भारतीय संस्कृति में पश्चिमी सभ्यता का हस्तक्षेप

Dr. Mulla Adam Ali
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Influence of western culture on Indian society

Interference of western civilization in Indian culture

भारतीय संस्कृति में पश्चिमी सभ्यता का हस्तक्षेप

प्रस्तावना : विश्व भगवान की नियमित कृति है। इसमें कई विराट आलोडन होते हैं। भगवान की सशक्त कामना से आकाश, वायु आदि पंचभूतों की सृष्टि की जाती है। वैसी सृष्टि का निचोड 'मानव' है। ऐसे मानव की सृष्टि करके भगवान अत्यंत प्रसन्न हुए और अपनी सृष्टि की सफलता मानी (भागवत)। अतः "मानव महान है और मानव जीवन दैवी वरदान है।" ऐसा मानव शरीर कभी कहीं कोई जीव प्राप्त कर सकता है। ऐसे जीव का परम लक्ष्य आत्म साक्षात्कार और पुनर्जन्म से बचना।

ऐसी स्थिति में :

हाँ उसी नभ सा वह निर्विकार और परिवर्तन का आधार (रहस्य-महादेवी)

महाशून्य के अंतरगृह में, उस अद्वैत भवन में

जहाँ पहुँच दिक्काल एक हैं, कोई भेद नहीं है। (उर्वशी-दिनकर)

हम तो केवल एक हमी है, तुम सब मेरे अव्यव हो। (कामायनी-प्रसाद)-

ऐसी अमृत्व की अनुभूतियाँ संभव होती हैं। ऐसी अध्यात्मिक साधना ही मानव से अपेक्षित है।

आधुनिक संसार : इस पृथ्वी पर करोड़ो साल के परिवर्तनों का फलस्वरुप आजकल की रंग-बिरंगी दुनिया है। आजकल इसमें भौतिकता प्रधान है। विस्तृत जनसंख्या को रोटी, कपड़ा, मकान दिलाने की नीयत है। इसके लिए विस्तृत यांत्रिक प्रक्रियाएँ, आयात-निर्यात, समाचार-प्रसार में नयेपन बन जाते हैं। दूरी, काल और आयाम को कम बनाते रहने की प्रक्रियाएँ चलती हैं। इतनी विराट दौड़-धूप में भी वैश्वीकरण और शांतियुत सहजीवन की माँग बनी है।

कुछ विभिन्न संस्कृतियाँ-विचार : दुनिया संस्कृतियों का आगार है। संस्कृति एक प्रधान विचार समूह है। अतः इसमें कई स्तर संभव होते हैं। कुछ भोले-भाले विचार भी होते जैसे- 'आकाश ऊपर है,' 'आकाश स्वर्ग है,' 'भगवान जमीन को दबाये रखने पहाड़ रखे है,' शून्य से संसार बना है आदि। ऐसे विचारों को सुधारने के लिए, अन्य उन्नत विचारों से मैत्री प्रक्रिया की आवश्यकता है, बौद्धिक अक्कडपन को छोड़ना पड़ता है और भारतीय विचार धारा में शरण लेना पड़ता हैं।

भारतीय संस्कृति : दुनिया की संस्कृति का आदिगुरु भारत है। यहाँ अपौरुषेय वेद साहित्य, उपनिषद्, धर्मशास्त्र आदि बने हैं। "भगवतगीता" उपनिषदों का सार है। यह सब 'आत्मकेन्द्रित' है। इसकी अंतिम अनुभूति- 'अहं ब्रह्मास्मि' है। ऐसे स्तर तक पहुँचने के लिए भारत में तपस्या, ज्ञान, योग, सत्य, धर्म, त्याग आदि महान साधन लिये जाते हैं। पलंग से उठने से लेकर फिर से पलंग पर लेटने तक समयानुकूल महान आचार- व्यवहार शास्त्रों में प्रबोधित होते है। मानव शरीर को एक दैवी प्रयोगशाला माना जाता है। उष्णता, पानी, मिट्टी तथा वायु के सहारे मानव शरीर को पवित्र बनाया जाता है। नामस्मरण, मन और बुद्धि की पवित्रता रखे जाते है। मानव जीवन की सफलता के लिए चार आश्रम और चार पुरुषार्थ रखे जाते हैं। सन्यास आखिरी आश्रम है और मोक्ष आखिरी पुरुषार्थ है। माँ, बाप, वृद्ध, अतिथि, आचार्य, गुरु आदि में देवता की भावना रखी जाती है। इससे एक अच्छा पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय आदर्श जीवन संभव होता आया है। भारत इस तरह आदर्श राज्य और सुख-समृद्धि का उदाहरण रहा। इसलिए तो भगवान मनु कहते है-

"भारत के आर्यावर्त में अग्रजाति ब्राह्मणों के मुख से दुनियाँ के सभी धार्मिक शिक्षा ग्रहण कर चुके और अपने-अपने देश में प्रचार किया।" यह विवरण भारतीय संस्कृति का संकेत मात्र है।

सांस्कृतिक - महानता :

संक्षेप में, भारत की कुछ सांस्कृतिक महानता के उद्‌गार इस प्रकार के है-

मर्त्य को अमृत बनाना। अगोचर भगवान को स्वानुभूत बनाना। वस्तु को स्थूल या सूक्ष्म से ऊपर विलक्षण स्थिति को प्रमाणित करना। शून्यता में ईश्वरीय अनुभूति कराना। सारे विश्व को मात्र पाँच भौतिक माना आदि। वैयक्तिक तपस्या और मंत्र महिमा के कुछ उदाहरण लिये जायँ जैसे -

पृथ्वी, स्वर्ग और अन्य लोकों में संबंध लगाना। भगवान शंकर का विषमान। राजर्षि भगीरथ द्वारा स्वर्गीय गंगा को जमीन पर से होकर पाताल तक बहाना।

हनुमान का समुद्र लाँघना। अर्जुन का स्वर्ग में चलना और लौटना। बालक कृष्ण का गोवर्धन पर्वत उठाना। स्वर्ग में देवेन्द्र के शरणागत तक्षक को जन्मेजय के नाग यज्ञ में आकर्षित करना आदि। यह सब विवरण भारतीय संस्कृति की महिमा का मात्र दिग्दर्शन है- सभी के लिए

हस्ताक्षेप : "घर में चोरी हो गई और कीमती चीजें लुट गयी, इसका कारण घर की रखवाली में दोष है। यही हाल भारत का होता आया है। विभिन्न विदेशी आक्रमण अपने अधिकार, ज्ञान और विचारों को भारत में मनवाते आये है। सिकंदर, विश्व शासन के सपने में बह गया। कई शासक बने और बिगडे। लेकिन उनके प्रति मोह और अनुकरण प्रभाव डालते ही आ रहे है। यह अच्छा हुआ होता कि विदेशी अपनी-अपनी राहों को अपनाये होते। कुछ हस्ताक्षेप परखें जैसे-

माथे पर की लाल बिन्दी का खून से उपमा लगाना। भारत में, खासकर औरतो के निंदनीय पहनावे- ओढावे। शिशुओं को मम्मी-डैडी बोलने का अभ्यास कराना। मनमाने खान-खान उगादि की गौणता और अंग्रेजी नये साल का मदमस्त हवा में आह्वान अंग्रेजी भाषा का अत्यधिक समावेश। विलास सामग्री में औरतो को शिकार बनाना। तुलसी पूजा, पतिव्रता, धर्म आदि की ओर ऊँगली उठाना। भौतिकवाद को जन-जीवन में बहाना। भगवान-सूर्य, चंद्रमा, वायु, पृथ्वी आदि में रखी गई देवता भावना पर खगोलशास्त्र आदि का रंग जमाकर परिहास करना। मधु का सागर लहराना। मनमानी वासना प्रकोप। शादी में अंगूठी बदलवाना। मंत्रों को गौण रखते, मनमानी बातें, सजधज, बफे आदि के रंग जमाना। खासकर दलित लोगों में धर्म परिवर्तन। विस्तृत गिरिजा-मस्जिद निर्माण। नवीन पीढी में धार्मिक नशा फूँकना और मारकाट। किसी तरह अपनी संख्या बढाने की ठान। मंदिर गिराकर मस्जिद बनाने के पुराने कार्यक्रम के वर्तमान साक्ष्य । अपने को अल्पसंख्यक मानते और आरक्षण देने की माँग । देश में विधर्मी जनसंख्या को बढाना। विदेशी आर्थिक सहायता से भारत में अपने-अपने चार चाँद लगाना आदि। ये सब धार्मिक विदेशी हस्तक्षेप के कुछ प्रमाण मात्र हैं। ये इसलिए प्रकाश में आ सके कि भारत की धार्मिक कमजोरी, लोकतंत्रीय, धर्म निरपेक्षता की पाबंदी आदि अर्गलाएँ लगी हुई हैं।

आलोचना :

भारतीय संस्कृति की आलोचना दुनिया भर का कोई धर्म नहीं कर सकता, और अधिकारी भी नहीं होता। इसके कई कारण भी हैं जैसे

उनमें प्राचीनता का लोप । आत्म साक्षात्कार का अभाव। भोजन, शौच पवित्रता में मनमानी आदि। संस्कृत भाषा से पश्चिम ज्यादा परिचित भी नहीं। उनकी दृष्टि याँत्रिकता और भौतिक सुखी जीवन पर ही केन्द्रित है। वस्तु केन्द्रित दृष्टि हमेशा अंतर दृष्टि से अलग ही रहती है। वह कभी भी आत्मकेन्द्रित नहीं हो सकती। विश्व के भौतिक तत्वों की खोज में मादक पश्चिम, मरीचिका में मृग दौड़ की तरह समाप्त हो जाता है। ऐसा पश्चिम संस्कृति के विषय में भारत को क्या सिखाये ? क्या ठीक ठहर सके ? सच है यांत्रिक विज्ञान में भारत पश्चिम का अनुकरण व अनुसरण कर सकता है। लेकिन संस्कृति के विषय में पश्चिम भारत का अनुयायी रहे तो अच्छा होगा। केवल अपनी-अपनी धार्मिकता के मोह व नशे में भारत को संस्कृत करने की कोशिश करना सूरज को दीप दिखाना ही होगा। इसलिए पूरब और पश्चिम में विज्ञान और आध्यात्मिकता के आदान-प्रदान हो सकें तो विश्व का कल्याण होगा।

विकृत भारत : भारतीय संस्कृति की विकृति के लिए भारतवासी ही खास अपराधी होते हैं। लोकतंत्र भारत में धार्मिक नियंत्रण कदापि नहीं होता। इससे भारतीयों को अपनी मनमानी चलाने का अच्छा अवसर मिलता है। भौतिकवाद के चंगुल में फँस जाते है। “खाओ पीओ, मौज उडाओ" के शिकार बन जाते हैं। राष्ट्र में धोखा, अविश्वास पारिवारिक संघर्ष, तलाक आदि दिन-ब- दिन बढते हैं। समाज धन-प्रधान, रिश्वतखोर, मासूम पर कब्जा आदि फैलती रही हैं। ऐसी आग में उग्रवाद घी का काम करता है। मानवीय मूल्य सत्य, धर्म आदि की शीथिलता बनी है। स्वयं अपनी संस्कृति का मजाक उड़ाना देखा जाता है। स्त्री, बलहीन, बीमार आदि की सुरक्षा ठीक-ठीक नही हो पाती। एक को देखकर दूसरा भ्रष्टाचार में जकड़ जाता है। इस तरह भारतीय राष्ट्रीय जीवन डरावन, खतरनाक और घृणात्मक बन जाता है।

चेतावनी व सुझाव :

यदपि विलासी पश्चिमी बाढ को रोकना असंभव - सा है, तथापि भारतीय संस्कृति के नवजागरण के लिए कुछ प्रयत्न अवश्य करने है। पश्चिमी प्रभाव से भारतीय संस्कृति को ऊपर उठाने के लिए भोगवाद को नियंत्रित करना चाहिए। यह प्रक्रिया छोटे परिवार से ही शुरु हो जाय जैसे-"सादा जीवन उच्च विचार" की भावना लगे। यह खासकर महिलाओं द्वारा ही क्रियात्मक रहे। इसके लिए सरल जन-साहित्य द्वारा समाज में भारतीय सांस्कृतिक ज्ञान का प्रचार करना चाहिए। देश वासियों में, विद्यालयों के माध्यम से सत्य, धर्म आदि मानवीय मूल्यों के बीज बोने चाहिए। गीता, मनु स्मृति आदि को शिक्षा में स्थान देना चाहिए। उधर भारत के अन्य धार्मिक लोग भी, अक्कड़पन छोड़कर भारतीय आध्यात्मिकता का सहृदय अध्ययन करें और अपने को भी अमृतत्व की प्राप्ति तथा शाँतियुक्त सहजीवन के काबिल बनायें। सरकार भी धार्मिक उच्छृंखलता को राजनैतिक अपराध घोषित करे और कठिन कार्यवाही लेती रहे। यों ही भारत में सांस्कृतिक ढीलापन व पतन को देखते रहना सरकार के लिए न्याय संगत नहीं होगा। ऐसे न बनें तो भारत और विकृत हो जाएगा, भारतवासी अल्पसंख्यक बनेंगे और फिर से अपनी आजादी को खो बैठने का दस्तूर भी हो सकता है।

अतः भारत के सधर्मी -विधर्मी भाई-चारा रखें, भारत को अपना मानें और भारत की एकता और अखण्डता सदा बनाये रखते रहें।

सर्वेजनाः सुखिनो भवन्तु।

- डॉ. एम. श्रीरामुलु

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