संधि-समासों में उलझा राजनीति का व्याकरण : बी. एल. आच्छा

Dr. Mulla Adam Ali
0

Hindi Satire by B. L. Achha Ji : Hindi Vyangya

Grammar of politics entangled in sandhi-samaas

संधि-समासों में उलझा राजनीति का व्याकरण

- बी. एल. आच्छा

     राजनीति के संधि-समासों में करण ही होता है, व्याकरण नहीं।जब एनडीए और इंडिया नहीं थे, तब भी संधि-विच्छेद और समास विग्रह होते ही थे। शत्रु राजा के आक्रमण में कोई भेदिया -प्रत्यय ऐसा मिल जाता था कि पूरे भरोसे में ही सिंहासन का विच्छेदन हो जाता था। और बाद में भेदिया प्रत्यय का भी।पता नहीं आचार्य चाणक्य के पास कौन सा चेप था कि सिकंदर के आक्रमण को रोकने के लिए सारे डॉट और डॉट कॉम को एक ही सीरीज में ला दिया। देश बना, जनता को महादेश मिला । फिर भी बलिहारी है आज के लोकतंत्र की।यही कि अब पार्टियोंसे टूटते -जुड़ते आवाजाही के गलियारे स्वागत- संस्कृति के नगाड़ों से गूंजते रहते हैं।

        पर इन दिनों तो लगता है कि इस मौसम में बारहखड़ी के अक्षर जब- तब शिरोरेखा के खिलाफ बुलन्द हैं। पाणिनी को ही बुलवा लिया जाए तो इंग्लिश-हिंग्लीश सहित भाषाई पेंचों में इतने उलझ जाएंगे कि सारे संधि- सूत्र मुँह ताकते रह जाएँगे। अलग बात है कि राजनीति के सूत्र तो संधि-विच्छेद और समास विग्रह में ही लोकतंत्र की बुनियाद रचते हैं। कब संस्कृत का शब्द वोटर से निकटता जतलाने के लिए प्राकृत- अपभ्रंश की यात्रा करते हुए ठेठ देसी बखान कर देगा।कब ट्वीटर की चिड़िया बड़बोली व्यंजना में बवाल मचा देगी। और अगले ही स्टॉप पर मन के उबाल की ऐसी फूलमती भाषा से पत्थर बरसाएगी कि पार्टी को ही किनारा पड़ेगा- 'यह उनका निजी विचार है'। पार्टी को उनसे लेना- देना नहीं ,पर अपना बनाये रखना है। जो जितनी गिरी भाषा में बात कहेगा वही मीडिया का अष्टम स्वर बनेगा।अब ऐसी कचरा पंखुड़ियों को डस्टबिन में डालते- डालते कोई शहर तो स्वच्छता में नंबर वन हो जाता है, पर राजनीति का आकाश तो चैनलों में डम- डम डिगा- डिगा के साथ गगनभेदी हो जाता है। और लोकतंत्र के मंदिरों में बहसान जारी हो तो मामला ही सिरमौर हो जाता है।

    चुनावी मौसम में संधि-विच्छेद के अध्याय द्वंद्वात्मक हो जाते हैं। पार्टी विच्छेद हुआ नहीं कि नई संधि दरवाजे पर मोलभाव के लिए खड़ी हो जाती है। और दो की लड़ाई में समास का फल-भोक्ता तीसरा (बहुब्रीहि समास ) ही हो जाता है। कभी-कभी पति -पत्नी का योजक द्वंद्व समास घर में एका और बाहर में अलग- अलग पार्टीबाजी का बिजूका लिए लोकतंत्र को मजबूत करते जाते हैं।कई बार बरसों से जमे मूल शब्द उखड़ने का नाम नहीं लेते।हिलाओ तो पूरे इतिहास के कच्चे चिट्ठे खोलकर रख देते हैं। फिर पलट- बुद्धि और सुलट- बुद्धि के टूल बॉक्स बन जाते हैं। कभी घिसे औजार से गाड़ी दौड़ने लगती है। कभी नये औजार का जनाधार पुरानी गाड़ी में फिट हो जाता है।ऐसे में पुरानी संधियां दिले बेचारगी के अफसाने गाने लगती हैं।कभी जन्मजात दलीय उम्मीदवार ताकता रह जाता है।

     कभी बगावती तान के बावजूद पटकनी में गुत्थमगुत्था।जीत गये तो विच्छेद का सुर-भंग भी मान- मनौव्वल के बाद लौटने का स्वागत द्वार रचा जाता है। तब के बगावती टूल किट की बारूदी जबानें धमाका करती थीं। पर सारी बकरौली के बावजूद पुराने दरवाजों में लौटते ही सारा बारूद राजनीति के चेहरे का क्रीम मोइश्चराइजर बन जाता है।अजीब सा व्याकरण है। यह कैसा एलजेब्रा है कि 'ए' को 'ए स्क्वायर' करने जाओ तो हाथ मलते कुंआरे रह जाते हैं।जब बहुमत के जादुई आंकड़े के आसपास हो तो विजेता निर्दलीय भी छब्बे जी नहीं अट्ठेजी का बहुमान पा जाता है। और कहने को कि ये तो हमारे अपने ही हैं।

      जैसे ज्योतिष में राजभंग योग होता है वैसे संधि- विच्छेद और समास- विग्रह के लाभों का अंदरूनी गणित सिर चढ़कर बोलता है।कभी- कभी पिता-पुत्र लाल सुर्खियों में होते हैं। कभी चाचा-भतीजे। तालमेल के जोड़क सूत्र भारोत्तोलन करते रहते हैं।कभी पार्टियां टूट जाती हैं। फिर नये नामकरण।पर राष्ट्र और जन तो बरकरार रहते हैं , जैसे सरकारी बैंकों में इंडिया तो रहेगा ही। बहुत हुआ तो पार्टी के नाम के साथ ब्रेकेट में ए बी सी डी।पहले विद्वान लोग किताब का पाठ संपादन करते थे,अब राजनेता पार्टी- संपादन।और पार्टी संपादन करते- करते पार्टी का अध्यक्ष ही विरोधी किताब का पाठ बन जाता है।कहें तो अव्ययीभाव समास ही व्यय- भाव में छलांग लगा जाता है।

         यह समय अकेले चलने का नहीं है।गड़े-उखड़े रहने का नहीं है।शेयर बाजार की तरह मौसम विज्ञान या लाइट हाऊस को प्रेडिक्ट करने का है। शतरंजी गणित में अपने खाने को सुरक्षित रखने का है।अकेले अपना गीत गाने का नहीं, आर्केस्ट्रा में अपना सुर ताल साधने का है। बिना आर्केस्ट्रा के न तो अपने सध पाते हैं न पब्लिक का मिजाज। राजनीति के आर्केस्ट्रा में तो धुनों का समीकरण साधना पड़ता है।पर एक-दूजे के धुर विरोधी भी पुरानी जबानों के विडियो को एक्सपायरी डेट का नहीं होने देते।मौका देखा नहीं कि पुराने विडियो से सकपका दिया।

        कितना पुराना हो गया व्याकरण भी। केवल संस्कृत के शब्दों में ही संधि होती थी। बड़ी मुश्किल से हिन्दी के कुछ शब्दों में तालमेल बिठाया।अब तो शब्दों के तोड़-मरोड़ में ही व्यंजना के वार-पलटवार। राजनीति के संधि-समासों में मेल-मिलाप के विशेषण भी मीडिया में सिरफोड़ू शोर मचाते हैं। अब रोजमर्रा पालों की छलांग लगाते पेंचों का कोई व्याकरण बनाये तो बनाए कैसे?

- बी. एल. आच्छा

फ्लैटनं-701टॉवर-27

नॉर्थ टाउन अपार्टमेंट

स्टीफेंशन रोड(बिन्नी मिल्स)

पेरंबूर, चेन्नई (तमिलनाडु)

पिन-600012

मो-9425083335

ये भी पढ़ें; राजनीतिक व्यंग्य: कौन आरेला है, कौन जारेला है, किसको पता!

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top