समसामयिक सामाजिक परिदृश्य और प्रेमचंद

Dr. Mulla Adam Ali
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Contemporary Social Scenario and Prem Chand

Contemporary Social Scenario and Prem Chand

प्रेमचंद जी के उपन्यासों में समाज दर्शन : 31 जुलाई प्रेमचंद जन्मदिन पर महान साहित्यकार की याद में ये लेख, प्रेमचन्द के उपन्यासों में समसामयिक सामाजिक समस्याएँ। प्रेमचंद को उपन्यास सम्राट कहा जाता है इसका कारण उनकी उपन्यासों की लोकप्रियता, गोदान, गबन, सेवासदन, कायाकल्प, प्रतिज्ञा, निर्मला, मंगलसूत्र, रंगभूमि, प्रेमाश्रय, कर्मभूमि आदि उनके प्रमुख उपन्यास है। उनके उपन्यासों में यथार्थ जीवन चित्रण देखने को मिलता है, साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन न मानकर, पाठकों को सोचने के लिए मजबूर करती है उनकी रचनाएं।

समसामयिक सामाजिक परिदृश्य और मुंशी प्रेमचन्द

बीसवीं सदी के हिन्दी और उर्दू कथा साहित्य पर चर्चा तभी पूरी हो सकती है जब उसमें प्रेमचन्द का उल्लेख शामिल हो। आप प्रेमचन्द से सहमत या असहमत हो सकते हैं पर इन्हें इन्कार नहीं सकते। आप प्रेमचन्द के पूर्ववर्ती या परवर्ती और परवर्ती लेखन पर जब भी वात करेंगे तब प्रेमचन्द को छोड़कर नहीं कर सकते। आलोचकों ने उनके पूर्ववर्ती कथा शिल्प, कथा भाषा, कथा भूमि और कथा दृष्टि पर अपने विचार प्रकट किए हैं। प्रेमचन्द की रचनाएँ तत्काली न होते हुए भी समकालीन हैं इसकी वजह यह भी है कि हमारी सामाजिक व्यस्था अब भी वैसी ही है जड़ लगभग जस का तस, ठस।

प्रेमचन्द ने अंग्रेज़ी राज की गुलामी के खिलाफ मुक्ति के लिए जनता के संघर्ष को चित्रित किया है। तत्कालीन शासन के शोषण के जो तौर तरीके थे, समसामयिक परिदृश्य में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद वे तरीके कुछ बदले हुए लग रहे हैं, वह इस रूप में कि अब अपनी ही सरकार हम पर जुल्म करती है। गुड़गाँव की घटना इसका ताजा उदाहरण है। समसामयिकता को ध्यान में रखें तो यह स्पष्ट है कि अब दलालें, ठेकेदारों और सत्ता के बिचौलियों की भूमिका अधिक पेचीदी और कपटपूर्ण हुई है और उनका सलीका भी बदला है।

गाँधी जी का अंधानुकरण, हिन्दू राष्ट्र वादियों के हिन्दू और क्रांतिकारियों की अवधारण से बंधा न था। स्वाधीनता के विषय में जो उनकी सोच थी उसमें राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वाधीनता शामिल थी। वे उपनिवेशवाद के अतिरिक्त पूँजीवादी शोषण, संकीर्ण राष्ट्रवाद और जाति व्यवस्था से मुक्ति के पक्षपाती थे ताकि देश के शोषित-पीड़ित, दलित, गरीब और स्त्रियाँ भी आजादी महसूस कर सकें।

सच तो यह है कि प्रेमचन्द प्रेमचन्द रटते हुए अपने घीसू और माधव पूरी-हलवा का जोगाड़ पा रहे हैं। उन्होंने कलम को जन प्रतिष्ठा दिलायी है और कथा साहित्य को रजवाड़ों और अमीरजादों के महलों के तिलिस्म और ऐव्यारी से खींचकर महाजनी सभ्यता और अमीर असभ्यता का पर्दाफाश किया है।

प्रेमचन्द ने सामाजिक 'भेदभाव' पर तीखे प्रहार किए हैं। भेदभाव के विविध पक्ष और स्वरूप उनकी सख्त आलोचना की जद में रहे हैं। प्रेमचन्द स्वराज्य के साथ ही सुराज के आकांक्षी थे। कथनी और करनी का अन्तर उन्हें अभीष्ट न था। 'गबन' में सुराज के संबंध में उठाए गए प्रश्नों में व्यक्त आशंकाओं को हम समसामयिक सामाजिक परिदृश्य में प्रत्यक्षः देख-भुगत रहे हैं। सत्ता आज भी उनके सुराज के विषय में उठाए गाए प्रश्नों का उत्तर देने में बंगले झाँक रही है।

ऐसा नहीं है कि गाँव में कोई बदलाव नहीं आया है। हालांकि अब भी दवे कुचले हुए लोगों में अशिक्षा और गरीबी तो है। पर उसके प्रतिशत में सुधार आया है। प्रेमचन्द लोकमन के सफल चितेरे थे और उनकी कथा भाषा लोककथा शिल्प में ढली है जो ग्राम्य मुहावरेदारी और कहावतों से गुंथकर पाठकों के मन में खुशबू और ताजगी भरती है जहाँ विचार और संवेदना दोनों के लिए पर्याप्त अवसर है।

ग्राम्य जीवन की पहचान और पड़ताल उनकी रचनाओं में इस कदर व्याप्त है कि उसमें पशु पक्षी भी रंभाते, भौंकते और चहकते मिलते हैं। 'दो वैलों की कथा', एक कुत्ते की कहानी, पूस की रात, गोदान और आत्माराम जैसी कहानियाँ इसके उदाहरण है। कृषि संस्कृति वाले इस देश में प्रेमचन्द ने मजदूरों और किसानों की दीन दशा का जो हृदय स्पर्शी चित्र उपस्थित किया है वह विश्व साहित्य में किसी भी श्रेष्ठतम रचनाकार की कृति के समकक्ष है। डॉ. नामवर सिंह ने ठीक ही कहा है कि प्रेमचन्द के उदार, सर्तक, देशभक्त और प्रेमपूर्ण मन में साम्प्रदायिकता के लिए कोई जगह नहीं थी और उन्होंने अपनी कहानियों, लेखों और टिप्पणियों के द्वारा इसका विरोध किया। सन् 1927 में जब डॉ. अम्बेडकर ने जातिवादी भेदभाव के विरुद्ध जनांदोलन खड़ा किया तो प्रेमचन्द ने अनेक ऐसी कहानियाँ लिखीं जो उनको समर्थन दे रही थीं। आज दलित विमर्श की चल रही आंधी में प्रेमचन्द की कोई भूमिका नहीं देखने वाले शुतर्मुग साहित्यकारों की समझ पर अफसोस ही जताया जा सकता है। आज के स्तर पर प्रेमचन्द अधिक तेजस्वी, संघर्षशील और साहसी हैं। प्रेमचन्द ने जैसे दलितों के प्रश्न को भारत की स्वाधीनता से जोड़ा था वैसे ही स्त्री की स्वाधीनता को भारतीय समाज की स्वाधीनता से जोड़ा था।

आज के पूंजीवादी भूमंडलीकरण की आंधी और उत्तर आधुनिक बौद्धिकता के हृदयहीन परिवेश में जब चतुर और अवसरवादी लेखक जनता के प्रति सहानुभूति और अपनी जड़ों से अलग हो रहे हैं, प्रेमचन्द की जरूरत साहित्य और समकालीन सामाजिक परिदृश्य में अधिक शिद्दत से महसूस की जानी चाहिए। साहित्य में जन और जनतंत्र की गुंजाइश बचाए रखने के लिए प्रेमचन्द हमारे लिए कल जितने जरूरी थे आज उससे ज्यादा ही जरूरी हैं। क्या कथाकारों की नयी जमात इसे कृतज्ञतापूर्वक कबूल करेगी?

- निर्मल मिलिंद

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