प्राचीन भारत में विवाह का स्वरूप

Dr. Mulla Adam Ali
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Nature of marriage in ancient India

Nature of marriage in ancient India

प्राचीन भारत में विवाह का स्वरूप

विवाह जीवन का वह मोड़ होता है जो मनुष्य के भावी जीवन को सुनिश्चित करता है। वास्तविक जीवन का आधार गृहस्थाश्रम है जिसकी शुरुआत विवाह संस्कार से होती है। विवाह नैतिकता को बताने, काम को सुलभ, सीमित और मर्यादित रखने, स्त्री-पुरुषों को अधीन बनने तथा उत्तराधिकार निश्चित करने का उपाय है। मनुष्य को विवाह की आवश्यकता कई कारणों से हुई वे है-

उत्तराधिकार : गृहस्थाश्रम जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय है। इस समय मनुष्य शारीरिक और मानसिक दोनों स्तर पर अपेक्षाकृत अधिक कुशल होता है। महाभारत के अनुसार गृहस्थाश्रम में मनुष्य का कर्तव्य पंचयज्ञ संपन्न करना है, जो ऐसा नही करता उसे धर्मतः न तो यह लोक प्राप्त होता है और न परलोक, उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि विवाह का उद्देश्य संतान प्राप्त कर उत्तराधिकार निश्चित करना ही नही भौतिक उन्नति प्राप्त करना भी है।

व्यक्तित्व की पूर्णता : विवाह वैदिक काल से ही व्यक्तित्व की पूर्णता के लिए आवश्यक माना गया है, ऋग्वेद में पुरुष के लिए 'नेमः' (आधा) विशेषण उसकी पत्नी-सापेक्षता के संदर्भ में प्रयुक्त है। शथपथ ब्राह्मण के अनुसार प्रजापति ने अपने को दो भागों में विभक्त कर पति पत्नी को बनाया अतः ये दाल के दो दाने की भाँति अलग-अलग सिर्फ आधे है। तैत्तरीय संहिता में भी वर्णन है कि पत्नी के बिना कोई पुरुष पूर्ण नही है। अतः पत्नी पाने के पहले कोई पुरुष पूर्ण नहीं माना जा सकता। ऐतरेय आरण्यक में कहा गया है कि पुरुष पत्नी को प्राप्त करके स्वयं को पूर्ण मानने लगता है। वैदिक युग की मान्यता परवर्तीकाल में भी प्रचलित रहीं। इतिहास-पुराण, काव्य और शास्त्र में भी पत्नी को अर्द्धांगिनी कहा गया गया है।

धार्मिक सामाजिकता : धार्मिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए विवाह को आवश्यक माना गया। रामायण में विवाह को अग्नि के समक्ष दो आत्माओं का पवित्र मिलन माना गया है। महाभारत में पत्नी को पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में से मोक्ष को छोड़कर अन्य की पूर्ति के लिए मूल स्त्रोत माना गया है। महाभारत से ही विदित होता है कि जरत्कारु नामक एकनिष्ठ ब्रह्मचारी ने आजीवन विचार न करने का दृढ़ निश्चय किया था, किन्तु अपने पितरों के उद्धार के लिए उसने अपना प्रण तोड़कर नागराज वासुकि की बहन से विवाह कर तत्सम्बन्धी धार्मिक कार्य सम्पादित किया। वैदिक युग में भी विवाह को जीवन में पवित्र कार्य के सम्पादन के लिए योग्यता का पहला चरण माना गया है। ऋग्वेद के अनुसार देवताओं के पूजन में पति-पत्नी एक-दूसरे के सहायक माने जाते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार याज्ञिक कार्यों में पति-पत्नी दोनों बराबर रूप से रहें। पत्नी रहित पुरुष यज्ञ करने में असमर्थ था। अतः ब्राह्मणों से उसे अयज्ञिय घोषित किया गया था।

सामाजिक प्रतिष्ठा : समाज में प्रतिष्ठित रहने के लिए भी विवाह आवश्यक है, महाभारत के अनुसार पत्नीयुक्त पुरुष ही विश्वसनीय माना जाता था। आपस्तम्ब धर्मसूत्र के अनुसार विवाह नियमों का उल्लंघन साधु-सन्यासियों द्वारा होता है। अर्थात् विवाह सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक है। पारिवारिक कार्यों के अलावा पुरुषों के द्वारा अर्जित धन की रक्षा करना आदि कार्यों में महिला भाग लेती थी। इस तरह सामाजिक प्रतिष्ठा और सुख-सुविधा की भावना ने भी विवाह को महत्व प्रदान किया।

विवाह योग्यता : धर्मसूत्रों में कहा गया है कि गृहस्थ अपने समान (जाति, कुल) वालों से विवाह करें, पहले वाग्दान द्वारा भी किसी को न दी गई तथा अपने से कम आयु की पत्नी से विवाह करे, बौद्धकाल तक यह मान्यता स्थापित हो गई थी कि विवाह समान वर्ण में होनी चाहिए। ऐसा विधान इसलिए था क्योंकि प्रायः प्राचीन समय में एक वर्ण की आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थिति समान होती थी।

वधू के गुण : बौद्धकाल में विवाह सम्बन्ध स्थापित करने के पूर्व वधू के कुल शील, रुप एवं गुणों का अवलोकन अनिवार्य रहा है। पुरुष को ऐसी स्त्री से विवाह करनी चाहिए जो बुद्धिमति, सुंदर, सच्चरित्र, शुभलक्षणी तथा रोगों से मुक्त हो, वर की अपेक्षा कन्या कम से कम तीन वर्ष छोटी हो, विज्ञान की दृष्टि से भी पुरुष की अपेक्षा कन्या को अल्पायु होना चाहिए क्योंकि स्त्री की शारीरिक क्षमताओं का विकास पुरुष की अपेक्षा शीघ्र एवं कम आयु में ही हो जाता है।

वर के गुण : बुद्धिमता ब्रह्मचर्य और पौरुष के अतिरिक्त पास्कर गृहसूत्र पर गदाधर भाष्य में उद्धत यम ने वर की सामान्य विशेषताओं को सात बतलाया कुल, शील, शरीर, आयु, विद्या, वित्त और साधन सम्पन्नता। गौतम और आपस्तम्ब धर्मसूत्र में भी इन्ही गुणों की पुनरावृत्ति सी है कि-विद्यावान, चरित्र सम्पन्न, रोगहीन को कन्या देना चाहिए। इस तरह पुरुष की योग्यता उसका रुप नहीं उसका पुरुषत्व और धन है।

विवाह के प्रकार : आश्वलायन गृह्यसूत्र ने सर्वप्रथम विवाह के आठ प्रकारों का वर्णन किया है जो धर्मसत्रों के बाद की रचना मानी जाती है मनुस्मृति के अनुसार भी विवाह आठ प्रकार है।

1. ब्राह्म विवाह : विवाह का यह ब्रह्म प्रकार धर्म्य और प्रशस्त माना गया है। विवाह के आठ प्रकारों में इसे सर्वोत्तम स्थान मिला है। सभी धर्मशास्त्रकारों ने विवाह प्रकार के क्रम में इसको प्रथम स्थान दिया है। इसमें वधू के पिता सच्चरित तथा शीलसंपन्न वर को अपने घर आमंत्रित कर विधि-विधान के साथ यथाशक्ति वस्त्र एवं आभूषण से अलंकृत कर कन्या को उपहार रूप में देता था। ब्राह्म विवाह में उपहार देना पिता के लिए आवश्यक माना गया है। वर को उपहार रूप में दी जाने वाली कन्या आभूषणों से सुसज्जित होना चाहिए। साथ में सम्पत्ति भी जाना चाहिए।

2. दैव-विवाह : आश्वलायन गृह्य सूत्र एवं गौतम धर्मसूत्र के अनुसार यज्ञ सम्पन्न कराने वाले ऋत्विज को अपनी अलंकृता कन्या उपहार में देना 'देव- विवाह' है। बौधायन के अनुसार यदि यज्ञ में दक्षिणाओं के दिये जाते समय बेदी के समीप ही ऋत्विज को कन्या प्रदान की जाय तो वह दैव-विवाह है। इस प्रकार स्पष्ट है कि देव-विवाह में वस्तु की तरह किसी योग्य-अयोग्य ऋत्विज को दान में दे दी जाती थी। वस्तुतः यह वास्तविक विवाह नही प्रतीत होता, इस समाज के समृद्ध और शक्तिशाली वर्गों में प्रचलित बहुविवाह की प्रथा के साथ संयुक्त रखैल-प्रथा समझना चाहिए। इससे बेमेल विवाह भी हो जाता था क्योंकि यज्ञ कराने वाले बूढ़े भी होते रहे हैं।

3. प्रजापत्य विवाह : शर्त के आधार पर पिता अपनी कन्या को वर के साथ शादी करता था उसे प्रजापत्य विवाह कहा जाता था। बौधायन धर्मसूत्र के अनुसार जब पिता कन्या को वस्त्रों से आच्छादित कर तथा आभूषणों से अलंकृत कर 'यह तुम्हारी पत्नी है, इसके साथ धमों का आचरण करें' ऐसा कहकर प्रदान करता है तो प्रजापत्य विवाह होता है। इस प्रकार इस विवाह में प्रशस्त विवाहों में सबसे अधिक कन्या की स्थिति अच्छी मालूम पड़ती है।

4. आर्ष विवाह : कन्या का पिता धर्मकार्य की सिद्धि के लिए वर से एक बैल और एक गाय लेकर सविधि कन्यादान करता था, तो इस प्रकार का विवाह "आर्षविवाह" कहलाता था। आर्षविवाह में लड़की जिसके अधिकार में रहती थी उसे एक जोडा गाय दिया जाता था, परन्तु वही गायें विवाह के बाद पुनः वर द्वारा ले लिया जाता था। लेकिन प्रशस्त होते हुए भी आर्षविवाह का स्थान निम्न था।

5. गान्धर्व विवाह : बिना किसी भेदभाव के सिर्फ प्रेम के आधार पर विवाह होता था तो उसे गान्धर्व विवाह कहा जाता था। आश्वलायन गृह्यसूत्र बौधायन धर्मसूत्र के अनुसार कन्या एवं वर के पारस्पतिक प्रेम के कारण पारस्परिक स्वेच्छा से दोनों का सम्मिलित "गान्धर्व विवाह" होता था।

6. असुर विवाह : वस्तु की तरह कन्या की कीमत लेकर वर के साथ विवाह करना असुर विवाह कहा जाता था, गौतम धर्मसूत्र, बौधायन धर्मसूत्र, अर्थशास्त्र आदि के अनुसार जब विवाह का इच्छुक पुरुष कुमारी कन्या के अभिभावक को धन से खुशकर कन्या से शादी करता था, तो ऐसा विवाह आसुर विवाह कहलाता था।

7. राक्षस विवाह : बल के आधार पर किसी की कन्या से विवाह करना 'राक्षस विवाह' था। ऋग्वेद के अनुसार आधिपत्य द्वारा जो विवाह किया जाता था वह राक्षस विवाह कहलाता था, राक्षस विवाह में पत्नी को तुच्छ समझा जाता था। एक वस्तु की तरह जो बलशाली व्यक्ति जब चाहे उस पर अधिकार कर उसका उपयोग कर सकता था।

8. पैशाच विवाह : आश्वलायन गृह्यसूत्र, बौधायन धर्मसूत्र, गौतम धर्मसूत्र, अर्थशास्त्र आदि के अनुसार जब कोई आदमी किसी कन्या को फुसलाकर या पथभ्रष्ट कर या बेहोशी की हालत में या नशे की हालत में शील भंग करे तो इसे पैशाचविवाह कहते थे।

उपर्युक्त में से प्रथम चार को धर्म्य विवाह की संज्ञा देने का कारण यह है कि इससे पिता की सत्ता सिद्ध होती है तथा कन्या एक वस्तु की तरह अभिभावक द्वारा दान किया जाता था। कन्यादान शब्द, इसीलिए प्रयोग में आया। इसका तात्पर्य यह भी था कि पिता का अभिभावकीय उत्तरदायित्व का भार तथा कन्या का संरक्षण एवं नियंत्रण पति को दे दिया जाता था।

आधुनिक विवाह व्यवस्था में परिवर्तन : हिन्दू विवाह एक सुविधापूर्ण अस्थायी अथवा कानूनी अथवा बंधन न होकर संपूर्ण जीवन भर का वह धार्मिक बंधन तथा संस्कार है जो, “धार्मिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए स्त्री-पुरुष को यौन-संबंध स्थापित करने की अनुमति देता है - और परिवार जैसा पवित्र एवं अटूट बंधन भी अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है। व्यक्तिवादी भावना, पाश्चात्य प्रभाव, आधुनिकता के आकर्षण एवं आधुनिक शिक्षा ने विवाह संस्था की जड़ें हिला दी हैं।"

पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव एवं व्यक्तिवादी धारणाओं के कारण विवाह में भी परिवर्तन हो रहा है। नये एवं पुराने विचारों के बीच विचारों के संघर्ष के कारण वैवाहिक असंगतियाँ उत्पन्न हो रही हैं। एक ओर - अभिभावकों द्वारा आयोजित विवाह असफल हो रहे हैं तो दूसरी ओर आधुनिक शिक्षा से प्रभावित युवक, युवतियों ने स्वच्छंद प्रेम-विवाह पद्धति को स्वीकार - किया है, लेकिन वे भी असफल हो रहे है। फलस्वरुप आज विवाह में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं।

संदर्भ सूची :

1. प्राचीन भारत में दाम्पत्य जीवन-वीरेन्द्र कुमार चतुर्वेदी, पृष्ठ संख्या 26-32

2. प्राचीन भारत में दाम्पत्य जीवन-वीरेन्द्र कुमार चतुर्वेदी, पृष्ठ संख्या 38-50

3. मनु एण्ड याज्ञवलक्य, कलकत्ता, पृष्ठ संख्या 24-25

4. वसिष्ठ धर्मसूत्र - 1, 2, 5

5. गौतम धर्मसूत्र - 1, 2, 9

6. द पोजीशन आफॅ विमन इन हिन्दू सिविलेजेशन, पृष्ठ संख्या 29

- लक्कर्सु सुजाता

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