उदय प्रकाश की कहानियों में सामाजिक यथार्थ

Dr. Mulla Adam Ali
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Social reality in the stories of Uday Prakash : Uday Prakash Ke Kahaniyo Mein Samajik Yatharth

Social reality in the stories of Uday Prakash

उदय प्रकाश की कहानियों में सामाजिक यथार्थ

समाज और साहित्य का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। जो कुछ समाज में घटित होता है, उसका प्रभाव साहित्य पर अवश्य पड़ता है। अतः साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। यथार्थ मानव जीवन की सच्ची अनुभूति है, जिसके द्वारा हम अपने जीवन में घटित घटनाओं एवं भावनाओं का अनुभव करते हैं। अपनी इंद्रियों के द्वारा समाज में होनेवाले सभी प्रकार के क्रियाकलापों का अनुभव करना एवं ज्यों का त्यों बहना यथार्थ है। सामाजिक यथार्थवाद का अर्थ होता है-समाज की वास्तविक अवस्था का यथार्थ चित्रण। साहित्य लेखन एवं जीवन का यथार्थ दरअसल एक ही कोण की दो भुजाएं हैं। अगर मन का भावात्मक रूप साहित्य है तो उसी का बुद्धिगत परिकल्पना यथार्थ है। युगीन यथार्थ को पहचानने के लिए जीवन के मूल स्त्रोतों से संबंध स्थापित करना पड़ता है। यथार्थ हमेशा समाज से जुड़ा रहता है। वह व्यक्तिगत, समाजगत और विश्व से संबंधित है। व्यक्ति का अस्तित्व समाज से और समाज का अस्तित्व विश्व से स्थापित होता है।

उदय प्रकाश समकालीन कहानी के महत्वपूर्ण कहानीकार हैं। वे एक बहु आयामी, बहुमुखी तथा विलक्ष्ण प्रतिभा के धनी माने जाते हैं। उनका जन्म 1 जनवरी 1952 में मध्य प्रदेश के शहडोल अब अनूपपुर जिले के गांव सीतापुर में हुआ। उनके पिताजी के नाम प्रेमकुमार सिंह था और माताजी का नाम गंगादेवी। बचपन में ही इनके माता-पिता की मृत्यु कैंसर से हो गई थी। इनकी प्रारंभिक शिक्षा सीतापुर गांव में हुई। सागर विश्व विद्यालय से बी.एस.सी. की स्नातक डिग्री प्राप्त की और इसी विश्व विद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि एम.ए. हिन्दी में प्राप्त की। लगभग चार वर्ष तक इन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय और इसके मणिपुर केंद्र में अध्यापन कार्य किया।

उदय प्रकाश को गांव और कस्बे बहुत प्रिय है। इनको कविता, कहानी लिखने की प्रेरणा अपने परिवार व परिवेश से मिली। “घर, दादा-दादी व गांव में सुने गये किस्से कहानी लिखने की तथा माँ द्वारा मायके से डायरी में नोटकर लाये गये कजरी, सोहर के गीतों को पढ़कर कविता लिखने की रुचि पैदा हुई।"¹

समाज के शोषित, उत्पीड़ित, उपेक्षित व्यक्तियों के प्रति उदय प्रकाश की गहरी सहानुभूति है। कहानियों में अधिकतर पात्र व्यवस्था में प्रयुक्त किए गए लहूलुहान लोग हैं। सामाजिक विद्रूपता और उससे प्रभावित सर्वहारा की निर्मम तस्वीर हमें उनकी कहानियों में दिखाई देती है। वे सारे चरित्र मानवीय संबंधों के क्षरण और विघटन को गंभीरता से रेखांकित करता है। उनकी कहानियों में निम्न मध्य वर्ग की सच्चाई से अवगत होकर करुणा पैदा नहीं होती, बल्कि इस विगलित व्यवस्था के प्रति आक्रोश फूटता है। उनकी कहानियाँ समकालीन यथार्थ और वर्तमान समाज के काले चेहरे की तीव्र भर्तसना है। वे लगातार अमानवीय होती जा रही समाज के खिलाफ मानवीय करुणा, संवेदना का आग्रह करते हैं।

उनके "मौसाजी" कहानी में जिंदगी की समस्याओं से घबराकर मानसिक रूप से अपने लिए एक काल्पनिक संसार खड़ा कर उसमें जीने की मध्य वर्गीय कोशिश और बेचारगी को उदय प्रकाश ने इस कहानी में दर्ज किया है। अपने निम्नवर्गीय स्थिति से मुक्ति पाकर ऊपर पहुंचने की कोशिश में अंततः अकेले पड़ जाने की त्रासदी है। पूरी कहानी में मौसाजी एक दयनीय पात्र बन जाते हैं। पछीतटोला गांव का आदमी खरी भाषा में उनको समझाता है-"मौसाजी आप जहां, जिस हालत में रहते हैं उसे जानिए। उसे समझने की कोशिश कीजिए। आखिर अपनी औकात का अंदाजा तो आदमी को होना चाहिए अगर आप अपनी स्थिति को नहीं पहचानोगे तो पूरी जिंदगी गलत हो जाएगी। आपको अपने लिए कुछ वास्तविक ढंग से सोचना चाहिए। हो सकता है, आगे चलकर स्थिति और बदतर हो जाएं। मौसाजी आप एक सीधे-सादे गरीब आदमी हैं, जिसके पास मेहनत की आखरी पूंजी भी नहीं बची है। आप एक बेहद गए-गुजरे बूढ़े आदमी हैं। अगर लड़कों के मन में मकान के लिए कोई लोभ जागा तो आप फूटपाथ पर भीख मांगते नजर आएंगे। मौसाजी होश में आइए।"² ऐसी ही त्रासदी को 'दद्दू तिवारी : गणाधिकारी' में गहरा किया गया है। दोनों कहानियों में व्यंग का उपयोग किया गया है।

'पुतला' कहानी में सामंती प्रवृत्ति, इस व्यवस्था से पीड़ित, शोषित-बेबस निम्न वर्ग, सम्पन्न वर्ग की छद्म और बंधुआ मजदूर प्रथा, बेगारी खोखली प्रदर्शनप्रियता को रेखांकित किया है। यह कहानी प्रेमचंद की 'सवा सेर गेहूं' और 'सद्गति' के मेल से बनी कहानी है। "सौ रूपये के पीछे वह बाईस वर्ष से अपना हाड़ तोड़ता रहा, पसीना बहाता रहा, दिन- रात चौधरी के खेतों के साथ जूझता रहा, ईंट थापता रहा, ...और आखिर निचुड़-निचुड़ कर मर गया। लेकिन मूलधन बना ही रहा। सूद तक अदा नहीं हुआ। दद्दा चौधरी ने जिस तरह तुम्हारा हाड़ गलाया है, मैं उसका पूरा दर्द जानता हूं दद्दा। पूरा किस्सा मुझे मालूम है। किशानू के पेट में कोई खाली गुब्बारा ऊपर उठा और छाती तक आते-आते फूट गया। उसकी आंखे पनीली हो गई थी।"³ यह कहानी गांव के मजबूत और सूदखोर किसान का चेहरा बेनकाब करती है और शोषण के प्रतीक के रूप में किशानू जो पुतला बनानेवाला एक कारीगार है। रावण और कुंभकर्ण के पुतलों में उस बड़े किसान और उसके छोटे भाई का चेहरा बना देता है।- "अनार झरझराकर जलाने लगा तो तेज रोशनी हुई। रावण का चेहरा ऊपर की ओर ताना हुआ था। पूरा चेहरा दिख गया एकदम साफ। कहीं कोई बाल बराबर फर्क नहीं। जनता में काना फूसी शुरू हो गयी। अरे! देखो, यह तो चौधरी भीकमदास का पुतला मालूम होता है। कमाल का बनाया है किशानू पासी ने।"⁴ इस प्रकार उदय प्रकाश किशानू को केंद्र में रखकर शोषण और अत्याचार की सनातनता को खींचकर जैसे सब को आगाह कर देता है।

उसी तरह जमींदारी प्रथा, सामंती शोषण, अमानवीय यातना, मानसिक यंत्रणा से तिल तिल कर मरते शोषित उत्पीड़ित व्यक्ति की कारुणिक कहानी है-'हीरालाल का भूत'। इस कहानी में उदय प्रकाश ने हीरालाल के माध्यम से विवश, पीड़ित साधनहीन व्यक्ति की बेचारगी को सिद्धहस्तता से उजागर किया है। कहानी का मुख्य पात्र हीरालाल ठाकुर हरपाल सिंह के घर में गुलाम के समान काम करते हैं। जी तोड़ परिश्रम करने पर भी भर पेट भोजन, वस्त्र एवं दवा प्राप्त करने में वह असमर्थ है। कहानी के अंत में कुत्ते काटने पर दवा खरीदने के लिए पैसा न होने के कारण कुत्ते के समान भौंक-भौंक कर मरनेवाला हीरालाल समकालीन सामाजिक चित्रण का प्रतिरूप है।

उदय प्रकाश अपने एक और महत्वपूर्ण कहानी 'तिरिछ' कहानी में 'तिरिछ' के रूप में आनेवाला दुःस्वप्न ही नगर की संवेदनहीनता को व्यक्त करता है। इस कहानी में पिता रामस्वारथ प्रसाद भूतपूर्व स्कूल के हेडमास्टर, कोई पागल व्यक्ति नहीं है। 'पिता' को घर लौटते समय रास्ते में 'तिरिछ' काट लेता है, जिसके बारे में लोक प्रचलित धारणा है कि तिरिछ का काटा आदमी बच नहीं सकता क्योंकि तिरिछ न केवल जहरीला जंतु होता है बल्कि काटने के बाद वह पेशाब करके लौट जाता है, मतलब होता है कि काटे हुए आदमी की मृत्यु निश्चित है। पिता को शहर से बहुत डर लगता है। भरसक वे जाने से कतराते हैं। किंतु घर नीलाम हो जाने की चिंता उन्हें शहर जाने के लिए विवश कर देती है ताकि समय पर पहुंचकर वे अदालती औपचारिकताओं को समय से निपटा सकें। पिता अभी शहर पहुंचे, इसके पहले रास्ते में ही उनकी त्रासदी की बीज पड़ जाती है। तिरिछ के जहर से उनको बचाने के लिए गांव के ही एक पंडित जी जिन्हें आयुर्वेद में दखल रखने का भ्रम है, उन्हें धतूरे का बीज पीसकर पीला देते हैं और शहर पहुंचते-पहुंचते वह अपना असर दिखाना लगता है। पिता को प्यास लगती है किन्तु विडंबना यह है कि अपने संकोची स्वभाव और शहरी नीति-रीति से अपरिचित होने के कारण वे कहीं पानी मांगकर नही पी पाते। धतूरे के काढ़े का पूरा असर हो जाने के बाद वे अपनी चेतना खो बैठते हैं और लोग उन्हें पागल समझकर, अनेक आरोप लगाकर पीट- पीट कर मार डालते हैं।

इस कहानी में उदय प्रकाश ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि 'तिरिछ' का काटा मनुष्य बच भी जाए किन्तु शहर की संवेदनहीनता से वह नहीं बच सकता। वह 'तिरिछ' के जहर से ज्यादा खतरनाक होता है। इस कहानी के माध्यम से लेखक परंपरा और आधुनिकता, पुराने और नये मूल्यबोध को चित्रित करना चाहता है। 'छप्पन तोले का करधान' कहानी विशुद्ध गांव और वहां के लोक जीवन की कहानी है। कहानी में माँ, पिता, चाचा-चाची, बुआ आदि के चरित्र अपने संवादों के जरिए बहुत साफ खुलता है। इस कहानी में उदय प्रकाश घनघोर यातनादायी व्यवहार को बूढ़ी दादी के द्वारा व्यक्त करते हैं। 'छप्पन तोले का करधान' कहानी में कहानी की बुढ़िया के साथ घनघोर यातनादायी व्यवहार करनेवाला परिवार, अपने लालच को संताप में बदलता है, देखता है, और अभिशप्त होने की दशा की ओर बढ़ता है। आर्थिक विपन्नता और अभावपूर्ण जीवन व्यक्ति की सामान्य मानवीय चेतना को शातिर किस्म के कांड्यापन और निर्मम स्वार्थवाद को कैसे जन्म देता है-इसी सच को 'प्रेमचंद' ने 'कफन' में बताया था। 'छप्पन तोले का करधान' इस वास्तविकता को मार्मिकता के साथ दिखाती है। 'कफन' में कंगाली से टूटे निम्न वर्ग के चरित्र थे, पर यहां निम्न वर्ग की भौतिक लालसाओं को दिखलाया गया है।

इस कहानी को लेकर डां. मीनाक्षी पाहवा लिखती हैं- "उदय प्रकाश की 'छप्पन तोले का करधान' कहानी अमानवीयता के धरातल पर रची गई आम- आदमी के मन की पीड़ा है। जहां कहानीकार अपनी गहरी संवेदना के चलते अमानवीय स्थितियों का एक-एक कर खुलासा करता है। उस अमानवीयता का, जिसके पीछे मनुष्य की व्यावसायिक वृति क्रियाशील है। इस कहानी का प्रत्येक पात्र अलग व्यवहार करता दिखाई पड़ता है/ जिसमें किसी एक की भी हमदर्दी दादी के प्रति नहीं है।"⁵

उदय प्रकाश की 'दिल्ली की दीवार' कहानी भी समकालीन राजनीतिक और प्रशासनिक विद्रूपताओं पर प्रहार करती है। इसके माध्यम से कहानीकार ने राजनीति लालफीताशाही सरकारी तंत्र से जुड़े दलालों, माफियों, उद्योगपतियों, अपराधियों, आदि सभी को बिकाऊ की श्रेणी में खड़ा किया गया है।

समाज में गरीब तबके के लोगों को धनवानों द्वारा किस प्रकार कुचला और दबोचा जाता है। इसका यथार्थपरक चित्रण 'मेंगोसील' कहानी में किया गया है। महाराष्ट्र के एक गांव में रहनेवाली गरीब अनपढ़ शोभा को उसके पति की मौजूदगी में इतनी शारीरिक और मानसिक पीड़ायें दी जाती है कि वह अपना नया रास्ता चुनाने के लिए मजबूर होकर सहृदय नौजवान चंद्रकांत के साथ भाग खड़ी होती है और एक नई जिंदगी की शुरुआत करती है। इस कहानी में सामूहिक वीभत्स यौनाचार का भी वर्णन किया गया है।

उदय प्रकाश की 'मोहनदास' कहानी को सामाजिक सरोकार के धरातल पर सबसे उत्कृष्ट कथा कहा जाता है। यह कहानी समकालीन सामाजिक परिवेश में प्रशासन और सरकारी तंत्र की उस कुव्यवस्था का कच्चा चिट्टा परत-दर-परत खोलती चली जाती है। 'मोहनदास' शीर्षक कहानी में इसके केंद्रीय पात्र मोहनदास के इर्द-गिर्द घूमती कहानी में समाज पूरी हलचल के साथ डोलता नजर आता है। और चारोंतरफ आरक्षण की आग में गरीबों के हक को ताकतवार लोग कैसे हथिया लेते हैं इसका ज्वलंत उदाहरण है 'मोहनदास'। हालात और आर्थिक तंगी की स्थिति मनुष्य को किस हद तक कारुणिक अवस्था में ले जाती है। इससे हम मोहनदास के जीवन की सह यात्रा में रूबरू होते हैं। -"मोहनदास ने जल्द ही जान लिया कि स्कूल कालेज के बाहर की असली जिंदगी दरअसल खेल का एक ऐसा मैदान है जहां वही गोल बनाता है जिसके पास दूसरे को लंगड़ी मारने की ताकत होती है और यह ताकत सोज़-सिफारिश, जोड़-तोड़, रिश्वत, संपर्क, जालसाजी, वगैरह तमाम ऐसी अवैध और अनैतिक चीजों से बनती है जिसमें से एक भी मोहनदास की पहुंच के भीतर नहीं है।"⁶

अंत में मोहनदास की स्थिति इतनी दयनीय और लाचारगी भरी हो जाती है कि मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी चीज उसकी पहचान ही मोहनदास के जीवन की सबसे बड़ी फांस हो जाती है। कहानी के नायक मोहनदास का नाम गांधी के नाम से साम्य रखता है। कहानीकार उनकी याद दिलाता है। साथ ही मोहनदास का गांव पुरबनरा भी पोरबंदर से ध्वनि-साम्य रखता है। इन सबके द्वारा उदयप्रकाश ने हमारे सामने गांधी द्वारा समाज में दलित वर्ग को बराबरी का दर्जा देने और लिए सुनहरे भविष्य की याद दिलाई है। उन सपनों का देश आजाद होने के इतने वर्षों बाद भी क्या हश्र हो रहा है, यह भी देखने को मिलता है। उदयप्रकाश ने इस कहानी के बीच-बीच में टिप्पणियों का भी प्रयोग किया है जो कहानी को समकालीन गतिविधियों से जोड़ती हुई और भी यथार्थपरक बनाती हैं। 'मोहनदास' कहानी के माध्यम से कहानीकार ने पूंजी और सत्ता के खिलाफ अपना प्रतिरोध समाज के सामने रखा है।

इससे स्पष्ट हो जाता है कि उदय प्रकाश ने अपने कथा साहित्य में ग्रामीण और शहरी जीवन की सामाजिकता को पूर्ण मार्मिकता, सजीवता एवं यथार्थ के साथ चित्रित कर अपने विस्तृत एवं व्यापक साहित्यिक दृष्टिकोण को पाठकों के सामने रखा है।

संदर्भ सूची ग्रंथ :

1. उदय प्रकाश - तानाबाना पत्रिका

2. उदय प्रकाश - दरियाई घोडा (मौसाजी) -पृ.सं - 40

3. उदय प्रकाश - दरियाई घोडा (पुतला) -पृ.सं - 60-70

4. उदय प्रकाश - दरियाई घोडा (पुतला) -पृ.सं - 74

5. डॉ. मीनाक्षी पाहवा - समकालीन हिन्दी कहानी  -पृ.सं - 107

6. उदय प्रकाश - मोहनदास  -पृ.सं -14

एन. गंगाराजू

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