समकालीन हिन्दी उपन्यासों में चित्रित ग्रामीण राजनीति

Dr. Mulla Adam Ali
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Rural Politics as depicted in Contemporary Hindi Novels

Rural Politics as depicted in Contemporary Hindi Novels

समकालीन हिन्दी उपन्यासों में चित्रित ग्रामीण राजनीति

      प्रजातंत्रीय व्यवस्था बनाम नई सामंती व्यवस्था : सन् 1947 में भारत आजाद हुआ। आजादी के बाद परिवर्तन की लहर देश में आई और ग्रामों तक पहुँच गयी। नियोजनबद्ध अर्थव्यवस्था के कारण ग्रामसुधार के लिए देश की बहुत बडी पूंजी खर्च होने लगी। ग्रामीण सामुदायिक विकास के लिए 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम की बुनियादी बात यह थी कि इसमें ग्रामीण जनता की सेवा हो और यह यथासंभव अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचे । 1970 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम का निर्माण किया। जिसका उद्देश्य या ग्रामों में रोजगार के अवसर अधिकाधिक निर्माण किये जाये, ताकि ग्रामीण इलाकों में प्रत्येक भूमिहीन किसान परिवार के कम-से-कम एक आदमी को एक सौ दिन एक रोजगार उपलब्ध हो सके और ऐसी स्थायी पूंजी पैदा की जाए जिससे देहात का औद्योगिक ढांचा इतना मजबूत बने कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का तेजी से विकास हो । भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1989 में जवाहर रोजगार योजना बनायी। । इस योजना की विशेषता थी, इसे प्रत्येक पंचायत तक पहुँचाना। इस प्रकार भारत में रहने वाले लाखों परिवारों जो "निर्धन रेखा" के नीचे हैं, ग्राम योजना का लाभ उठा सकेंगे। इसके बाद "भूमि सुधार कार्यक्रम" बनाया गया। इसे कार्यक्रम के अंतर्गत सभी फालतू और बंजर जमीन भूमिहीनों में बांटने की योजना बनायी गयी। स्वतंत्रता मिलने के बाद देश की 40 प्रतिशत से ऊपर जो जमीन जागीरदारों, इनामदारों जैसे भूस्वामियों के पास थी, वे सीधे कास्तकारों के दे दी जायेगी। कास्तकारों को मलिकाना हक देने के लिए उन्हें जमीन जोतने की सुरक्षा- राज्यों को देनी थी।

भारतीय अर्थव्यवस्था कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था है। भारत ग्रामों से बना हुआ। देश का विकास करना हो तो ग्रामों का विकास करना आवश्यक है। इसी बात को ध्यान में रखकर ग्राम विकास की संकल्पना सामने आयी। ग्राम विकास यह वितरण संकल्पना है। इसमें ग्रामीण विकास से संबंधित सभी घटकों का विकास अपेक्षित होता है। इसमें कृषि, उद्योग, छोटे उद्योग, बडे उद्योग, यातायात, बाज़ार, शिक्षा, वैद्यकीय सेवा आदि का समावेश किया जाता है। जब इन सभी घटकों का विकास होगा तब ही ग्रामों का विकास होगा। ग्रामों का विकास होगा तो देश का विकास होगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि को अत्यन्त साधारण महत्व है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीड की हड्डी है। भारतीय कृषि ग्रामों में बिखरी हुई है। ग्रामीण अंचलों का विकास करने के सिवा देश का विकास नहीं होगा। ग्राम विकास करने हेतु भारत सरकार ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण सरकारी कृषि संस्था, अग्रणी बैंक योजना प्रादेशिक ग्रामीण बैंकों का निर्माण, कृषि वित्त निगम, नाबार्ड बैंक आदि का निर्माण किया। कृषि का दीर्घकालीन विकास करने के लिए भूमि विकास बैंक का निर्माण किया। गया। यह बैंक किसानों को कुएँ खुदवाना, ट्रैक्टर, कृषि उपयोगी यंत्र, बिजली कैम्प आदि अनेक कृषि उपयोगी वस्तुओं को खरीदने के लिए कम ब्याज पर दीर्घ मुद्रा का ऋण देता है।

ग्रामीण विकास में सरपंच की भूमिका अहम् होती है। बलवंतराय मेहता समिति की सिफारिश से पंचायत राज की संकल्पना सामने आयी। इसमें जिला, तहसील और ग्राम स्तर जिला परिषद पंचायत समिति और ग्राम पंचायत की स्थापना की गयी। ग्राम विकास योजना को कार्यान्वित करने के लिए "ग्रामसेवक" पद का निर्माण किया गया। 1960 के आसपास ग्रामसेवक प्रशिक्षण केंद्र का निर्माण किया गया। ग्रामसेवक शासन का प्रतिनिधि है। वह सरपंच को साथ लेकर ग्राम सुधार करता है। ग्राम विकास के लिए सरपंच को प्रशिक्षण देना भी आवश्यक है। ग्रामविकास में सरपंच प्रमुख होता है। प्रसिद्ध विचारक डॉ.ए.ए. कोठीश्वाने का कहना है- "ग्राम विकास के लिए सरपंच को प्रशिक्षित करना आवश्यक है। सरपंच ने ग्रामसेवक के साथ तालुका पंचायत समिति से संपर्क रखकर उनका मार्गदर्शन लेकर उनके ग्रामविकास योजना पंचायत समिति और जिला परिषद से पारित करा लेनी चाहिए। ग्रामपंचायत यह लोकशाही विकेंद्रीकरण की अंतिम तथा महत्वपूर्ण संख्या होने के कारण विकास की दृष्टि से ग्रामसेवक के साथ मिलकर कार्य करने से ही ग्राम का विकास होगा।"¹ इन सभी विकास योजनाओं पर करोडों रुपये खर्च किए जा रहे हैं। फिर भी आम जनता का सर्वांग विकास नहीं हो पाया। शोषण के चक्र से वह आज भी मुक्त नहीं हो पाये हैं। जमींदारी उन्मूलन, भूमि सुधार, सरकार, ग्राम-शिक्षा आदि पर निरन्तर जोर दिया जा रहा है। फिर भी आम जनता जहां है वहीं है। इन सारी सुविधाओं और सुधारों का लाभ वही पूंजीपति और जमींदार उठा रहे हैं जो आजादी के पूर्व भी अपने शक्ति को बनाये रख सके थे। असमय परिवर्तन के साथ उन्होंने सामन्ती व्यक्तित्व को त्यागकर उदारवादी रूप धारण कर लिया। वह राजनीतिक दलों, शिक्षा-संस्थाओं, सहकारी यंत्रणाओं में घुस गया। राजनीतिक सत्ता केंद्रों को उसने अपने हाथ में ले लिया है, इसी कारण ग्रामीण जनता सभी लाभों से वंचित रह गयी है।

आजादी के कुछ ही वर्षों बाद आम जनता के सपने धीरे-धीरे टूटते चले गए। राजनीति व्यक्तिगत स्वार्थ के कीचड़ में डूबती चली गयी और नेता, लोकहित के बजाय स्व-हित की चिंताओं में डूबने लगे। जनता की आस्था टूटती चली गयी। आम जनता को इन क्रूर स्थितियों से विसंगतियों का शिकार होना पड़ा, जो पराधीन भारत में थी। देश का विशिष्ट वर्ग पहले भी शासक था और आज भी शासक है। मध्यवर्ग था तो छलांग लगाकर उच्चवर्ग में शामिल हो गया था। सम्पत्ति बेच-बेच कर खाता रहा। निम्न मध्यवर्ग किसान से मजदूर बन गया। भारतीय व्यवस्था ने आदमी को आर्थिक आधार पर दो वर्गों में विभाजित किया है। एक वर्ग है सुविधा भोगियों का, तो दूसरा साधनहीनों का। अपनी सुख-सुविधा के लिए सुविधायोगी वर्ग साधनयोगी वर्ग का शोषण करता आया है। आर्थिक विषमता की खाई दिन- पर-दिन बढ़ती जा रही है। धन का केंद्रीकरण हो रहा है। आर्थिक विषमता के कारण सामान्य आदमी की समस्याएँ बढ़ती ही जा रही हैं।

आजादी के बाद ही भारत में प्रजातंत्रीय शासन व्यवस्था का निर्माण किया गया है। सन् 1956 में सभी रियासतों का विलीनीकरण किया गया। नेताओं ने देश से समाजवाद की घोषणा की। जिसके लिए कुछ कदम थी- सीमा निर्धारण, आधारभूत उद्योगों का राष्ट्रीयकरण, भूमिसुधार कार्यक्रम आदि नियमों का निर्माण किया गया। इस कारण व्यवस्था में थोडा परिवर्तन तो आया पर समाजवाद का निर्माण नहीं हो पाया। आज भी किसी रूप में जमींदार और धनी वर्ग ही सत्ता पर हावी है। डॉ. अरुणा लोखंडे इस संबंध में कहती है "जमींदारी प्रथा के टूटने के बाद नई प्रथाएँ गाँव के आर्थिक स्थितियों को आकार देती रही। जमींदारी प्रथा के साथ सामंती चरित्र समाप्त हो गया लेकिन जनतांत्रिक और राजनीतिक पद्धतियों का लाभ एक ऐसे वर्ग को हुआ जो सामंती सेटअप से शोषित था और जो आज के जनतांत्रिक सेट-अप में अपने से भिन्न बहुसंख्यक जाति का शोषक बना हुआ था।"²

ग्रामीण आम जनता की स्थिति आज भी उसी तरह की है जैसे आजादी के पूर्व थी। सामंतवाद और राजतंत्र कब का मर चुका है। विदेशी दासता समाप्त हो चुकी है, हम स्वतंत्र हो चुके हैं। राजाओं के विशेषाधिकार छीने जा चुके हैं। लेकिन दूसरी ओर प्रजातंत्र के नाम पर फिर से सामंतवाद आम जनता पर थोपा गया। अशिक्षित शोषित और अंधविश्वासी जनता को साम, दाम, दंड भेद की नीति के आधार पर फुसलाकर वोट पाने की राजनीति ने नेताओं की एक फौज तैयार की है। जो सेवा के बदले मेवा खान में ही विश्वास करती है। बड़े नेता का अनुकरण छोटे नेता करते रहे और छोटे नेता का अनुकरण उससे छोटे नेता करते रहे हैं। अनुकरण की यह परम्परा भावों तक पहुँच गयी है। सभी पर सत्तासीन होने का भूत सवार है। आज सेवक बनने के लिए कोई तैयार नहीं है। वर्तमान नेता अपने क्षेत्र के सामंत होते हैं। प्रजा के कल्याण हेतु बनायी गयी सभी सरकारी तथा सरकारी संस्थाओं पर इनका एकाधिकार होता है। इनके कर्मचारियों को वे अपनी राजनीति का मोहरा बनाते हैं। नगर से लेकर संस्कृति ने हमारी प्रगति को रोक रखा है।

स्वतंत्रता के पश्चात् गांवों में पंचायती राज्य और प्रौढ़ मताधिकार प्रदान किया गया है। आज शहरों और महानगरों की अपेक्षा ग्राम राजनीति के प्रमुख केंद्र बन गये हैं। भारत की अधिकांश जनता चाहे अनचाहे ग्रामों में ही निवास करती है। इसीलिए भारतीय गांव राजनीतिक दलों के आकर्षण के केंद्र बन गये हैं। इन्हीं राजनीतिक दलों के कारण ही गांवों की राजनीति अधिक बदल गयी है। पंचायत राज का उद्देश्य ग्रामीण जीवन में प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना करना था किन्तु महानगरों की राजनीति से जुडकर अनेक विघटनकारी तत्व पंचायत राज में समाविष्ट हो गए हैं। इस ग्रामीण राजनीतिक का यथार्थ चित्रण समकालीन आंचलिक उपन्यासकारों ने किया है।

स्वतंत्र्योत्तर काल में सत्ता का स्थान राजनैतिक शक्तियों ने ले लिया। जमींदारी उन्मूलन के साथ ही पुराने जमींदार और रियासतदार या तो सक्रिय हो गये या उद्योगपतियों की श्रेणी में जा मिले। अन्ततोगत्वा नेता और पूंजीपति एक-दूसरे के पर्याय ही है। श्री शिवसागर मिश्र ने अपने उपन्यास जनमेयजय बचो में भारतीय समाज की सड़ी- गली समाजवादी व्यवस्था की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है। उपन्यास का जमींदार लक्ष्मीकांत दूरदर्शी है। वह भविष्य के बारे में सोचते हुए अपनी दादी से कहता है- "बात यह है दादीजी जमाना बदल रहा है। जमींदारी प्रथा खत्म की जा रही है। अब जात की जमीन भी किसी के पास एक सीमा से अधिक नहीं रहेगी। पिछड़े हुए लोगों और हरिजनों की अधिकार भावना उग्र से उग्रतर होती जा रही है। कुछ पता नहीं जमीन-जायदाद वालों का क्या भविष्य होगा। इसलिए अच्छा है कि हम लोगों के वर्ग के लोग राजनीति में सक्रिय हिस्सा लेकर आगे आये और सत्ता राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करो।"³

आजादी के बाद भूतपूर्व जमींदार मुख्य रूप से राजनीतिक के क्षेत्र में सक्रिय हो गये क्योंकि कांग्रेस में प्रवेश पाना आसान था तो दूसरी ओर गांवों में इनकी धाक जमी हुई थी कि जिस कारण आसानी से ये लाभ उठाते रहे। आजादी की लड़ाई के अंतिम चरण में ही पूंजीपति वर्ग स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय होने लगा था। चुनावी पद्धति के परिणाम स्वरूप राजनीति में अर्थ का अन्यसाधारण महत्व बढ़ गया। नेताओं ने देश में समाजवाद लाने की घोषणा की। इससे जमींदारी वर्ग घबराने लगा। बुद्धिमान जमींदारी वर्ग ने यह निश्चय किया कि वह शासन का सूत्र संचालन करेगा। धन किया। भगवतीचरण वर्मा के सब ही नचावत राम गुसाई के - जमींदार राधेश्याम जैसुखलाल खद्दर पहनता है। उसे देखकर लोगों को आश्चर्य होता है। खद्दर के बारे में पूछने पर वह कहता है "अरे हम लोगों को खद्दर पहनना पड़ेगा और कांग्रेस में शामिल होना पड़ेगा, युद्ध काल में हम लोगों ने जो करोडों रुपया जमा किया है। उसे बरकरार रखना है। आगे चलकर देखना यही कांग्रेस वाले मिनिस्टर बनेंगे और राज करेंगे और इनका हमला हम पैसे वालों पर होगा। सबके पहले हम लोग खुद कांग्रेसमैन बन जायें फिर देखें, यह कैसे हम पर हमला करते हैं।"⁴

आजादी के बाद अनेक जुल्मी प्रतिक्रियावादी अंग्रेज भक्त जमींदार अपनी अस्तित्व की रक्षा के लिए कांग्रेस में शामिल हो रहे थे और कांग्रेस में इनका सम्मान से स्वागत किया जा रहा था। जल टूटता हुआ में जमींदार महीपसिंह के संबंध में मास्टर सुग्गन कहते हैं। कौन नहीं जानता महीपसिंह को ? इस इलाके के जमींदार ब्रिटिश सरकार के पक्के हिमायती प्रजा के बडे दुश्मन । जनता सोचती थी कि आजादी मिलने पर इन देश द्रोहियों को फांसी मिलेगी, इनकी जमींन गरीबों में बांट दी जाएगी, मगर इन वर्षों में कुछ और ही तस्वीर सामने आयी। बाबू महीपसिंह कांग्रेस के मेम्बर हो गये नेताओं की निगाह में कांग्रेस के प्रिय व्यक्ति। यही नहीं जिला बोर्ड के सदस्य भी बन गये। पहले ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों को फलों की डालियाँ भेजते रहे हैं।"⁵

भारतीय शासन व्यवस्था ने ग्राम सुधार के लिए भूमि सुधार जैसे अनेक कार्यक्रम बनाकर उस पर अमल भी किया पर मूल सुधार कुछ भी नहीं हुआ। सामान्य किसान सामान्य ही बने रहे और पूर्व जमींदार बडे किसान बन गये। परती परिकथा उपन्यास का गुरुदास बाबू जमींदार नहीं किसान है। दस हज़ार बीघे जमीन है दो-दो हवाई जहाज रखते हैं। उपन्यास का भोला बाबू भी किसान है जिनके पास पंद्रह हजार बीघे जमीन है डेढ दर्जन ट्रैक्टर रखते हैं। पर यह बात भी सच्ची है कि वे जमींदार नहीं है।"⁶

आजादी के बाद ही नयी भारतीय सरकार ने जमींदारी प्रथा समाप्त तो कर दी थी पर आजादी के पूर्व ही जमींदारों ने "देशसेवक" का नया मुखौटा धारण कर लिया था। वे "पंचायती" चुनाव में अपने करतब दिखलाने लगे। कभी- कभी वे स्वयं चुनाव में खड़े रहकर या अपने आदमी को चुनाव में खड़े करके उनके माध्यम से जनता का खून चूस रहे थे। डॉ. शिवप्रसाद सिंह के अलग-अलग वैतरणी के करेता गांव का जमींदार "जैपाल" गांव का जनमत विरोधी होने के बाद भी स्वयं खडा रहकर चुनाव लडता है और अपने एक साथी सुखदेव राम को भी खडा करता है। वह स्वयं हार जाता 'है और सुखदेव जीत जाता है। डॉ. शिवप्रसाद सिंह कहते हैं "करेता गांव की पंचायत अब मालिकाने के चबूतरों पर नहीं होती। अब इन पंचायतों में ठाकुर जैपाल सिंह मुखिया के आसन पर नहीं बैठते। अब गांव के लोग राय और फैसले के लिए उनका मुँह नहीं ताकते। पर यदि कोई भी आदमी पिछले पांच-सात महीनों के भीतर करेता गांव में हुई वारदातों और उनके फैसले का लेखा-जोखा करें तो उसे यह जानकर बडी हैरत होगी कि एक भी फैसला ठाकुर के मन के खिलाफ नहीं हुआ। जाहिर तौर पर सुखदेव ही पंच था पर फैसले ठाकुर की मर्जी से होते थे।''⁷ श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी में वैद्यजी सामंती पात्र है। वे ग्राम प्रधान के चुनाव में स्वयं खडे न रहकर अपने विश्वासी सनीचर को खडे करते हैं और चुनाकर लाते हैं। सनीचर के माध्यम से गांव की सत्ता अपने हाथ में ही लेते हैं। सनीचर वोट मांगते समय जनता से कहता भी है कि "अरे भाई हम तो नाम भर के प्रधान हैं। असली प्रधान तो तुम वैद्य महाराज को ही समझो। बस यही मानकर चलो कि तुम अपना वोट वैद्यजी को ही दे रहे हो।"⁸

1920 के आस-पास गांधीजी ने आजादी की लडाई की छुरी अपने कंधों पर ले ली। गांधीजी ने सभी भारतीयों में देशप्रेम देखकर अंग्रेज, भारतीयों से डरने लगे। आजादी मिलना लगभग तय हो गया था। इस बदलते हुए माहौल को देखकर भारतीय जमींदारों और सेठ साहुकारों ने अपने आप को देशप्रेमी रूप में परिवर्तित करना शुरू किया। "गाँधीजी ने नमक आंदोलन में कलकत्ता, बंबई के सेठ- साहुकार भी भीतर ही भीतर गांधीजी का पक्ष ले रहे थे। उनको साफ-साफ लग रहा था कि स्वराज्य होने से सबसे ज्यादा भलाई उन्हीं की होगी। वे देख रहे थे सरकार झुकती है तो सुराज मिलता है। सुराज मिलता है तो अधिक से अधिक कल-कारखाने वे खडा कर सकते हैं। अभी जो देश को लूटकर सारी धन-सम्पदा अंग्रेज ले जाते हैं, वह सब सीधे उनके खजाने में आने लगेगी।"⁹

आजादी की लडाई के अंतिम चरण में जमींदार सेठ- साहुकार गांधीवादी तो बन गये पर उनके मालिकाना स्वभाव में परिवर्तन नहीं आया। वे जनता के चंदे पर विलासी जीवन बिताते रहे। स्वयंसेवकों से अपने पैर दबवाते रहे देशसेवक बनकर जनता को लूटते रहे। बलचनमा कहता है- "पच्चीस फरमाइश पूरी करते-करते मैं परेशान हो जाता। लीडरों में से जो जितने बडे खानदान के होते, उनकी आवाज में उतना ही मालिकाना गंध आती। उनकी अपनी-अपनी आदत थी। अपना-अपना स्वभाव था, अपनी-अपनी रुझान थी। किसी को चुनियायी हुई धोती चाहिए, तो किसी के बदन में घंटा भर मालिश होनी चाहिए। किन्हीं को ऊंगली मसलवाने का शौक था तो किन्हीं के माथे पर जवाकुसुम का तेल सोते समय मलना ही पड़ेगा।"¹⁰ बलचलमा आगे कहता है "बात यह भी भैया कि राधा राजा खानदान के थे। पढाई करते समय स्टेट का पैसा फूंकते रहे और अब पब्लिक का। चंदा आश्रम में काफी आता था, कोई उनसे हिसाब लेने वाले नहीं था। जैसे मर्जी आई वैसे खर्च किया।"¹¹

आजादी के पूर्व हमारे भारतीय नेताओं ने जनता को बहुत सपने दिखाये । रामराज्य निर्माण करने की बात कही गयी। लंबे-चौडे भाषण दिये गये। गांधीवाद लाने की बात कही गयी। रक्षक ही भक्षक बन गये। आजादी का फायदा धनवानों को ही हुआ। "जल टूटता हुआ" का सतीश कहता है जमींदारी टूट रही है। बाबू महीपसिंह जिला बोर्ड को सदस्य बनते हैं, सरपंची के लिए उठते हैं और वे हरिजन कहाँ जाय?¹²

गांधीजी का सपना था कि ग्रामों का विकास करना है। जब तक ग्रामों का विकास नहीं होगा तब तक देश का विकास नहीं हो पाएगा। इसीलिए गांधीजी ने देश सेवकों को आह्वान किया चलो गांवों की ओर। गांधीजी देश में रामराज्य लाना चाहते थे। जल टूटता हुआ का सतीश कहता है- "गांधीजी सत्ता, उद्योग, सुविधा सबका विकेंद्रीकरण कर गांवों के बिखेर देना चाहते थे लेकिन उनके उत्तराधिकारी नेता लोग गांवों को दूर कर केंन्द्रों को सजा रहे हैं। गांव वाले अपने-अपने स्वार्थ में धंसे हुए न कुछ और देखते हैं न सुनते हैं। और पढे-लिखे लोग आकर अपनी व्यापक राजनीति को छोड़कर गांव की राजनीति पकड लेते हैं।"¹³

आजादी के पूर्व जो अंग्रेजों का साथ देकर जनता को लूटते थे, वे ही आजादी के बाद राजनीति में आकर सत्ता के सिंहासन पर विराजमान हो गये। जनता के लुटेरे ही जनता के रक्षक बन गये। ऐसे लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है। गिरिराज किशोर लोग उपन्यास में कहते हैं- "अब मेरी समझ में आ गया कि मिनिस्टर का क्या मतलब होगा। स्वामीजी ने कहा था कि जमींदार लोग कांग्रेसी बन कर किसानों को ठगते फिरते हैं। मेरा माथा ठनकने लगा कि ये ही जब मिनिस्टर हो जायेंगे तो गरीबों की भलाई होगी और नुक्सान होगा तो बडे-बडे बाबू लोगों का।"¹⁴

आजादी के बाद यह सपना देखा गया था कि देश का सुधार करने के लिए प्रथम गाँवों का सुधार किया जायेगा। सभी सुविधायें ग्रामों में निर्माण की जायेगी लेकिन हुआ विपरीत ही, शहर बढते गये और गाँव छोटे-छोटे होते गये। कल कारखाने शहरों से शहर सजाया गया और गाँव की उपेक्षा की गयी। "बेचारे गाँव साधन विहीन और विपन्न होकर और भी गिरते जा रहे हैं और सरकार है कि उसकी दृष्टि शहरों की ओर लगी हुयी है। दिल्ली सजाई जा रही है, प्रांतों की राजधानियाँ सजाई जा रही है। सबकी दृष्टि गांवों की ओर से हटकर शहरों की ओर लग गयी है, सारी चमक-दमक निर्माण कार्य, सम्पन्नता, सुविधाएं, शहरों के हिस्से ही पडी है और विपन्नता, सुविधा हीनता गांवों के हिस्सों में।"¹⁵

जमींदारी प्रथा के टूटते ही टूटे हुए जमींदार अपने- अपने निजी स्वार्थ के लिए अपने अनुकूल विभिन्न राजनीतिक पार्टियों से जुड़ गये। गांवों में पंचायत और ग्राम सभाओं के माध्यम से विधानसभा और लोकसभा में प्रवेश कर केंद्रीय सत्ता तक पहुँच गये। आज सत्ता प्राप्त कोई भी व्यक्ति स्वयं को सामन्त से कम नहीं समझता। इन्हीं लोगों ने आजादी के बाद नये सिरे से जनता का शोषण आरंभ किया। हज़ार घोडों का सवार के बाबा कहते हैं। "मेरी इच्छा अतीत की सारी कुत्सित परम्पराओं व रूढियों की जड़ मूल के साथ उखाडना पडेगा। कभी-कभी ये विरासतें नयी व्यवस्थाओं को भी कुत्सित कर देती है और अवसर मिलने पर हड़प भी सकती है..... इसलिए याद रखो जब तक प्रकृति की सारी सम्पदा हड़प कर जब शोषण करने वाले राजाओं, ठाकुरों, सामंतों, जागीरदारों, सूदखोरों तथा विदेशी राक्षसों को नहीं समाप्त किया जायेगा तब तक नयी व्यवस्था स्थापित नहीं हो सकती। तुम सभी गरीबों को ईश्वर और धर्म के खोखले आतंक से मुक्त करो। उन्हें कहो कि सत्य, बुद्धि, प्रेम और ममता ही ईश्वर है। यही पर स्वर्ग है और यहीं पर नरक है। इसलिए तुम्हें मिलकर इसी धरती पर स्वर्ग बनाना होगा तभी यह संभव हो सकता है। तब तुम विदेशी सत्ताधारियों के शोषण से आम आदमी को मुक्त कर दोगे।"¹⁶

भारतीय आम जनता अति धार्मिक है। इसी धर्म भीरुता का फायदा लुटेरों ने उठाया है। वर्तमानकालीन नेता जनता की धार्मिक भावना को उकसा कर राजनीतिक लाभ उठाते हैं। "प्रजाराम" का प्रजाराम कहता है यहाँ की त्रासदी यह है कि यहां के लोग मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों के पन्ने जला सकते हैं। जबकि इन पवित्र ग्रंथों की मूल आत्मा व आदेशों पर कोई चले तो सबको मनुष्य ही सर्वोपरि लगेगा।"¹⁷

आजादी के 50 साल बाद भी हमारे नेता भारतीय सामान्य जनता को साक्षर नहीं बना पाये। आज भी लगभग 65 प्रतिशत जनता अनपढ़ है। अज्ञानी अनपढ़ जनता को साक्षर बनाने के लिए करोडों रुपया खर्च किया गया पर प्रामाणिकता से प्रयास न करने के कारण उचित लाभ नहीं हो पाया। देश में प्रजातंत्रीय शासन व्यवस्था लागू करने से पहले देश की जनता को साक्षर करना आवश्यक होता है। साक्षर जनता ही प्रजातंत्र को समझ सकती है। इसीलिए डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर ने कहा था "देश को आजाद बनाने के पहले देश की आम भारतीय जनता को साक्षर बनाओ, उनको सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करा दो। लेकिन उनकी बात अनसुनी कर दी गयी। इसी कारण आजादी के 50 साल बाद भी संपूर्ण देश साक्षर नहीं हो पाया। इसी संबंध में "दांव- पेच" उपन्यास में विश्वनाथ मिश्र कहते हैं "जिस देश को स्वतंत्र हुआ अट्टाईस वर्ष हो गये हो, और वहाँ चालीस- पैंतालीस वर्ष के आदमी को अपनी उम्र भी न मालूम हो तो देश का भविष्य क्या होगा?"¹⁸

"गांव ही भारत की सम्पत्ति है, अगर गांव का विकास नहीं होगा, उन लोगों में शिक्षा का प्रसार-प्रचार नहीं होगा, तब तक उनको स्वराज्य का अर्थ समझ में नहीं आता, स्वराज्य को कोई लाभ नहीं होता। जनता को स्वराज्य का अर्थ समझ में नहीं आ सका तो धूर्त, मक्कार और स्वार्थी लोग ही कुर्सी पर कब्जा कर लेंगे। धूर्त और मक्कारों के हाथ में अगर एक बार सत्ता आ गयी तो वे कभी स्वराज्य का अर्थ जनता को नहीं समझने देंगे और जनता जैसे भेडों के झुंड चरवाहे के डंडे के इशारे पर चलता है, वेसे ही काम करती रहेगी। मानवता का ह्रास हो जायेगा।"'¹⁹

संदर्भ संकेत :

1. योजना पत्रिका लेख डॉ.रा.सा. कोठीखाने नवंबर- 1995, पृ. 4-5

2. समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में जन चेतना - डॉ. अरुणा लोखंडे, पृ. 107

3. जनमेजय बचो - शिवसागर मिश्र पृ. 202

4. सबहि नचावत राम गुसाई - भगवतीचरण वर्मा - पृ. 39

5. जल टूटता हुआ - रामदरश मिश्र - पृ. 07

6. परती परिकथा - फणीश्वरनाथ रेणु - पृ. 31

7. अलग-अलग वैतरणी डॉ. शिवप्रसाद मिश्र, पृ. 42

8. राग दरबारी - श्री लाल शुक्ल पृ. 221

9. बलचनमा - नागार्जुन, पृ. 46

10. - वही - - पृ. 86

11. वही - पृ. 81

12. जल टूटता हुआ रामदरश मिश्र पृ. 168

13. वही - पृ. 223

14. लोग - गिरिराज किशोर, पृ. 143

15. जल टूटता हुआ रामदरश मिश्र, पृ. 10

16. हजार घोडों का सवार यादवेंद्र शर्मा, पृ. 159

17. प्रजाराम - यादवेंद्र शर्मा, पृ. 113

18. दांवपेच - विश्वनाथ मिश्र, पृ. 38

19. वही - पृ. 19

- वी. गोविन्द

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