्डेय और रामनरेश त्रिपाठी ने प्रकृति के सुन्दर आलम्बनगत चित्र प्रस्तुत किए हैं। इन स्वच्छन्दतावादी कवियों के प्रकृति-चित्रण के विषय में आचार्य शुक्ल का कथन है- "इन स्वच्छन्दतावादी कवियों ने प्रकृति के रुढ़बद्ध रूपों तक ही सीमित न रहकर अपनी आँखों से भी उसके रूप को देखा। ये कवि जगत् और जीवन के विस्तृत क्षेत्र के बीच नई कविता का संचार चाहते थे। ये प्रकृति के साधारण, असाधारण सब रूपों पर प्रेम दृष्टि ढालकर, उसके रहस्य भरे सच्चे संकेतों को परखकर, भाषा को अधिक चित्रमय, सजीव और मार्मिक रूप देकर कविता का एक अकृत्रिम स्वच्छन्द मार्ग निकाल रहे थे।" द्विवेदीयुग में अयोध्यासिंह उपाध्याय तथा मैथिलीशरण गुप्त के महाकाव्यों तथा अन्य काव्यकृतियों में भी प्राकृतिक दृश्य के अंकन के साथ प्रारम्भ होता है। गुप्त जी की 'संकेत', 'पंचवटी' और 'यशोधरा' आदि कृतियों में भी प्रकृति के कई भव्य चित्र हैं। सामान्यतः इन कवियों का प्रकृति-चित्रण प्रकृति के बाह्य- सौन्दर्य की झलक ही प्रस्तुत करता है इन कवियों ने प्रकृति की अन्तरात्मा तक पहुँचने का प्रयास कम ही किया है।

आधुनिक युग में छायावादी काव्य को 'प्रकृति काव्य' की संज्ञा दी गई है। वस्तुतः छायावादी काव्य में ही प्रकृति को स्वच्छन्द व्यक्तित्व प्राप्त हुआ है। प्रकृति को प्रायः सभी रूपों में छायावादी कवियों ने अंकित किया है। यदि छायावादी काव्य से प्रकृति तत्त्व को निकाल दिया जाय तो वह पंगु हो जाएगा। प्रकृति छायावादी काव्य की प्रेरणा और धड़कती हुई चेतना है। छायावाद और प्रकृति के सम्बन्ध का स्पष्टीकरण करती हुई महादेवी वर्मा लिखती हैं-

"छायावाद ने मनुष्य के हृदय और प्रकृति के उस सम्बन्ध में प्राण ढाल दिये जो प्राचीन काल से बिम्ब प्रतिबिम्ब के रूप में चला आ रहा था और जिसके कारण मनुष्य को अपने दुःख में प्रकृति उदास और सुख में पुलकित जान पड़ती थी ।...... जब प्रकृति की अनेक रुपता में, परिवर्तनशील विभन्नता में कवि ने ऐसा तारतम्य खोजने का प्रयास किया, जिसका एक छोर असीम चेतन और दूसरा उसके समीप हृदय में समाया हुआ था, तब प्रकृति का एक-एक अंश एक अलौकिक व्यक्तित्व लेकर जाग उठा।"

छायावादी कवियों में पन्त प्रकृति के सुकुमार कवि हैं। उन्हें प्रकृति से ही काव्य-प्रेरणा प्राप्त हुई है। प्रकृति कवि की 'बाल सहचरी', 'स्वप्नप्रिया' एवं 'कलामुकुर' है। पंत प्रकृति के मंजुल रूप का प्रतिनिधित्व करने वाले कवि हैं। प्रसाद ने 'कामायनी', 'झरना', 'लहर' आदि रचनाओं में मानव की सुख दुःखमयी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए प्रकृति का उपयोग किया है। उनका समस्त काव्य प्रकृति की चेतना से अनुप्राणित है। निराला का प्रकृति-चित्रण अपनी विराटता एवं उदारता की दृष्टि से महनीय है। महादेवी वर्मा प्रकृति में एक ओर विराट की छाया देखती है और दूसरी ओर अपनी छाया भी। इसे प्रकृति से तादात्मय की संज्ञा भी दी जा सकती है। डॉ. पद्मसिंह शर्मा 'कमलेश' के शब्दों में "प्रकृति महादेवी के लिए श्रृंगार की वस्तु है, प्रियतम की ओर संकेत करने वाली सहचरी है, उसकी आत्मा छाया है, ब्रह्म की छाया है, उसके जीवन का अपरिहार्य अंश है।" वस्तुतः छायावादी काव्य के प्रकृति-चित्रण विषय दो-तीन उदाहरण प्रस्तुत हैं।

क) "कहो, तुम रुपसि कौन?

व्योम से उतर रही चुपचाप।

छिपी निज छाया छवि में आप,

सुनहला फैला केश कलाप,

मधुर, मन्थर, मृदु मौन!" (पंत)

ख) "हाहाकार हुआ क्रन्दनमय कठिन कुलिश होते थे चूर।

हुए दिगंत बधिर, भीषण रव बार-बार होता था क्रूर।

दिग्दाहों के धूम 'उठे या जलधर उठे क्षितिज तट के।

गगन में भीम प्रकम्पन झंझा के चलते झटके॥" (प्रसाद)

ग) "प्रिय सांध्य गगन, मेरा जीवन!

यह क्षितिज बना धुँधता विराग,

नव अरुण- अरुण मेरा सुहाग

छाया-सी काया वीतराग,

सुधि भीने स्वप्न रंगीले धन,

साधों का आज सुनहलापन,

घिरता विषाद का तिमिर गहन,

संध्या का नभ से मूक मिलन 

यह अश्रुमयी हँसती चितवन।" (महादेवी वर्मा)

छायावाद के अनंतर हिन्दी में प्रगतिवादी काव्य का उन्नयन होता है। प्रगतिवादी कवियों में पंत, प्रसाद, मिलिन्द, नागार्जुन, शिवमंगल सिंह सुमन, डॉ. रामविलास शर्मा, रांगेय राघव, शोल, त्रिलोचन, भट्ट, नरेन्द्र शर्मा आदि उल्लेखनीय है। प्रगतिवादी कवियों की ग्रामीण वातावरण के प्रति विशेष सहानुभूति है। इन कवियों ने ग्राम-श्री के सजीव चित्र प्रस्तुत किये हैं। प्रगतिवादी कवियों ने प्रकृति का प्रतीकात्मक रुप में उपयोग किया है तथा प्रकृति के क्षेत्र से उपमानों का भी चयन किया है। केदार नाथ अग्रवाल का फसलों के स्वयंवर से सम्बन्धित निम्नलिखित प्रकृति चित्र दृष्टव्य है -

"एक बित्ते के बराबर यह हरा ठिगना चना,

बाँधे मुरैठा शीश पर छोटे गुलाबी फूल का,

सज कर खड़ा है,

और सरसों की न पूछो, हो गई सबसे सयानी

हाथ पीले कर लिए हैं, ब्याह मंडप में पधारी,

देखता हूँ मैं स्वयंवर हो रहा है।"

ग्राम-प्रकृति के भव्य, सजीव और यथार्थ वर्णन प्रगतिवादी कवियों की प्रकृति-चित्रण क्षेत्र में महती देन है।

प्रयोगवाद और नई कविता में प्रकृति के परम्परागत रूपों का अभाव है। प्रकृति के भव्य बिम्बात्मक चित्रणों की दृष्टि से नये कवियों को विशेष सफलता मिली है। अज्ञेय का एक बिम्बात्मक चित्रण देखिए -

"क्षण भर देख सकें

आकाश, धरा

दुर्वा, मेघाली

पौधे

लता दोलती

फूल

झरे पत्ते

तितली भुनगे

फुनगी पर पूँछ उठाकर इतराती छोटी सी चिड़िया।"

अज्ञेय ने यहाँ बिम्बात्मक दृश्य अंकन किया है। विशिष्टता यह है कि वह दृश्य की एक-एक वस्तु की तालिका सी देते हुए ऐसा उल्लेख कर देते हैं, जिससे समस्त चित्र सजीव बन जाता है। "पूँछ उठाकर इतराती चिड़िया" एक ऐसा ही बिम्ब प्रस्तुत करती है।

इस प्रकार आदिकाल से लेकर आधुनातन हिन्दी काव्य में प्रकृति-वर्णन विविध रूपों में होता रहा है। प्रत्येक युग के साहित्यकार ने अपने युगबोध, परिस्थितियों एवं निजी दृष्टिकोण के अनुसार प्रकृति-चित्रण किया है। इसी से हिन्दी काव्य में प्रकृति-चित्रण वैविध्यपूर्ण एवं अनेकोन्मुखी है। आधुनिक युग में विशेष रूप से छायावादी काव्य में प्रकृति के प्रति कवि का सर्वाधिक आकर्षण रहा है। यही कारण है कि मानव और प्रकृति में तादात्मय स्थापित करने में छायावादी कवि सर्वाधिक सफल हुआ है। छायावादी कवियों ने संवेदनशील हृदय से प्रकृति को नित नव्य रुप प्रदान किया है। छायावादोत्तर काव्य में ग्राम- प्रकृति के अंकन की विशिष्टता भी दर्शनीय है जिसे पंत के शब्दों में 'विश्व को ग्रामीण नयन से देखना' कहा जा सकता है।

- सी. एच. चन्द्रय्या

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