Marketism and human values in Hindi literature
हिंदी साहित्य में बाजारवाद और मानवीय मूल्य
विश्व की सभी सभ्यताएँ नदी किनारे स्थापित हुई। जैसे ही उनका विकास होता गया, वैसे ही मानव-समाज की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, शैक्षिक, व्यापार आदि क्षेत्रों में आदान-प्रदान की आवश्यकताएँ बढ़ने लगीं। इसी आवश्यकताओं में शुरू से मानव समाज से जुड़ी अग्रणी आवश्यकता है-'बाजार'।
मनुष्य अपनी जरुरत की वस्तुओं को अर्थात् जो बार-बार हमें घर में खरीदकर लानी ही है। ऐसी सांसारिक आवश्कताओं को बाजार के माध्यम से ही पूरा करता है। प्रत्येक परिवार और समाज को बाजार की महत्ता ज्ञात है।
भगवतीचरण वर्मा का कविता-संग्रह 'एक दिन' की रचना की कहानी ऐसी ही है। उन्होंने पैसे की जरूरत हेतु एक ही दिन में इस कविता-संग्रह को पूरा किया और प्रकाशक के हवाले करके अपनी अर्थ विवेचना को दूर किया। वर्माजी, श्रीलाल शुक्ल से कहते हैं-"अरे, कविता लिखने में कुछ लगता है? पहले मैंने नोटबुक के पृष्ठों को गिना, फिर उतनी कविताएँ लिख डाली और संग्रह का नाम 'एक दिन' रख दिया, क्योंकि एक ही दिन में कम्पलीट किया था।"¹ क्या, यह प्रसंग प्रकाशक के कारण मानवीय मूल्यों की अपेक्षा बाजारवाद का द्योतक नहीं है?
मुंशी प्रेमचंद 'गबन' उपन्यास में बाजारवाद और मानवीय मूल्यों के बीच उभरते संघर्ष को भी उजागर करते दीख पड़ते हैं। भले ही इस उपन्यास को समीक्षकों ने पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों से व्याख्यायित किया हो। लेकिन 'गबन' उपन्यास की भूमिका में परमानंद श्रीवास्तव स्पष्ट रूप से कहते हैं- “गबन' का आरंभ 'चंद्रहार' के लिए जालपा के बालमन के आकर्षण से संबद्ध है। उपन्यास के पहले दृश्य में वर्षा, हरियाली, कजली गाने, झूला झूलने का उत्साह भरा वातावरण है। तभी सहज लोक जीवन में बाजार हस्तक्षेप करता है।''² प्रेमचंद बड़ी तटस्थता के साथ लालसा और लुभावना प्रवृत्ति का खंडन करते हैं। उपन्यास में आगत 'चंद्रहार' चलते- फिरते बाजार का द्योतक है। बिसाती अपनी संदूक जब खोलता है, तब चंद्रहार जालपा का मन मोह लेता है। इसी 'चंद्रहार' के कारण जालपा के मन में पहले मां के प्रति असूया पनपती रही। जब रमानाथ से शादी हुई, तब से 'चंद्रहार' जैसे आभूषण के कारण पति- पत्नी के बीच गहरा संघर्ष का बीज बोया और रमानाथ अपने ही दफ्तर के पैसे 'गबन' करके जालपा को 'चंद्रहार' देने के चक्कर में आकर मानवीय मूल्यों के साथ खिलवाड़ करके स्वयं अमानवीय मूल्यों के खेल का पात्र बन जाता है। बाजार की चीज़ें सभी उम्र के लोगों को आकर्षित करती हैं। इसी आकर्षण में न जाने कब कैसे कौन व्यक्ति अपना मनुष्यत्व तथा पारिवारिक एवं सामाजिक सरोकार तथा रिश्तों को खो बैठता है, इसका किसी को पता तक न चल पाता है। अतः 'गबन' उपन्यास में बाजार से बाजारवाद तक के सभी सूत्रों को रेखांकित करने का सफल प्रयास प्रेमचंद जी ने किया है।
मनुष्य के जन्म से ही बाजार का तत्व उससे जुड़ा हुआ है, वह मृत्यु तक उसका पीछा करता है। 'कफन' में घीसू व माधव कामचोर मानसिकता के शिकार हैं। इसी कारण उनके घर में बाजार तत्व का आभाव है। पैसा उनकी कमजोरी है। साथ ही साथ अपनी ही स्त्री के प्रति उदासीन हैं। उदासीनता और अतिवादिता बाजार तत्व में मायने नहीं रखती। इसी कारण वे अपनी स्त्री को 'कफन' तक खरीद नहीं पाते। बाजार का एक पक्ष मानव समाज की निहित जरूरतों की पूर्ति के रूप में उसे वरदान साबित हुआ है। लेकिन लुभावने विज्ञापन तथा मीडिया का हस्तक्षेप आज सभी क्षेत्रों को अति प्रभावित करता नज़र आ रहा है। गाँव का बाजार आज गाँव का न रहकर, विश्व बाजार बन गया है।
साहित्य जगत भी इससे शुरू से अछूता नहीं रहा। बाजार तत्व के जरिए ही फिरंगियों ने भारत पर राज किया। वर्तमान बाजार भूमंडलीकरण के द्वारा आम जनता तक पहुँच गया है। उसकी चपेट से बच पाना असंभव नज़र आता है। लेकिन हिंदी साहित्य में मानवीय मूल्यों के प्रति सजग प्रेमचंद जी और अन्य रचनाकारों ने इससे बचने के नुक्से हमें जरूर दिए हैं। उन्हें केवल आत्मसात करने की जरूरत है। इस संदर्भ में श्यामसुंदर दुबे जी का कथन द्रष्टव्य है- "भूमंडलीकृत बाजारवाद इस क्षेत्र में घुसकर भी अपना प्रभाव दिखला रहा है। लोक के मानवीय मूल्यों से रहित यह बाजारवाद शोषितों के शोषण क लिए ही कटिबद्ध है।"³
अतः हिंदी साहित्य में बाजार से बाजारवाद के संदर्भ में पहले से ही विपुल लेखन हुआ है। इसी लेखन सामग्री ने बाजारवाद की अपेक्षा मानवीय मूल्यों की भरपूर वकालत की है। और बाजारवाद से बचने की सलाह हमें जरूर दी है।
संदर्भ :
1. भगवतीचरण वर्मा, लेखक-श्रीलाल शुक्ल-पृ. 30
2. 'गबन' (उपन्यास की भूमिका से), लेखक-परमानंद श्रीवास्तव-पृ.7
3. लोक:मानव-मूल्य और मीडिया, लेखक-श्यामसुंदर दुबे-पृ.102
- डॉ. के. श्याम सुंदर
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