हिन्दी मोटिवेशनल बाल कहानी हौसले की उड़ान : Hausale Ki Udaan Kids Story in Hindi

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Motivational and Inspirational Children's Story Hausle Ki Udaan

Housle ki udaan bal kahani in hindi

कभी नाकामियाब नहीं होती हौसले की उड़ान कहानी : बाल मन की कोमल भावनाओं को उकेरते है गोविंद शर्मा की बाल कहानियां, उनका बालकथा संग्रह हवा का इंतजाम से हौसलों की उड़ान पर ये कहानी बच्चों के लिए प्रेरणादायक है। ये बाल कहानियां तेजी से बच्चों के मन में जगह बना लेती है और उनको अच्छी सीख के साथ पढ़ने में मजा भी आता है। ऐसी ही एक कहानी है हौसले की उड़ान, हौसले से इंसान क्या प्राप्त कर सकता है इसमें बताया गया है। पढ़े बच्चों की ये अच्छी शिक्षा देनेवाली प्रेरक बाल कहानी और शेयर करें।

रोचक और नैतिक मूल्यों पर आधारित बाल कहानी

हौसले की उड़ान

नदी में बहते पानी या झील में ठहरे पानी के आसपास ही सभ्यताओं का विकास हुआ है। पानी के साथ अनेक घटनाएँ जुड़ी हैं। मानवीयता एवं मानव कल्याण की कहानियाँ बनी हैं। राजा भगीरथ की तपस्या से धरती पर गंगावतरण हुआ था। जब तक गंगा में पानी बहेगा, यह कथा जीवित रहेगी। आरुणि की गुरु भक्ति, भाई कन्हैया की सदाशयता की कहानियाँ पानी के साथ जुड़कर ही अबर हुई हैं। भगीरथ राजा थे। आरुणि आज्ञाकारी छात्र। भाई कन्हैया साधारण इन्सान। लेकिन सब का काम भावी पीढ़ियों के लिये प्रेरणा बना। उनके हौसलों ने कइयों को उड़ने के लिये हौसले के पंख दिये। इसी तरह की एक सच्ची कहानी है आसाराम की। आसाराम और पानी की कहानी। कहानी के प्रत्यक्षदर्शी लोग जब नहीं हैं पर उसके हौसलों की उड़ान अजर-अमर है।

बात है सन् 1921 के आस-पास की। हरियाणा के जिला हिसार के एक गाँव सिलाखेड़ा में एक युवक था-आसाराम, गरीब किसान। आसाराम की बहन का विवाह संगरिया के पाप्त के एक गाँव बोलांवाली में हुआ था। बहन विधवा होने पर उसे सहारे की जरूरत पड़ी तो आसाराम बोलांवाली में बहन की मदद करने के लिए आ गया। वहन के घर का खर्च चलाने के लिए आसाराम गाँव में मजदूरी करने लगा। भानजा बड़ा हुआ तो उसे पढ़ाने की सोची गयी। उन दिनों आस-पास में कहीं स्कूल 

नहीं था। संगरिया में एक स्कूल था-जाट मिडिल स्कूल । मिट्टी की ईंटों से बने कच्चे कोठे दिन में कक्षा-कक्ष होते तो रात में छात्रावास।

इसी स्कूल में भानजे को प्रवेश दिलवाने के लिए आया आसाराम । अनपढ़ आसाराम ने पहली बार किसी स्कूल के दर्शन किए थे। गाँव में अभावों में घिरे घर से भी ज्यादा कठोर जीवन होता था उन दिनों के ऐसे छात्रावासी स्कूलों का। ऊपर से अध्यापकों का भय भी विद्यार्थियों के दिलो-दिमाग पर छाया रहता था। अपने भानजे का यहाँ जी लगाने के उद्देश्य से आसाराम दो-चार दिन स्कूल में ठहर गया। इन दो-चार दिनों में हठी आसाराम और स्कूल का ऐसा नाता जुड़ा कि आसाराम की कुछ वर्षों (सन् 1921 से 1928 तक) की जिन्दगी एक दंतकथा बन गई।

आसाराम स्कूल में ठहर गया। बिना किसी वेतन भत्ते के वह स्कूल का काम करने लगा। काम? आसाराम अनपढ़ था। इसलिए अध्यापक नहीं बन सका, वह विचारक नहीं था, इसलिए स्कूल का विस्तारक भी नहीं कहलाया। पर सेवक था, समर्पण की भावना थी उसमें। उसने अपने आपको ऊँचे-नीचे रेतीले धोरों के बीच स्थित इस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की सेवा में समर्पित कर दिया। स्कूल उन दिनों घोर आर्थिक संकट से जूझ रहा था।

पीने के पानी का सर्वथा अभाव का अभिशाप तो उन दिनों यह क्षेत्र भुगत रहा था। पीने का पानी वर्षा होने पर कुछ कुण्डों में संग्रह किया जाता था। कुंड बनाना भी हरेक की क्षमता नहीं थी। बरसात भी बहुत कम होती थी। ऐसे में पीने के पानी का एकमात्र स्रोत था-पाँच किलोमीटर दूर चौटाला गाँव का कुआं। लोग अपने पीने का पानी नियमित रूप से चौटाला से लाते थे। स्कूल में भी बैलगाड़ी पर रखी पानी की टंकी होती थी। उससे रोजाना चौटाला से पानी लाया जाता।

अब यह काम आसाराम ने संभाल लिया था। वह रोजाना पानी की टंकी साफ करता, बैलों की देखभाल करता, चौटाला गाँव में जाकर पीपों के सहारे पानी की टंकी को भरता, रेत के ऊँचे-नीचे टीलों से होता हुआ संगरिया आता। यहाँ रोजाना घड़े, मटके साफ कर उनमें पानी भरता, बच्चों को पानी पिलाता भी। स्कूल के पास से गुजरते राहगीर भी पानी पीते थे।

इसके अलावा स्कूल के कच्चे कोठों की मरम्मत करता, गोबर मिट्टी से बने गारे से स्कूल का फर्श लीपता था। प्रति वर्ष बरसात से पहले, स्कूल के कच्चे कोठों की छतों की मरम्मत करता, उन्हें लीपता था। अपने घर को सुरक्षित रखने के लिए, उसे चलाने के लिए घर के लोग जो काम करते हैं, वे सभी काम आसाराम करता या। वह चौबीस घंटों का सेवक था। बदले में दो वक्त की रोटी। और क्या चाहिए जीने के लिए?

स्कूल में रहकर आसाराम पढ़ा नहीं, उसने कभी कोई परीक्षा नहीं दी। पर जीवन में परीक्षाओं के क्षण आते रहते हैं। कुछ उनसे बच कर निकल जाते हैं, कुछ विकल भी हो जाते हैं। कुछेक ऐसे होते हैं जो कठिन परीक्षा से भी नहीं घबराते हैं। परीक्षा की आग में तपकर सोने से कुंदन बन जाते हैं। परीक्षा उनके लिए चुनौती होती है। आसाराम भी परीक्षा की इस घड़ी में ऐसा सफल हुआ कि दंतकवा बन गया। आसाराम पुरावन जल आधारित भारतीय संस्कृति एवं भारतीय सामाजिकता का संग्राहक बन गया।

एक दिन आसाराम की गाड़ी का एक बैल अचानक मर गया। तुरन्त दूसरा बैल नहीं मिला। स्कूल की आर्थिक दशा इतनी खराब थी कि संचालक दूसरा बैल खरीदने की सोचने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे।

दो बैलों की गाड़ी एक बैल से नहीं चल सकती। बैलगाड़ी ना चले तो पाँच किलोमीटर दूर चौटाला से पानी कैसे आए। पानी ना आए तो स्कूल के बच्चे प्यासे रहें, राहगीर प्यासे रहे। अब क्या करें आसाराम? क्या विद्यार्थियों को प्यासा रहने दे? स्कूल के कुछ छात्र तो इस हालत को देखकर बुरी तरह घबरा गये। कुछ ने तो यह भी सोच लिया कि स्कूल-छात्रावास छोड़कर दूर अपने गाँव में चले जायेंगे, जहाँ पीने का पानी मिलता है।

नहीं, आसाराम ने आशा की ज्योति बुझने नहीं दी। उसने पानी की टंकी को साफ किया। एक बैल को एक तरफ गाड़ी में जोता, दूसरी तरफ बैल की जगह स्वयं को जोता और चल पड़ा पानी लाने के लिए चौटाला की ओर। लोग उत्तके दुस्साहस पर हँसे भी। यही उम्मीद की कि अभी खाली टंकी लेकर वापिस आ जायेगा। नए युग के नए भगीरथ को देखकर गर्मी के दिन का सूर्य और भी प्रचंड हो गया था।

आसाराम वापिस लौटा, मगर खाली हाथ नहीं, पानी से भरी टंकी लेकर। उस दिन से उसका यही काम बन गया। दिन, सप्ताह, महीने बीते, आसाराम का यह क्रम अनवरत चलता रहा। तब तक चलता रहा, जब तक दूसरे बैल की व्यवस्था नहीं हो गई। बैलगाड़ी खींचने से उसके कंधे और गर्दन के बीच की चमड़ी मोटी और काली होकर बैल की खाल की तरह बन गई। पर आसाराम ने अपने होते किसी को प्यासा नहीं रहने दिया।

लगभग 1928 में शरीर से अशक्त होने पर आसाराम अपने घर चला गया। उसकी घर की जिन्दगी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिली। दूसरों की सेवा करने के लिए बैल की जगह गाड़ी में खुद को जोतने वाला आसाराम सेवा और समर्पण की अद्वितीय मिसाल बन गया। पर स्कूल बच गया। कोई छात्र स्कूल छोड़कर नहीं गया। सौ वर्ष से ज्यादा उम्र का वह स्कूल आज भी अपने पूर्ण विकसित और आधुनिक रूप में शिक्षा प्रदान कर रहा है।

- गोविंद शर्मा

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