समकालीन हिंदी साहित्य और स्त्री विमर्श

Dr. Mulla Adam Ali
0

Contemporary Hindi literature and women's discussion

Contemporary Hindi literature and women's discussion

समकालीन हिंदी साहित्य और स्त्री विमर्श

स्त्री होकर स्त्री विमर्श पर लेख लिखना कोई आसान काम नहीं है और स्त्री विमर्श की चर्चा की जाए और निम्न कहावत न कही जाए तो लेख के साथ न्याय न होगा।

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता

अर्थात् जहाँ नारियों का सम्मान होता है वहीं देवता भी निवास करते हैं।

भारतियों के सभी आदर्श नारी रूप में पाए जाते थे, जैसे विद्या के आदर्श के रूप में माँ सरस्वती, धन के रूप में लक्ष्मी, शक्ति के रूप में माँ दुर्गा, सौंदर्य के रूप में माँ रति, पवित्रता के रूप में माँ गंगा और इतना ही नहीं सर्वव्यापी ईश्वर के रूप में जगत जननी आदि। जहाँ अच्छाई हो और बुराई न हो तो भला अच्छाई का महत्व ही कहाँ रह पाता है। समाज में अनेक कुप्रभाओं ने भी जन्म ले लिया था, जैसे सतीप्रथा, बाल विवाह, परदा प्रथा, अनमेल विवाह आदि।

नारी ने अपनी सफलताओं की सीढ़ियों का रुख हर दिशा की ओर घुमाया। चाहे वह राजनीति का हो, चाहे साहित्यिक का, समाज का कोई रूप ऐसा नहीं जिसमें नारी ने अपनी पहचान बना एक अभिष्ट निशाँ न छोड़ा हो।

चलिए, लेख के शीर्षक की ओर ध्यान लगाते हैं समकालीन हिन्दी साहित्य और स्त्री विमर्श समकालीन अर्थात् उसी काल या समय का और स्त्री विमर्श यानी स्त्री द्वारा किए गए संघर्ष आदि। समकालीन हिंदी साहित्यकारों एवं लेखकों ने इस दिशा में मुक्त हस्त द्वारा कलम चलाई। हिंदी साहित्य की चाहे कोई भी विद्या हो बिना नारी विमर्श के वह अधूरा है। यह अलग बात हो सकती है कि किसी विधा में नारी की पीड़ा को अधिक उकेरा गया है तो कहीं मात्र छुआ गया है।

हिंदी साहित्य संसार में महादेवी वर्मा, महाश्वेता देवी, अमृता प्रीतम, सुभद्रा कुमारी चौहान, कृष्णा सोबती, डॉ. प्रभा खेतान, उषा प्रियवंदा, मन्नू भंडारी, ममता कालिया, मैत्रेयी पुष्पा आदि ने भी नारियों की स्थिति में सुधार एवं नारी-स्वतंत्रता के लिए साहित्य जगत में अपनी कलम चलाई, कुछ उदाहरण के रूप में निम्न दृश्य देखते हैं, जो इस प्रकार है-

समकालीन लेखिकाओं में अग्रणी पुष्पा भारती जी ने एक बड़ी तीखी और पैनी बात कही है कि नारी के पास जड़ से न उखड़ने के कारण अधिक प्रामाणिक अनुभव है। वह पुरुष की भांति साहित्यिक आडम्बरों का जीवन जीने का दम नहीं भरती।

इसी तरह से मृदुला गर्ग जी कहती हैं हर सफल पुरुष के पीछे एक नारी होती है। हर लेखिका के पीछे कोई नहीं तो एक पुरुष अवश्य रहता है, जिसके कारण नहीं, जिसके बावजूद वह लेखन करती है।¹

आज स्त्री-विमर्श को सामाजिक चिंता से सरोकार दिखाई देता है और संस्कारों की रूढ़ियों के बीच दबती-पिसती नारी के बदले हमें नारी के स्वातंत्र्य के संदर्भ में स्वरूप मानसिकता से भरपूर जीवन की सार्थकता दिखाई पड़ती है।

स्त्री लेखनी ने नारी के विविध रूप पारिवारिक, संयुक्त परिवार, दाम्पत्य जीवन तथा टूटन, प्रेम विवाह, अंतर्जातीय तथा बेमेल विवाह की विसंगतियाँ, तलाकशुदा नारी की सामाजिक स्थिति, नारी और नैतिकता, एकाकीपन जैसी कई समस्याओं को उद्घाटित किया।

'रुकोगी नहीं राधिका' उपन्यास में उषा प्रियवंदा ने आधुनिक परिवेश से उदिता नारी ही उसका विषय है। लेखिका स्वयं लिखती हैं एक ऐसी स्त्री का, जो कि अपने में उलझ गई है और अपने को पाने की खोज में उसे अपने ही अंदर बैठकर खोज करनी है। राधिका का निपट अकेलापन और भारत में अपने को उखड़ा-उखड़ा जीना मेरी अपनी अनुभूतियाँ थीं, जिन्हें कि मैं बेहद लाड़-प्यार के बावजूद नकार नहीं सकी। सो यह नारी के अकेले होने की स्थिति है।

उषा जी का ही एक और उपन्यास है प्रतिध्वनियाँ इसमें एक स्त्री अपने विवाहित जीवन से जैसे ही मुक्त होती है वह कह उठती है-मुक्त होकर पहली बार लगा कि वह एक आकर्षक युवती है, उसमें उमंगें और कामनाएँ मात्र नहीं है। अपने में निहीत पूर्ण व्यक्तित्व को पाना कितनी बड़ी उपलब्धि थी।

मेरा घर कहाँ कहानी में नासिरा शर्मा ने लाली धोबिन की लड़की सोना के जीवन की त्रासदी को घर की खोज में भटकती परित्यक्ता नारी के रूप में नहीं बताया है, बल्कि एक आत्मसजग स्त्री को वह मुकम्मल साहस दिया है, जिसके बूते वह अपने ढाबे पर खाना खाने वाले उन पुरुषों को दुत्कार देती है जो उसके मस्त चेहरे को देखकर अक्सर विवाह का प्रस्ताव रखते हैं।

मन्नू भंडारी ने अपने कलम के माध्यम से आधुनिक नारी को घर की चाहरदिवारी से निकाल कर्मक्षेत्र में ला खड़ा किया। आपका बंटी उपन्यास के माध्यम से लेखिका कहती हैं कि पति-पत्नी दूध पानी की तरह नहीं बल्कि वे पानी-रेत की तरह मिलते हैं। तलाक-शुदा माँ-बाप की संतान बंटी अब वह माता का भी नहीं, पिता का भी नहीं, आपका बंटी है यानि समाज का है। इसमें समाज की ज्वलन्त समस्या है तलाक, उस समाज में बंटी बेनाम इकाई भर बनता चला गया।

मृदुला गर्ग की तुक कहानी में कथानायिका अपने को उन बेवकूफ औरतों में से एक मानती है जो अपने पति को प्यार करती है और उस विवाह के प्रति भी प्रतिबद्धता व्यक्त करती है जिसने उसकी भावनाओं को नहीं समझा, नाम की अर्धांगिनी और काम की दासी मात्र माना।

चित्तकोबरा इन्हीं का एक उपन्यास है, जिसमें कुंठा और परिहार पर बल दिया गया है। सेक्स जनित कुंठा के परिमार्जन में ही लेखिका की दृष्टि केंद्रित है, विवाह संस्था आज कितनी अर्थहीन होती जा रही है, इसकी मिसाल रिचार्ड और मनु के वैवाहिक जीवन में देखी जा सकती है।

शशिप्रभा शास्त्री के उपन्यास सीढ़ियां की मनीषा एक पढ़ी-लिखी नारी है, डॉक्टर बनकर अपना जीवन सफल करती है, वह संस्कारों के द्वंद में झूलती रहती है। अंत में संस्कार ही उसकी व्यक्तित्व पर हावी रहते हैं।

ममता कालिया जी का एक उपन्यास एक पत्नी के नोट्स में वह कहती है बाहरी दुनिया के दबाव और शाश्वत दायित्व आज नारी को जटिल आत्मसंघर्ष का पाठ पढ़ा रहे हैं।

इनकी ही एक कहानी है फिर प्यार इसमें उन्होंने वह्निशिखा के दर्द को उजागर किया है कि किस प्रकार पति के देर से आने पर फोन करती है तो उसे यह सुनने को मिलता है कि तुमने मुझे पिंटू समझ रखा है जो पूरे भारतवर्ष में फोन खटखटा देती हो।

मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास बेतवा बहती रही में उर्वशी के दुःख, उसकी पीड़ा-जो किसी भी ग्रामीण कन्या की व्यथा हो सकती है के यातनामयी नाटकीय जीवन का यथार्थमय चित्र को उद्घटित किया है। हर तरफ से उसे सुरक्षित रखने वाला कवच टूट गया है। पति की मृत्यु के बाद अजित ने जान-बूझकर अत्याधिक उम्रवाले मीरा के पति के साथ उर्वशी का विवाह किया।

कृष्णा सोबती जी के उपन्यास 'सूरजमुखी अंधेरे के' में नारी के व्यक्तित्व के सुनसान जंगल, मानवीय मन की नितांत उलझी हुई चाहत और जीवन भरे संघर्ष का दस्तावेज दर्शाया गया है।

मंजुल भगत ने अपने उपन्यास अनारो में जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत किया है। इसकी नायिका निम्नवर्गीय नारी है जो महत्वकांक्षी है तथा समय और परिस्थितियों के अनुसार वह अपने को झट बदल लेती है। इतना ही नहीं, वह आधुनिकता और परंपरा दो छोर के बीच जूझती है। अनारों ने अपने वर्ग की समस्त विद्रूपताओं एवं महत्वकांक्षाओं के साथ जीवन के तीखे यथार्थ को रेखांकित किया है।

ऐसा नहीं कि केवल नारी ही नारी समस्या को दर्शाती है। धर्मवीर भारती जी का सावित्री नं. 2, राजेन्द्र यादव जी का एक कमजोर लड़की की कहानी आदि भी इसके उदाहरण हैं।

अगर हम कहें कि समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री लेखिका और पुरुष लेखक अपनी जगह पूर्णत्व की खोज में प्रयत्नशील हैं तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।

महादेवी वर्मा ने सच ही कहा है- भारतीय नारी भी जिस दिन अपने संपूर्ण प्राण प्रवेग से जाग सके उस दिन उसकी गति रोकना किसी के लिए संभव नहीं।²

अंत में मैं बस इतना कहना चाहूंगी कि समकालीन हिंदी साहित्य में नारियों के विषय में जो ज्यादा से ज्यादा लिखा जा रहा है वह बस इसलिए कि नारी को उसके अधिकारों से दूर न रखा जाए, उसे जो अधिकार मिलने चाहिए वह प्रदान किए जाएँ। वह भी एक इंसान है। ऐसा नहीं कि समाज इस ओर जागरुक नहीं हो रहा है उसकी जागरुकता का प्रमाण हमें जीवन के हर क्षेत्र में स्त्री की उपस्थिति और उसके द्वारा अर्जित सफलता दर्शाती है।

संदर्भ :

1. सारिका, 16-30 अक्टूबर, अंक 1984, पृ.48

2. श्रृंख्ला की कड़ियाँ, भूमिका से

- टी. कविता

ये भी पढ़ें; मेहरुन्निसा परवेज की कहानी संग्रह लाल गुलाब में कामकाजी नारी

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top