महादेवी के संस्मरण : मानव और मानवेतर की रागात्मकता

Dr. Mulla Adam Ali
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Book review in Hindi : Mahadevi Ka Manvetar Pariwar - Smritiyon Ka Rachana Sansar : Shruti Sharma

Mahadevi Ka Manvetar Pariwar- Smritiyon Ka Rachana Sansar book review

महादेवी के संस्मरण : मानव और मानवेतर की रागात्मकता

- बी. एल. आच्छा 

       हिन्दी की छायावादी काव्यधारा जितनी स्वर्णिम समृद्ध है, उस काल का गद्य भी उतना ही गौरवमय। जो लोग छायावादी काव्य को ' ले चल मुझे भुलावा देकर के भ्रांत विश्लेषण से पलायनवादी कह देते हैं, उनके लिए छायावादी कवियों का गद्य सशक्त उत्तर-मीमांसा है। इन कवियों की राष्ट्रीय चेतना इस मानवीय बिन्दु पर ही तो केन्द्रित है -"शक्ति के विद्युत कण जो व्यस्त,विकल बिखरे हो निरुपाय। समन्वय उसका करें समस्त, विजयिनी मानवता हो जाय।"

  पर गद्य में यह चेतना लोकजीवन में उतरकर आई है। विशेषकर महादेवी के संस्मरणों- रेखाचित्रों ने तो हिन्दी गद्य को लोकहृदय तक ही नहीं, पशु पक्षियों की वेदना की समकक्षता तक पहुँचाया है। "मानव तुम सबसे सुन्दरतम" का गुंजार करती पंतजी की काव्य- पंक्ति भी तभी सुन्दरतम बनती है, जब महादेवी के घीसा - लछमा से लेकर मेरा परिवार के पशुपक्षियों के संवेदनशील चरित्र को उकेरती है। श्रुति शर्मा ने अपने शोधकार्य 'महादेवी का मानवेतर परिवार' में इसे तलस्पर्शी मानवीय संवेदन का विस्तार मानवेतर चरित्रों में बहुत गहराई से लक्षित किया है।

     यह पुस्तक इस रूप में उल्लेखनीय है कि संस्मरण विधा को व्युत्पत्ति,संस्कृत साहित्य और हिन्दी की विविध विधाओं के सन्दर्भों से ही नहीं जोड़ा गया है, बल्कि अँग्रेजी साहित्य में इसकी अवधारणा से विधा के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। संस्मरण के मूल भाव को लेखिका ने एक पंक्ति में आबद्ध किया है- "संस्मरण का सारा मामला भौतिक आबद्धता और रागलिप्तता का है।" तय है कि मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ, स्मृतियां, तन्मयता, स्मृति की तरंगें, प्रसंगों-चरित्रों के प्रति आसक्ति, स्मृति चित्रों का शब्दांकन और निर्वैयक्तिक वैयक्तिकता तो व्यंजित होगी ही। तब यह राग भाव पूरी तटस्थता के साथ उन चरित्रों से स्मृतिमान हो जाएगा, जिनसे लेखक का लगाव रहा है। पर संस्मरण केवल व्यक्ति-चरित्रों तक सीमित नहीं रहे। उनका वर्ण्य-विषय आत्म-वृत्तान्त की खोल से निकलकर यात्रा- वृत्तान्त, रम्य प्रकृति या स्थान तक विस्तार पा जाता है। महादेवी के मानवेतर पात्रों में मनुष्य-संभवा चित्तवृत्तियों का सहज चित्रण विलक्षण है। श्रुति शर्मा ने जशास्त्रीय सूक्ष्मताओं के साथ संस्मरण विधा का जितना विश्लेषण किया है, उतना ही महादेवी के मानव और मानवेतर पात्रों का भी। 

    विशिष्ट स्मृति, घटना, विशिष्ट चरित्र की सघन चेतना के साथ रागात्मक आसक्ति,आत्ममुग्धता से अनासक्त स्मृति की सजल सकारात्मकता और संवेदना का गहरा सन्निवेश जब स्मृति-राग बनने लगते हैं, तो शब्दचित्र चित्तवृत्तियों को भी मुखर कर जाते हैं। लेखिका ने अन्य विद्वानों की तरह माना है कि व्यक्ति के अतिरिक्त कोई जीव, कोई स्थान-स्थल, कोई प्रकृति क्षेत्र, कोई घटना, दृश्यादि भी चरित नायक की तरह वर्ण्य विषय हो सकते हैं। संस्मरणात्मक साहित्य के तत्वों का के विन्यास में चरितनायक से आत्मीय संबंध, मानव या मानवेतर या वर्गवादी धारणा से भिन्न कोई भी पात्र, दृश्यबंध, मूल्यचेतना के साथ पाठक की संवेदना का भावन, अनुभूत सत्य के पाठकीय रूपान्तरण की कलात्मकता, चरित्र के श्वेत-श्याम पक्षों का यथार्थ, चित्रमयता के रंगोज्ज्वल रूप, संस्मरणों में लेखक की उपस्थिति, विषयानुरूप भाषिक संरचना जैसे अनेक तत्वों का महादेवी के संस्मरणों के माध्यम से विवेचन दिशादर्शक है।इसे डॉ. कांतिकुमार ने लिंग्विस्टिक इंजीनियरिंग कहा है। 

     संस्मरण से निकटवर्ती बल्कि अंत:संक्रमित अनेक विधाएँ हैं। रेखाचित्र, ललित निबंध, रिपोर्ताज यात्रा वृत्तान्त जैसी विधाओं में ये अन्त:संक्रमण इसतरह एकमेक हो जाते हैं कि महादेवी के संस्मरणात्मक साहित्य को संस्मरणात्मक रेखाचित्र भी कह देना पड़ता है। पर इन सभी विधाओं में निबन्धकार की उपस्थिति बनी रहती है, उसका निर्वैयक्तिक व्यक्तित्व उत्कीर्ण होता चला जाता है। यों भी निबंध ही ऐसी विधा है, जिसमें लेखक अपने पाठक से सीधे रूबरू होता है। इनमे लेखक का समकाल भी झाँकता है, लोक से मुखातिब रहने की भावना के साथ सामाजिक साक्षात्कार भी।पर चित्तवृत्तियों का मनोविज्ञान तहों में बसा रहता है ,भाषा के चित्रमय स्थापत्य में। यही संस्मरणों का भावन-व्यापार है, जो सर्जक को पाठक से बिना किसी नाटक के पात्र या अमूर्त काव्य दर्शन के सीधे जोड़ता है। लेखिका ने संस्कृत अँग्रेजी और हिन्दी के प्रभूत संस्मरणात्मक साहित्य के माध्यम से इस विधा के तत्त्वबोध को स्पष्ट किया है। फिर भी रेखाचित्र और संस्मरण में अनेक विद्वानों के सूत्र-संकेतों को समेटते हुए यह बारीक पंक्ति दोनों विधाओं की विभेदक है- "संस्मरण और रेखाचित्र के बीच भेद का सारा मामला लेखकीय संपृक्ति भाषिक अंकन की प्रक्रिया पर टिका है, अन्यथा दोनों में अभेद संबंध है।"

      हिन्दी में संस्मरण साहित्य के युगीन विकास को देखकर लगता है कि इस विधा का कोष भी सुदीर्घ और प्रयोगधर्मी रहा है। भारतेन्दु काल के समृद्ध यात्रा वृत्तान्त, द्विवेदी युग में विषय विस्तार, प्रसाद-प्रेमचन्द युग में कलात्मक विन्यास के साथ प्रभूत रचनाएं हैं।प्रेमचन्दोत्तर युग में संस्मरण-रेखाचित्रों की युति वाले शिल्प के साथ मानव और मानवेतर पात्रों का विशिष्ट नियोजन और नयी शैलियों का विकास महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही इन विधाओं का समालोचना साहित्य भी प्रकर्ष पाता रहा। सचमुच में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इतने लेखकों की संस्मरणात्मक कृतियाँ हिन्दी की संजीवनी है।

      महादेवी के संस्मरण साहित्य को लेखिका ने मानव और मानवेतर चरित्रों में विभक्त किया है। महादेवी की नौ गद्य कृतियों में चार संस्मरणात्मक कृतियाँ हैं - अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी और मेरा परिवार।'मेरा परिवार' ही मानवेतर संस्मरण-कृति है। मानव केन्द्रित कृतियों में अतीत के चलचित्र तथा स्मृति की रेखाएँ साधारण वर्ग के निरीह पात्रों की आत्मीय स्मृतियाँ हैं, जिनके माध्यम से "उत्पीड़ित- शोषित, अपमानित दबे-कुचले, प्रताड़ित और उपेक्षित लोगों को समाज और राष्ट्रीय मुख्यधारा में शामिल करना था ।लेखिका ने उस काल के समाजशास्त्र को भी रेखांकित किया है, जो इन संस्मरणों का आख्यान है। अशिक्षा, अज्ञानता अश्पृश्यता, गरीबी, उपेक्षित नारी, वर्ग भेद, जाति- प्रथा जैसे अनेक पक्ष भारतीय समाज की रुढिबद्धता और जड़ता के कारक रहे हैं। महादेवी के इस संस्मरणों में इनसे जुड़े पात्र उनकी आत्मीयता का स्पर्श पाकर गरीबी के बावजूद साहित्य का अभिजात्य बन गये है। हजारों पाठकों की संवेदनीयता और सामाजिक बदलाव की भावान्तर सगुणता।इनकी विशेषता संस्मरण और रेखाचित्र की संधि-रेखाओं में उतरता सामाजिक संवेदन है। इसीलिए ये व्यक्ति-चरित्र भी हैं और सामाजिकी का यथार्थ अंकन भी । वैयक्तिक वैशिष्ट्य यह कि महादेवी का समतामूलक ममत्व पाकर ये चरित्र जितने महनीय बने हैं, उतना सतरंगी कविता का अभिजात संसार भी नहीं।महादेवी के तरल कक्तित्व, उनकी संवेदनशीलता, व्यापक सहानुभूति, पारदर्शी निश्छल हृदय, परदुखकातरता, सूक्ष्म अन्वीक्षण शक्ति, वस्तु को सर्वांगता में देखने की व्यापक दृष्टि, नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा और लेखकीय कौशल जैसी विशेषताओं को लक्षित कर श्रुति शर्मा ने सैद्धान्तिक विमर्श की स्थापना को सिद्धि दी है।इन संस्मरणात्मक चरित्रों की सामाजिकी का यथार्थ बालविवाह, विमाता की क्रूरता, परित्यक्ता औरत की नारकीय दुनिया, अनमेल या बहुविवाह,अवैध मातृत्व, विधवा स्त्री को यातनाएँ जैसी सामाजिक विकृतियों का चित्रांकन है, जिसे लेखिका ने युगबोध के रूप में विश्लेषित किया है। श्रुति शर्मा का यह कथन केन्द्रीय है-" ये सभी संस्मरण नारी विमर्श के व्यावहारिक आख्यान हैं।" इनका कथात्मक शिल्प और पात्रों की मन:स्थितियों की सजीव संवेदन- भाषा विशिष्ट है।

    "स्मृति की रेखाएँ" के सात चरित-नायकों में जितने घर-परिवार के रिश्ते और पिछड़े-उपेक्षित वर्ग का जनजीवन है, उसमें भीतर-बाहर के यथार्थ मनोविज्ञान और अर्थ- समाजशास्त्र का गहरा सन्निवेश है। महादेवी व्यक्तिपात्र को वर्गीय पात्र बना देती हैं, मगर उन्हें बाहरी यथार्थ के साथ आंतरिकता को जोड़े बगैर नहीं लातीं। कृषि संस्कृति और अशिक्षित जीवन की लांछनाएँ यह कहने को बाध्य कर देती हैं- " वास्तव मे गाँव का जीवन इतना उत्पीड़ित और दुर्वह होता जा रहा है कि उसमें मनुष्यता के विकास के लिए अवकाश मिलना ही कठिन है।" लेखिका ने इन संस्मरणों के शिल्प की बीजभूमि में काव्यात्मकता, सादृश्यमूलक प्रतीकों का नियोजन, लेखिका का सामाजिक दृष्टिकोण और संवेदन के हृदयतल की स्पर्शिनी अभिव्यक्ति का अवलोकन किया है।

और तब वे महादेवी के संस्मरण 'जंगबहादुर' का यह वाक्य उद्‌धृत कर ही देती हैं-' मनुष्य ने मनुष्य के प्रति अपने दुर्व्यवहार को इतना स्वाभाविक बना लिया है कि उसका अभाव विस्मय पैदा करता है और उपस्थिति साधारण लगती है।

     'पथ के साथी' में सात समकालीन विशिष्ट साहित्यकारों के स्मृतिचित्र विलक्षण है। महादेवी के मानसपटल पर श्रद्धा से अंकित ये चरित्र आत्मीय हैं,पर उनके व्यक्तित्व पक्ष की कमजोरियों की अनदेखी नहीं करते -"निराला जी के सौहार्द और विरोध दोनों एक आत्मीयता के वृंत पर खिले हुए दो फूल हैं। वे खिलकर वृंत का श्रृंगार करते हैं और झड़कर उसे अकेला और सूना कर देते हैं।" कवीन्द्र रवीन्द्र की व्यापक काव्य-सम्मूर्तता, प्रसाद का मनस्वी संकोची व्यक्तित्व, सुभद्राकुमारी चौहान का राष्ट्रीय चेतना के साथ सामाजिक बंधनों को ध्वस्त करने वाला तेज विशिष्ट झंकृति बन पड़े हैं। पर सभी संस्मरणों में कथात्मक विन्यास में आत्मीयता के साथ व्यक्तित्व के अन्तर्बाह्य को पहचानने की दृष्टि इन संस्मरणों को कुछ अलग-सा बनाती है। इसीलिए लेखिका ने संस्मरण विधा के तत्वों से अलग इनकी शक्ति का मूल्यांकन दिया है- "इन संस्मरणों की असल ताकत - स्मृत्य की यथार्थ और सजीव तस्वीर का चित्रांकन-को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।"

      इस पुस्तक का केन्द्रीय विमर्श तो संस्मरण विधा में मानवेतर पात्र और महादेवी के मानवेतर संस्मरण ही है। "मेरा परिवार" महादेवी की अनूठी संस्मरण-कृति है, जो मानवेतर पात्रों को अपने परिवार मे न केवल मनुष्यों की तरह बसाती है, बल्कि उनके भीतर मानवीय चरित्र कीं सभी चित्तवृत्तियों और कारनामों की आत्मीयता को बिना उद्विघ्न हुए सहजता से चित्रित करती हैं। महादेवी लिखती है-" पक्षी जगत में ही नहीं, पशु जगत में भी मनुष्य की ध्वंसलीला ऐसी ही निष्ठुर है। पशु जगत में हिरण-जैसा निरीह और सुन्दर दूसरा पशु नहीं है- उसकी आँखें तो मानो करुणा की चित्रलिपि हैं। परन्तु इसका भी गतिमय, सजीव सौन्दर्य मनुष्य का मनोरंजन करने में असमर्थ है। मानव का जो श्रेष्ठतम रूप है, जीवन के अन्य रूपों के प्रति इतनी वितृष्णा और विरक्ति, और मृत्यु के प्रति इतना मोह और आकर्षण क्यों?" यह केवल वैष्णवी आस्था की अभिव्यक्ति नहीं; बल्कि महादेवी के गद्य के भीतर का काव्यात्मक दर्शन है। यह दर्शन पशुबलि और पक्षियों के शिकार तक ही नहीं ले जाता बल्कि संवेदनात्मक, धरातल पर मानवेतर राग की सहृदयता को भी काम्य बनाता है। लेखिका ने संस्कृत और हिन्दी साहित्य की प्रमुख रचनाओं में पशु-पक्षियों के प्रति व्यक्त रागात्मकता का उल्लेख पंचतंत्र की कथाओं से लेकर कामायनी, गोदान, दो बैलों की कथा और पूस की रात तक किया है।

      इस पुस्तक का विशिष्ट अध्याय है- मानवेतर संस्मरणों के पात्र - नीलकंठ (मोर) गिल्लू (गिलहरी) सोना (हिरना) दुर्मुख (खरगोश) गौरा (गाय) नीलू (कुत्ता), निक्की(नैवला) रोजी (कुत्ती) और रोजी (टट्टू)। पर इनके साथ चित्रा (बिल्ली) राधा (मोरनी) लक्का (कबूतर) कुब्जा (मोरनी), कजली (कुत्ती) गोधूली (बिल्ली) हेमंत - बसन्त (कुत्ते) फलोरा (कुत्ती) हिमानी (खरगोश) 'लालमणि (बछड़ा) लूसी (कुत्ती ) जैसे इक्कीस पात्र भी शामिल हो गये हैं। इन पात्रों के नामोल्लेख में एक घरेलू आत्मीयता, नामों के विकार में वात्सल्य, संस्कृत नामों में 'अन्वर्थ- नाम्नीयता अर्थात् चरित्रानुसार नामकरण विशिष्ट है। इन सभी की प्रकृति अनुरोधी-विरोधी भी है। पर बकौल बिहारी के ये महादेवी के परिवार के तपोवन के पात्र हैं। इनकी परिस्थितियों, साहचर्य के प्रसंग, स्वभाव, प्रेम, झगड़े और यहाँ तक कि मनोभावों को भी बहुत बारीकी से व्यक्त किया गया है। इन सभी पात्रों के स्वभाव और साहचर्य , राग-विराग की कुंडली का संक्षिप्त परिचय देकर उनके भीतर की चित्तवृतियों में मानव मन और प्रकृति का इजहार किया है- "दुर्मुख(खरगोश) अपनी जाति के स्वभाव के सर्वथा विपरीत क्यों था। संभवत: उसके जन्मते ही बिल्ली का उसके मां-पिता और भाई- बहनों की हत्या का नृशंस कृत्य रहा होगा। क्या पता, माँ की स्नेह छाया में बड़े होने पर शायद वह खरगोश दुर्मुख इतनी नकारात्मक प्रकृति का और अकारण क्रोधी न होता।" यहाँ महादेवी का सूक्ष्म अवेक्षण और उनकी सहृदयता का मानुषभाव एकमेक हो जाते हैं। लेखिका ने प्रत्येक मानवेतर पात्र की सहज-असहज, अनुरोधी-विरोधी चारित्रिक विशिष्टिताओं का वैसा ही आकलन किया है, जैसा संस्मरणों के मानव चरित्रों का।कथातत्त्व तो इनकी दैनंदिन चर्या में ही रूपायित है।

        इन मानवेतर संस्मरणों के आकलन में लेखिका ने उन सूक्ष्म बिन्दुओं को रेखांकित किया है, जो इन चरित्रों को संवेदनीय पठन से जोड़ देते है। संवेदना की सघनता, सर्जक की सहृदय वैचारिकता, परिवेश की निर्मिति, चित्तवृत्तियों के अनुरूप सूत्र-वाक्य, कथातत्त्व का नियोजन और फ्लैश बैक पद्धति का प्रयोग, विशिष्ट पशु की जाति और सामूहिक विशेषता का परिचय, मानवीय अनुभूति अनुरूप संवेदना की तलस्पर्शिता, आधुनिक मानव सभ्यता और मूक प्राणियों के बीच मूल्य चिन्तन, मानवेतर पात्रों की मनोभूमि का प्रत्यंकन, पशु-पक्षी मनोविज्ञान का निरपेक्ष अवलोकन, जैसी अनेक विशेषताएँ इन संस्मरणों के चरित्रों को जीवन्त मानवीय धरातल देते हैं। दरअसल लेखिका ने इन मानवेतर पात्रों की जीवन्त रचना में महादेवी के व्यक्तित्व को भी तलाशा है। महादेवी का जीवन के प्रति महादेवी का सूक्ष्म दृष्टिकोण, मानवेतर प्राणियों के मनोविज्ञान की पहचान, पारिवारिक सदस्य की तरह नामकरण और आत्मीयता का संसार, पौराणिक एवं साहित्यिक- सांस्कृतिक परम्परा में उनकी उपस्थिति, परिवेश एवं प्रकृति के बीच चिन्तन के सूत्र, मानवेतर पात्रों के साहचर्य से आनन्द तत्व की अनुभूति जैसे अनेक पक्ष महादेवी के व्यक्तित्व की अंतर्भुक्ति से ही स्पर्शिल बन पाये हैं। सहृदय मानव और मानवेतर पात्रों की संधि का यह तपोवन इन्हें आधुनिक सभ्यता तक भी ले आता है; जहाँ वैचारिकी भी है और गहरे व्यंग्य भी। पर गद्य विधा में चित्रात्मकता के साथ महादेवी का यह स्पर्श पशु-पक्षियों से प्रेम और मानवीय संस्कृति के संवेदनीय रंग पाठक में उतर आते हैं-"मैं अपने शाल में लपेटकर उसे (गिल्लू-गिलहरी ) संगम ले गयी। जब गंगा की बीच धारा में उसे प्रवाहित किया गया, तब उसके पंखों की चन्द्रिकाओं से प्रतिबिम्बित होकर गंगा का चौड़ा पाट एक विशाल मयूर के समान तरंगित हो उठा...।" महादेवी के संस्मरणों में यही मानव और मानवेतर की संधि है और मिलाप की सामासिकता ।इस रूप में यह पुस्तक पठनीय ही नहीं, अकादमिक अनिवार्यता की पोषक है।

पुस्तक का शीर्षक - महादेवी का मानवेतर परिवार

लेखिका - श्रुति शर्मा

प्रकाशक - आर्यावर्त संस्कृति संस्थान, दिल्ली 

प्रकाशन वर्ष - 2022

मूल्य -₹450/-

- बी. एल. आच्छा

फ्लैटनं-701 टॉवर-27

नॉर्थ टाउन अपार्टमेंट

स्टीफेंशन रोड (बिन्नी मिल्स)

पेरंबूर, चेन्नई (तमिलनाडु)

पिन-600012

मो-9425083335

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