दो धर्मों की ममता के बीच पिसते बच्चे की व्यथा की कहानी : पाली

Dr. Mulla Adam Ali
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Pali Hindi book by Bhishm Sahni

Pali Hindi book by Bhishm Sahni

दो धर्मों की ममता के बीच पिसते बच्चे की व्यथा की कहानी 'पाली'

देश विभाजन हमारे देश का दुखद अध्याय है। वह एक ऐसा इतिहास है, जो हमें आज भी आतंकित करता है। विभाजन के समय ऐसी अनेक घटनाएँ घटित हुई थी जिससे दर्दनाक माहौल खड़ा हो उठे। हिन्दी के जाने माने कहानीकार भीष्म साहनी की 'पाली' कहानी विभाजन के दौरान हुई उथल-पुथल का यथार्थ चित्र अंकित करती है। यह एक ऐसा समय था जिसमें लाखों बेगुनाह लोग अलग-अलग धर्मों को मानने वाले या तो मारे गये या बेघर हुए। शरणार्थी बनकर इनको भटकन से ग्रस्त जीवन जीना पड़ा। यथा-"भारत की ओर जाता हुआ लारियों का काफिला, अंधकार में डूबा, आगे बढ़ता जा रहा था। आगे क्या होगा, इस बारे में किसी की सोच काम नहीं कर रही थी, मस्तिष्क जड़ हो रहे थे। भाग्य ने आँखों के सामने ऐसा काला पर्दा डाल दिया था कि उसके पीछे किसी टिमटिमाते दिए तक की लौ नज़र नहीं आती थी। बस हिचकोले थे, थकान थी, फटी-फटी आँखें थीं, सूखे गले थे और ऊपर असंख्य झिलमिलाते तारों का भयावह वितान था।"¹

'पाली' कहानी में उस इंसानी रिश्ते को महत्त्व दिया है, जो धर्म, संप्रदाय, वर्ग और वर्ण की दीवारें लांघकर आदमी और आदमी के बीच एकात्म कायम करता है। संवेदना के जिस बिन्दु पर पहुँचकर किसी धर्म, जाति, सम्प्रदाय-सब पृष्ठभूमि में चला जाता है। उजागर होता है निर्मल, निश्छल, अनुभूति का वह रिश्ता, जहाँ कोई भेद नहीं, कोई दीवार नहीं। इस कहानी में उसी जमीन की तलाश भीष्म साहनी ने की है। देश-विभाजन के समय मनोहरलाल का बेटा पाली काफिले से अलग होकर पाकिस्तान में ही रह जाता है। काफिले से पाली का बिछड़ जाना एक ऐसा हादसा था, जिसे न तो मनोहरलाल भूल पाता है और न ही उसकी पत्नी। वर्ष पर वर्ष गुजर जाते हैं, पर लाख कोशिशों के बावजूद पाली का पता नहीं लगता। मनोहरलाल की पत्नी विक्षिप्त-सी होकर अपने खोये बेटे के लिए छटपटाती रहती है। उधर पाकिस्तान में शकूर और जैनब निःसंतान दम्पति के यहाँ पाली को शरण मिलती है। वे पाली का पालन-पोषण करते हैं। पाली धर्मान्तरित होकर अल्ताफ हो जाता है और अपने नए माँ-बाप से हिल-मिल जाता है। एक मज़हबी मुसलमान के रूप में पाली की परवरिश होती है। वह अपनी पिछली जिन्दगी धीरे-धीरे भूल-सा जाता है।

अंततः भारत का खोजी दल पाकिस्तान जाकर पाली को ढूँढ निकालता है। भारत सरकार की ओर से कुछ अधिकारी मनोहरलाल को साथ लेकर पाकिस्तान में शकूर के घर पहुँचते हैं। मनोहरलाल पाली को देखकर विह्वल हो उठता है। पाकिस्तान के अधिकारियों के सामने तहकीकात होती है। पाली को सामने लाया जाता है, किन्तु वह मनोहरलाल को या अपनी पिछली जिन्दगी को नहीं याद कर पाता। मनोहरलाल निराश हो जाता है। पाकिस्तानी अधिकारी बार-बार इस बात पर जोर देता है कि बच्चे ने अपने पिता को पहचाना नहीं। अतएव, मनोहरलाल का बच्चे पर कोई हक नहीं है। मनोहरलाल के पास एक पुराना चित्र था। मेजिस्ट्रेट बच्चे को बुलाकर वह चित्र दिखाता है और उसकी प्रतिक्रिया को जाँचता है। चित्र हाथ में लेकर बच्चा देर तक उसे ध्यान से देखता है। फिर तर्जनी उठाकर चित्र पर रखते हुए ऊँची आवाज़ में कहता है-'पिताजी'। फिर तर्जनी कौशल्या के चेहरे पर रखकर उसी तरह चिल्लाकर बोला-'माताजी !'

मनोहरलाल फफक-फफककर रोने लगा। मेजिस्ट्रेट ने दूसरा चित्र बच्चे के सामने रखा-बच्चा चहककर बोला 'अब्बाजी-अम्मी।' मौलवी किसी तरह बच्चे को सौंपने के लिए तैयार न था, किन्तु भारत से गई समाज सेविका बच्चे को मनोहरलाल को सौंपने की जिद कर रही थी। मामला उलझकर हिन्दू-मुसलमान का बनने लगा। मनोहरलाल को और तो कुछ नहीं सूझा, वह चुपचाप टाट के पर्दे के पास जाकर जैनब से कहता है कि "बहन, मैं तुमसे बच्चे की नहीं, अपनी घरवाली की जान की भीख माँगने आया हूँ। वह अपने दोनों बच्चे खो चुकी है। पाली के बिना वह पागल हुई जा रही है। वह दिन- रात तड़पती रहती है। उस पर तरह खाओ।"² मनोहरलाल की बेबसी और छटपटाहट जैनब के दिल को हिला देती है। न चाहते हुए भी वह दिल पर पत्थर रखके कहती है- "ले जाओ अपने बच्चे को। हम नहीं चाहते किसी बदनसीब की बदुआ हमें लगे....."³

मनोहरलाल को बच्चा मिल जाता है। उसे हिन्दुस्तान लाया जाता है और उसे धर्मान्तरित करके पुनः हिन्दू बना लिया जाता है। किन्तु, वह अपने मुसलमान माँ-बाप को भूल नहीं पाता। समय होते ही उसके हाथ नमाज़ के लिए उठ जाते हैं। पंडित क्रोधित होते हैं, पर मनोहरलाल पंडित को समझाते हैं। बच्चा धीरे-धीरे नए वातावरण में अपने को ढालने लगता है। उधर उसी समय, सैकड़ों मील दूर अपने सूने आँगन में बैठे जैनब और शकूर तरह-तरह के कयास लगा रहे थे। जैनब अपने पति शकूर से कहती है कि बच्चे के चले जाने से घर की सारी रौनक चली गई। उसका मन करता कि वह अभी उसके पास चली जाएँ, पर यह संभव नहीं था। आँखे पोछती हुई वह आगे कहती है कि “क्यों जी, ईद पर आएगा ना? उसे वे लोग भेजेंगे ना? क्या हम उसे मिलने नहीं जा सकते?..... तुम कहते थे ना कि तुम्हारा कोई नाती बरेली में रहता है। हम उसके पास जा रहेंगे और बेटे से मिल आएँगे।"⁴

मानवीय संवेदना के स्तर पर लिखी गई यह कहानी लेखक की मार्मिक कहानियों में से एक है। लेखक ने इसमें सांप्रदायिकता की भयावहता से परे, मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा की है। बड़ी विश्वसनीयता के साथ भीष्म जी ने बच्चे को केन्द्र में रखकर इंसानियत की निश्छल-निर्मल छवि को उजागर किया है। विस्मय की बात तो वह है कि इस कहानी पर समीक्षकों का ध्यान अब तक गया ही नहीं।

कहानी के मूल में उस इंसानी रिश्ते को महत्व दिया गया है, जो धर्म संप्रदाय, वर्ग और वर्ण की दीवारें लांघकर आदमी और आदमी के बीच एकात्म कायम करता है। दो देशों की सरहदों के बीच पिसते हिन्दू-मुस्लिम माँ-बाप का बेटा अब किस ममता से छूटे और किस ममता को पकड़े, यह बात उसके बचपने में चली गई है। जन साधारण के धर्म तथा कठमुल्ला धर्मगुरुओं के कर्मकांड़ी धर्म का जो अंतर है उसका जीता जागता नमूना भीष्म साहनी ने यहाँ प्रस्तुत किया है। विभाजन से हुए स्थानान्तरण के समय गुम हुए हिन्दू दंपति के लडके पाली को निःसंतान मुसलमान दंपति पनाह देकर पालते हैं। मुसलमान दंपति पाली को बहुत प्यार करता है, परंतु कठमुल्ला मौलवी उसे इस्लाम धर्म में दीक्षित होकर ही रहने की अनुमति देता है। उनके दिल में माँ की ममता एवं बच्चे के प्रति कोई सहानुभूति एवं प्यार नहीं है। जब हिन्दू दम्पति को पाली का पता लग जाता है, तो वे वापस लेने पहुँच जाते हैं। मुसलमान दंपति अपनी औलाद से बिछुड़ने का दर्द जानते हैं इसलिए उसे भेजने को तैयार हो जाते हैं, परंतु मौलवी अब उसे धर्म का मामला बनाकर प्रस्तुत करता है। हिन्दू दंपति बेटे के वापिस लौटने की खुशी में मुहल्ले वालों को भोजन का निमंत्रण देते हैं। जब लोग इसकी तैयारी कर रहे होते हैं, तो ठीक उसी समय पाली बड़ी सहजता से नामज़ पढ़ना शुरू कर देता है। यहाँ पंड़ित भी बच्चे के परिवेश, उसके विकास एवं उसकी कोमल भावनाओं को न समझकर बलपूर्वक उसे कर्मकांड़ी ढंग से अपने धर्म में दीक्षित करा देता है। एक धर्म हिन्दू दम्पति और मुस्लिम दम्पति का है, जिनको बच्चे से प्यार है। इनके लिए बच्चे का हिन्दू या मुसलमान होना कोई महत्त्व नहीं दखता। पाली उनके लिए केवल एक बच्चा है जिससे उनको प्यार है। दूसरी ओर हिन्दू पण्डित और मुसलमान मौलवी के लिए 'हिन्दू' या 'मुसलमान', 'काफीर' या 'म्लेच्छ' है। उन्हें बच्चे से विधर्मी की गंध आती है। वे बच्चे को नहीं देख पाते। आज यह कर्म काण्डी धर्म के ठेकेदार हमारे सामाजिक संबंधों की सरसता समाप्त करते हैं, इनमें कटुता पैदा होती है, इसका यथार्थ चित्रण कहानी में किया है।

संदर्भ :

1. पाली : भीष्म साहनी पृ. 13

2. वही, पृ. 28

3. वही, पृ. 28

4. वही, पृ. 34

- प्रा. डॉ. कृष्णभाई डी. पटेल

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