अंतरराष्ट्रीय हिन्दी दिवस पर विशेष : हिन्दी भाषा द्वारा ही भावात्मक एकता संभव है

Dr. Mulla Adam Ali
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World Hindi Day Special : Emotional unity is possible only through Hindi language

Emotional unity is possible only through Hindi language

विश्व हिंदी दिवस पर विशेष

हिन्दी भाषा द्वारा ही भावात्मक एकता संभव है

भारत वर्ष विभिन्न भाषाओं, जातियों 'और सभ्यताओं का देश है। प्रशासनिक दृष्टि से कई राज्यों में विभक्त इस देश में कई प्रकार की भाषाएँ और बोलियाँ तथा जातियाँ और संस्कृतियाँ हैं। उनके अपने अलग-अलग आचार-विचार हैं। ऐसी स्थिति में भावात्मक एकता एक विचारणीय प्रश्न है। इस देश में एक संघीय शासन की व्यवस्था है और राज्यों में स्वायत्त शासन के बावजूद केन्द्रीय शासन में विशेष शक्ति निहित की गई है। भारत में गणराज्य की स्थापना सामाजिक एकता का एक प्रमुख साधन है। भावात्मक एकता लाने के लिए कुछ ऐसे साधनों की आवश्यकता है, जो अनायास ही जनमानस को एक दूसरे के निकट लाने का प्रयास करें। यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि राजनैतिक परिस्थितियों के अनुकूल होने पर भी पूरे राष्ट्र में अनेक सांप्रदायिक उपद्रव हुआ करते हैं। इनके मूल में घृणा, हिंसा, पृथकतावादी भावनायें ही प्रमुख रहती हैं। ये घटनाएँ देश की शांति और सुरक्षा को प्रभावित करती हैं। इनके कारण आर्थिक विषमता आती है और सांप्रदायिक दुर्व्यस्था पैदा होती है। इन दोनों भावनाओं के मूल में कौन-सी ऐसी स्थिति है, जो निरंतर विद्यमान रहती है ? वह कौन-सा भाव है, जो जनता को आपस में निकट लाने की बजाय दूर ले जा रहा है?

इस विषय में साहित्य या भाषा का नाम विशेष स्मरणीय होगा क्योंकि वह अपने खोये हुए गौरव और एकता को उनके बीच व्यक्त करने में समर्थ होता है। वह मुर्दा को जीवन दे सकता है। कायर को बीर बना सकता है। साहित्य टूटे हुए मानव-मन की मनिका को एकता के सूत्र में पिरो सकता है। विच्छिन्न राष्ट्र की जातियों व राज्यों को एकाकार कर सकता है। जो शक्ति तप और तोप में नहीं है, त्याग और तलवार में नहीं है, वह साहित्य में है। बहुभाषा-भाषी भारत वर्ष में यह कैसे संभव हो सकता है? इस पर विचार करने की आवश्यकता है। आज के भौतिक युग में वैज्ञानिक प्रगति ने देशों की दूरी समाप्त कर दी है। मानव के कदम चन्द्रमा पर पड़ चुके हैं। विश्वभर में आपस में सांस्कृतिक आदान प्रदान भी हो रहा है। किन्तु एक भाषा के अभाव में अपने ही देश में राष्ट्रीयता तथा संस्कृति के नष्ट होने का भय समाज में व्याप्त है। जिसके लिए देश में भावात्मक एकता आवश्यक है। और इसका मुख्य साधन एक और केवल एक मात्र हिन्दी भाषा है। भारत वर्ष के उत्तरी राज्यों की हिन्दी मुख्य भाषा है। उत्तरी भारत विदेशियों के आक्रमण का लक्ष्य रहा है। यही कारण है कि यहाँ की संस्कृति भी विदेशी संस्कृति से मिश्रित है। दक्षिणी भारत विदेशी प्रभावों से उन्मुक्त रहने के कारण अपनी साँस्कृतिक गरिमा को सुरक्षित रखने में समर्थ रहा है। इन दोनों की विभिन्नता राष्ट्र भावात्मक एकता में घातक सिद्ध हुई है।

ऐसे समय में देश में एक ऐसी भाषा की आवश्यकता है, जो विशाल भारत के नागरिकों के हृदय में आपसी सौहार्द उत्पन्न करने में समर्थ हो । और ऐसी भाषा केवल हिन्दी ही हो सकती है। जो राष्ट्र को एकता सूत्र में बाँधने में सक्षम है। क्योंकि यह भारतवर्ष के सर्वाधिक भू-भाग पर बोली जाती है और अन्य भाषाओं की अपेक्षा लिखने-पढ़ने-बोलने में सुगम है। यह एक ऐसी भाषा है जिसे कई राज्यों के लोग आसानी से समझते हैं, इसी के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। पंजाबी, गुजराती, मराठी, मैथिली, बंगला या उड़िया आदि ऐसी भाषाएँ हैं जिन्हें हिन्दी भाषी कोई भी व्यक्ति आसानी से समझ सकता है। राज्यों में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करने के लिए हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। यह संपर्क अन्य भाषाओं के माध्यम से नहीं किया जा सकता। क्यों कि अन्य भाषायें परस्पर इतनी सन्निकर नहीं हैं। दूसरा कारण यह है कि हिन्दी की जड़ें अधिसंख्य नागरिकों के बीच गहराई तक हैं और वे उनके स्नेह का शीतल जल वहीं से पा रही हैं। जिनके कारण हिन्दी आज राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार की जा रही है। देश का गरीब तबका अपने विचारों की अभिव्यक्ति हिन्दी के द्वारा ही करते हैं। यदि देश में गरीबों की संख्या अधिक है तो यह स्वयं सिद्ध है कि हिन्दी एक विशाल समुदाय की भाषा है। क्योंकि देश में रिक्शा-तांगा-गाड़ी खींचने वाले, मेहनत-मजदूरी करने वाले लोगों में अधिसंख्य लोग विचारों का आदान-प्रदान हिन्दी में ही करते हैं।

हिन्दी की तीसरी विशेषता यह है कि इसकी लिपि अन्य भाषाओं की अपेक्षा सुगम है। यह जिस प्रकार लिखी जाती है उसी प्रकार पढ़ी भी जाती है। यह विशेषता अन्य भाषाओं में नहीं है। इसलिए यह बात तय है कि हिन्दी राष्ट्र की एक सुगम लिपि वाली भाषा है जो भावात्मक या राष्ट्रीय एकता की प्रथम सीढ़ी है।

हिन्दी की चौथी विशेषता है कि यह राष्ट्रीय आंदोलन की भाषा है। महात्मा गाँधी इसे भारत की आजादी की एक शर्त मानते थे। वास्तव में हिन्द और हिन्दी को पृथक करना और सोचना केवल एक भ्रान्ति है। आजादी के पूर्व अंग्रेजों के काल में शासक एवं शासितों की भाषाएँ थीं। शासकों की भाषा अंग्रेजी और शासितों की भाषा हिन्दी थी। यह अपनी विशेषताओं और प्रेरणाओं के लिए प्रमुख रही है। हिन्दी हृदय ग्रहिता और समस्त जनता को मूलतः स्वीकार्य रही है। कुतुबन, मंझन, जायसी, रहीम, रसखान जैसे उदारमना यवनों ने भी हिन्दी को, अपने हृदय का हार बनाया है।

'मानस हों तो वही रसखानि, बसौं बज गोकुल गाँव के ग्वारन' 

इस पंक्ति में किसे भावात्मक एकता में संदेह हो सकता है। और 'ना मैं मंदिर, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलाश में' की भावना व्यक्त करने वाली भाषा हिन्दी भाषा ही थी।

भक्ति कालीन साहित्य में भावात्मक एकता स्थापित करने का जो स्तुत्य प्रयास किया गया, वह हिन्दी के माध्यम से ही किया गया था। गुजरात के महर्षि दयानंद सरस्वती ने एकेश्वरवाद की स्थापना कर उसका प्रचार हिन्दी भाषा में ही किया था। भारत के विभिन्न तीथों में होनेवाले सम्मेलन में विभिन्न राज्यों के साधु-महात्मा अपने विचारों का आदान-प्रदान हिन्दी के माध्यम से ही करते हैं। ये महात्मा प्रान्तीय भाव को उस समय भूल जाते हैं। तुलसीदास की रामचरितमानस के प्रमुख पात्र श्रीराम मानव धर्म की स्थापना के लिए सुदूर दक्षिण तक यात्रा करते हैं। इस प्रकार तुलसी के काव्य में भी भावात्मक एकता की भावना पूर्णतः निहित है।

आधुनिक काल के हिन्दी साहित्य ने समूचे राष्ट्र में राष्ट्रीयता के बीज अंकुरित किया है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने सर्वप्रथम राष्ट्रीय एकता की बात की थी-

'आवहु सब मिली रोवहु भाई।

हा ! हा ! भारत दुर्दशा देखि न जाई।'

उन्होंने भाषा की नीति का भी समर्थन करते हुए कहा कि 'अपनी भाषा उतनी ही स्वीकार्य है जितनी कि स्वदेशी की भावना ।' उन्होंने इसको ही उन्नति का मूल माना था ।

'निज भाषा उन्नति अहे. सब उन्नति को मूल।

बिनु निज भाषा ज्ञान के. मिटत न हिय को शूल।'

हिन्दी के कवियों ने देश सेवा के पुनीत व्रत का संकल्प लिया था। हिन्दी का कोई ऐसा कवि या साहित्यकार नहीं है जिसने स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भाग न लिया हो । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने मानव जीवन का लक्ष्य देश सेवा का ही बतलाया था। उनकी 'भारत-भारती' मुक्ति आंदोलन का गीत रही है। उनकी कविता के स्वरों में यह स्पष्ट है कि-

'न तन सेवा, न गन सेवा, न जीवन और धन सेवा।

मुझे है, ईष्ट जन सेवा, सदा सच्ची भुवन सेवा ।।'

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि जब-जब हिन्दी पर आपत्ति आई है, हिन्दी ने भारतीयों के हृदय में स्पंदन और रक्त नलिकाओं में नव रक्त का संचार किया है।

सांस्कृतिक और राजनैतिक जागरण में भी हिन्दी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। राजाराममोहन राय से लेकर डॉ. राधाकृष्णन आदि विद्वानों ने भी अपने ज्ञान के प्रसार के लिए, आम नागरिकों के ज्ञान के लिए हिन्दी को ही माध्यम बनाया था। अंग्रेजी भाषियों ने आम जनता और अपने बीच विषमता की जो खाई खोदी है उसे पाटने का काम हिन्दी ही कर सकती है। और दोनों को एकता के रूप में निषद्ध करने में समर्थ भी हो सकती है। अंग्रेजी के द्वारा भारतवर्ष में लोकतंत्र या राष्ट्रीयता को सुदृढ़ करना मात्र एक दुराशा है। हमारे देश में सांस्कृतिक चेतना जागृत करने और राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का कार्य हिन्दी ने ही किया था और कर रही है।

हिन्दी की सम्पन्नता के विषय में यदि देखा जाय तो यह स्पष्ट है कि हिन्दी के पास संस्कृत के शब्दों का अक्षय भण्डार है। तथा उसे उर्दू की चुस्त और मुहावरेदास भाषा का रूप एवं प्रान्तीय भाषाओं का कलेवर भी प्राप्त है। संस्कृत की प्रधानता के कारण यह मराठी, गुजराती, बंगाली तथा दक्षिणी भाषाओं के बहुत निकट है। दूसरी ओर उर्दू के शब्दों की प्रधानता के कारण पंजाबी और सिन्धी भाषा के निकट हो जाती है। इस प्रकार हिन्दी अखण्ड भारत के अनन्त लोगों की बोध गम्य भाषा है। उसमें शब्दों को आत्मसात् करने की पूर्ण क्षमता है। यह अन्य भाषाओं के शब्दों को पूर्णतया पचा लेती है। अपनी उपर्युक्त विशेषता के कारण ही यह विशाल भारत में सांस्कृतिक एकता लाने में सक्षम है। देश की लगभग आधी से अधिक आबादी द्वारा बोलीजाने वाली हिन्दी भाषा की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

हिन्दी की श्रीवृद्धि अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के साहित्यकारों ने हिन्दी भाषी क्षेत्रों के साहित्यकारों की तूलना में कहीं भी कम नहीं किया है। यथा-श्री फणीश्वरनाथ रेणु बंगभाषी हिन्दी के यशस्वी कथाकार थे। मैथिली भाषी कवि नागार्जुन आंचलिक साहित्य के यशस्वी कवि थे। तमिल भाषी रांगेय राघव हिन्दी के कथाकार, आलोचक और शोधपूर्ण मूल्यों के आगार थे। महर्षि दयानंद सरस्वती और काका कालेलकर गुजराती भाषी थे। जिन्होंने अपनी लेखनी से हिन्दी के भण्डार को अपरिमित बनाने का अद्भुत प्रयास किया। हिन्दी पत्रकारिता के महारथी पराड़कर जी मराठी भाषी थे। प्रभाकर माचवे मराठी भाषी हिन्दी के साहित्यकार हैं। सुदूर दक्षिण त्रिवेन्द्रम से कई साप्ताहिक, मासिक और दैनिक पत्र हिन्दी में निकलते हैं। हिन्दी की भाषा नीति सभी भाषाओं से उदार है। इसलिए हिन्दी भाषा से ही भावनात्मक एकता संभव हो सकती है।

- कृष्णावतार त्रिपाठी 'राही'

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