लघुकथा : सृजनात्मक संभावनाएँ और शिल्प

Dr. Mulla Adam Ali
0

Short Story : Creative Possibilities and Craft

Short Story Creative Possibilities and Craft

लघुकथा : सृजनात्मक संभावनाएँ और शिल्प

- बी. एल. आच्छा

     लघुकथा का सामयिक रूप अनेक सृजनात्मक संभावनाओं से उर्वर है। यों उसके मूल में दृष्टांत भी है, बोध भी, किस्सागोई भी है, कहीं चुटकुला भी। कहीं पंचतंत्र- शिल्प में मानवीय सरोकारों का चेतन पक्ष भी। इन सब को पचाकर लघुकथा इन आदिम रूपों से नितांत नए रूप में उभर कर आई है; जहाँ यथार्थ है, जीवन का कथा स्वर है, संगति- विसंगति के संवेदनात्मक बोध हैं, शिल्प का प्रयोगी रूप है, तर्क और विमर्श का निवेश है, बदलाव की चेतना है, जड़ताओं से टकराने का माद्दा है, पात्रों के मनोविज्ञान की बुनावट है। और ऐसा भी नहीं कि उसके कि तीखे-तुर्श या भावतरल स्पर्श का अंश इन लघु कथाओं का विषय है, जो अन्य विधाओं का अवशिष्ट है ।अपने लघु आकार में काल की छलाँग लगाकर अतीत और वर्तमान को आज के धरातल पर समांतर रूप से लाने की क्षमता भी है और क्षण के उद्वेलन को संवेदनीय बना देने की क्षमता भी ।अनेक विधाओं की विशिष्टता और उनके विधागत संक्रमण से अनुभव और कथ्य को अधिक पाठक- सापेक्ष और ग्राह्य बना देने की प्रयोगी क्षमता भी हिंदी लघुकथा की प्रयोग भूमि बनी है।

     लघुकथा जिस घटना, अनुभव या कल्पना से अपना आकार तय करती है, उसमें लेखक के अपने वायरसों की अपनी प्रयोगशाला है। वह यदि अन्य रचनाकारों से प्रभावित भी है, तब भी लेखक की अपनी प्रयोगशाला से छाप लेकर ही रूपायित होती है। उसके भीतर वैयक्तिक स्पर्श, सामाजिक सरोकार, यथार्थ की चुभन, परिदृश्यों के कोण, मनोविज्ञान की आंतरिक बनावट, वैचारिक उदात्तता या प्रतिबद्धता, चरित्रों के द्वंद्व और चरमांत की व्यंजकता के नुकीले रूप उभर आते हैं। जैसे ही वह किसी अनुभव से टकराता है, फिर वह भाव-भाषा में उसे रूपाकृत करने की कोशिश करता है और भाव-भाषा को भाषा के रंग में इस तरह उतार देता है की भाषा में ही संवेदना का ताप एकाकार हो जाता है। इस एकाकारता में बिंब, प्रतीक, संकेत, शैली, फेंटेसी जैसे कला तत्व समाहित होते होते चले जाते हैं ।यही कारण है कि लघुकथा मूल घटना या अनुभव से निकलकर बड़े फलक पर अभिव्यक्ति पा जाती है।

      शरद जोशी की लघुकथा 'मैं वही भगीरथ हूँ' के माध्यम से यह बात साफ करना ठीक होगा। हजारों साल पहले के भगीरथ और आज का ठेकेदार भगीरथ आमने-सामने हैं। काल हजारों साल की इतनी लंबी छलाँग वर्तमान के बिंदु पर। बिना किसी कालदोष के इतना बड़ा युगांतर। भगीरथ का पुरखों का तारने का संकल्प और नए ठेकेदार का गंगा के प्रोजेक्ट से पीढ़ियों के भविष्य के भोगमय सत्ता का लाभवादी सोच। युगांतर मूल्यों का। लक्ष्यातर मोक्ष और लाभ के संचय का ।एक में अतीत दूसरे में भविष्य। एक में संस्कार, दूजे में भोग। फिर भाषा को देखिए, तत्सम शब्दावली और अंग्रेजी शब्दों का छोर। कितना तीखा व्यंग्य- "वाह वा... कितना बड़ा प्रोजेक्ट रहा होगा"। शब्द लाघव, शब्द नियोजन, दृश्यों की निर्मिति, दो युगों का समांतर कल्प, यति-गति, मोड़, नाटकीयता, दृश्यात्मकता, व्यंग्यात्मकता। फिर बॉडी लैंग्वेज और कल्पनाशीलता, संस्कार और भ्रष्टता का के विरोधी रंग। और लघुकथा के बजाय इसे कहानी या उपन्यास में फैला दिया जाता तो सारी मार और चुभन हवा हो जाती। गेहूँ की बाली छोटे से पौधे में। पर सूखती है तो उसका चरमांत शिरा कितना चुभनदार हो जाता है। इसीलिए आकार का इस चुभन में योगदान है।

      शिल्प की प्रयोगशीलता इस छोटे से आकार में भी कितनी प्रभावी हो सकती है यह देखना हो तो भृंग तुपकुरी की लघुकथा 'बादशाह का नया जन्म' में लक्षित की जा सकती है। कमलेश्वर की कहानी 'राजा निरबंसिया' में कहानी के दो समानांतर पाठ हैं ,जिनसे युगांतर का यथार्थ या मूल्यबोध होता है। वैसा ही इस पुरानी लघुकथा में देखा जा सकता है ।शब्द प्रयोग की क्या अहमियत होती है, उसे भवभूति मिश्र की 'बची खुची संपत्ति 'में लक्षित किया जा सकता है। संपत्ति के स्थान पर 'शेष संपत्ति' शब्द का प्रयोग होता रचना की आत्मा ही गायब हो जाती ।जयशंकर प्रसाद की गुर्जर साई में 'चीथड़े 'शब्द ही व्यंजक है। और दार्शनिक अंदाज में यह संवाद कितना असरदार है -"सोने का खिलौना तो उचक्के भी छीनते हैं, पर चीथड़ों पर भगवान ही दया करते हैं। यह शब्द या वाक्य की व्यंजकता है, जो चरित्र, आत्मा, व्यथा, यथार्थ, अनुभूति, दर्शन प्रभावकता ,युग -मूल्य ,सामयिक कालजयिता को पाठक के भीतर टन्न की तरह बजा देते हैं। और पाठक भी इनके भावांतर, तर्क, यथार्थ, संवेदन से एकाकार ही नहीं होता; बल्कि उसके भीतर के रेशे भी बदलने लगते हैं।

       चित्रा मुद्गल की 'दूध', सुभाष नीरव की 'बीमार, 'बलराम की 'मृगतृष्णा', सूर्यकांत नागर की 'विषबीज', हरिशंकर परसाई की' जाति', 'अशोक वर्मा की 'खाते बोलते हैं', 'सुकेश साहनी की 'वायरस 'और 'साइबरमैन', मधुदीप की' हिस्से का दूध', संध्या तिवारी की 'छिन्नमस्ता 'आदि इसी तरह की लघुकथाएँ हैं। नई पीढ़ी के रचनाकारों में ऐसे विमर्श, ऐसे संवेदन युगीन मूल्य, बदलाव की टकराहट, विसंगतियों के खिलाफ प्रतिरोध की ताकत, संगतियों से नए मूल्यों का भावपरक सृजन, भावपरकता के स्थान पर तार्किक बोध, सोद्देश्यता के बजाय भावतरल रसायनों या भाषा के मारक प्रयोग, शिल्प के नए रचाव, कथाकथन की नरेटिव शैली के स्थान पर संवादात्मक या दृश्य-नाट्य शैली का प्रयोग, पंचतंत्र शैली से लेकर डायरी और पत्रात्मक शैली के प्रयोग, लघुकथा के विन्यास में कविता, गीत आदि का ऐसा फ्यूजन, जो जिंदगी के खुरदुरे गद्य को अधिक असरदार बना दे।

          बतौर शिल्प के कुछ बातें जरूरी हैं। एक तो यह कि' रचना की सावयविक संघटना' या 'अंतर्ग्रथन' (ऑर्गेनिक यूनिटी) जरूरी है। शीर्षक से लेकर अंतिम शब्द तक। संवेदन और भाषा के बीच ऐसी बुनावट जितनी जरूरी है उतने ही उसके नाट्य और विज्युअल रूप। यथार्थ का पठार भी और गद्यगीत की गड्डमड्ड भी। प्रतीक और चरित्र खुद अपनी संपूर्णता में तभी विकसित हो पाते हैं, जब संघर्ष और उसकी परिणति के निर्यमाक बन जाते हैं। लेखकीय प्रवेश न हो यह भी लघुकथा के अंतर्ग्रथन का ही हिस्सा है। अलबत्ता इसके भी अपवाद हो सकते हैं। लेखक तो नेपथ्य में ही रहता है, पर लघुकथा की समूची संवेदना में व्यक्त होता है। और सभी रचनाओं में उसका आंतर-व्यक्तित्व।इसलिए प्रतीक, शब्द चयन, कथानक के अनुरूप देशज, विदेशी या तत्सम तद्भव यहाँ तक कि कोड मिक्सिंग वाले शब्द भी संवेदना की बुनावट के संवाहक हो जाते हैं। और विमर्श भी किताबी प्रतिबद्धता के बजाय रचना से फूट कर आए तो आरोपित नहीं रहता। कुलमिलाकर बात यह कि कथ्य और भाषा, बनावट और बुनावट यदि अद्वैत हो जाते हैं, तो लघुकथा अपने लघु आकार में भी दीर्घ कथा से अधिक संवेदी, चुभनदार और व्यंजकता से असरदार बन जाती है।

         जहाँ तक कहावतों- मुहावरों के प्रयोग की बात है ,तो यह कहना जरूरी है कि लघुकथा उस भाषा को गढ़े जो सामान्य नरेटिव या परिदृश्यों की रचना या अभिधा की तुलना में सांकेतिक हो। जिसकी अर्थच्छायाएँ सीमित नहीं है जिसका मीनिंग एरिया बड़ी परिधि में अर्थवत्ता प्रकट करता है। मुहावरे भी लाक्षणिक प्रयोग हैं। पर उनकी लक्षणा शक्ति निरंतर प्रयोग के कारण उतनी चमत्कारिक नहीं रह जाती। लघुकथाकार स्वयं लक्षणा, वक्रोक्ति, आँचलिकता, मिथक भाषा, शब्दों में जानबूझकर विकार आदि से रूपाकार का सचेत विन्यास करता है। और यही उसकी नई सामर्थ्य बनती जाती है। कहावतों में भी युगसत्य है, पर निरंतर प्रयोग से अभ्यस्त होने के कारण वह चमत्कार आ नहीं पाता।परंतु संदर्भ या परिदृश्य में कई बार कहावत-मुहावरे बेहद असरदार हो जाते हैं। यह रचना और पात्रों की अंदरूनी जरुरत पर निर्भर है। पर समय के बदलते स्वरूप की अभिव्यंजना के लिए लेखक अपनी भाषा, अपने प्रतीक, विरोधी रंगों की योजना, समानांतर कथानक आदि का इस तरह विन्यास करता है, जो मुहावरों -कहावतों के अभ्यस्त प्रभावों की तुलना में नये और प्रभावी होते हैं। अभी बातें तो बहुत सारी हैं‌।

- B. L. Achha

Flat No. 701,Tower-27
North Town, Stephenson Road
Perambur, Chennai (T.N)
Pin-600012, Mob -94250-83335

ये भी पढ़ें; सृजन भूमि और समालोचना - बी. एल. आच्छा

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top